Thursday, October 28, 2010

यहाँ एक शब्द है बेचैनी

मित्रो ये एक पुरानी कविता है...१९९८ की...जो मेरे दूसरे संग्रह "शब्दों के झुरमुट में" शामिल है।
यहाँ
हवा कुछ उड़ाने के लिए
बेचैन है
और पानी कुछ बहाने के लिए

यहाँ
पत्थर कुछ दबाने के लिए
बेचैन है
और मिटटी कुछ उगाने के लिए

यहाँ
पाँव कहीं जाने के लिए
बेचैन हैं
और स्मृतियाँ आने के लिए

यहाँ
चिड़िया दाने के लिए
बेचैन है
और वंचितों का मन
कुछ पाने के लिए

यहाँ
एक शब्द है बेचैनी
जो
सारे शब्दों पर भारी है

छुपा हुआ
शब्दों के झुरमुट में
एक और शब्द है यहाँ
कविता

जो पहले शब्द से बना है
और
उसका आभारी है।
***

Sunday, October 24, 2010

बुढापे की कविता - चयन, अनुवाद और प्रस्तुति: यादवेन्द्र

मैं यहाँ दो छोटी अमेरिकी कवितायेँ दे रहा हूँ जिन दोनों का सामान विषय है---बुढ़ापा....पर इन दोनों में इस विषय के साथ खेलने में अद्भुत भिन्नता है... कोई महानता इन कविताओं में नहीं है पर हमारे समाज से अलग समाज की कवितायेँ हो कर भी ये ऐसा बहुत कुछ कह जाती हैं जो हमारे मन में दबा हुआ रह जाता है..इनको कह पाने का साहस हमारे यहाँ थोड़ा कम दीखता है.

छोटा बच्चा और बूढ़ा - शेल सिल्वरस्टीन

छोटा बच्चा बोला:
मुझसे छूट जाता है चम्मच
कई बार खाते खाते...
बूढ़े ने हाँ में हाँ मिलाया:
कोई बात नहीं
मुझसे भी होता है ऐसा ही.
बच्चे ने धीरे से फुसफुसा कर कहा:
अक्सर मैं गीली कर लेता हूँ अपनी चड्ढी..
ये तो मुझसे भी हो जाता है
मुस्कुरा कर बूढ़ा बोल पड़ा.
फिर बच्चा बोला:
आये दिन बात बात पर मुझे छूट जाती है रुलाई..
बूढ़े ने सिर हिलाया, ये मुझ से भी तो हो जाता है बच्चे.
पर सबसे बुरी बात है कि बड़े लोग
मेरी बात गौर से नहीं सुनते
बच्चे ने कुछ सोच कर कहा.
मैं खूब समझ सकता हूँ तुम्हारा दर्द मेरे बच्चे
एकदम से बूढ़ा बोल पड़ा..
और बच्चे ने अचानक महसूस की गर्माहट
अपने हाथों पर झुर्रियों भरी हथेलियों की.
- - -
अंकल शेल्बी के नाम से अमेरिकी बच्चों के बीच प्रसिद्ध शेल सिल्वरस्टीन (1930 -1999 )
बाल साहित्यकार ,कवि, गायक और गीतकार,संगीतकार,कार्टूनिस्ट और पटकथा लेखक थे...इनकी दर्जनों पुस्तकें तो प्रकाशित ही हैं,बड़ी संख्या में संगीत एल्बम निकले हैं...प्रतिष्ठित ग्रामी पुरस्कार तो मिला ही है,ओस्कर के लिए नामित भी हुए. 20 भाषाओँ में उनका साहित्य अनूदित हुआ है और 2 करोड़ किताबें बिक चुकी हैं. उनकी लोकप्रियता का आलम ये है कि मृत्यु के बाद भी कविता संकलन दुनिया के बड़े प्रकाशक छाप रहे हैं.
****


