Tuesday, August 31, 2010

अमित श्रीवास्तव की लम्बी कविता

महाकुम्भ
हज़ारों हज़ार साल पुराना हिन्दू धर्म (?) ख़तरे में है बचाओ
एक सौ आठ फीट लम्बी धर्म ध्वजा
जो महज सहजता के लिये
बावन फीट की भी हो सकती है
और जिसकी लकड़ी के लिए
(वो तो एक साधू ने सगर्व बताया
कि ये पूरा लम्बा लट्ठ एक ही पेड़ का है
कहीं कोई जोड़ नहीं)
घने जंगलों की ख़ाक छानी गई है
जिसे धरती के पेट से निकालने में उत्सव था
अखाड़ा परिसर के बीचों-बीच लगाने में
उत्सव था
जो अपने जैसी कई ध्वजाओं
(एक ही धर्म की अनेक ध्वजाएं
इस बात को बताती है अनायास
कि यहॉ सबको विचार की, चुनाव की
और अपने मत के
अन्धाधुन्ध प्रचार की स्वतंन्त्रता है)
के साथ बीच आकाश तनी मुस्कराती है
उससे बचेगा

या बचेगा धर्म
लम्बे पेशवाई जुलूसों और शोभा यात्राओं से
जिसमें
फिल्मी धुनों पर जबरन
भक्ति के शब्द उड़ेसे गाने वाले बैण्ड
जो बहरी हो रही सभ्यता
के कान के पर्दों पर
गैर जिम्मेदाराना शोर भर हैं

और
चमकीली छतरियों वाली बग्धियॉ
जिनको खींचने वाले घोड़े खच्चर
और गाड़ीवान
भोजन और दिहाड़ी में मिले पैसों
के गुणागणित से ज्यादा
उन अफवाहों से चिन्तित हैं
जिनमें प्रशासन द्वारा जुलुस के आकार-प्रकार
और संख्या पर असफल आत्म मुग्ध और
दिल बहलाऊ सवाल खड़े किये जा रहे हैं
ये अलग बात है कि साल के उन शुरुआती महीनों में
अखाड़ा हर सवाल पर हावी है

और
तलवारबाजी और गतके के साथ
नटबाजियॉ दिखाते
नंग धड़ग कुछ लोग
जो हर जुलूस में इतने ही जोश के साथ
उूल जुलूल उछलकूद मचाते हैं
गो कि इनका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं
उन धर्मोपदेशों से
जिनके वाचक
उनके ठीक पीछे
चमकीली छतरियों वाली
बग्घियों में विराजमान हैं

और
हाथी
जो उधार के विचार की तरह
हर जुलूस में शामिल हैं
अलमस्त ,गैर जिम्मेदार, अजीर्ण

और
अभी-अभी दीक्षा प्राप्त
भभूत, जटा और चिलम के ट्रेडमार्कवाले
नागा साधू
जो मौसम की अठखेलियों को
बद्तमीजी करार देते हुए
थर-थर कांप रहे हैं

ये सब शामिल हैं
और शामिल हैं पुलिस वाले
जिन्हें जटाजूट शिखाओं से कोई सरोकार नहीं
जिन्हें गाजे बाजे बैण्ड का शोर
झुंझलाहट के सिवा कुछ नहीं देता
जो इस बात से खौफ़जदा हैं,लगातार
कि कहीं हमारा जुलूस
किसी और जुलूस से टकरा ना जाए
जिनका पिछले जुलूस में उत्साह ज्यादा था
उससे पिछले में और भी ज्यादा
और उसके पिछले में तो देखते ही बनता था
ऐसे रंगबिरंगे जुलूसों से बचेगा हिन्दू धर्म

या बचेगा धर्म
धर्म गुरुओं के बड़े आलीशान
(तीन चार पांच सितारा कहने को जी
चाहता है पर क्या करें इनके लिए
सितारों की व्यवस्था नहीं है अभी)
आश्रमों से
जहाँ यात्रियों से किराया नहीं
दान लिया जाता है
जो तारों की व्यवस्था की अनुपस्थिति के बरक्स
अलग अलग है सुख सुविधा के अनुरुप
आयकर, मनोरंजन कर, व्यापार कर
चाहे कितने भी कर रोपे सरकार
लेकिन आंखों से धूल फांकना ही
सरकार की नियति है

या बचेगा धर्म
उन ब्याख्यानों , उपदेशों , कथाओं से
जो तब ज्यादा ही भारी और ओजस्वी हो उठती हैं
जब कि पण्डाल में
लाल बत्ती , नीली बत्ती या
विदेशी कारों की चमकीली अनगिन
बत्तियॉ आ घुसी हों

या बचेगा धर्म
अफीम सुल्फा और धुनी के धुंएं से
ललछौर हुई
औघड़ अलमस्त बाबा की ऑखों से
जो
ऑखें बन्द किए आगे को झुके स्त्री तन
को घूर रही हैं
अनवरत
किसी अज्ञात सुनामी को दबाए

या बचेगा धर्म
अलग-अलग मत मतान्तरों
अलग-अलग सम्बोधनों
अलग-अलग कपड़ों
अलग-अलग तिलक की रेखाओं
और इनके अलग-अलग प्रचार से
कि जैसे विज्ञान सम्मत बात
विविधता ही सरंक्षण का
सबसे मुफ़ीद उपाय है

अरे हाँ एक रास्ता और
इसे (यानि असहाय हिन्दू धर्म को)
किसी विश्वव्यापी समस्या से जोड़कर भी
बचाया जा सकता है
जैसे ग्लोबल वार्मिंग
ये नया नायाब बेहतरीन तरीका हो सकता है
किसी पुराने हज़ारों हज़ार साल पुराने धर्म को
ज़िंदा रखने का
इसमें आप अचानक ही
विश्व की एक बहुत बड़ी जनसंख्या
जो सिविल सोसायटी का
बौद्विक आख्यान है
के साथ सीधे जुड़ जाते हैं
जरुरी नहीं है
लोगों को धर्म रक्षा और ग्लोबल वार्मिग
के आपसी व्यवहार सूत्रों के बारे में बताना

इन नायाब तरीकों के बाद
एक आखिरी तरीका भी हो सकता है
इन सब चीजों को इकठ्ठा कर
मार्च के महीने के किसी सुहाने दिन
दोपहर बारह बजे के आसपास
जब बृहस्पति कुंभ राशि
और
सूर्य मेष राशि के जजमान के घर जीमने के बाद वाली
नींद ले रहा हो
अपने सही स्थान के लिए विवादित ब्रहमकुण्ड के
किसी अनिश्चित स्थान पर
चौरासी करोड़ देवी देवताओं की
पुष्प वर्षा के बीच
जल समाधि!
***

Friday, August 27, 2010

बेट्सी का क्या कहना है : पैट्रीशिया स्मिथ



बेट्सी का क्या कहना है

1965 में हरिकेन बेट्सी ने बहामा और दक्षिण फ्लोरिडा से होकर लुइज़िआना तट पहुंचकर न्यू ओरलेंस को जलमय कर दिया. तूफ़ानी उन चार दिनों में 75 लोग मारे गए थे.


