बार-बार एक दृश्य टेलीवीज़न पर दिखाया जा रहा है। एक मूर्ति के गले में रस्सी डाली जाती है और वह ज़मीन पर गिर रही है हालाँकि गिरते हुए उसकी मज़बूत पीठ दिखाई देती है लेकिन फिर भी आख़िर वह गिर ही रही है। यह मूर्ति किसी देवता की नहीं है केवल किसी राष्ट्रनायक की भी नहीं। यह ऐसी मूर्ति है जिसे देखकर राष्ट्र की अंधी सीमाएं दूर हटने लगती हैं और पृथ्वी की अखंडता बहुत बार एक साथ दिखाई पड़ती है। यह उस इंसान की मूर्ति है जिसने एक इंसान के तौर पर, एक इंसान की क्षमताओं के तौर अपने को अधिकतम रूप में अभिव्यक्त किया था, मनुष्य और मानव जाति की छुपी क्षमता का एक ख़ज़ाना खोज निकाला था, एक ऐसी खदान का मुंह खोल दिया था जिसमें असंख्य खनिज और अमूल्य धातुओं का अपार बहाव था। इस खदान को मनुष्य से मानव दृष्टि से संपृक्त करने वाली यह मूर्ति गिरते हुए भी ऐसे विराट दृश्यों की ही याद दिला रही थी जो दृश्य केवल मनुष्य के सामूहिक साहस से ही पैदा होते हैं। यह मूर्ति गिरते हुए भी उतनी ही लम्बी और मज़बूत थी।
ऐसे लोग हैं जिनके दिलों में यह गिरती हुई मूर्ति और भी दृढ़ता से खड़ी हो गई। यह एकदम अधिक समकालीन बन गई। यह अब तक हमारे सामने थी अब हमारे अन्दर उतर गई है। ऐसी मूर्तियाँ जो समकालीन बनकर हृदय में उतर जाती हैं गिराई नहीं जा सकतीं। कभी-कभी उनकी उपस्थिति प्रमाणित होने में समय लग जाता है। कभी कम कभी बहुत अधिक लेकिन अंततः उनकी उपस्थिति दर्ज होती है। दर्ज ही नहीं होती, वह अपने को प्रमाणित भी करती है। ऐसे समय बार-बार आये हैं और आते हैं जब तमाम षड्यंत्रों, उन्माद और अत्याचार की बड़ी से बड़ी चट्टानों को तोड़ते हुए न्याय का रास्ता चमकता है। और एक बहती हुई उज्ज्वल नदी आख़िर सबको अपनी ओर खींचती है।
achchhaa hai. aur bhee deejiye.
ReplyDeleteशुभा जी को पढना हमेशा सुखद अहसास देता है.
ReplyDeleteऔर मजबूती भी देता है. बहती उज्जवल नदी की तरह उनका लेखन भी अपनी ओर खींचता है...