यहाँ बस इसी वक्त - ग्रेस पेली

मैं यहाँ बाग़ में बैठी हंस रही हूँ
बुढ़िया...जिसके बड़े बड़े स्तन झूल रहे हैं
पर चेहरा करीने से निखरा हुआ है.
ऐसा हो कैसे गया ???
पर ठीक ही तो हुआ
मैं चाहती भी यही थी
की आखीर में बनूँ पुराने चाल ढाल वाली
एक औरत
बड़े घेर वाले स्कर्ट से ढंकी रहे
जिसकी मोटी मोटी जांघें
गर्मी में चूता रहे पसीना
और उधम मचा मचा के मेरी गोद
गुलजार कर दें मेरे नाती पोते.
मेरा बुड्ढा कुछ दूर सामने दिखाई दे
बिजली के मीटर वाले से बतियाता हुआ
कि देखो कितना बदल गया ज़माना
अब तो बिजली के मायने हो गए
सीधे सीधे तेल और युरेनियम
और भी दुनिया भर की बातें..
मैं पोते से कहती हूँ
जाओ जा कर अपने दादा से बोलो
कि मिनट भर के लिए आ कर यहाँ बैठ जाएँ
मेरे बगल में
अब सबर नहीं होता पल भर भी
यहाँ बस इसी वक्त
मैं चूमना चाहती हूँ
उनके कोमल लपलपाते हुए होंठ...
- - -
ग्रेस पेली (1922 -2007 ) अमेरिका की मशहूर कथा लेखिका,कवि और सामाजिक कार्यकर्ता थीं..अपने समाजवादी विचारों के लिए जार के रूस से निष्कासित माँ पिता की बेटी पेली बचपन में ही अमेरिका आ गयीं.शुरूआती तीस सालों में कवितायेँ लिखीं,कई कविता संकलन प्रकाशित और प्रशंसित.बाद में कहानियों की तरफ उनका झुकाव हुआ और आम परिवारों की स्त्रियों के दुःख दर्द उनकी रचनाओं में खूब बोलते हैं.पेली को साहित्य के कारण जितना जाना जाता है उस से ज्यादा युद्ध विरोधी प्रदर्शनों के लिए जाना जाता है...वियतनाम से ले कर इराक युद्ध तक.इसी कारण उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी.अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे स्तन कैंसर से पीड़ित रहीं।
भारत भाई द्वारा किये गए संशोधन के अनुसार -
ग्रेस पेली के परिचय में आपने लिखा है कि वे बचपन में ही अमेरिका आ गई थीं. पर मेरी जानकारी यह है कि उनका जन्म अमेरिका (ब्रोंक्स, न्यू योंर्क सिटी) में ही हुआ था. विकिपीडिया पर उनका परिचय भी इस बात की तस्दीक करता है.
http://en.wikipedia.org/wiki/Grace_Paley

Thursday, October 21, 2010

सिर्फ हम : एलिस वाकर


सिर्फ हम कर सकते हैं सोने का अवमूल्यन
बाज़ार में
उसके चढ़ने या गिरने की
परवाह न करके.
पता है, जहाँ भी सोना होता है
वहां होती है ज़ंजीर
और आपकी ज़ंजीर अगर है
सोने की
तो और भी बुरा.

पंख, सीपियाँ
समुद्री कंकड़-पत्थर
सब उतने ही दुर्लभ हैं.

यह हो सकती है हमारी क्रान्ति:
जो बहुतायत में है उसे भी
उतना ही प्यार करना
जितना दुर्लभ से.

********
उपन्यास 'दि कलर पर्पल' एलिस वाकर का मैग्नम-ओपस है जिसके लिए उन्हें पुलित्ज़र पुरस्कार मिला था. इस उपन्यास पर स्टीवन स्पिलबर्ग ने इसी नाम की एक फिल्म भी बनाई थी. अनेकों कविता संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हैं. नवीनतम कविता संकलन 'हार्ड टाइम्स रिक्वायर फ्यूरियस डांसिंग' हाल ही में आया है. कालों के नागरी अधिकारों के लिए 1963 में मार्टिन लूथर किंग जूनियर के साथ वाशिंगटन पर मार्च करने से लेकर 2003 में अन्य साथी लेखकों-बुद्धिजीवियों के साथ व्हाईट हाउस के सामने युद्ध विरोधी प्रदर्शन करने में शामिल रही हैं.

