अनुनाद

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मिरास्लोव होलुब की कुछ कवितायेँ…चयन और प्रस्तुति : यादवेन्द्र

कुछ दिनों से मेरे मन में ये विचार आ रहा था कि विज्ञान में अच्छी शोहरत पाए लोगों की इतर प्रवृत्तियों के बारे में कुछ पढने को मिले.कवि गुरु रबीन्द्रनाथ और वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु की दोस्ती के रचनात्मक पहलुओं पर मैं पहले कुछ पढ़ और लिख चुका था.हाल में मैंने दो बार नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली इकलौती वैज्ञानिक मेरी क्युरी के पति की स्मृति में लिखे डायरी के कुछ पन्ने पढ़े और उनका अनुवाद किया तो जिज्ञासा और भी बढ़ गयी.महाकवि निराला के एक विज्ञान लेख को पढने का भी सौभाग्य मिला जिस की भाषा पढ़ के मन प्रफुल्लित रोमांचित तो हुआ ही,अपनी भाषा को लेकर ग्लानि भी हुई. इसी क्रम में जीवन भर विज्ञान में उच्च शोध में प्रवृत्त रहे मिरोस्लाव होलुब की कवितायेँ पढने का अवसर मिला…मैंने उनकी कवितायेँ पहले भी पढ़ी हैं पर यह जानने पर कि होलुब मूल रूप में वैज्ञानिक थे उनकी कविताओं में एक अलग स्वाद मिला.
1923 में जन्मे मिरोस्लाव होलुब चेकोस्लोवाकिया के सर्वाधिक चर्चित कवियों में से एक हैं.जीवन के शुरूआती दिनों में नाज़ी और बाद में स्तालिनवादी सत्ता के दमन के शिकार रहे होलुब मूल रूप में एक डॉक्टर के तौर पर प्रशिक्षित हुए और पूर्वी यूरोप में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में इम्यूनोलोजी के जाने माने विशेषज्ञ के रूप में इन्हें मान्यता भी मिली.पैंतीस वर्ष की पकी उम्र में उनका पहला कविता संग्रह छपा तो उनका कवि रूप सामने आया,पर जब आया तो खूब आया.अपने स्वतन्त्र विचारों के लिए उन्हें उनकी सरकारी शोध संस्थान में वैज्ञानिक की नौकरी छोड़ के छोटे पद पर दूसरे संस्थान में वैकल्पिक नौकरी करनी पड़ी,प्रकाशन पर प्रतिबन्ध झेलना पड़ा पर लेखनी बंद नहीं हुई.दो दर्जन से ज्यादा कविता और निबंध संग्रह उनके नाम हैं और अंग्रेजी सहित अनेक भाषाओँ में उनका अनुवाद छपा है.1998 में 75 की पकी उम्र में उनका देहांत हुआ.

दरवाज़ा

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो..
हो सकता है बाहर
खड़ा कोई दरख़्त, या जंगल भी
या कोई बाग़ भी हो सकता है
हो सकता है कोई जादुई शहर ही खड़ा हो.

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो…
हो सकता है कोई कुत्ता धक्के मार रहा हो
कोई चेहरा भी दिखाई दे सकता है तुम्हे
संभव हो सिर्फ आँख हो
कोई चित्र भी हो सकता है
किसी दूसरे चित्र से अवतरित होता हुआ..

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो…
बाहर यदि कोहरा जमा होगा तो
तो इसको छंटने का रास्ता मिल जाएगा.

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो..
यदि सिर्फ और सिर्फ
वहां अँधेरा ठहरा हुआ हो, तब भी
सूनी हवा सिर झुकाए खड़ी हो
तब भी
ये सब न हो..कहीं कुछ भी न हो
तब भी
जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो.

और कुछ न भी हो
कम से कम
हवा का झोंका तो आर पार होगा ही.. …
***
आनंद का प्रशस्तिगान

आप सचमुच प्यार तभी करते हैं
जब प्यार करते हैं बिला वजह…

रेडियो सुधारते हुए जब ख़राब निकल जाएँ दसियों पुर्जे
तब भी देखते रहें लगा लगा कर दूसरे नए पुर्जे..
कोई बात नहीं चाहे तो दो सौ खरगोशों का जुगाड़ करें
यदि एक एक कर मरते जाएँ सैकड़ों खरगोश…
दर असल इसी को विज्ञानं कहते हैं.

अब इसका भेद पूछते हैं आप
तो एक ही जवाब मैं हर बार दूंगा:
एक बार…दो बार…
बार बार…
***
बच्चे का माथा

इसके अन्दर रहता है एक अंतरिक्षयान
और साथ में एक तरकीब भी
कि कैसे पिंड छुड़ाया जाये पियानो की क्लास से.

इसके अन्दर बसती है
नुह की किश्ती भी
भला है,सबसे ऊपर ऊपर यही रहती है.

इसके अन्दर बसेरा लिए हुए है
एक निहायत नया परिंदा
एक नया खरगोश
एक नया भौंरा.

नीचे से ऊपर को चलती हुई
एक नदी बहती रहती है इसके अन्दर ही अन्दर….
गुणा भाग वाले पहाड़े भी हैं इसके अन्दर
प्रतिपदार्थ (anti matter) भी रहता है इसके अन्दर
और इसपर कोई चला नहीं सकता
कतर ब्योंत वाली कैंची..