ज़रा नज़ाकत नहीं. फुसफुसाहट तो तुमने जानी
ही नहीं, क्यों छोकरी?

इरादा उसे चारों खाने चित करने
का नहीं था, कटरीना,
तुम्हें बस चूमना था ज़मीन को
बस छुआने थे तुम्हारे कड़कते होंठ
और छोड़ देना था उसे हकलाता, आतंकित
तुम्हारे ख़याल भर से. बजाय इसके,

कमबख्तों की तरह तुम
गरजती फिरीं, अपनी भुजाएँ,
और डरावने अयाल लहराते हुए
तुम्हारी भुक्खड़ आँख का भोजन बनाने
रूहों को ऊपर उठाते हुए.

लगा था मैंने तुम्हें अच्छी तालीम दी है, लड़की.
सही तरीका सिखाया था तुम्हें उस शहर से मुहब्बत करने का,
उसका दिल तोड़ने का
और तुमसे कुछ और चपत पाने के लिए
उसे तड़पता छोड़ देने का.

तो अगर मुझे मिटाने का यह तुम्हारा तरीका था,
मुझे एक कड़े सबक से बारिश की बूँद में बदल देने का
तो यह तुमने बहुत भद्देपन से किया, मिर्ची. हाँ, मुझे मज़ा आया था

उस लम्हे में खुदा हो जाने का. पर तुम्हारी तरह नहीं,
उतावली छोकरी, मैंने पीछे छोड़ी थी अपनी छाप.
मैंने तो बस उन्हें मारा जो मेरे रास्ते में आये.

*******

(पाकिस्तान के बाढ़-पीड़ितों के दुख में शिरकत करते हुए और हरिकेन कटरीना की पाँचवी बरसी पर न्यू ओरलेंस में मारे गए लोगों की स्मृति में यह कविता, पैट्रीशिया स्मिथ के संकलन 'ब्लड डैज़लर' से.)

Sunday, August 22, 2010

जनकवि गिर्दा नहीं रहे .....

मेरे लिए गिर्दा हिंदी में लुप्त होती जनकवियों की परम्परा के अंतिम वारिसों में एक थे। मेरे मन में उनके लिए वही प्यार और सम्मान है जो नागार्जुन के लिए रहा। आज वो साथ छोड़ गए। इधर हमारा पहाड़ कई कई आपदाओं से जूझ रहा है.....प्राकृतिक आपदाएँ तो धीरे धीरे संभाल ली जायेंगी पर सुम्गढ़ में उन अट्ठारह बच्चों और अब इस अद्भुत जनकवि का जाना एक गहरा अँधेरा छोड़ जायेगा... गिर्दा को उपचार के लिए अचानक हल्द्वानी ले जाया गया था ....शेखर पाठक, राजीवलोचन साह, गिरिजा पांडे जैसे हमारे अग्रज मित्र उन्हें वहाँ ले गए ...पर गिर्दा शायद हल्द्वानी या किसी भी शहर की सरहद से दूर असीम की ओर जाना तय कर चुके थे। वे बहुत प्यार भरे शानदार इंसान थे, जिनकी कोमल हथेलियों की छाप हमारे चेहरे और माथे पर हमेशा रहेगी....हमें उस स्पर्श की ज़रुरत हमेशा रहेगी.....हम मानवीय प्रेम की उस दुर्लभ छुअन को किसी भी हाल में बचायेंगे...नहीं बचा पाए तो ख़ुद भी नहीं बच पायेंगे।

गिर्दा को याद करते हुए एक पोस्ट लगा रहा हूँ, जिसे दो साल पहले कबाडखाना में लगाया था. अभी बिलकुल अभी व्यक्ति गया है पर स्मृतियों से पूरा आकाश भरा है...ये आँसूं तुम्हारे ही लिए हो सकते थे गिर्दा.....हमारी ग़लतियों और कोताहियों के लिए हो सके तो माफ़ कर देना।



ये वीडियो छोटे भाई और साधना न्यूज़ में पत्रकार प्रिय बीरेंद्र बिष्ट के सौजन्य से....कैमरे में क़ैद गिर्दा के कुछ अंतिम ऊर्जावान पलों की इस प्रस्तुति के लिए अनुनाद परिवार उनका आभारी है....

जो नर जीवें खेलें फाग

नैनीताल में युगमंच, श्री रामसेवक सभा, पर्यटन एवं संस्कृति निदेशालय, नैनीताल समाचार, नयना देवी ट्रस्ट, संगीत कला अकादमी, श्री हरि संकीर्तन संगीत विद्यालय आदि के सहयोग से तीन दिन का `होली महोत्सव´ मनाया गया। होली के नागर रूप - बैठी होली से लेकर ठेठ ग्राम रूप - खड़ी होली तक होलियों के कई दौर चले। समापन नैनीताल समाचार के पटांगण में बैठी होली से हुआ। अंत में एक होली जुलूस निकाला गया, जिसमें राजीवलोचन साह ने एक विशिष्ट अर्थच्छाया और व्यंजना के साथ उत्तराखंड की जनभावनाओं से खिलवाड़ करने वाले राजनीतिक दलों, तिब्बत में नरसंहार कर रही चीनी सरकार, अमरीका से एक दुरभिसन्धि में बंध रही भारत सरकार, स्थानीय निकायों के निर्वाचन में खड़े होने वाले प्रत्याशियों आदि के लिए आशीष वचन उचारे। जनकवि गिरीश तिवारी `गिर्दा´ ने स्थानीय निकायों के निर्वाचन की तिथि की घोषणा के बाद के मंज़र पर एक गीत रचा है, जिसे उन्होंने होली जुलूस के साथ घूमते हुए जगह-जगह रुककर सुनाया। कबाड़खाना के साथियों और यात्रियों के लिए प्रस्तुत है यह गीत, लेकिन मूल कुमाऊंनी में। जैसे श्रीलाल शुक्ल के राग-दरबारी के शिवपालगंज में पूरा देश समाया है, वैसे ही गिर्दा के इस गीत में पूरे देश की राजनीति !