Sunday, October 17, 2010

एक काले कुत्ते की कविता प्रणय जी के लिए


आप तो नाहक ही डर गए
मैं तो अभी गुस्से में नहीं मुहब्बत में झपटता हूँ हर आने वाले पर उसकी अंगुलियां अपने मुंह में रखकर
अपने दांतों के हल्के दबाव से परखना चाहता हूँ
उनकी मज़बूती
त्वचा का स्वाद मैं महसूस करना चाहता हूँ अपनी अबाध बहती लार में लपेटकर
जान-पहचान बढ़ाने का यह मेरा तरीका है
आप तो .....

मेरा कोई मालिक नहीं...जिन्हें मालिक कहा जाता है मेरा वो तो बब्बा, मम्मा और दद्दा हैं मेरे
मेरी तरह कभी आंखों में देखिए उनकी

ये कुत्ता क्या होता है प्रणय जी?
बब्बा कहते हैं कभी-कभी नाराज़गी में मुझे 'कुत्ता है साला'
और ये साला क्या होता है प्रणय जी?
नाराज़गी क्या होती है मैं पहले नहीं जानता था पर अब जानता हूँ जब बब्बा बात नहीं करते मुझसे
देखते नहीं मुझको देखते भी हैं तो बहुत खुली आंखों से
वरना तो प्यार में
उनकी आंखें कभी खुलती ही नहीं पूरी

प्यार क्या होता है मैं नहीं पूछूंगा आपसे
आप चाहें तो पूछ सकते हैं मुझसे

बब्बा आपको कहते हैं प्रणय जी इसलिए मैं भी कह रहा हूँ प्रणय जी और बब्बा जब कहते हैं प्रणय जी तो उनकी आंखों में भी वैसी ही मुहब्बत होती है जैसी मुझमें जब मैं झपटता हूँ आप पर
बब्बा झपट नहीं सकते हैं इसलिए कहते हैं प्रणय जी शब्दों के हल्के दबाव से
वे भी परखना चाहते हैं
आपकी मज़बूती

ये अज्ञेय क्या होता है प्रणय जी?
बब्बा जब कहते हैं प्रणय जी किसी से बात करते हुए फोन पर तो वो अज्ञेय भी कहते हैं
कभी-कभी मैं जब अलस काली रात के बेहद दार्शनिक दबाव में
निपट लेता हूँ घर के भीतर ही
किसी चोरकोने में तो मुझे डर लगता है
मैं आंखें नहीं मिला पाता बब्बा से मुंह फेरता किसी और जगह चले जाना चाहता हूँ
तब बब्बा सारा ग़ुस्सा छोड़ हंसकर कहते हैं -
कितना
तो अपराधबोध है इस साले कुत्ते में
दुनिया चलाने वाले कच्चा चबा रहे हैं उसे और उनमें कोई अपराधबोध नहीं ... अब तो अपराधबोध का होना ही हमारे देश में सच्चा राष्ट्रवाद है

ये महान क्या होता है प्रणय जी?
ये अपराधबोध क्या होता है प्रणय जी?
ये देश क्या होता है प्रणय जी?
ये राष्ट्रवाद क्या होता है प्रणय जी?

जब मैं खाना खाता हूँ बहुत सारा और पेट भर जाने पर भी और मांगता जाता हूँ तब बब्बा कहते हैं -
कुत्ता है कि अमरीका है साला !

ये अमरीका क्या होता है प्रणय जी?

