Tuesday, September 28, 2010

मिरास्लोव होलुब की कुछ कवितायेँ...चयन और प्रस्तुति : यादवेन्द्र

कुछ दिनों से मेरे मन में ये विचार आ रहा था कि विज्ञान में अच्छी शोहरत पाए लोगों की इतर प्रवृत्तियों के बारे में कुछ पढने को मिले.कवि गुरु रबीन्द्रनाथ और वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु की दोस्ती के रचनात्मक पहलुओं पर मैं पहले कुछ पढ़ और लिख चुका था.हाल में मैंने दो बार नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली इकलौती वैज्ञानिक मेरी क्युरी के पति की स्मृति में लिखे डायरी के कुछ पन्ने पढ़े और उनका अनुवाद किया तो जिज्ञासा और भी बढ़ गयी.महाकवि निराला के एक विज्ञान लेख को पढने का भी सौभाग्य मिला जिस की भाषा पढ़ के मन प्रफुल्लित रोमांचित तो हुआ ही,अपनी भाषा को लेकर ग्लानि भी हुई. इसी क्रम में जीवन भर विज्ञान में उच्च शोध में प्रवृत्त रहे मिरोस्लाव होलुब की कवितायेँ पढने का अवसर मिला...मैंने उनकी कवितायेँ पहले भी पढ़ी हैं पर यह जानने पर कि होलुब मूल रूप में वैज्ञानिक थे उनकी कविताओं में एक अलग स्वाद मिला.
1923 में जन्मे मिरोस्लाव होलुब चेकोस्लोवाकिया के सर्वाधिक चर्चित कवियों में से एक हैं.जीवन के शुरूआती दिनों में नाज़ी और बाद में स्तालिनवादी सत्ता के दमन के शिकार रहे होलुब मूल रूप में एक डॉक्टर के तौर पर प्रशिक्षित हुए और पूर्वी यूरोप में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में इम्यूनोलोजी के जाने माने विशेषज्ञ के रूप में इन्हें मान्यता भी मिली.पैंतीस वर्ष की पकी उम्र में उनका पहला कविता संग्रह छपा तो उनका कवि रूप सामने आया,पर जब आया तो खूब आया.अपने स्वतन्त्र विचारों के लिए उन्हें उनकी सरकारी शोध संस्थान में वैज्ञानिक की नौकरी छोड़ के छोटे पद पर दूसरे संस्थान में वैकल्पिक नौकरी करनी पड़ी,प्रकाशन पर प्रतिबन्ध झेलना पड़ा पर लेखनी बंद नहीं हुई.दो दर्जन से ज्यादा कविता और निबंध संग्रह उनके नाम हैं और अंग्रेजी सहित अनेक भाषाओँ में उनका अनुवाद छपा है.1998 में 75 की पकी उम्र में उनका देहांत हुआ.


दरवाज़ा

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो..
हो सकता है बाहर
खड़ा कोई दरख़्त, या जंगल भी
या कोई बाग़ भी हो सकता है
हो सकता है कोई जादुई शहर ही खड़ा हो.

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो...
हो सकता है कोई कुत्ता धक्के मार रहा हो
कोई चेहरा भी दिखाई दे सकता है तुम्हे
संभव हो सिर्फ आँख हो
कोई चित्र भी हो सकता है
किसी दूसरे चित्र से अवतरित होता हुआ..

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो...
बाहर यदि कोहरा जमा होगा तो
तो इसको छंटने का रास्ता मिल जाएगा.

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो..
यदि सिर्फ और सिर्फ
वहां अँधेरा ठहरा हुआ हो, तब भी
सूनी हवा सिर झुकाए खड़ी हो
तब भी
ये सब न हो..कहीं कुछ भी न हो
तब भी
जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो.

और कुछ न भी हो
कम से कम
हवा का झोंका तो आर पार होगा ही.. ...
***
आनंद का प्रशस्तिगान

आप सचमुच प्यार तभी करते हैं
जब प्यार करते हैं बिला वजह...

रेडियो सुधारते हुए जब ख़राब निकल जाएँ दसियों पुर्जे
तब भी देखते रहें लगा लगा कर दूसरे नए पुर्जे..
कोई बात नहीं चाहे तो दो सौ खरगोशों का जुगाड़ करें
यदि एक एक कर मरते जाएँ सैकड़ों खरगोश...
दर असल इसी को विज्ञानं कहते हैं.

अब इसका भेद पूछते हैं आप
तो एक ही जवाब मैं हर बार दूंगा:
एक बार...दो बार...
बार बार...
***
बच्चे का माथा

इसके अन्दर रहता है एक अंतरिक्षयान
और साथ में एक तरकीब भी
कि कैसे पिंड छुड़ाया जाये पियानो की क्लास से.

इसके अन्दर बसती है
नुह की किश्ती भी
भला है,सबसे ऊपर ऊपर यही रहती है.

इसके अन्दर बसेरा लिए हुए है
एक निहायत नया परिंदा
एक नया खरगोश
एक नया भौंरा.

नीचे से ऊपर को चलती हुई
एक नदी बहती रहती है इसके अन्दर ही अन्दर....
गुणा भाग वाले पहाड़े भी हैं इसके अन्दर
प्रतिपदार्थ (anti matter) भी रहता है इसके अन्दर
और इसपर कोई चला नहीं सकता
कतर ब्योंत वाली कैंची..