मेरी बारी, मेरी बारी, मेरी बारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

धो धो कै तो सीट जनरल भै छा
धो धो के ठाड़ हुणै ए बारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

एन बखत तौ चुल पन लुकला
एल डाका का जसा घ्वाड़ा ढाड़ी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

काटी मैं मूताणा का लै काम नी ए जो
कुर्सी लिजी हुणी ऊ ठाड़ी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

कभैं हमलैं जैको मूख नी देखो
बैनर में छाजि ऊ मूरत प्यारी
घर घर लटकन झख मारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

हरियो काकड़ जसो हरी नैनीताल
हरी धणियों को लूण भरी नैनीताल
कपोरी खाणिया भै या बेशुमारी
एसि पड़ी अलबेर मारामारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

गद्यात्मक भावार्थ -

मेरी बारी ! मेरी बारी - कहते सोचते हैं चुनावार्थी ! हाय ! इस बार देखिए ये मजेदारी!बड़ी मुश्किल से तो सीट अनारक्षित हुई है, बड़ी मुश्किल से हम खड़े हो पा रहे है। और ये वही लोग है जो विपदा आने पर बिलों में दुबक जाते है पर इस समय तो डाक के घोड़ों की तरह तैनात खड़े हैं (पहाड़ के दुर्गम क्षेत्रों में डाक घोड़ों पर ले जायी जाती रही है)। गजब कि बात है कि जो कटे पर मूतने के भी काम नहीं आता, वो कुर्सी की खातिर खड़ा होने में कभी कोताही नहीं करता। कभी जो सूरत नहीं दिखती वही उन बैनरों में चमकती-झलकती है, जो घर-घर लटके झख मारते रहते हैं।

और अंत के छंद में समाया है अपार दुख - कि हरी ककड़ी के जैसा मेरा हरा नैनीताल! हरे धनिए के चटपटे नमक वाले कटोरे -सा भरा नैनीताल ! ऐसे हमारे नैनीताल को नोच-नोच कर खाने चल पड़े हैं ये लोग बेशुमार ! अबकी पड़ी है ऐसी मारामारी !
***

Tuesday, August 17, 2010

शमशेर से साझा

कुछ बातरतीब बातों की एक बेतरतीब पड़ताल

हर युवा कवि अपनी रचना और विचार-प्रक्रिया में ख़ुद को पूर्वज कवियों से साझा करता है। मेरे लिए पूर्वज कवियों का स्मरण एक आवेगपूर्ण घटना है - यूँ किसी भी समय में किसी का कवि हो जाना भी एक घटना ही है - कुछ ऐसी घटना, जिसे कबीर ने एक अवान्तर ईश-प्रसंग में `घट-घट में पंछी बोलता´ कहकर व्यक्त किया है। मेरे थोड़े-से इस कवि-जीवन में कितनी तो पूर्वज कविता ऐसी है, जो घट-घट में बोलती है। उसमें अमीर ख़ुसरो हैं, कबीर हैं, नज़ीर हैं, मीर हैं, ग़ालिब हैं, निराला हैं, फ़ैज़ हैं, नागार्जुन हैं, मुक्तिबोध हैं, धूमिल हैं - और निश्चित रूप से एक बहुत बड़े स्पेस के साथ शमशेर हैं। बहुत उत्सुकता से मैं देखता हूँ कि हमारे अग्रजों में आलोक धन्वा, वीरेन डंगवाल, मनमोहन और मंगलेश डबराल हैं, जो शमशेर के साथ अपनी कविता में बहुत कुछ साझा करते हैं। यहां मैं शमशेर की कही-लिखी कुछ बातों के सहारे अपनी इस साझेदारी के बारे में कुछ कहना चाहूँगा -

कला का संघर्ष समाज के संघर्षों से एकदम कोई अलग चीज़ नहीं हो सकती (१)

आज की कविता में, ख़ासकर नए लोगों के बीच कला या कलावाद एक बड़ी बहस का मुद्दा है। उदाहरण के लिए युवा कवियों में गिरिराज किराडू और किसी हद तक व्योमेश शुक्ल या उनकी कविता को लोग कलावादी कहते हैं और ऐसा कहते हुए वे अज्ञेय और अशोक वाजपेयी को तो याद रखते हैं, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से शमशेर को भूल जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि जितनी कला शमशेर में है, उतनी अज्ञेय या उनके परवर्ती अलम्बरदारों में होगी - पर शमशेर की कला का संघर्ष, जैसा कि उन्होंने स्पष्ट किया है, समाज का संघर्ष है। यहां एक बात यह भी उठ सकती है कि ठीक है कथ्य आपका समाज का है, किन्तु उसे कहने का शिल्प इतना कलापूर्ण है कि वह जिस समाज का है, वही उसे समझ नहीं पाता। मैं कहना चाहता हूँ कवि का कथ्य हमेशा ही स्थूल सामाजिक आशयों का कथ्य नहीं होता, उस पर सूक्ष्मतम को गहने की जिम्मेदारी भी होती है। दरअसल भीतरी, गूढ़ और जटिल संरचनाओं किंवा कलाओं से ही बाहर का स्थूल और प्रकट रूप अस्तित्व में आता है- यह सिद्धान्त विज्ञान से लेकर समाज और साहित्य तक एक जैसा लागू होता है। फिर सवाल यह है कि कला कहते किसे हैं? यहां भी शमशेर ही साथ देते हैं -

आज की कला का असली भेद और गुण लोक-कलाकारों के पास है, जो जनान्दोलनों में हिस्सा ले रहें हैं....... हम-आप ही अगर अपने दिल और नज़र का दायरा तंग न कर लें तो देख सकेंगे कि हम सबकी मिली-जुली ज़िन्दगी में कला के रूपों का ख़ज़ाना हर तरह बेहिसाब बिखरा चला गया है....अब यह हम पर है, ख़ास तौर से कवियों पर, कि हम अपने सामने और चारों ओर की इस अनन्त और अपार लीला को कितना अपने अन्दर बुला सकते हैं। (२)