ये जो आपके साथ बैठे थे सौम्यता साधे बब्बा पंकज भाई कहते हैं इन्हें
इनके बारे में कुछ बोलते बब्बा की आवाज़ बहुत मुलायम हो जाती है
शायद वो प्यार करते हैं इन्हें
इनका या किसी और का भी बब्बा से हाथ मिलाना पसन्द नहीं मुझे
बब्बा सिर्फ़ मेरे हैं और मम्मा के हैं और दद्दा के हैं
दद्दा को देखा है आपने ध्यान से - गौतम दद्दा मेरा!
कितना प्यारा दोस्त...यार
जिसके साथ उछलना-कूदना-झपटना-काटना-चाटना सभी कुछ सम्भव है
प्यार क्या होता है आप गौतम दद्दा से पूछ सकते हैं
जब वो लाड़ में गाल खींचता मेरे कहता है बार-बार -
छ्वीटी....छ्वीट.....छ्वीटीबब्बा कुछ पीते हैं अकसर रात को जिसे आप पी रहे हैं दिन में
मैं भी बहुत चाव से पीता हूँ इसे बब्बा अकसर मेरे कटोरे में डाल देते हैं कुछ बूंदें उस तरल की फिर कभी ख़ुश तो कभी नाराज़ रहते हैं ऐसी हालत में अपने पिता से बात हो जाने पर हमेशा कहते हैं ज़ोर ज़ोर से -

सामंत!
सामंत
!
सामंत
!
मैं भी उन्हें देख पूरी ताक़त से सिर झटकाता भौंकता हूँ बार-बार
ये सामंत क्या होता है प्रणय जी?

अभी शाम जब आप चले गए बब्बा के पंकज भाई के साथ तो बोतल की बची हुई थोड़ी मुझे देते और बाक़ी ख़ुद पीते हुए वे बड़बड़ा रहे थे थोड़ी ख़ुशी और थोड़ी खीझ के साथ -

जसम....जसम.....जसम...
पार्टी.....पार्टी....पार्टी....
कविता....कविता....कविता....
दोस्ती.....दोस्ती...दोस्ती...

ये जसम क्या होता है प्रणय जी?
ये पार्टी क्या होती है प्रणय जी?
ये कविता क्या होती है प्रणय जी?
जैसी गौतम दद्दा की और मेरी है उसके अलावा ये दोस्ती क्या होती है प्रणय जी?

मुझे आपकी हंसी बहुत अच्छी लगती है प्रणय जी
जैसा आप और पंकज भाई और बब्बा मिलकर हंस रहे थे अभी
या जैसी गौतम दद्दा और मम्मा और बब्बा मिलकर हंसते हैं हमेशा
उसके अलावा भी कोई हंसी होती है क्या?
मैं तो हंस नहीं सकता इसलिए हांफता हूँ ऐसे मौकों पर पूरी जीभ बाहर निकाल कर
बब्बा कहते हैं एक और हंसी दुनिया में होती है -

तानाशाह की हंसी....
अनाचारकी हंसी...
ज़बरे की हंसी..

ये तानाशाह क्या होता है प्रणय जी?
ये अनाचार क्या होता है प्रणय जी?
ये ज़बरा क्या होता है प्रणय जी?

भौं...भौं...भौं...गुर्रर्र.....भौं...भौं...गुर्र......भौं...भौं
- - -
पहुंचाने वाला- शिरीष कुमार मौर्य शाम/9 अक्टूबर 2010/नैनीताल।

(प्रणय जी यानी हमारे ख़ूब जाने-पहचाने प्रणय कृष्ण। वे उन चन्द आलोचकों में हैं, जिनसे हिन्दी की विचारशील प्रतिबद्ध आलोचना का भविष्य बंधा हुआ है। आइसा के जुझारू कार्यकर्ता और जे.एन.यू स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष रहे। इन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं और जन संस्कृति मंच के महासचिव भी। कर्रे वक्ता हैं और प्यारे इंसान। हमारे दोस्त हैं। 9 अक्टूबर को वे कुमाऊं विश्वविद्यालय में हिन्दी के रिफ्रेशर कोर्स में व्याख्यान देने आए तो मुलाक़ात हुई मुझसे और हमारे घर में पले इस प्यारे काले लैब्राडोर कुत्ते से भी जिसका का नाम उसके गौतम दद्दा ने 'चार्जर' रखा है। इसकी उम्र अभी एक साल है पर लगता है ये हमेशा से हमारे साथ था...आंखों से ओझल...पर हमेशा हमारे साथ।

पंकज चतुर्वेदी भी इस दिन साथ थे...ये कविता जैसा कुछ इन्हीं सब लोगों के लिए...बकौल वीरेन डंगवाल ख़ुदा करे हमारी ये `नदियों जैसी महान वत्सल मित्रताएं´ बची रहें हमेशा। आमीन!)