मुझे लगता है
कि माथा ही ऐसी बला है
जिसको काटना छांटना नहीं है
किसी तरह भी मुमकिन..
और आज के पतले हालात में
आश्वस्त करने के लिए यही सच काफी है
कि दुनिया में बहुतेरे लोग अब भी
बचे हैं साबुत माथों वाले...
***
सूरज पर संक्षिप्त टिप्पणी

मौसमवेत्ताओं के गहन अध्ययन को सलाम
अन्य अनेकानेक लोगों कि मेहनत को भी सलाम
कि हम जान पाए कब होते हैं दिन
सबसे लम्बे और सबसे छोटे
हमें देखने को मिले सूर्य ग्रहण
और हर सुबह सूर्योदय.
पर कभी नहीं दिखाई दिया हमें
कैसा होता है असल में असली सूरज.

इसको ऐसे समझें: हम देखते हैं सूरज को
जंगलों के ऊपर पर पेड़ों के झुरमुट से
किसी टूटी फूटी सड़क के उस पार
गाँव के पिछवाड़े डूबते हुए..
पर सच ये कि नहीं देख पाते हम असल सूरज
देखते हैं..बस सूरज जैसा कुछ...

सूरज जैसा कुछ..सच पूछें तो
मुश्किल है इसको रोज रोज झेल पाना...
दरअसल लोगों को तो सूरज दिखता है
पेड़,परछाईं,पहाड़ी,गाँव और सड़कों की मार्फ़त...
यही प्रतीक हैं सूरज के.

सूरज जैसा कुछ दिखता रहता है
जैसे हो कोई मुट्ठी तनी हुई..
समंदर या रेगिस्तान या हवाई जहाज के ऊपर....
मजेदार बात है कि न तो खुद इसकी छाया पड़ती है
न ही हिलता टिमटिमाता है कभी
यह इतना अजूबा अनोखा है
कि जैसे हो ही न कहीं कुछ..

बिलकुल सूरज की तरह ही विलक्षण है
सच्चाई भी.
***
सटीक समय के बारे में

मछली हरदम सही सही जानती है
उसको कहाँ जाना है..और कब.
इसी तरह
परिंदों को होता है सही सही ज्ञान
काल और और स्थान का भी...
आदमियों में नहीं होता यह नैसर्गिक बोध
तभी तो उन्होंने शुरू किये वैज्ञानिक अनुसंधान.
इसके बारे में खुलासा करने को
मैं देता हूँ एक छोटी सी मिसाल:
एक सैनिक को कहा गया
दागना है उसको ठीक छह बजे हर शाम एक गोला..
सैनिक था सो करता रहा यह पूरी मुस्तैदी से.
जब उस से पूछा गया कितना सटीक रहता है उसका समय
तो वो सहज होकर बोल पड़ा:
पहाड़ी से नीचे शहर में रहने वाले
घड़ीसाज की खिड़की से देखता हूँ
वहां लगा हुआ है एक कालमापी यन्त्र..
उस से ज्यादा सही और भला क्या हो सकता है?
हर शाम पौने छह बजे उससे मिलाता हूँ अपनी घड़ी
और चढ़ने लगता हूँ पहाड़ी पर लगी तोप की ओर
ठीक पाँच उनसठ पर मैं तोप में भरता हूँ गोला
और घड़ी देखकर ठीक अगले ही मिनट गोला दाग देता हूँ.
जाहिर था उसकी यह कार्यप्रणाली
आना पाई सही थी...सटीक.
अब जांचना था की कितना सही था कालमापी यन्त्र
सो घड़ीसाज को फ़रमान सुनाया गया
साबित करे वो कि बिलकुल सटीक है उसका यन्त्र.
बे तकल्लुफी से घड़ीसाज बोला:
हुजूर, आजतक जितने भी कालमापी यन्त्र बनाये गए हैं
ये उन सब में सबसे सही है..
तभी तो सालों साल से हर शाम
दागा जाता है तोप का गोला
ठीक छह बजे..
हर शाम बिला नागा मैं देखता हूँ इस यन्त्र को
और हर बार ये मुझे छह बजाता हुआ ही दिखाई देता है.

देखो तो आदमी को कितनी चिंता है
बिलकुल चाकचौबंद और सटीक रहे समय..
यह सोचते हुए मछली फिसल गयी पानी के अन्दर
और आसमान भर गया परवाज भरते परिंदों से..
कालमापी यन्त्र है कि अब भी टिक टिक कर रहा है
और दागे जा रहे हैं दनादन गोले...
***

