Saturday, July 31, 2010

मैं हूँ निदा : शोले वोल्पे



मैं हूँ निदा

बसीजी* की गोली मेरे दिल में फंसी रहने दो
करो मेरे खून में सिजदा
और चुप भी हो जाओ, बाबा
- -मरी नहीं हूँ मैं

पिंड कम रौशनी अधिक
मैं यूँ बह निकलती हूँ तुमसे होकर,
तुम्हारी आँखों से लेती हूँ साँसें
खड़ी होती हूँ तुम्हारे जूतों में पैर रख,
खड़ी होती हूँ छतों पे,रास्तों में,
अपने मुल्क के शहरों और गाँवों में
तुम्हारे साथ बढ़ती जाती हूँ आगे
चीखते हुए तुम्हारी मार्फ़त, तुम्हारे संग.
मैं हूँ निदा - कड़क तुम्हारी ज़ुबां की.

*****

29 जून 2009 को निदा आगा-सुल्तान नामक एक छब्बीस वर्षीया ईरानी युवती को, जो तेहरान में राष्ट्रपति महमूद अहमदेनिजाद के पुनर्निर्वाचन के दौरान मतगणना में हुई धोखाधड़ी के विरोध में हो रहे प्रदर्शन में हिस्सा ले रही थी, किसी घर की छत पर छुप कर बैठे बसीजी ने निशाना साधकर सीधे दिल में गोली मारी. इस घटना के एक प्रत्यक्षदर्शी द्वारा अपने मोबाइल फ़ोन के कैमरे से बनाए गए उजबक से वीडियो में उसके सीने से, मुंह से खून उफनते वक़्त उसके पिता का विलाप देखा नहीं जाता; वे निदा का नाम पुकार रहे हैं, उस से रुक जाने की, कहीं न जाने की गुहार कर रहे हैं. फ़ारसी में 'निदा' के मायने हैं स्वर/आवाज़.
*बसीज ईरान का एक सशस्त्र संगठन है जिसे सरकार का समर्थन प्राप्त है; इस संगठन के सदस्य को बसीजी कहा जाता है.

(ईरानी मूल की अमरीकी कवि शोले वोल्पे के दो संकलन,रूफ़टॉप्स ऑफ़ तेहरान और दि स्कार सलून, प्रकाशित हैं. इसके अलावा फरोग फरोखजाद की चुनी हुई कविताओं का (अंग्रेजी अनुवाद में) संकलन हाल ही में आया है, और जिसके लिए उन्हें अमेरिकन इंस्टिट्यूट ऑफ़ इरानियन स्टडीज़ ने वर्ष 2010 के लोइस रॉंथ अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित किया है. वे लॉस एंजिलिस में रहती हैं.)

Thursday, July 22, 2010

अपनी सरस्वती की अंदरूनी ख़बर - लीलाधर जगूड़ी


अपनी सरस्वती की अंदरूनी ख़बर और उस पर कड़ी से कड़ी नज़र
इस ज्ञान निर्भर युग में हरेक को रखनी चाहिए

जिन्होंने मनुष्य जाति के लिए इतने बड़े ख़तरे पैदा किये
यह नहीं कहा जा सकता कि लक्ष्मी की उन पर बड़ी कृपा थी
और सरस्वती उनसे रूठी हुई थी

क्योंकि जब जब इन कोरी लक्ष्मी वाले बुद्धिमानों की मूर्खता ने
दुनिया को ख़तरे में डाला
तब तब मूर्खों की सरस्वती ने नया रास्ता निकला है

कम जानकारों का बौद्धिक सहयोग ही तिनके का सहारा है
ज़्यादा जानकारों ने हमको कहीं का नहीं छोड़ा