Wednesday, October 13, 2010

मोचग्रस्त यह पांव


आज मोचग्रस्त है उन पांवों में से एक पांव
कुछ बरस पहले
जो दाखिल हो गए थे मेरे जीवन में
प्रेम की पहली बारिश से तर भीतर की गाढ़ी मिट्टी पर
छप्प....से
छोड़ते हुए
अपने होने की भरपूर छाप

दरअसल इससे पहले भी बरसों इन्होने मेरा पीछा किया
बहुत धूल उड़ती थी तब मेरे भीतर
संकल्पों की चट्टानें टूटने की हद तक तपती थीं
ज्वालामुखियों-से
जब तब फूट पड़ते थे
मन के पठार
दिनों-दिन क्षीण होती जाती थी
जीवन की जलधार

उन दिनों मैं नहीं देख पाता था अपने ही बनाए
एक प्रतिरोधी
और प्रतिहिंसक संसार के पार
मेरे आगे उड़ते रहते थे
धुंए के ग़ुबार
उस आग के पीछे-पीछे ही
शीतल बौछारों से भरा एक बवण्डर लिए
आते थे दो पांव

एक दिन अचानक मैंने देखा इन्हें क़रीब आते
ये बहुत गोरे-पतले और सुन्दर थे
लेकिन
एक अजीब-सी चमक और ताक़त भी दिखती थी इनमें
बहुत ध्यान से देखने पर

मै लगभग बेबस था इनके आगे
प्रेम के इस औंचक आगमन की हैरत से भरा और बहुत ख़ुश
दरअसल मुझे बेबस होना ही अच्छा लगा

देखता हूँ आज
कितने बरसों और कितनी जोखिमभरी यात्राओं की थकान है
प्यारी
कि टिक नहीं पा रहा धरती पर तेरा यह सूजा हुआ पांव
मेरे जीवन के बीहड़ में चलकर भी
लगातार
मुझको साध न सकने की पीड़ा से भरा

बेवक़्त ही इस पर दीखते हैं नीली नसों के जाल
अपनी इस अविगत गति से डरा मैं
बेहद शर्मिन्दा-सा बुदबुदाता हूँ
कि अब
ज़रूर कुछ न कुछ करूंगा और कुछ नहीं तो कम से कम
आगे की लम्बी और ऊबड़-खाबड़ यात्रा में
धीरे ही चलूँगा

पीड़ा और चिन्ता को आंखों तक भरकर
अपलक
ताकती
मुझको
वह सोचती है शायद - क्या सचमुच
मैं कुछ करूंगा ?

और अगर धीरे ही चला तो तेज़ी से भागती इस दुनिया में
कितनी दूर चलूँगा?

सोचता हूँ मैं
क्यों बनाते हैं इतनी दूर हम मंज़िलें अपनी
जो सदा ओझल ही रहती हैं

अपने आसपास को भूल देखते हैं स्वप्न झिलमिलाते ऐसे मानो जीवन और भी हो कहीं
ब्रह्माण्ड में
कई-कई आकाशगंगाओं के पार

क्यों तय कराते हैं खुद को इतने लम्बे फासले
किसी भी क़ीमत पर
क्यों हो जाते हैं उतावले
कहलाने को क़ामयाब
जबकि
क़ामयाबी ही सबसे कमीनी चीज़ है इस धरती पर
जिसका सबूत
फिलहाल
कुल इतना है मेरे पास -