यहां बात न सिर्फ़ लोक-कलाकारों की हो रही है, बल्कि उन जनान्दोलनों की भी हो रही है, जिनमें वे भागीदार होते हैं। कला का बेहद निकट और आत्मीय सम्पर्क `जन´ से है। बात को आगे बढ़ाते हुए हम कह सकते हैं `जनवादी कला´ यानी कला जो जन के हित में हो, उसके संघर्षों को स्वर देती हो, भले कभी बहुत पास और कभी कुछ दूर से देती हो, पर देती हो। तो इस तरह बरास्ता शमशेर मेरे लिए हर उस तरह की कला सर-माथे पर है, जिसका मूल तत्व जन है। शमशेर की कला का सबसे सार्थक प्रभाव किसी पर देखना हो तो आलोक धन्वा का अकेला संकलन `दुनिया रोज़ बनती है´ को पढ़ लेना चाहिए। उनके बिम्ब उतने ही हल्के-हवादार, धरती-आकाश के कोमल रंगों से भरे, भीतर वैसी ही आग-वैसे ही वास्तविक और समूचे जीवन-राग से रचे हैं, जैसे शमशेर के यहां है। अपने नव्यतम संग्रह `स्याही ताल´ के नाम से ही मानो वीरेन डंगवाल शमशेर का सुमिरन कर लेते हैं और फिर अन्दर आलोक धन्वा को समर्पित एक कविता की पंक्ति ` एक बादल जो दरअसल एक नम दाढ़ी था´ में शमशेर से वीरेन डंगवाल तक की पूरी परम्परा एकमेक हो जाती है, जिससे अगर सीखना चाहे, तो हमारी पीढ़ी बहुत कुछ ऐसा सीख सकती है, जिसे एक शब्द में `कला´ कहना चाहिए । शमशेर को निरन्तर पढ़ने से मिली इस समझ के सहारे मैं कह सकता हूँ कि कला का जो प्रश्न औरों को सबसे ज़्यादा परेशान करता है, वह मेरे लिए दो दूनी चार की तरह सरल होकर सामने आता है। मुझ समेत सभी को चिन्ता करनी चाहिए कि इक्कीसवीं सदी में हमारे लिए `लोक-कलाकार´ और `जनान्दोलन´ जैसे क़ीमती शब्दों के अब क्या मायने हैं। आज की कविता के सामने सबसे बड़े प्रश्न यही हैं कि हमारा `जन´ कौन है? कैसा है? कहां है? उसके क्या हक़-हुक़ूक हैं? और इन सबसे बढ़कर यह कि हम ख़ुद क्या ठीक वही `जन´ नहीं हैं? हमारी तंगदिली हमें एक दिन कहीं का नहीं छोड़ने वाली है, क्योंकि हमने अपने जीवन की सीमाएं तय कर ली हैं और साथ ही लिखी-पढ़ी जा रही कविता की भी। हमें जल्दी, किसी तरह अपने भीतर को बाहर प्रदर्शित कर देने की है, बाहर को भीतर बुलाने के प्रयास कमतर होते गए हैं। कविता लिखना एक नितान्त बौद्धिक कृत्य होता गया है। इस अंधेरे में मैं टटोलता हुआ चलता हूँ तो शमशेर किसी अनन्त से मेरी ओर बढ़ा हाथ हो जाते हैं। पुरखों के बारे में बहुत महत्वाकांक्षी होकर कहूँ तो मुझे बुद्धि मुक्तिबोध की चाहिए और हृदय नागार्जुन का पर हाथ हमेशा शमशेर का चाहिए, जिसे थामकर पिछले पचास साल की कविता की जटिलता में राह खोजना और अपनी राह बनाना, दोनों ही कुछ आसान हो पाते हैं। कविता में कला की सच्ची शिनाख़्त करना चाहूँ तो शमशेर के ठीक अगल-बगल खड़े आलोक धन्वा, वीरेन डंगवाल, मनमोहन और मंगलेश डबराल का मेरे मन में खिंचा यह ग्रुपफोटोग्राफ़ आश्वस्त करता है कि कला और कविता के बारे में मेरी ये धारणाएं आभासी नहीं, वास्तविक हैं। और वास्तविक मेरे लिए एक बड़ा शब्द है - महान, अनन्त और अपार।

जब `वास्तविक´ कहता हूँ तो यह विचार के बीहड़ में उतरना होता है। जीने और जीते रहने के लिए वैज्ञानिक जीवनदृष्टि की एक टीसभरी खोज। जो है, वही वास्तविकता नहीं है- जो होना चाहिए, वह भी वास्तविकता है। वास्तविकता क्या है, क्या होनी चाहिए का एक जटिल संसार मेरे सामने खुलता है। स्मृति और स्वप्न के बीच कहीं एक वास्तविकता है, जो मेरी है। मिट्टी की परतों में राह तलाशते ख़तरों से घिरे किसी नन्हें जीव की-सी उद्धिग्नता और छटपटाहट। मेरे चारों ओर परभक्षी विचारधाराओं के झपट्टे और कितना तो लोभ, जो जीवन को सरल बनाता दीखता है, पर जीवन कभी सरल नहीं होता। अपने जीवन को खोजने के लिए एक वैज्ञानिक आधार की तलाश हर कवि की तलाश है। शमशेर ने अज्ञेय के दूसरा सप्तक के अपने हिस्से के वक्तव्य में अगर यह घोषणा की है कि मेरे लिए यह वैज्ञानिक आधार मार्क्सवाद है (३) तो मेरे लिए इसका एक अपना ऐतिहासिक महत्व है। शमशेर की पुरानी कविता `समय साम्यवादी´ ने १७ -१८ की उम्र में मेरे भीतर जैसे एक रूमान को जन्म दिया था। दीवारों पर आइसा का प्रतीक चिन्ह `तीन सितारों की छांव तले तना हुआ मुक्का´ बनाते हुए दिल फड़फड़ाता हुआ बार-बार यही दुहराता था -

वाम वाम वाम दिशा
समय-साम्यवादी
पृष्ठभूमि का विरोध
अंधकारलीन
व्यक्ति - कुहाSस्पष्ट हृदय-भार आज, हीन
हीन भाव, हीन भाव, हीन भाव.....
मध्यवर्ग का समाज, दीन
(४)

शमशेर की कविता की बदौलत ज़िन्दगी में आया यह रूमान बाद में मुक्तिबोध को पढ़ते हुए पका। प्रेम बना। जीवन में बसा। मेरी दुनिया कई सही-ग़लत काम करते या उनका भागीदार बनते, कहीं न कहीं उसी रूमान से संचालित होती रही है। एक कवि आपकी जीवनचर्या में घुस सकता है, उसे बदल सकता है, इस चीज़ को मेरे लिए शमशेर की कविता ने सम्भव कर दिखाया है। और यह तो महज विचार की बात है, सौन्दर्यबोध, शरीरबोध और बिम्बबोध के तो पहलू अनेक हैं।

दो चार अलग-अलग भाषाओं के अलग-अलग मिज़ाज की, और उनकी अलग-अलग तरह की रंगीनियों और गहराइयों की जानकारी हमें जितना ज़्यादा होगी उतना ही हम फैले हुए जीवन और उसको झलकाने वाली कला के अन्दर सौन्दर्य की पहचान और सौन्दर्य की असली कीमत की जानकारी बढ़ा सकेंगे। (५)

शमशेर की इस सीख के आगे कभी-कभी बहुत शर्मिन्दग़ी महसूस करता हूँ। इस मामले में अनपढ़ ही रहा। अंग्रेज़ी का कामचलाऊ (पढ़ पाने और अंग्रेज़ी से कविताओं का हिन्दी अनुवाद कर पाने भर) ज्ञान अर्जित कर पाया, हालांकि उसने भी दिमाग़ में कई खिड़कियां खोल दी हैं। उर्दू की लिपि नहीं जानता लेकिन देवनागरी में उपलब्ध नज़ीर, मीर, ग़ालिब और फ़ैज़ ने भीतर कुछ तो जोड़ा ही है, इतना मैं जानता हूँ। मेरे लिए भाषा नहीं, बोलियों के स्तर पर यह ज़रूर सम्भव हुआ है। बुन्देलखण्डी, गढ़वाली और कुमाऊंनी बोलियों ने मेरी ज़िन्दग़ी में वह किया है, जिसे युवा कवि-आलोचक व्योमेश शुक्ल कविता में मेरी पहाड़ी-पठारी-मैदानी नागरिकता कहता है। लोक-कलाकारों की बात शमशेर ने बहुत ज़ोर देकर कही है और जन-आन्दोलनों की भी। मेरी पहाड़ी बोलियों में मैंने इन दोनों का लम्बा और अन्तरंग सानिध्य प्राप्त किया है। इससे मेरी कविता प्रभावित हुई है और उसमें जीवन का फैलाव बढ़ा है। उसके ठस और सूखे शिल्प में पानीदार प्राणवायु के लिए कुछ जगह बन सकी है।