Tuesday, September 21, 2010

नगाड़े ख़ामोश हैं और हुड़का भी - रमदा

गिरदा पर एक स्मृतिलेख


रामनगर में इंटरनेशनल पायनियर्स द्वारा आयोजित पहली अखिल भारतीय नाटक प्रतियोगिता(1977) के दौरान गिरीश तिवाड़ी (गिरदा) से पहली बार मिला था। तब वह युगमंच, नैनीताल की प्रस्तुति `अंधेर नगरी´ लेकर आया था। गिरदा के अलावा यह रंगकर्म की दुनिया से भी मेरी पहली नज़दीकी मुलाक़ात थी। नाटकों को पढ़ भर लेने से इतर किसी नाट्यदल को नज़दीक से देखने-समझने-भुगतने, रिहर्सल्स में मौजूद रहने और प्रस्तुति के लिए एकाएक ज़रूरी हो आई किसी चीज़ के जुगाड़ में जुटने का पहला अवसर। प्रतियोगिता में गिरदा ही सर्वश्रेष्ठ निर्देशक माना गया। यहीं से गिरदा के साथ थोड़ा उठ-बैठ सकने का सिलसिला बना। अगले वर्ष की प्रस्तुति `भारत दुर्दशा´ थी। चूंकि गिरदा के व्यक्तित्व के इसी पहलू से मैं सबसे पहले परिचित हुआ, गिरदा की छवि मेरे मन में हमेशा एक रंगकर्मी- ज़बरदस्त रंगकर्मी की रही। यह बात दीगर है कि अभिव्यक्ति के तमाम अन्य माध्यमों पर अपनी पकड़ से वह लगातार इस छवि को ध्वस्त करता रहा। हुड़के पर थाप देते...होली गाते....गोष्ठियों में अपनी बात रखते....गीत/कविता पढ़ते/सुनाते...गिरदा की भंगिमाओं को याद कीजिए...रंग ही रंग हैं। सी.आर.एस.टी. नैनीताल प्रांगण `नगाड़े ख़ामोश हैं´ के रिहर्सल्स एवं प्रस्तुति के बाद से मैं गिरदा का कायल होता गया। प्रांगण के उन दो विशाल देवदारुओं के बीच गहराते, छितराते कोहरे और दो `लाइट बीम्स´ के नीचे सूत्रधार को सधे क़दमों से चलने का निर्देश करते हुए `अण्ड से पिण्ड और पिण्ड से ब्रह्माण्ड रचा....´ के उच्चारण का अभ्यास कराते गिरदा की छवि मेरी स्मृति में ताज़ा है। गिरदा की प्रस्तुतियों में लोक/लोकसंगीत/लोकसंस्कृति के साथ ब्रेख़्त के प्रोजेक्शंस की अद्भुत जुगलबन्दी थी - दोनों पर उसकी गहरी पकड़ का प्रतीक। `नगाड़े ख़ामोश हैं´ की प्रस्तुति की सूचना देने वाले बैनर को लेकर उसके मानस में था - टाट का एक लम्बा चीथड़ानुमा टुकड़ा जिस पर पिघलते कोलतार से लिखा हो - नगाड़े ख़ामोश हैं। ऐसा हो तो नहीं पाया मगर मल्लीताल में पन्त जी की मूर्ति के पास ऐसे एक बैनर का बिम्ब आज तक मन में है। उन दिनों कोरोनेशन होटल के पास की अपनी `हमन हैं इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या´ जैसी अद्भुत रिहाइश/जीवन-शैली में गिरदा ऐसा ही था...टाट के बैनर पर चमकते काले रंग से लिखे `नगाड़े ख़ामोश हैं´ जैसा।


इसी सबके दौरान डी.एस.बी. में `अंधायुग´ की ऐतिहासिक प्रस्तुति भी हुई और कहा जा सकता है कि कम से कम नैनीताल में तो रंगकर्म के पुनर्जागरण के केन्द्र में गिरदा ही था। यही वह समय भी है, जब नैनीताल में हो रही जंगलात की नीलामी के विरोध में वह अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ हुड़का बजाता, गाता-नाचता-सा निकला और गिरीश तिवाड़ी से गिरदा बन गया। यहीं से लोकवाद्य हुड़के को एक नया आयाम मिला। कृषिकर्म, मेले-ठेलों, जागर और यहां तक कि जनस्मृति से भी धीरे-धीरे बाहर होते जा रहे हुड़के को गिरदा ने और बदले में हुड़के ने गिरदा को एक अलग ही धज दी। विरोध की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति उठी बन्द मुट्ठी के समानान्तर उत्तराखण्ड में हुड़का जैसे स्खलित होती व्यवस्था के विरोध का प्रतीक बन गया। इसी हुड़के के साथ कुमाऊं की परम्परागत विशिष्ट खड़ी होली को जन-संघर्षों एवं आन्दोलनों का हथियार बनाने का काम गिरदा ने किया। इसी हुड़के की थाप के साथ वह `जंगल के दावेदारों´ के साथ रहा....व्यवस्था के विरोध में होने वाले छोटे-बड़े जन-संघर्षों एवं आन्दोलनों में पूरे जीवन के साथ शरीक हुआ ... आदमी की ग़लतियों एवं प्रकृति के कहर से होने वाली आपदओं के कष्ट भोग रहे लोगों के दु:ख-दर्द बांटने गया ....समाचार के लिए रिपोर्टिंग करता रहा। अब मुझे ठीक से मालूम नहीं है कि जनसरोकारों की लड़ाई के बदले जब रुद्रपुर में गिरदा पुलिसिया जुल्म का शिकार हुआ तो हुड़का उसके साथ था या नहीं। आपातकाल के दौर से लेकर अगस्त 2010 तक के उत्तराखण्ड के किसी भी जनसंघर्ष या व्यवस्था विरोधी स्वर को गिरदा के बिना, या अगर किसी वजह(पिछले तीन-चार सालों से गिरती तबीयत के कारण मुख्यत:) से वह सशरीर वहां अनुपस्थित रहा हो तो, उसके जनगीतों के बिना नहीं देखा जा सकता।