ख़ुद को छुपा पाने में विफल
अब मेरे हाथों में आने से भी डरता
कांपता
झिझकता
मुश्किलों के ठहर चुके
जमे हुए
गाढ़े - नीले रक्त से भरा तेरा
मोचग्रस्त
यह पांव !
२००७
***
पृथ्वी पर एक जगह से

Saturday, October 9, 2010

पंकज चतुर्वेदी की तीन कविताएँ

पंकज चतुर्वेदी कल कुमाऊं विश्वविद्यालय के एकेडेमिक स्टाफ कालेज में चल रहे हिंदी के रिफ्रेशर कोर्स में हिंदी आलोचना पर व्याख्यान देने आये और मेरे आग्रह पर अनुनाद के लिए तीन कविताएँ भी दे गए, जिन्हें यहाँ लगा रहा हूँ।

एक खो चुकी कहानी

क्या तुम्हें याद है
अपनी पहली रचना
एक खो चुकी कहानी
जो तुमने लिखी
जब तुम नौ-दस साल के थे
वही कोई सन् अस्सी-इक्यासी की बात है

तुम्हारे पिता यशपाल पर
शोध कर रहे थे
और कभी-कभार समूचे परिवार को
उनकी कुछ कहानियां सुनाते थे
शायद उसी से प्रभावित होकर
तुमने वह कहानी लिखी
जिसमें एक चोर का पीछा करते हुए
गांववाले उसे पकड़ लेते हैं
गांव के बाहर एक जंगल में
उसे पीटते हैं
और इस हद तक
कि आख़िर
उसकी मौत हो जाती है

तब क्या तुम्हें याद है
कि एक दिन घर में आये
बड़े मामा के बेटे
अपने सुशील भाईसाहब को
जब तुमने वह कहानी दिखायी
उन्होंने तुम्हारा मन रखने
या हौसला बढ़ाने के मक़सद से कहा :
अरे, इसका अन्त तो बिलकुल
यशपाल की कहानियों जैसा है

आज जब इस घटना को
लगभग तीस साल बीत गये
क्या तुम्हें नहीं लगता
कि देश-दुनिया के हालात ऐसे हैं
कि गांव हों या शहर
चोर कहीं बाहर से नहीं आता
वह हमारे बीच ही रहता है
काफ़ी रईस और सम्मानित
उसे पकड़ना और पीटना तो दूर रहा
हम उसकी शिनाख़्त करने से भी
बचते हैं
***

टैरू

कुछ अरसा पहले
एक घर में मैं ठहरा था

आधी रात किसी की
भारी-भारी सांसों की आवाज़ से
मेरी आंख खुली
तो देखा नीम-अंधेरे में
टैरू एकदम पास खड़ा था
उस घर में पला हुआ कुत्ता
बॉक्सर पिता और
जर्मन शेफ़र्ड मां की सन्तान

दोपहर का उसका डरावना
हमलावर भौंकना
काट खाने को तत्पर
तीखे पैने दांत याद थे
मालिक के कहने से ही
मुझको बख़्श दिया था

मैं बहुत डरा-सहमा
क्या करूं कि यह बला टले
किसी तरह हिम्मत करके
बाथरूम तक गया
बाहर आया तो टैरू सामने मौजूद
फिर पीछे-पीछे

बिस्तर पर पहुंचकर
कुछ देर के असमंजस
और चुप्पी के बाद
एक डरा हुआ आदमी
अपनी आवाज़ में
जितना प्यार ला सकता है
उतना लाते हुए मैंने कहा :
सो जाओ टैरू !