शमशेर की बात हो, याद हो, तो मुक्तिबोध स्वाभाविक रूप से वहां हमेशा ही मौजूद होंगे। `चांद का मुंह टेढ़ा है´ से ही मुक्तिबोध की कविता किसी भी युवा के लिए गहरे आश्चर्य, वैचारिक-बौद्धिक आकर्षण, सामाजिक-राजनीतिक हादसों और जीवन की जटिलताओं का एक गूढ़बंध साबित होती है। मगर कितनी ख़ुशी की बात है कि वहां भी किसी कुशल प्राध्यापक और पथप्रदर्शक की तरह शमशेर मौजूद हैं। उनके पास वे चाबियां हैं, जिनकी ज़रूरत मुक्तिबोध को पढ़ते हुए हमें महसूस होती है। बहुत बाद में चन्द्रकान्त देवताले ने मालवा के देहातों में मुक्तिबोध का लैण्डस्केप मुझे दिखाया तो लगा जो सफ़र शमशेर के साथ शुरू हुआ था, वो आज देवताले जी के साथ पूरा हुआ। शमशेर ने बाद में भी मुक्तिबोध पर बहुत कुछ लिखा। उनके इधर-उधर बिखरे कुछ संस्मरणों, लेखों और साक्षात्कारों में कई बातें ऐसी हैं, जो मुक्तिबोध को समझने की नई दृष्टि प्रदान करती हैं।

मुक्तिबोध के साथ मेरी समस्या होती है(अकसर ही पाठकों को होती है, मैं भी एक साधारण ही पाठक हूँ) अव्वल तो पढ़ने की! (ईमानदारी की बात) रचना की दीर्घकाय विराटता हताश करती है। ए ग्रिम रियलिटी( अन्दर-बाहर सब ओर से। वस्तु और शिल्परूप और अन्तरात्मा, रचना-प्रक्रिया और पाठक की प्राथमिक प्रतिक्रिया सबमें एक अजब ग्रिमनेस, मैं बचकर कहां जा सकता हूँ। घिर ही जाता हूँ, फंस ही जाता हूँ .....निस्तार नहीं, तभी `मुक्ति´ है -- `मुक्ति-बोध´ हैं।

दूसरी समस्या होती है समझने की। होती थी ....कहना चाहिए। क्योंकि पढ़ लेने, और अर्थ और भाव-व्यंजनाएं हृदयंगम कर लेने के बाद कविता हृदय पर, चेतना पर हावी हो जाती है। आप मुक्तिबोध के चित्रों के पैटर्न समझ लेने के बाद उन्हें उम्र भर नहीं भूल सकते। (६)

तो इस तरह पढ़ा जाना चाहिए मुक्तिबोध को। शमशेर सिर्फ़ दीर्घकाय कहकर नहीं रह पाए, उन्हें उसके साथ विराटता भी कहना पढ़ा। व्याकरण के हिसाब से ग़लत पर मुक्तिबोध की कविता को समझने के अपने विशिष्ट व्याकरण के हिसाब से बिल्कुल सही। कविताओं में जीवन और उसकी ऐतिहासिक-सामाजिक-राजनीतिक-वैज्ञानिक-वैचारिक स्थितियों के उस रचाव को, जिसे मुक्तिबोध आश्चर्यजनक ढंग से सम्भव करते हैं, बिना इतने विशेषणों के नहीं समझा जा सकता। मैंने पहले भी कहा कि `वास्तविकता´ मेरे लिए एक बड़ा शब्द है - महान, अनन्त और अपार। यह संस्कार मुक्तिबोध से ही आया है। और देखिए शमशेर मुक्तिबोध में मौजूद उस वास्तविकता को ग्रिम कहते हैं यानी - क्रूर, निर्दय, भयानक.... तभी मैं समझ पाता हूँ कि वास्तविकता वह भी है जो नहीं होनी चाहिए या किंचित उलटबांसित फेरबदल के साथ कहूँ तो वह भी, जैसी होनी चाहिए। और ग्रिमनेस भी महज ग्रिमनेस नहीं है - 'अजब ग्रिमनेस' है। हमारे बदलते जीवन और समाज में कितना अर्थपूर्ण और अपार होता जा रहा है यह एक शब्द - अजब! यहां सिर्फ़ हैरत नहीं, समूची मानवजाति की विडम्बनाओं-विसंगतियों का भूत है और भविष्य भी। वर्तमान के तो कहने ही क्या! और आगे यह कि निस्तार में मुक्ति नहीं - निस्तार नहीं है, तभी मुक्ति है और हमारे प्यारे मुक्तिबोध भी। यह जीवन का फ़लसफ़ा ख़ुद को साधारण कहते हुए शमशेर कितनी सरलता से समझा देते हैं। सीधा समीकरण यह है कि जो जीवन का फ़लसफ़ा है, वही कविता का भी। भाव-व्यंजनाओं को समझने की बात तो महज मुक्तिबोध पर नहीं, समूची कविता पर लागू होती है, जिसमें सबसे पहले ख़ुद शमशेर की कविता आएगी। चित्र पैटर्न ख़ुद शमशेर के देखिए - क्या कविता के हम सरीखे कार्यकर्ता उन्हें उम्र भर भुला पायेंगे....

निम्नमध्यवर्ग का शिक्षित व्यक्ति, अजब-सी सूली पर लटका रहता है और फिर भी ज़िन्दा रहता है, नरक में जाने के लिए, और अपने परिवार के साथ नरक ही भोगता है। (७)

मुक्तिबोध के सन्दर्भ में कही यह बात आज की भूमण्डलीकृत उत्तर बल्कि उत्तरोत्तरआधुनिक दुनिया और इसके निकटतम इतिहास में हम जैसों की सामूहिक जीवनगाथा बन जाती है। इसे सोचते और यहां लिखते हुए मेरे भीतर के मनुष्य और कवि का आकार मानो कहीं एकदम से टूटता, तो कहीं जुड़ता भी है। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें ऐसे पुरखे मिले हैं जो अपने बाद भी क़दम-क़दम पर हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन और कविता में हमारा साथ देते हैं।

मुक्तिबोध का वास्तविक मूल्यांकन अगली, याने अब आगे की पीढ़ी निश्चय ही करेगी, क्योंकि उसकी करूण अनुभूतियों को, उसकी व्यर्थता और खोखलेपन को पूरी शक्ति के साथ मुक्तिबोध ने ही व्यक्त किया है। इस पीढ़ी के लिए शायद यही अपना ख़ास महान कवि हो। (8)