इन बहु-सूचना पायियों ने यह छाप छोड़ी है
कि अबुद्धि को अब इतनी बुद्धि आ गई है कि सुबुद्धि की ख़ैर नहीं
ख़ैरख्वाही के सभी क्षेत्रों में महा अनिष्टों के दाँत उग आये हैं
कुशलता भी भूमिगत हो गई है
बाधाएं भी सफलता का श्रेय शातिर बुद्धि को ही दे रही हैं
आख़िर बूझो तो हर किसी की सूझ ही तो उसकी सरस्वती है

जड़ता का भी अपना एक शास्त्र है
जिसका जट्ट झपट्टा अनुपस्थित को उपस्थित कर सकता है
वज्र मूर्खता भी जब दमक कर गिरेगी
अति प्रकाशित अंधकार की चौंध भी पराकाष्ठा के मूल अंधकार में बदल जाएगी
एन उसी वक़्त जटिलताएं दिमाग़ में अन्कुराएंगी
तब पता चलता है मूर्खता का गोबर अपनी रसायानिकता में
कितना उर्वर है

बाधाएं बहुत हैं और दाँत उनके पास भी बुद्धि के हैं
औज़ारों की मूर्खता ही उन्हें बुद्धिमानों से तोड़ सकती है
तलैया भर सरस्वती में से जिसकी जितनी लुटिया भर बुद्धि है
डुबोने-उबारने के लिए जीवन में काफ़ी है

मूर्खतापूर्ण बुद्धिमानी और बौद्धिक मूर्खताओं वाले
सैकड़ों उद्यम बताते हैं कि सरस्वती के बिना लक्ष्मी आ नहीं सकती

विश्वविद्यालयों से बाहर जब सरस्वती की कृपा होती है
फ़सलें अच्छी होने से चारा अच्छा हो जाता है और पशु दूध बहुत देते हैं
भरपूर रोटी होने से राजनीति ज़्यादा समझ में आती है

असफलता की सफलता के सामने खड़े मनुष्य को
अपनी सरस्वती से पूछना ही पड़ेगा
कौन सी फलदायी वे मूर्खताएँ हो सकती थीं जो हमने नहीं कीं

जनसँख्या को तो हम समझ के आलस्य का उत्पादन मानते रहे
पर वे लड़ाइयाँ ज़्यादा विनाशक हुई जिनमें हमने
मनुष्य होने के ज़रूरी आलस्य से काम नहीं लिया

बुद्धिमानों की जल्दबाजी ने हमें युद्ध में उतार दिया है
शौर्य और धैर्य, सरस्वती और लक्ष्मी सहित मनुष्य का मारा जाना तय है
दानवीय चालाकी के मुकाबले मानवीय मूर्खता के सहारे
कुछ बात बन जाए तो भाई बात अलग है।
***

Tuesday, July 20, 2010

गीत चतुर्वेदी की कविता

कवि-साथी गीत की लम्बी कहानियों पर पिछले दिनों चले उतने ही लम्बे आलाप में गिरह की तरह प्रस्तुत है उसकी एक शानदार कविता, जो मुझे बहुत पसंद है और मौजूदा परिदृश्य में काफ़ी प्रभावी भी।


फ़िज़ूल
(राजेश जोशी के लिए)

हम उन शब्दों का दर्द नहीं जान सकते
जिन्हें हमने कविता में आने से रोक दिया

हमने कुछ क़तारें बनाई कोई लम्बी कोई छोटी
हम नहीं चाहते थे कि सब एक जैसी दिखें
हम तीन-चार छोटी क़तारों के बाद एक लम्बी क़तार रख देते
दूर से ही पता चल जाता उन क़तारों में कुछ लोग हैं
जो फ़िज़ूल हैं चुहल कर रहे हैं उचक रहे हैं
डिस्टर्ब कर रहे हैं आसपास के लोगों को
देखो तो उनकी ध्वनियाँ भी कितनी फूहड़ हैं

हमने उनसे विनती की
जो बहुत मज़बूत थे और जगह छोड़ने को राजी नहीं
उनके हाथ जोड़े
जो बेहद कमज़ोर थे
उन्हें धकिया कर बाहर किया

इस तरह बनी एक सुन्दर दुनिया
और एक सुघर कविता

फ़िज़ूल लोगों और फ़िज़ूल शब्दों को
कविता और क़तार से बाहर
रात में एक साथ भटकते देखा जा सकता है।*
- - -
*जैसे कि अभी रात एक बज कर कुछ मिनट पर जब मैं यह पोस्ट लगा रहा हूँ तो जीमेल में मेरे साथ अनुराग वत्स और गीत, दोनों के बत्ती हरी दिख रही है.