गिरदा की प्रतिभा अभिव्यक्ति के किसी एक माध्यम में बंधी नहीं रही। नाटक किये, गीत-कविताएं लिखीं - उत्तराखण्ड के जनआन्दोलनों की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का पयार्य बन गया गिरदा। गिरदा ने अनुवाद भी किये - फ़ैज़, साहिर के अनुवाद....फ़ैज़ की अमर रचना `हम मेहनतकश ...´ का ऐसा भावानुवाद गिरदा की कलम से निकला जिस पर फ़ैज़ को नाज़ होता। बानगी है - ` ओड़, बारुड़ि हम कुल्ली-कबाड़ी जै दिन यै दुनि थें हिसाब मांगुल। एक हांग नि ल्यूल एक फांग नि ल्यूल पुरि खसरा कतौनी किताब मांगुल´। फ़ैज़ की `सारी दुनिया´ को उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में `खसरा-खतौनी की किताब´ में समेट देनेवाली नज़र गिरदा के ही पास हो सकती थी।

अपने इस पूरे मानवीय पराक्रम में जो चीज़ गिरदा को गिरदा बनाती है, वह ये है कि यह सारा कुछ सवालों, मुद्दों और संघर्ष/आन्दोलन को असली लोगों(हाशिये पर सिमट गये लोगों) तक ले जाने के लिए ही था यानी चौराहे तक ले जाने के लिए, जिससे आम बुद्धिजीवी हमेशा हिचकता रहा। नाटक/गीत/कविता/होली/हुड़का/जुलूस सब केवल इसलिए कि मुद्दे पूरी शिद्दत के साथ असली लोगों के बीच ले जाये जा सकें.....और इसीलिए वह सबका गिरदा बन सका। यहां ऐसा कुछ नहीं था जो वह अपने लिए कर रहा हो, गिरदा की फक्कड़ी में अपने लिए की ज़्यादा गुंजाइश थी भी नहीं। समय विशेष पर अभिव्यक्ति के जिस भी ज़रिये को उसने अपनाया, मूल में चाह एक ही थी - मुद्दों को उन तक ले जाना, जिनसे वे बावस्ता हैं।

उत्तराखण्ड के जनसरोकारों की बात करने वाले लोगों में से अधिकांशत: कालान्तर में `स्वयंभू´ या `मठाधीश´ हो गए - टिहरी के राजा `बोलान्दा बद्री´ की तरह ` बोलान्दा उत्तराखण्ड´। इनकी व्यक्तिगत उपलब्धियों की सूची बड़ी होती गई, किन्तु जिस उत्तराखण्ड की बात करते यह लोग समाज और राजनीति में स्थापित हुए, उसकी उपलब्धियां ? गिरदा वहीं रहा, असली लोगों के बीच, अनिष्ट और अव्यवस्था को जड़ से पकड़ लेनेवाली अपनी पैनी नज़र के साथ। गिरदा की नज़र समकाल के पार बहुत आगे तक देख सकने वाली नज़र थी। 1994 के जन-उभार के दौरान `सतत् प्रवाहमान ऊर्जा´ और `आज दो-अभी दो´ के उतावलेपन में भी नैनीताल समाचार के सांध्य बुलेटिन में अपनी गीतात्मक अभिव्यक्ति में गिरदा का स्वर अकेला स्वर था, जो राज्यप्राप्ति के दौरान और राज्यप्राप्ति के बाद दलगत राजनीति के प्रति लोगों को आगाह कर रहा था। अपनी इन अभिव्यक्तियों में वह अचूक भविष्यदृष्टा ही साबित हुआ, क्योंकि अन्तत: `उत्तराखण्ड´, आन्दोलन का नहीं बल्कि राजनीति का ही विषय रह गया है। गिरदा के गीत `घुननि मुनई नि टेक जैंता ! एक दिन तो आलो´ की उदासी के मूल में दलगत राजनीति के हावी हो जाने का ही ख़तरा है।

अब गिरदा नहीं है। उसकी जगह शून्य है, लेकिन जैसी कि गिरदा की स्थाई टेक थी `भले ही मानी न जाये मगर सुन मेरी भी ली जाए´ - कहते हैं प्रकृति किसी भी शून्य को बर्दाश्त नहीं करती...हर शून्य अन्तत: भरता है। फिर भी एक जगह ऐसी है जहां गिरदा का होना बेहद ज़रूरी था...जहां गिरदा की ग़ैरमौज़ूदगी बड़े तीखेपन से महसूस की जायेगी। उत्तराखण्ड के जनसरोकारों की लड़ाई को `संघर्षवाहिनी´ के बिखराव ने अत्यधिक क्षति पहुंचाई थी। 1994 के `जन उभार´ के चढ़ाव के दौर में आन्दोलनकारी ताक़तों की जो एकजुटता दिखाई दे रही थी, वह भी अवसाद के दौर में बिखराव की शिकार हुई। आन्दोलनकारी ताक़तें इस सर्वव्यापी बिखराव की वजह से जितनी नेपथ्य में जाती रहीं, मंच दलगत राजनीति के लिए उतना ही खुलता गया। आन्दोलनकारी ताकतों के बीच इस समय ` जितने बांभन उतने चूल्हे´ की निर्लज्जता पसरी हुई है। मूल कारण छोटे-छोटे अहंकार और परस्पर अविश्वास हैं। उत्तराखण्ड की लड़ाई के लिए इन छोटे-छोटे शक्ति-समूहों एवं आन्दोलनकारी ताक़तों के किसी एक एक `फोकल प्वाइंट´ पर घनीभूत हो सकने का सपना गिरदा के इर्दगिर्द ही सम्भव था, किन्तु गिरदा अब नहीं है...नहीं है मतलब नहीं है!