शमशेर ने कविता और कवियों के बहाने अपने समय को इस क़दर पहचाना है कि बाद के घटनाक्रम की तस्वीर भी वे हमारे लिए बना गए। हमारी व्यर्थता, हमारा खोखलापन, हमारी करूण अनुभूतियां, हमारे मुक्तिबोध और हमारे शमशेर ! सुन रहे हो मेरे हमउम्र कवि- साथियों? सुनो! सुनो, क्योंकि यही सुनने की बात है आज, और गुनने की भी। पुरखों की स्मृतियां जब इस तरह विकल हो पुकारती हैं तो हमारा वर्तमान और भविष्य गूंजता है उनमें।

उस महान मानवीय गूँज को मेरी पूरी पीढ़ी की ओर से मेरा सलाम, जिसमें हमारे अक्स झलकते हैं। और अगर नहीं झलकते तो हम कवि होने के क़ाबिल नहीं, न ही मनुष्य होने के!
----------------------------------------------------------
१. दूसरा सप्तक, प्रथम संस्करण, पृ0 ८५
२. वही, पृ0 वही
३. वही, पृ0 ८८
४. वही, पृ0 ११३
५. वही, पृ0 ८७
६. एक बिलकुल पर्सनल एसे, साक्षात्कार, अगस्त-नवम्बर, १९८६, पृ0 ७१
७. वही, पृ0 ७०
८. वही, पृ0 ७१

****
यह लेख रचना समय के शमशेर अंक में छपा है, जिसके अतिथि सम्पादक कवि बोधिसत्व हैं।

Sunday, August 15, 2010

इसी रात में घर है सबका


(अग्रज राजेश जोशी को विनम्रता और विश्वास के साथ .....ये दाग़ दाग़ उजाला ये शबगज़ीदा सहर को याद करते हुए)

इसी रात में घर है सबका
जो चढ़ती चली आती है
छाती पर
और पार पाना मुमकिन नहीं जिससे
फ़िलहाल तो

इसी में हत्यारे घूमते हैं
बेनक़ाब
उनके चेहरे चौराहे पर सजी हैलोजेन लाइटों से भी ज्यादा
चमकते हैं

गाड़ियां गुज़रती हैं
हथियारों और लाशों से लदी
रास्ते गूंजते रहते हैं
बूटों और चेतावनी देती सीटियों की
आवाज़ों से
लाल और नीली बत्तियों की प्राधिकृत रोशनी में
बेखटके कुचली जाती है
मानवता
इसी रात में
जिसमें हम आंख मूँदकर
सोने का अभिनय करते हैं

इसी रात में चलती रहती हैं
बग़ावत और मुखालिफ़त की भी
पोशीदा कार्रवाईयां
लोग कभी फुसफुसाते
तो कभी चीखते-चिल्लाते हैं
कितना भी हो अंधेरा
कुछ उठे हुए हाथ साफ़ नज़र आते हैं

कैसे रात किसी का घर नहीं -
मेरे समय के बड़े, लोकप्रिय और पुरस्कृत कवि राजेश जोशी बतलाते हैं
अपनी चमचमाते शब्दों वाली एक कविता में !

मैं अभागा समझ नहीं पाता
उनकी बात
और जब भी पढ़ता हूँ उनकी यह कविता
भीतर-भीतर छटपटाता हूँ

इसी रात में घर है
सबका

जी हां सबका !
जिसमें
दारू पीकर स्त्रियों और नवोदितों पर विमर्श करते हुए
हमारे सारे बड़े कवि, आलोचक, सम्पादक
और चिन्तक भी
शामिल हैं

कैसे कहूँ
कि इसी रात में घर है
उस प्रेम का भी
उनके जीवन में दिनों-दिन क्षीण होती जाती है
जिसकी धार
ऐसे में जो बैठे रहते हैं
मन मार
वही कहते हैं रात किसी का घर नहीं
उनके लिए
खुला हुआ कहीं कोई दर नहीं
सिर्फ़ रोशनी है छद्य भरी दिन के उजाले की
अपना मुंह छुपाना बहुत सरल है
वहां

मुझे याद आता है - अंधेरे के बारे में भी गाया जाएगा - कहने वाला
बीते हुए समय का एक चेहरा
गीदड़ों की अनवरत हुंआ-हुंआ के बीच भी अमर हो गईं
जिसकी कविताएं
बहुत खुरदुरे बदन और आत्मा वाली

मैं अभी छोटा हूँ यह कहने को
कि बहुत सरल है क्रान्तिकारी हो जाना
बिना रात में रहे
बिना रात को जाने !

पर बड़े भाई इतना तो आप बताएं
अब से
क्या हम आपको
सिर्फ़
उजाले का कवि मानें ?


Friday, August 13, 2010

उन संभावनाओं के लिए


यह उस संभावना के लिए है जो हमें राह दिखाती है
और उन संभावनाओं के लिए जो इंतज़ार में हैं अब भी
कि गाएँ और हमारे भीतर अपने पंख फैलाएँ,
क्योंकि आज की रात शनि घुटनों के बल बैठ
अपने सभी दस हज़ार छल्लों के साथ अर्ज़ कर रहा है
कि जो गीत हम गाते आए हैं उसे और भी गाएँ.
इस वक़्त है दुनिया को ज़रुरत हमारी जितनी पहले कभी नहीं रही.
कस लो सभी तार अपने.
हर सुर छेड़ो.
गर तुम लिख रहे हो ख़त कैदियों के नाम
शुरू करो सलाखों को उखाड़ फेंकना.
गर तुम बाँट रहे हो अँधेरे में टॉर्चें
शुरू करो सितारे बाँटना.

---एंड्रिया गिब्सन

(स्प्लिट दिस रॉक पोएट्री फेस्टिवल द्वारा 9 जून 2010 को अपने सदस्यों/मित्रों/शुभचिंतकों से आर्थिक सहायता मांगने के लिए भेजे गए पत्र से उद्धृत)

Tuesday, August 10, 2010

आह, त्रिलोचन को भूला मैं !


टिप्पणी का शीर्षक `आह, त्रिलोचन को भूले हम´ भी हो सकता था पर मैंने महज अपनी जिम्मेदारी लेना स्वीकार किया है, अपनी समूची कविपीढ़ी की नहीं। हो सकता है कुछ साथियों को त्रिलोचन याद हों....हालांकि ऐसा दिखता तो नहीं.... तब भी....

