
उपस्थित तो रहे हम हर समारोह में
अजनबी मुस्कराहटों और अभेद्य चुप्पियों के बीच
अधूरे पते और ग़लत नंबरों के बावज़ूद
पहुंच ही गये हम तक आमंत्रण पत्र हर बार
हम अपने समय में थे अपने होने के पूरे एहसास के साथ
कपड़ों से ज़्यादा शब्दों की सफ़ेदियों से सावधान
हम उन रास्तों पर चले जिनके हर मोड़ पर ख़तरे के निशान थे
हमने ढ़ूंढ़ी वे पगडंडियां जिन्हें बड़े जतन से मिटाया गया था
भरी जवानी में घोषित हुए पुरातन
और हम नूतन की तलाश में चलते रहे…
पहले तो ठुकरा दिया गया हमारा होना ही
चुप्पियों की तेज़ धार से भी जब नहीं कटी हमारी जबान
कहा गया बड़े करीने से – अब तक नहीं पहचानी गयी है यह भाषा
हम फिर भी कहते ही गये और तब कहा गया एक शब्द- ख़ूबसूरत
जबकि हम ख़िलाफ़ थे उन सबके जिन्हें ख़ूबसूरत कहा जाता था
ज़रूरी था ख़ूबसूरती के उस बाज़ार से ग़ुज़रते हुए ख़रीदार होना
हमारे पास कुछ स्मृतियां थी और उनसे उपजी सावधानियां
और उनके लिये स्मृति का अर्थ कमोडिटी था
एक असुविधा थी कविता हमारे हिस्से
और उनके लिये सीढ़ियां स्वर्ग की
हमें दिखता था घुटनों तक ख़ून और वे गले तक प्रेम में डूबे थे
प्रेम हमारे लिये वज़ह थी लड़ते रहने की
और उनके लिये समझौतों की…
हम एक ही समय में थे अलग-अलग अक्षांशों में
समकालीनता का बस इतना ही भ्रमसेतु था हमारे बीच
हम सबके भीतर दरक चुका था कोई रूस
और अब कोई संभावना नहीं बची थी युद्ध में शीतलता की
ये युद्ध के ठीक पहले के समारोह थे
समझौतों की आख़िरी उम्मीद जैसी कोई चीज़ नहीं बची थी वहां
फिर भी समकालीनता का कोई आख़िरी प्रोटोकाल
कि उन महफ़िलों में हम भी हुए आमन्त्रित
जहां बननी थी योजनायें हमारी हत्याओं की!
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अशोक की इधर और भी कविताएं पढ़ने को मिली। अपने समय को परिभाषित करते हुए उससे लगातार आमना सामना करता हुआ कवि उन सभी में मौजूद दिखायी दे रहा है। रचनात्मक कौशल के लिहाज से भी अशोक प्रभावशाली कविताएं लिख रहे हैं।
ReplyDeleteहम अपने समय में थे अपने होने के पूरे एहसास के साथ
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और हम नूतन की तलाश में चलते रहे।
इस होनहार कवि को ढेरों शुभकामनाएं और प्रस्तुति के लिए आभार।
स्तरीय कविता है, बहुत प्रभावित हुआ हूँ. भीतर जाने से पहले इसके आवरण को कई और बार देख लेना चाहता हूँ.
ReplyDeleteमुझे तो लगता है अशोक जी ने न जाने अपनी ही तरह सोचने वाले कितने सारे साथियों का एक साझा बयान इस कविता में उतार दिया है। ऐसा लगता है जैसे अपने परिचय के रूप में बस इस कविता को ही हर प्रोफाइल पर लगाया जाना चाहिए।
ReplyDeleteअशोक जी की कवितायें सीधा संवाद स्थापित करती हैं. अपने समय के सच को उजागर करती. उत्साही जी ने सही कहा है कि उन्होंने ना जाने कितने साथियों का साझा बयान इस कविता में उतार दिया है.
ReplyDeleteएक अत्यंत प्रभावशाली रचना.. शब्द परतें खोलते हुए हमारे चारों ओर होती घमासान साजिश की और अंत तो स्तब्ध करता हुआ...
ReplyDeleteउन महफ़िलों में हम भी शामिल हुए...जहाँ बननी थी योजनायें हमारी हत्याओं की...
"एक असुविधा थी कविता हमारे हिस्से .....
ReplyDelete....
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और उनके लिए समझौतों की"
राजेश उत्साही जी की बात ठीक लगती है. ऊपर का पैरा मैं भी महसूस करता हूँ. याद रहेगी यह कविता.
मन की छटपटाहटों को बड़े सशक्त शब्दों में अभिव्यक्त किया ...बहुत ही प्रभावशाली कविता
ReplyDeleteअशोक जी की एक और अच्छी कविता... बधाई
ReplyDeleteआप साजिशों के सच सामने लाते हैं और भीतरघातों से रूबरू कराते हैं ओढा हुआ सब कुछ सच में बहुत निर्मम है !
ReplyDeleteek achchi kavita...badhayee.
ReplyDeleteजिया हो आसोक, जिया हो सिरीस...गजब के कविता भाई. खूबसूरत कहे से तो आसोक नाराज़ हो जाई ना..
ReplyDeleteआप सब साथियों और शिरीष भाई का बहुत-बहुत आभार… बस इतना जोड़ दूं कि ऊपर जिस पत्रिका की तस्वीर लगी है वह मैं निकालता नहीं बस संपादित करता हूं अपने संगठन के लिये…
ReplyDeleteऔर आलू भैया…पहिचान त नाहीं पवलीं पर तोहार अंदाज़ गजब बा…तू हूं जिया भैया…बहुते 'खबसूरत' जिन्नगी जिया…
मैं यारो युद्ध में कहाँ छिपाऊंगा,
ReplyDeleteअपने युद्ध से पहले के जख्म
अच्छी कविता के लिए अशोक भाई और शीरीष भाई दोनो को बधाई और आभार.
ReplyDeleteमहेश वर्मा, अंबिकापुर .छत्तीसगढ़.
अशोक जी की कवितायेँ पढ़ना किसी दुर्लभ मगर त्रासद और कड़वे अनुभव से घूँट-घूँट गुजरना लगता है..कविताएँ हमे सुविधा के राजमार्ग से विचलित कर हकीकत की उन अगम्य उपत्यकाओं तक घसीट कर ले जाती हैं..जिनकी चौहद्दी पर हमारे समय ने बार्बवायर्स बिछा रखे हैं..यह कविता भी ऐसी ही असहज कथ्यों का समुच्चय है..अपनी जगह से बेदखल आदमी का हलफ़नामा..उन जगहों के खिलाफ़ विद्रोह करता..जहाँ शब्द सिर्फ़ विज्ञापनीय स्लोगन बनने के लिये होते हैं..और आग सिर्फ़ फ़ायरप्लेसेज मे दहकने के लिये..
ReplyDeleteधूमिल याद आयें तो हैरानी नही होती...
शत-प्रतिशत समर्थन. एक वाक्य कभी कहीं इस्तेमाल करूँगा (भरी जवानी में घोषित हुए पुरातन) सम्पूर्ण क्रेडिट के साथ.
ReplyDeletekavita bahut hi acchi ban padi hai. badhai.
ReplyDeleteलडते रहने की वजह है यही बहुत है एक रचनाकार के लिये...। नही होती तो वह ढूँढ लेता है कहीं न कहीं । अच्छी कविता ।
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