उम्मीद ज़रूर की जा सकती है कि असल मुद्दों को असली लोगों तक पूरी शिद्दत के साथ ले जाने की गिरदा की अदम्य और अपार इच्छा को यदि हम अपने भीतर जीवित रख सकें तो उत्तराखण्ड में नई सुबह का सपना देखते हुए ` जैंता एक दिन तो आलो वो दिन यै दुनिं में...´ अब भी गाया जा सकेगा।


***


रमदा आदर और प्यार का संबोधन है...श्री प्रेमबल्लभ पांडे के लिए, जिन्होंने ये स्मृतिलेख लिखा है। वे कई वर्ष अर्थशास्त्र के प्राध्यापक रह कर साल भर पहले सेवा निवृत हुए। नैनीताल ज़िले के क़स्बे रामनगर में रहते हैं। साहित्य में उनकी गति अनंत है। ख़ासकर कविता वे बहुत प्यार से पढ़ते हैं। मेरी लिखी हर कविता उनसे सहमति प्राप्त होने के बाद ही प्रकाशित होती है। उनके जैसा मित्र पा लेना भी इस दुनिया में एक बड़ी उपलब्धि है। मैंने कई बार प्रयास किया कि समकालीन हिंदी कविता पर उनसे कुछ लिखवाया जा सके पर वे सनक की हद तक संकोची भी हैं....और मैं उनसे काफ़ी खीझा भी रहता हूँ। बहुत प्यारे दोस्त को खो देने के कारण गिरदा पर लिखना उनके लिए ख़ासा कष्टप्रद रहा, पर आख़िरकार उन्होंने कुछ लिखा और मैं आभारी हूँ कि अपने लिखे को अनुनाद के लिए भी दिया।

Sunday, September 19, 2010

जीवन रहेगा

उत्तराखंड विपदा में है। सब कुछ उजड़ा - उजड़ा। कुछ दिन से अनुनाद पर आना भी नहीं हुआ। आज आया हूँ तो सोचा पोस्ट बदल दूँ। बस एक कविता जो पब्लिक एजेंडा में छपी थी...पिछले महीने...

जीव रहेगा

जीवन था
क्योंकि शर्त थी कि जीवन रहेगा
एक बदला ख़ुद से
जिसे जीकर ही लिया जा सकता था
हर हाल में

बदले में तकलीफ़ थी
जैसी पुरानी लड़ाइयों में प्राणघातक घाव लग जाने से होती थी
पर सन्तोष था कि जीकर ही भुगत लिया सबकुछ

सबकुछ यानी सबकुछ
सब जो प्रेम था और कुछ जो प्रेम नहीं था
दोनों को अलगाना नहीं था
साथ में वो ज़्यादा अर्थ देते थे

जीवन को ज़्यादा अर्थ की ज़रूरत थी
कम अर्थ उसे बिगाड़ सकता था
ख़त्म भी कर सकता था
लेकिन शर्त थी कि जीवन रहेगा
पर ज़्यादा अर्थवान होने से वह गूढ़ होता जाता था
समझ में नहीं आता था

समझ में नहीं आता था इसीलिए तो जीवन था
और शर्त थी कि वह रहेगा

रहेगा में एक ढाढ़स होना था
पर नहीं था
वह भीतर ही रोक ली गई उस रुलाई की तरह लगता था
जिसे एक औरत
घर भर से छुपाती थी

टी.वी. पर एक रियलिटी शो में
प्रतिभागी भोजपुरी नायक रह-रहकर दहाड़ता था -
जिन्दगी झण्ड बा
तब भी घमण्ड बा !

इस तरह
अपने समय में चुकी हुई कविता तो
लगातार सरल होती हुई एक जगह आकर ख़त्म हो जाती थी
पर गुणीभूत होता हुआ जीवन था

और शर्त थी कि वह रहेगा !
***

Saturday, September 11, 2010

उस अलाव से कुछ बच ही निकलता है : मार्टिन एस्पादा



उस अलाव से कुछ बच ही निकलता है
विक्टर और जोअन हारा के लिए


I.क्योंकि हम कभी नहीं मरेंगे: जून 1969

विक्टर गा उठा हलवाहे की प्रार्थना अपनी
लेवंताते, य मिराते लास मानोस.
उठो और निहारो अपने हाथों को
रूखी त्वचा के दस्ताने पहने, विक्टर के पिता के हाथ
पत्थर हो गए हल चलाती मुट्ठियों की तरह.
इस्तादियो चीले ने लगाया जयकारा, बेसुध उस आदमी की
तरह जिसे पता है कि उसने आखिरी बार हल है चलाया
किसी और के खेतों में, जो सुनता है वह गीत कि जिसमें
कही जा रही है वह बात, जिसे वह न जाने कब से
अपनी गर्दन के निचले हिस्से पर ढोए जा रहा है.