टैरू बड़े विनीत भाव से
लेट गया फ़र्श पर
उसने आंखें मूंद लीं

मैंने सोचा :
सस्ते में जान छूटी
मैं भी सो गया
सुबह मेरे मेज़बान ने
हंसते-हंसते बताया :
टैरू बस इतना चाहता था
कि आप उसके लिए गेट खोल दें
और उसे ठण्डी खुली हवा में
कुछ देर घूम लेने दें

आज मुझे यह पता लगा :
टैरू नहीं रहा

उसकी मृत्यु के अफ़सोस के अलावा
यह मलाल मुझे हमेशा रहेगा
उस रात एक अजनबी की भाषा
उसने समझी थी
पर मैं उसकी भाषा
समझ नहीं पाया था
***

संवाद

मेरा एक साल का बच्चा
रास्ते में मिलनेवाली
हर गाय, भैंस, कुत्ता
बकरी और सूअर को
कितने प्यार, उत्कंठा
और सब्र से
`बू.....आ´, `बू....आ´
कहकर पुकारता है
वह कितनी ममता से चाहता है
वे उससे बात करें

मैं एक लाचार दुभाषिये की मानिन्द
दुखी होता हूं

मैं उसे कैसे समझाऊं
वे बोल नहीं सकते

वे अक्सर अपने में मशगूल रहते हैं
कोई कुत्ता कभी विस्मय से
उसे निहारता है
कोई गाय भीगी आंखों से
उसे देख-भर लेती है

तब मुझे उसकी ललक
अच्छी लगती है
जो दरअसल यह बताती है
कि संवाद
हर सूरत में
सम्भव है
***

-------------------
फ़ोन-(0512)-2580975
मोबाइल-09335156082

Friday, October 8, 2010

बाँदा - वीरेन डंगवाल


मैं रात, मैं चाँद, मैं मोटे कांच
का गिलास
मैं लहर ख़ुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल

मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रूदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चाँदनी में चुपचाप रोती एक
बूढी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के ख़ाली
पुरानेपन की बास
मैं खपरैल, मैं खपरैल
मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढा केदार।
***

Wednesday, October 6, 2010

अयोध्या फैसले पर जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा पारित प्रस्ताव


जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक (2 अक्टूबर 2010, नई दिल्ली) में अयोध्या मसले पर हाल के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर पारित प्रस्ताव


जन संस्कृति मंच विवादित अयोध्या मुद्दे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के उससे भी ज्यादा विवादित फैसले पर सदमे और दुख का इजहार करता है. यूं तो सर्वोच्च न्यायालय तक का सफर बाकी है, लेकिन इस फैसले के पक्ष में एक ओर संघ परिवार तो दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी जिस तरह राजनीतिक सर्वानुमति बनाने का प्रयास कर रही हैं, वह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है. यह फैसला सत्ता की राजनीति के तकाजों को पूरा करने वाला, तथ्यों और न्याय-प्रक्रिया के ऊपर धार्मिक आस्था को तरजीह देने वाला और पुरातत्व सर्वेक्षण की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट से निकाले गए मनमाने निष्कर्षों पर आधारित है. इस फैसले ने अप्रामाणिक, निराधार, तर्कहीन ढंग से इस बात पर मुहर लगा दी है कि जहां रामलला की मूर्ति 1949 में षड्यंत्रपूर्वक रखी गई थी, वहीराम का जन्मस्थान है. ऐसा करके न्यायालय के इस फैसले के परिणामस्वरूप न केवल 1949 की उस षड्यंत्रकारी हरकत, बल्कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने की बर्बर कार्रवाई को भी प्रकारांतर से वैधता मिल गई है. सवाल यह भी है कि क्या यह फैसला देश के संविधान के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष प्रतिज्ञाओं के भी विरुद्ध नहीं है?