त्रिलोचन को भूल जाना मेरे कविजीवन की एक बड़ी त्रासदी है। उन्हें काफ़ी पढ़ा पर समय रहते ठीक से गुना नहीं। मेरे लिए एक तरफ नागार्जुन का खांटी आकर्षण था तो दूसरी तरफ मुक्तिबोध के बनाए क्रूर वास्तविकताओं के भयावह भवन - बीच में कहीं छूट गए त्रिलोचन। पता नहीं कैसे यह तथ्य विस्मृति की गर्त में जाता रहा कि प्रगतिशील कविता में त्रिलोचन ने एक सर्वथा नया संसार बसाया। एक संस्कृत पढ़ा हुआ बहुभाषाविद् शास्त्री अपने समय की कविता में ऐसी भाषा लाया, जो जन(वादी) परम्परा की सबसे सरल, समीप और सटीक किन्तु कविता के लिए बिल्कुल नई भाषा थी। आधुनिकता से परे जाकर भी अपने भीतर एक अधुनातन भावबोध को सम्भाल पाने और जीवित रखने वाली भाषा। हैरत होती है कि इस मामले में बिम्बविधान के आचार्य हमारे वो अत्यन्त प्रिय कवि भी पिछड़े, जो आजीवन त्रिलोचन का आभार जताते उन्हें अपना कविगुरू बताते रहे- मुझ जैसे कम पढे़ युवाओं की तो बात और औक़ात ही क्या? सोचता हूँ अब कोई भूलसुधार सम्भव है? शायद नहीं! असद ज़ैदी के शब्दों में -

कोई इंसानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत
से और बिगाड़ होता है पैदा
वह
संगीन से संगीनतर होती जाती एक स्थाई दुर्घटना है !

दिमाग़ में अचानक आयी यह टिप्पणी हालांकि त्रिलोचन पर है लेकिन अगर इसमें ऊपर बताई स्थाई दुर्घटना की गूँज भी सुनाई देती रही तो कोई आश्चर्य नहीं। त्रिलोचन की इस भाषा को मैं अज्ञेय की एक विख्यात काव्यपंक्ति से तुरत प्रकट कर सकता हूँ। बकौल अज्ञेय `मौन भी अभिव्यजंना है´ - अब यही बात त्रिलोचन के जनपदीय संस्कारों में `अनकहनी भी कुछ कहनी है´ में बदल जाती है और हम देख सकते हैं कि जनता और कविता, दोनों के लिए कौन-सी पंक्ति अधिक आत्मीय है। यहां से भाषा के दो अलग संस्कार साफ़ पहचाने जा सकते हैं। मैं तो त्रिलोचन के संस्कार के साथ जाऊंगा। इस संस्कार के साथ एक चुनौती भी है, जिसे ख़ुद त्रिलोचन ने कुछ यूं व्यक्त किया है कि `कैसे और कहां से शब्द अनाहत पाऊं´। अज्ञेय के संस्कार में अनाहत शब्द पाना बहुत सरल है लेकिन त्रिलोचन के संस्कार में, जहां समूचा जीवन ही आहत है, यह एक असम्भव युक्ति है। `मौन´ बेबसी के साथ-साथ कवि की इच्छा या अभिमान को भी प्रकट करता है पर `अनकहनी´ में एक ऐतिहासिक विवशता है। मौन स्वेच्छा से भी हो सकता है पर अनकहनी में तो कुछ ऐसा है, जिसे कहा जाना था पर कहने से रोक दिया गया हो। इसमें उन अनाचारी ताकतों की भी छाया है, जिन्होंने सैकड़ों साल से सही बात को कहे जाने से रोका है और दबाव या सेंसरशिप इतनी ज़्यादा हो गई है कि अब अनकहनी भी कुछ कहनी है

हिन्दी कविता में सबसे बड़ी विडम्बना यह हुई है कि कवि आगे आ गए और वह लोक या जन पीछे रह गया, जिसके लिए और जिसकी वजह से कविता सम्भव हो पायी - अब किसी ने अज्ञेय की भांति लोक या जन से कटकर ही रहना और कहना स्वीकार किया हो तो उसकी अलग बात है। यह विडम्बना मेरे जैसे युवाओं के लिए अधिक है, जिन्हें पॉलिटिकली करेक्ट होने की भी चिन्ता हो। त्रिलोचन ने `उस जनपद का कवि हूँ´ में संकलित एक सानेट में एक सीधी-सरल किन्तु कविता के शिल्प में जटिल और चुनौतीपूर्ण कामना की थी -

यह तो सदा कामना थी, इस तरह से लिखूँ जिन पर लिखूँ, वही यों अपने स्वर में बोलें
परिचित
जन पहचान सकें, फिर भले ही दिखूँ....

इधर अलग मुहावरे की मार ने कविता को इस तरह आहत किया है कि हम यही मूल बात भूल गए हैं। अलग होने-दिखने से कोई आपत्ति नहीं। ख़ुद त्रिलोचन ने कहा है कि मैं बहुत अलग कहीं और हूँ ... इस तरह वह भी एक सपना और सफलता है पर किस क़ीमत पर....अब तो स्थिति यह है कि `परिचित जन दिखें दिखें, मैं ही मैं दिखूँ ´। मैं अपने आसपास ऐसे कई कवियों को पाता हूँ, जैसे त्रिलोचन के जीवन में भी अवश्य रहे होंगे, तभी तो `शब्द´ में यह सानेट आता है -

डर लगता है जीवन में उनसे जो अपने
होते
हैं, अपनेपन का ज्ञापन करते हैं
भावों
और अभावों का मापन करते हैं
तुलना
द्वारा और अनंजित दृग के सपने
मुखरेखा
से जान लिया करते हैं, छपने
से
पहले ही उनका विज्ञापन करते हैं

त्रिलोचन की इस चेतावनी को समझ सकें तो हमारी महान मित्रताओं के बीच यह एक संकट की घड़ी है। छपने से पहले ही विज्ञापन के कुछ अद्भुत प्रकरण अभी बिल्कुल अभी की कविता में हमारे सामने हैं।

फिलहाल इस संक्षिप्त टिप्पणी को अतिसंक्षिप्त रखते हुए त्रिलोचन के ही शब्दों की उधारी से काम चलाऊंगा -

जीवन जिस धरती का है, कविता भी उसकी
सूक्ष्म
सत्य है, तप है, नहीं चाय की चुस्की !
****

यह टिप्पणी एक लेख की तैयारी में लिए गए एक तुरत नोट जैसी है, जानता हूँ इसमें काफ़ी जल्दबाज़ी और झोल हैं, कृपया आप मित्रगण इसकी सीमाओं से अवगत कराएं.....कुछ ग़लत या अधिक कह दिया हो तो वह भी बताएं !

Monday, August 9, 2010

अरुणा राय की एक कविता

प्रेमी
गौरैये का वो जोड़ा है
जो समाज के रौशनदान में
उस समय घोसला बनाना चाहते हैं
जब हवा सबसे तेज बहती हो
और समाज को प्रेम पर
उतना एतराज नहीं होता
जितना कि घर में ही
एक और घर तलाशने की उनकी जिद पर
शुरू में
खिड़की और दरवाजों से उनका आना-जाना
उन्हें भी भाता है
भला लगता है चांय-चू करते
घर भर में घमाचौकड़ी करना
पर जब उनके पत्थर हो चुके फर्श पर
पुआल की नर्म सूखी डांट और पत्तियां गिरती हैं
एतराज
उनके कानों में फुसफुसाता है
फिर वे इंतजार करते हैं
तेज हवा
बारिश
और लू का
और देखते हैं
कि कब तक ये चूजे
लड़ते हैं मौसम से
बावजूद इसके
जब बन ही जाता है घोंसला
तब वे जुटाते हैं
सारा साजो-सामान
चौंकी लगाते हैं पहले
फिर उस पर स्टूल
पहुंचने को रोशनदान तक
और साफ करते हैं
कचरा प्रेम का
और फैसला लेते हैं
कि घरों में रौशनदान
नहीं होने चाहिए
नहीं दिखने चाहिए
ताखे
छज्जे
खिड़कियां में जाली होनी चाहिए