जोअन. नर्तकी, जो भीड़ के सामने झूमा करती
उन्हीं झुग्गी बस्तियों में जहाँ विक्टर गाया करता
अपनी कुर्सी पर बैठे बैठे आगे को झुकी यह सुनने:
नवगीत महोत्सव का पहला इनाम विक्टर हारा को.
ये वो रातें हैं जब हम सोते नहीं
क्योंकि हम कभी नहीं मरेंगे.
फिर कैसे वह अँधेरे में तिरछी निगाह डाले,
सबसे आखिरी सीट से भी पीछे कहीं, अपनी गिटार उठाये,
गा सकता है: हम साथ-साथ जायेंगे, आपस में जुड़े हुए खून से,
इस घड़ी और हमारी मौत के पहर में. आमीन.


II. वह आदमी जिसके पास है सभी बंदूकें: सितम्बर 1973

तख्ता-पलट हुआ, और सैनिकों ने कोड़े लगाये राज्य के दुश्मनों को
हाथ सिर पर और कतारबद्ध, स्टेडियम के फाटकों से होकर.
दण्डित चेहरों ने अपने खून का उजाला बहाया इस्तादियो चीले
के दालानों में. उजाला बहता है वहाँ अब भी.
हत्यारों का भी था अपना उजाला, भुतहा सिगरेटें
हर गलियारे में टिमटिमातीं, खासकर प्रिंस,
या जैसा कि कैदी उस भूरे अफसर को कहते
जो ऐसे मुस्कुराता जैसे उसके दिमाग में गाते हों गिरजे.

जब गलियारे में विक्टर फिसल पड़ा
छाती से चिपके गठरी बन बैठे उन हजारों घुटनों से दूर
जो इंतजार कर रहे थे अपनी गर्दन पर सिगरेटों का
या घूरती मशीन-गनों को वापिस घूर रहे थे.
विक्टर मिला प्रिंस से, अपने दिमाग में सुन रखा होगा गाना उसने,
क्योंकि पहचान गया वह गायक का चेहरा, झनझना दी हवा
और उंगली से चीर दिया उसके गले को.
प्रिंस ऐसे मुस्कुराया जैसे वो हो वह आदमी जिसके पास है सभी बंदूकें.

बाद में, जब जाना दूसरे कैदियों ने
कि उनके कन्धों पे नहीं लगे हैं पर
जो उड़ा ले जाएँ उन्हें फाइरिंग दस्तों से दूर,
विक्टर ने गाया "वेंसेरेमोस'", हम फतहयाब होंगे,
और प्रतिबंधित उस तराने से ऊँचे उठ गए कंधे
चीख-चीख कर प्रिंस का चेहरा पड़ गया लाल जब.
जब उसकी अपनी चीख शांत न कर सकी उस तराने को
जो उसकी नसों से धड़कता हुआ पहुँच रहा था उसके दिमाग तक,
प्रिंस ने सोचा, कि मशीन गनें तो कर ही देंगी.


III. गर फ़क़त विक्टर: जुलाई 2004

तोड़ दो हरेक घड़ी इस्तादियो चीले पर पटक कर
इस जगह, विक्टर की आखिरी साँस
से गिने जाते हैं इकतीस साल. एक लम्हा,
जैसे मोमेंटो में, आखिरी गीत का आखिरी लफ्ज़
जो उसने लिखा था फेफड़ों के छत्ते में
गोलियों के घुस पड़ने से पहले.

उसकी आँखें अब भी जलती हैं. जीभ अब भी जम जाती है उसकी.
फिर हेलीकाप्टर गरजते हैं जोअन के लिए,
बजता है फौजी संगीत हर रेडियो स्टेशन पर,
रोटी की क़तार में औरतों को राइफल के हत्थे से ठेलते हैं सैनिक.
वह फिर पाती है अपने शौहर की लाश मुर्दाघर में
गंदे कपड़ों के ढेर की तरह पड़ी लाशों के बीच
और उठाती है उसका टूटा हुआ लटकता हाथ अपने हाथों में
जैसे कि नाच शुरू करने वाली हो कोई.

हाँ, जहाँ उसे मारा गया था उस स्टेडियम को अब उसका नाम दे दिया गया है
हाँ, लॉबी की समूची दीवार के पत्थरों में उसके शब्द हैं बहते
हाँ, आज रात चीनी नट यहाँ दिखायेंगे कलाबाजियाँ,
वह फिर भी फाड़ डालेगी वह बैनर जिस पर उसका नाम सजा है
उसके शब्दों की दीवारें तोड़ डालेगी हथौड़े से
और पसरा देगी नटों को रास्तों पर
गर फ़क़त विक्टर हो जाए दाखिल कमरे में
इस बहस को अंजाम देने
कि क्यों वह इतना धीरे चलता है सुबह सुबह
कि उसने जोअन को क्लास के लिए देरी करवा ही दी लगभग.



IV. उस अलाव से कुछ बच ही निकलता है: जुलाई 2004

सान्तियागो के दक्षिण में, इस्तादियो विक्टर हारा से दूर
तम्बू के नीचे जहाँ खड़खड़ाती है टाट बारिश की कीलों से
तख्ता-पलट के बरसों बाद पैदा हुए एक लड़का और लड़की
मंच पर एक कुर्सी के सहारे झुकते हैं अपनी आँखों में भर लेने को एक-दूसरे के चेहरे.
कैसेट घरघराता है, और विक्टर की आवाज़
जले हुए कागज़ की तरह चक्कर खाती हुई उठती है छत की ओर
प्रेमी के मौन का गाया जाना उन नर्तकों के लिए
जो अपने शरीरों के प्रतान को सीधा करते हैं.