मुझे लगता है
कि माथा ही ऐसी बला है
जिसको काटना छांटना नहीं है
किसी तरह भी मुमकिन..
और आज के पतले हालात में
आश्वस्त करने के लिए यही सच काफी है
कि दुनिया में बहुतेरे लोग अब भी
बचे हैं साबुत माथों वाले…
***
सूरज पर संक्षिप्त टिप्पणी

मौसमवेत्ताओं के गहन अध्ययन को सलाम
अन्य अनेकानेक लोगों कि मेहनत को भी सलाम
कि हम जान पाए कब होते हैं दिन
सबसे लम्बे और सबसे छोटे
हमें देखने को मिले सूर्य ग्रहण
और हर सुबह सूर्योदय.
पर कभी नहीं दिखाई दिया हमें
कैसा होता है असल में असली सूरज.

इसको ऐसे समझें: हम देखते हैं सूरज को
जंगलों के ऊपर पर पेड़ों के झुरमुट से
किसी टूटी फूटी सड़क के उस पार
गाँव के पिछवाड़े डूबते हुए..
पर सच ये कि नहीं देख पाते हम असल सूरज
देखते हैं..बस सूरज जैसा कुछ…

सूरज जैसा कुछ..सच पूछें तो
मुश्किल है इसको रोज रोज झेल पाना…
दरअसल लोगों को तो सूरज दिखता है
पेड़,परछाईं,पहाड़ी,गाँव और सड़कों की मार्फ़त…
यही प्रतीक हैं सूरज के.

सूरज जैसा कुछ दिखता रहता है
जैसे हो कोई मुट्ठी तनी हुई..
समंदर या रेगिस्तान या हवाई जहाज के ऊपर….
मजेदार बात है कि न तो खुद इसकी छाया पड़ती है
न ही हिलता टिमटिमाता है कभी
यह इतना अजूबा अनोखा है
कि जैसे हो ही न कहीं कुछ..

बिलकुल सूरज की तरह ही विलक्षण है
सच्चाई भी.
***
सटीक समय के बारे में

मछली हरदम सही सही जानती है
उसको कहाँ जाना है..और कब.
इसी तरह
परिंदों को होता है सही सही ज्ञान
काल और और स्थान का भी…
आदमियों में नहीं होता यह नैसर्गिक बोध
तभी तो उन्होंने शुरू किये वैज्ञानिक अनुसंधान.
इसके बारे में खुलासा करने को
मैं देता हूँ एक छोटी सी मिसाल:
एक सैनिक को कहा गया
दागना है उसको ठीक छह बजे हर शाम एक गोला..
सैनिक था सो करता रहा यह पूरी मुस्तैदी से.
जब उस से पूछा गया कितना सटीक रहता है उसका समय
तो वो सहज होकर बोल पड़ा:
पहाड़ी से नीचे शहर में रहने वाले
घड़ीसाज की खिड़की से देखता हूँ
वहां लगा हुआ है एक कालमापी यन्त्र..
उस से ज्यादा सही और भला क्या हो सकता है?
हर शाम पौने छह बजे उससे मिलाता हूँ अपनी घड़ी
और चढ़ने लगता हूँ पहाड़ी पर लगी तोप की ओर
ठीक पाँच उनसठ पर मैं तोप में भरता हूँ गोला
और घड़ी देखकर ठीक अगले ही मिनट गोला दाग देता हूँ.
जाहिर था उसकी यह कार्यप्रणाली
आना पाई सही थी…सटीक.
अब जांचना था की कितना सही था कालमापी यन्त्र
सो घड़ीसाज को फ़रमान सुनाया गया
साबित करे वो कि बिलकुल सटीक है उसका यन्त्र.
बे तकल्लुफी से घड़ीसाज बोला:
हुजूर, आजतक जितने भी कालमापी यन्त्र बनाये गए हैं
ये उन सब में सबसे सही है..
तभी तो सालों साल से हर शाम
दागा जाता है तोप का गोला
ठीक छह बजे..
हर शाम बिला नागा मैं देखता हूँ इस यन्त्र को
और हर बार ये मुझे छह बजाता हुआ ही दिखाई देता है.

देखो तो आदमी को कितनी चिंता है
बिलकुल चाकचौबंद और सटीक रहे समय..
यह सोचते हुए मछली फिसल गयी पानी के अन्दर
और आसमान भर गया परवाज भरते परिंदों से..
कालमापी यन्त्र है कि अब भी टिक टिक कर रहा है
और दागे जा रहे हैं दनादन गोले…

***

0 thoughts on “मिरास्लोव होलुब की कुछ कवितायेँ…चयन और प्रस्तुति : यादवेन्द्र”

  1. 'दरवाज़ा खोलो ' कविता में डूब डूब गया. अद्भुत!
    अन्य कविताओं में भी नए, मौलिक विचार मिले.

  2. किसी किताब में कभी पढ़ा था .. याद नहीं आ रहा कहाँ-
    "समय मापने के कई तरीके हो सकते है …एक तरीका घड़ी का है ..जो कि सबसे वाहियात है"
    "सटीक समय के बारे में " पढ़कर जाने क्यों याद आ गया …
    बहुत अच्छी प्रस्तुति !!

  3. न सिर्फ़ अनुवाद के स्तर पर बल्कि कविताओं और कवियों के चयन पर भी यादवेन्द्र जी अनूठा काम कर रहे हैं। पत्र-पत्रिकाओं से अलग,हिन्दी भाषा में कविता की दुनिया के विस्तार के लिए ब्लाग की सार्थक भूमिका इस वजह से भी भविष्य में जगह बनाती चली जाए़गी। क्या इतने महत्वपूर्ण और लगन से किये जा रहे काम को मात्र धन्यवाद कह कर निपटाया जा सकता है ? प्रस्तुति के लिए आभार।

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