यह पहली बार हुआ है कि आस्था और विश्वास को सियासत के तकाजे से दीवानी मुकदमे की अदालती प्रक्रिया में निर्णय के एक वैध आधार के रूप में मान्यता दी गई. मिल्कियत का विवाद सिद्ध किए जा सकने योग्य सबूतों के आधार पर नहीं, बल्कि अवैज्ञानिक आस्थापरक आधारों पर निपटाकर इस फैसले ने न्याय की समूची आधुनिक परिभाषा को ही संकटग्रस्त कर दिया है. इतना सबकुछ करने के बाद भी यह फैसला इस विवाद को सुलझाने में न केवल नाकामयाब रहा है, बल्कि उसने धर्मस्थानों को लेकर तमाम दूसरे सियासी विवादों के लिए भविष्य का रास्ता खोल दिया है. एक तो पुरातत्व सर्वेक्षण खुद में ही मिल्कियत के विवाद निबटाने के लिए एक संदिग्ध आधार है, दूसरे देश के तमाम बड़े इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने सर्वेक्षण की प्रक्रिया और तौर-तरीकों पर लगातार एतराज जताया है. अनेक विश्वप्रसिद्ध पुरातत्वविद पहले से ही कहते आए हैं कि इस भूखंड की खुदाई में ऐसे कोई भी खंभे नहीं मिले हैं, जिनके आधार पर पुरातत्व की रिपोर्ट वहां मंदिर होने की संभावना व्यक्त करती है, दूसरी ओर पशुओं की हड्डियों और अन्य पुरावशेषों से वहां दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का अवश्य ही प्रमाण मिलता है. ऐसे में न्यायालय की खंडपीठ द्वाराबहुमत से यह मान लेना कि मस्जिद से पहले वहां कोई हिंदू धर्मस्थल था, पूरी तरह गैरवाजिब प्रतीत होता है.

‘‘वर्तमान की सियासत को जायज ठहराने के लिए हम अतीत को झुठला नहीं सकते."- इतिहासकार रोमिला थापर के इस वक्तव्य में निहित एक अध्येता, एक नागरिक और एक देशप्रेमी की पीड़ा में अपना स्वर मिलाते हुए हम इतना और जोड़ना चाहेंगे कि अमूल्य कुर्बानियों से हासिल आजादी, लोकतंत्र, न्याय और धर्मनिरपेक्षता के उसूलों के खिलाफ जाकर ‘आस्था की राजनीति’ के तकाजों को पूरा करने वाले किसी भी अदालती निर्णय को कठोर राजनैतिक-वैचारिक बहस के बगैर स्वीकार करना देश के भविष्य के साथ एक अक्षम्य समझौता होगा.


प्रणय कृष्ण
महासचिव, जन संस्कृति मंच
द्वारा जारी

Saturday, October 2, 2010

एक पिस्तौल की गोली : अनिल अवचट




एक
पिस्तौल की गोली
यही कोई आधा इंच लम्बी
फिर पौना इंच मान के चलिए
उस लिबलिबी दबाने वाली उंगली को
सिर्फ ज़रा सी पीछे खींचनी है
ऐसे ही, बहुत हुआ तो चौथाई इंच
कि निकल ही पड़ी वह गोली
ज़ोरदार आवाज़ करती हुई, चिंघाड़ती हुई
बेध ही दिया उसने
छाती का वह दुर्बल पिंजरा
ढह ही गया वह
अनशन कर करके
जर्जर हो चुका शरीर
टेढ़े ही हो गए
वे चल चलकर
थक चुके पैर
शांत हो गया आखिर
अमानवीय धार्मिक दंगों
से घायल हो चुका मन भी
वाह भई वाह,
उस पिस्तौल का कमाल
वह गोली, यही कोई आधा इंच
और वह लिबलिबी दबाने वाली
इंसानी उंगली
हे राम!


******

जिस दिन गांधी पैदा हुए थे उस दिन गांधी को मार दिए जाने के बारे में कविता बड़ी 'डिप्रेसिंग' लगती है पर..
अनिल अवचट मराठी के बड़े लेखक हैं. उन्होंने अपनी पत्नी डॉ. सुनंदा अवचट के साथ मिलकर पुणे में 'मुक्तांगण' नाम के नशामुक्ति केंद्र की स्थापना की जो आज देशभर में प्रसिद्द है. अवचट स्वयं और उनका 'लेखक' सामाजिक न्याय के लिए सदैव संघर्षरत रहे हैं. हाल ही में उनकी पुस्तक 'सृष्टीत...गोष्टीत' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी के पहले (मराठी) बाल-साहित्य पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा की गई है.

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