उस अलाव से कुछ बच ही निकलता है
जिस पर अपने हाथ सेंका करते हैं सेनानायक
जले कागज़ के अंगारे, दफन कर दिए गए टेप-रिकार्ड
ख़ामोशी में गूंजती हुई आवाजें
जैसे हों अदृश्य जीव पानी से भरे गिलास में
नर्तकी कैसे झूमती जाती है उस संगीत पर जो गूँज रहा सिर में
तनहा मगर कुहनी पर उँगलियों की छुअन की है सिहरनें.


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चीले में सल्वादोर आयेंदे (Salvador Allende) की लोकतांत्रिक पद्धति से सत्ता में आई समाजवादी सरकार के खिलाफ 11 सितम्बर 1973 को हुए अमेरिका-समर्थित सैन्य विद्रोह के दूसरे ही दिन लोकगायक और राजनीतिक कार्यकर्त्ता विक्टर हारा को गिरफ्तार कर लिया गया था. चार दिनों तक यातनाएँ देने के बाद 15 सितम्बर को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई. 'उत्तरी अमेरिका के पाब्लो नेरुदा' कहे जाने वाले मार्टिन एस्पादा की यह कविता उनकी पुस्तक 'रिपब्लिक ऑफ़ पोएट्री' में संकलित है. कविता के पहले दो अंश विक्टर की पत्नी जोअन हारा (Joan Jara) की पुस्तक विक्टर: एन अनफिनिश्ड सॉन्ग (Victor: An Unfinished Song, Bloomsbury,1998) में दिए गए विवरण पर आधारित हैं. तीसरा अंश जुलाई 2004 में सान्तियागो में इस्तादियो विक्टर हारा में कवि की जोअन हारा के साथ हुई बातचीत पर आधारित है. पहले अंश में विक्टर हारा के गीत 'प्लेगारिया उन लाब्रादोर' (हलवाहे की प्रार्थना) की एक पंक्ति मूल स्पैनिश में उद्धृत की गई है. "वेंसेरेमोस" (हम फतहयाब होंगे) जिसका ज़िक्र तीसरे अंश में आया है, यूनिदाद पॉपुलर (Unidad Popular अर्थात जन एकता) गठबंधन और आयेंदे सरकार का कौमी तराना था. स्पैनिश में इस्तादियो का अर्थ है स्टेडियम; और तीसरे अंश में उल्लेखित 'मोमेंटो'(क्षण) दरअसल विक्टर हारा द्वारा लिखे गए अंतिम गीत का अंतिम शब्द है क्योंकि वाक्य पूरा होने से पहले उनपर गोलियाँ चला दी गई थीं. ऊपर की तस्वीर में विक्टर और जोअन हारा अपनी बेटियों अमांडा और मैन्युएला के साथ हैं.

Tuesday, September 7, 2010

एक बहती हुई उज्जवल नदी

`युवराज` राहुल गांधी सोवियत संघ के पतन का हवाला देते हुए उस विचारधारा को सड़ी-गली बताते हैं जिसने दुनिया भर में अन्याय और गैर बराबरी के खिलाफ संघर्षों की ज़िद पैदा कीराहुल कांग्रेस से हैं और कांग्रेस की कोई विचारधारा है, यह उस दौर में भी पता नहीं लगाया जा सकता था, जब राहुल के नाना जवाहर लाल उसी `सड़ी-गली` विचारधारा से खुद को गर्व से प्रेरित बताते हुए आत्मनिर्भर-सेक्युलर हिन्दुस्तान बनाने की कोशिशों में जुटे थेहाँ फिलहाल अमेरिका की चाकरी कर रही और दक्षिणपंथ की सियासत कर रही कांग्रेस की नीतियां साफ हैं और उनके नेता के ऐसे बयान स्वाभाविक हैंइन दिनों मैं `जलसा` पढ़ रहा हूँ और उसमें से शुभा की ये पंक्तियाँ यहाँ देना मुझे बेहद अर्थपूर्ण लग रहा है :

