
प्रेमी
गौरैये का वो जोड़ा है
जो समाज के रौशनदान में
उस समय घोसला बनाना चाहते हैं
जब हवा सबसे तेज बहती हो
और समाज को प्रेम पर
उतना एतराज नहीं होता
जितना कि घर में ही
एक और घर तलाशने की उनकी जिद पर
शुरू में
खिड़की और दरवाजों से उनका आना-जाना
उन्हें भी भाता है
भला लगता है चांय-चू करते
घर भर में घमाचौकड़ी करना
पर जब उनके पत्थर हो चुके फर्श पर
पुआल की नर्म सूखी डांट और पत्तियां गिरती हैं
एतराज
उनके कानों में फुसफुसाता है
फिर वे इंतजार करते हैं
तेज हवा
बारिश
और लू का
और देखते हैं
कि कब तक ये चूजे
लड़ते हैं मौसम से
बावजूद इसके
जब बन ही जाता है घोंसला
तब वे जुटाते हैं
सारा साजो-सामान
चौंकी लगाते हैं पहले
फिर उस पर स्टूल
पहुंचने को रोशनदान तक
और साफ करते हैं
कचरा प्रेम का
और फैसला लेते हैं
कि घरों में रौशनदान
नहीं होने चाहिए
नहीं दिखने चाहिए
ताखे
छज्जे
खिड़कियां में जाली होनी चाहिए
पर ऐसी मार तमाम बंदिशों के बाद भी
कहां थमता है प्यार
जब वे सबसे ज्यादा
निश्चिंत
और बेपरवाह होते हैं
उसी समय
जाने कहां से
आ टपकता है एक चूजा
भविष्यपात की सारी तरकीबें
रखी रह जाती हैं
और कृष्ण
बाहर आ जाता है...
गौरैये का वो जोड़ा है
जो समाज के रौशनदान में
उस समय घोसला बनाना चाहते हैं
जब हवा सबसे तेज बहती हो
और समाज को प्रेम पर
उतना एतराज नहीं होता
जितना कि घर में ही
एक और घर तलाशने की उनकी जिद पर
शुरू में
खिड़की और दरवाजों से उनका आना-जाना
उन्हें भी भाता है
भला लगता है चांय-चू करते
घर भर में घमाचौकड़ी करना
पर जब उनके पत्थर हो चुके फर्श पर
पुआल की नर्म सूखी डांट और पत्तियां गिरती हैं
एतराज
उनके कानों में फुसफुसाता है
फिर वे इंतजार करते हैं
तेज हवा
बारिश
और लू का
और देखते हैं
कि कब तक ये चूजे
लड़ते हैं मौसम से
बावजूद इसके
जब बन ही जाता है घोंसला
तब वे जुटाते हैं
सारा साजो-सामान
चौंकी लगाते हैं पहले
फिर उस पर स्टूल
पहुंचने को रोशनदान तक
और साफ करते हैं
कचरा प्रेम का
और फैसला लेते हैं
कि घरों में रौशनदान
नहीं होने चाहिए
नहीं दिखने चाहिए
ताखे
छज्जे
खिड़कियां में जाली होनी चाहिए
पर ऐसी मार तमाम बंदिशों के बाद भी
कहां थमता है प्यार
जब वे सबसे ज्यादा
निश्चिंत
और बेपरवाह होते हैं
उसी समय
जाने कहां से
आ टपकता है एक चूजा
भविष्यपात की सारी तरकीबें
रखी रह जाती हैं
और कृष्ण
बाहर आ जाता है...
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अरुणा राय की कुछ कविताएँ अशोक कुमार पांडे के ब्लॉग असुविधा पर भी पढ़ी जा सकती हैं
हैरानी होती है अरुणा जी अपना ब्लॉग छोड़कर कई और जगह सक्रिय हैं... अनुनाद पर तो उन्हें आना ही था, यह जगह उनपर खूब फबती है. असुविधा पर भी उन्हें पढ़ा था, कारवां पर भी... शुक्रिया.
ReplyDeleteसरल और सहज कविता है। पर इसे कायदे से
ReplyDeleteपर ऐसी तमाम बंदिशों से
कहां थमता है प्यार ।
पंक्ति पर खत्म हो जाना चाहिए।
उसके आगे कविता अपना मंतव्य खो देती लगती है।
bahut sunder bhaav poorn rachna.
ReplyDeleteसघन प्रेम की बहतरीन कविताएँ हैं। जहाँ सबकुछ बाज़ारू संस्कृत में विलुप्त होता जा रहा है वहाँ अरूणा राय आजकल अच्छी कविताएँ लिख रही है। इससे पहले उनकी प्रेम कविताओं से काव्य-प्रसंग ब्लाॅग पर भी पड़ी थीं। सुन्दर कविताओं से रू-ब-रू कराने के लिए मैं कवयित्री और आपको धन्यवाद देता हूँ। बधाई।
ReplyDeleteपर ऐसी मार तमाम बंदिशों के बाद भी
ReplyDeleteकहां थमता है प्यार
???????????