पर ऐसी मार तमाम बंदिशों के बाद भी
कहां थमता है प्यार

जब वे सबसे ज्यादा
निश्चिंत
और बेपरवाह होते हैं
उसी समय
जाने कहां से
आ टपकता है एक चूजा

भविष्यपात की सारी तरकीबें
रखी रह जाती हैं
और कृष्ण
बाहर आ जाता है...
***
अरुणा राय की कुछ कविताएँ अशोक कुमार पांडे के ब्लॉग असुविधा पर भी पढ़ी जा सकती हैं

Friday, August 6, 2010

काम क्या होता है : फिलिप लवीन



काम क्या होता है


बारिश में खड़े-खड़े इंतज़ार कर रहे हैं हम
फोर्ड हाइलैंड पार्क की लम्बी कतार में लगे हुए. काम के लिए.
गर यह पढ़ पाने लायक तुम्हारी उम्र है
तो पता ही होगा तुम्हें कि काम क्या होता है, चाहे तुम उसे करो या नहीं.
छोडो भी. क्योंकि यह इंतज़ार करने के बारे में है.
कभी इस पैर तो कभी उस पैर के सहारे खड़े होना.
हल्की बारिश की फुहारों को
अपने बालों पर पड़ते हुए महसूस करना, नज़र इस क़दर धुंधलाती हुई
कि सोचने लगो तुम्हारा अपना भाई कतार में तुमसे
आगे खड़ा है, शायद दस स्थान आगे.
अपनी उँगलियों से चश्मे का कांच पोंछते हो
और बेशक वह भाई है किसी और का.
तुम्हारे भाई से कुछ कम चौड़े कंधे
पर वैसे ही उदास और झुके-झुके, मुस्कान जो अड़ियलपन को छिपाने
की कोशिश बिल्कुल नहीं करती, बारिश से,
घंटों के ज़ाया इंतज़ार से हार मान लेने से एक नाखुश इन्कार, यह जानकर भी
कि आगे कहीं कोई आदमी चाहे जिस वजह से
बस यह कहने को है "ना. आज कोई भर्ती नहीं."
तुम अपने भाई से प्यार करते हो, पर अब तुम
नहीं बर्दाश्त कर सकते ठाठें मारते प्यार को,
प्यार उस भाई के लिए जो तुम्हारी बगल में नहीं है
न पीछे है और न ही आगे
क्योंकि कैडिलैक प्लांट की कष्टकारी रात पाली
के बाद वह घर पर
सोने की कोशिश में है
ताकि उठ सके दोपहर से पहले
अपनी जर्मन क्लास में उपस्थित रहने के लिए
हर रात वह आठ घंटे काम करता है ताकि
गा सके वैगनर, वह ऑपरा जिससे तुम्हें
नफरत है, जो तुम्हें आज तक का सबसे
घटिया संगीत लगता है.
कितना अरसा हो गया
तुमने उसे नहीं बताया कि तुम प्यार करते हो उसे,
थामा नहीं उसके चौड़े कन्धों को, न अपनी आँखें चौड़ी करके वे लफ्ज़ ही
कहे, या चूम ही लिया हो उसके गालों पर .
तुमने नहीं की कभी ऐसी भोली सी, ज़ाहिर सी हरकत
इसलिए नहीं कि तुम बेहद छोटे हो या हो एकदम बुद्धू
इसलिए नहीं कि तुम हो जलकुकड़े या हो टुच्चे भी
या किसी दूसरे की मौजूदगी में
रोने लायक नहीं हो, ना,
यह सिर्फ इसलिए कि तुम्हें नहीं पता काम क्या होता है.

*****

(समकालीन अमेरिकी कविता में फिलिप लवीन एक सुपरिचित नाम है. १९९६ में छपे संकलन 'दि सिंपल ट्रुथ' के लिए पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित लवीन का विस्तृत परिचय यहाँ और प्रतिलिपि के वार्षिकांक में प्रकाशित एक मर्मस्पर्शी गद्य यहाँ है.)

Monday, August 2, 2010

लगभग अनामन्त्रित - अशोक कुमार पांडे

यह चित्र कवि द्वारा सम्पादित-प्रकाशित लघु पत्रिका का है

उपस्थित तो रहे हम हर समारोह में
अजनबी मुस्कराहटों और अभेद्य चुप्पियों के बीच
अधूरे पते और ग़लत नंबरों के बावज़ूद
पहुंच ही गये हम तक आमंत्रण पत्र हर बार

हम अपने समय में थे अपने होने के पूरे एहसास के साथ
कपड़ों से ज़्यादा शब्दों की सफ़ेदियों से सावधान
हम उन रास्तों पर चले जिनके हर मोड़ पर ख़तरे के निशान थे
हमने ढ़ूंढ़ी वे पगडंडियां जिन्हें बड़े जतन से मिटाया गया था
भरी जवानी में घोषित हुए पुरातन
और हम नूतन की तलाश में चलते रहे…

पहले तो ठुकरा दिया गया हमारा होना ही
चुप्पियों की तेज़ धार से भी जब नहीं कटी हमारी जबान
कहा गया बड़े करीने से – अब तक नहीं पहचानी गयी है यह भाषा
हम फिर भी कहते ही गये और तब कहा गया एक शब्द- ख़ूबसूरत
जबकि हम ख़िलाफ़ थे उन सबके जिन्हें ख़ूबसूरत कहा जाता था
ज़रूरी था ख़ूबसूरती के उस बाज़ार से ग़ुज़रते हुए ख़रीदार होना
हमारे पास कुछ स्मृतियां थी और उनसे उपजी सावधानियां
और उनके लिये स्मृति का अर्थ कमोडिटी था

एक असुविधा थी कविता हमारे हिस्से
और उनके लिये सीढ़ियां स्वर्ग की
हमें दिखता था घुटनों तक ख़ून और वे गले तक प्रेम में डूबे थे
प्रेम हमारे लिये वज़ह थी लड़ते रहने की
और उनके लिये समझौतों की…

हम एक ही समय में थे अलग-अलग अक्षांशों में
समकालीनता का बस इतना ही भ्रमसेतु था हमारे बीच
हम सबके भीतर दरक चुका था कोई रूस
और अब कोई संभावना नहीं बची थी युद्ध में शीतलता की

ये युद्ध के ठीक पहले के समारोह थे
समझौतों की आख़िरी उम्मीद जैसी कोई चीज़ नहीं बची थी वहां
फिर भी समकालीनता का कोई आख़िरी प्रोटोकाल
कि उन महफ़िलों में हम भी हुए आमन्त्रित
जहां बननी थी योजनायें हमारी हत्याओं की!

***

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