बार-बार एक दृश्य टेलीवीज़न पर दिखाया जा रहा हैएक मूर्ति के गले में रस्सी डाली जाती है और वह ज़मीन पर गिर रही है हालाँकि गिरते हुए उसकी मज़बूत पीठ दिखाई देती है लेकिन फिर भी आख़िर वह गिर ही रही हैयह मूर्ति किसी देवता की नहीं है केवल किसी राष्ट्रनायक की भी नहींयह ऐसी मूर्ति है जिसे देखकर राष्ट्र की अंधी सीमाएं दूर हटने लगती हैं और पृथ्वी की अखंडता बहुत बार एक साथ दिखाई पड़ती हैयह उस इंसान की मूर्ति है जिसने एक इंसान के तौर पर, एक इंसान की क्षमताओं के तौर अपने को अधिकतम रूप में अभिव्यक्त किया था, मनुष्य और मानव जाति की छुपी क्षमता का एक ख़ज़ाना खोज निकाला था, एक ऐसी खदान का मुंह खोल दिया था जिसमें असंख्य खनिज और अमूल्य धातुओं का अपार बहाव थाइस खदान को मनुष्य से मानव दृष्टि से संपृक्त करने वाली यह मूर्ति गिरते हुए भी ऐसे विराट दृश्यों की ही याद दिला रही थी जो दृश्य केवल मनुष्य के सामूहिक साहस से ही पैदा होते हैंयह मूर्ति गिरते हुए भी उतनी ही लम्बी और मज़बूत थी
ऐसे लोग हैं जिनके दिलों में यह गिरती हुई मूर्ति और भी दृढ़ता से खड़ी हो गईयह एकदम अधिक समकालीन बन गईयह अब तक हमारे सामने थी अब हमारे अन्दर उतर गई हैऐसी मूर्तियाँ जो समकालीन बनकर हृदय में उतर जाती हैं गिराई नहीं जा सकतींकभी-कभी उनकी उपस्थिति प्रमाणित होने में समय लग जाता हैकभी कम कभी बहुत अधिक लेकिन अंततः उनकी उपस्थिति दर्ज होती हैदर्ज ही नहीं होती, वह अपने को प्रमाणित भी करती हैऐसे समय बार-बार आये हैं और आते हैं जब तमाम षड्यंत्रों, उन्माद और अत्याचार की बड़ी से बड़ी चट्टानों को तोड़ते हुए न्याय का रास्ता चमकता हैऔर एक बहती हुई उज्ज्वल नदी आख़िर सबको अपनी ओर खींचती है

Monday, September 6, 2010

शुभा के जन्मदिन के मौके पर उनकी दो रचनाएं

एक बढ़ई काम करते हुए कई चीज़ों पर ध्यान नहीं देता मसलन लकड़ी चीरने की धुन, उसे चिकना बनाते समय बुरादों के लच्छों का आस-पास फूलों की तरह बिखरना, कीलें ठोकने के धीमे मद्धिम और तेज सुर, खुद आपने हाथों का फुर्तीला हर क्षण बदलता संचालन और कभी चिंतन में डूबी, कभी चुस्ती और जोश से लपकती, कभी लगन में डूबी और कभी काम के ढलान पर आख़िरी झंकार छोडती अपनी गति वह स्वयं नहीं देखता. वह खुद अपने में उतरते काष्ठ मूर्ति जैसे गहन सौन्दर्य को भी नहीं देखता, अपनी परखती जांचती निगाह और एक अमूर्त आकृति को लकड़ी में उतारने की कोशिश में अपने चेहरे पर छाई जटिल रेखाओं के जाल को भी वह नहीं देखता. वह केवल काम का संतोष पाता है और कामचलाऊ जीवन-यापन के साधन.
एक आदमी आता है और उसकी कृति ख़रीद लेता है. वह कृति के सौन्दर्य पर इतना मुग्ध है कि बढ़ई को नहीं देखता. वह कृति के उपभोग को लेकर आश्वस्त है. वह फिनिश्ड सौन्दर्य और निर्बाध उपयोग को ही पहचानता है. सौन्दर्य का होना उसके लिए अंतिम है. सौन्दर्य का `बनना` वह नहीं जानता. उसके रचनाकार को वह नहीं देखता क्योंकि वहाँ सौन्दर्य सुगम नहीं है, वहाँ अधूरापन और जटिलताएं हैं वहाँ एक गति है जिसका पीछा करने मात्र के लिए एक रचनात्मक श्रम जरूरी है. यह श्रम निर्बाध उपभोग के आड़े आता है, इसलिए सौन्दर्य के पुजारी बन चुके लोग पूर्ण, ठहरे हुए-हमेशा के लिए ठहरे हुए सौन्दर्य को देखते हैं. मनुष्य को नहीं, बढ़ई को नहीं. मनुष्य की उपेक्षा और मृत सौन्दर्य की पूजा आराम से साथ साथ चलते हैं. ज़ाहिर है अपने को न देखने वाले बढ़ई और केवल कृति को देखने वाले उपभोक्ता के बीच बड़ा सम्पूर्ण सामंजस्य होता है.
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हमारा काम

जो निजी परिवारों में होता था
वह हो रहा है अब
निजी एलबमों में
कभी कभी लगता है
सब पुराना ही है
बस उसका प्रदर्शन नया है

अब पता लगता है
ख़ून ख़राबे में हमारा यक़ीन
पहले भी था

बलात्कार के शास्त्र
हमने ही रचे थे
हमने ही बनाया था निरंकुशों को
ईश्वर
और फिर उसी ईश्वर की तरह
अंध विज्ञान भी हमने ही बनाया

अब हट चुका है
सभ्यता के चेहरे से हर पर्दा
नागरिक मनुष्य
जैसे हमने देखा था
सपने में

हमारे जेल और हमारे शिक्षा संसथान
हमारे घर और हमारी क़त्लगाहें
हमारे न्यायालय और हमारे चकले
खड़े हैं एक ही क़तार में

इस दृश्य को समझने में
बाधा डालते हैं हम ही

हम अकेले ही पहुँचना चाहते हैं
किसी स्वर्ग में
उन सभी को छोड़ते हुए
जिन्हें हम मित्र आदि कहते थे

ग़रीब गुरबा क़ी कौन कहें
हम अपनी आत्मा भी छोड़कर
स्वर्ग जाना चाहते हैं।
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गद्य का टुकड़ा असद ज़ैदी द्वारा सम्पादित `जलसा` से और कविता असद ज़ैदी द्वारा सम्पादित `दस बरस` से

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