Sunday, July 18, 2010

तरुण भारतीय की कविता -३

घर के लिए टोटके

पानक्वा*


दरवाज़े और आवाज़े शाम की
आशिक़ों की छुपन हराम की
यह जंगल नहीं शर्त साहित्य की
और नहीं तो आएगा सूरज
आएगा सूरज
आएगा सूरज

माँ ने कहा पश्चिम है रात
पिता ने कहा खोह है ग़म
बाडा ने कहा नमक है नींद
और नहीं तो आएगा रॉबिन
आएगा रॉबिन
आएगा रॉबिन

धनिया के क्यारी में कनफूल
किताब के अलमारी में उबाल
तुम्हारे कलम में मेरा पचास
और नहीं तो आएगा विश्वास
आएगा विश्वास
आएगा विश्वास
***

शक

झगड़े से डरना ही क्या
जैसे कभी चम्मच से नापा नहीं नमक
और 'अफ्रीका के शाकाहारी व्यंजन' में
सारे माप चम्मच के हिसाब में ही दिए गए हों

घर बनाने के सारे नक़्शे मेरी भाषा में
(जिसे हिन्दी कह सकते हैं)
भ्रष्ट नम्रता और ग़रीबी के लाईसेंस से ही
बनते हैं और बोलियों का किरानी ढीठ है
बिना अनुवाद के मानेगा ही नहीं

मेरे बाप ने नहीं दिया तुम्हे मुँह देखना
मेरी माँ ने अचानक किसी मानवशास्त्रीय रस्मों का विवेचन नहीं किया
तुम्हारे संस्कारों ने लोककथा का प्रकाशन नहीं किया
हमने मॉन्गाप में खायी पूडियाँ
और मॉन्गाप के डायनों के थ्लेन** मर गए

घर से डरना ही क्या
पिछली सदी ने दिया है घर को
उत्तर-संरचनावादी शक
***
*पानक्वा- भाग्य को बेवजह बुलाना
**थ्लेन- इच्छाधारी सांप जिसको पालने से धन मिलता है पर उसे समय समय पर इंसान का खून चाहिए। खून नहीं मिलने पर वह अपने मालिक के परिवार को ही खा जाता है।

Saturday, July 17, 2010

संजय व्यास की कविता

एक करवट और
उसकी बेचैनी औंधे गिरे भृंग की तरह थी जो सिर्फ एक जीवनदायी करवट चाहता था.एक अर्ध-घूर्णन. फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा.या कम से कम ऐसी उम्मीद की जा सकती थी. उल्टा पड़ा कीड़ा जैसे अनंत शून्य में अपनी आठों टांगों की बेहाल हरकतों में कोई खुरदरा आधार ढूंढता है. एक मचल मची थी भीतर. एक गहरा गड्ढा जो हर अस्तित्व को नश्वरता में धकेलता था. उसी गड्ढे में तेज़ी से गिरा जा रहा था वो. समय का सूक्ष्मांश ही था उसके पास जो उसकी बेचैनी की रील को चलाए जा रहा था.


ये सीधा सादा मृत्यु बोध नहीं था बल्कि उससे भी ज्यादा गहरा ज्यादा अँधेरा था.एक बेचैनी जिसमें बाज़ी के ख़त्म होने की घोषणा नहीं हुई थी. कंधे चित्त थे पर रैफरी उसकी बेचैनी से तय नहीं कर पा रहा था और फैसला करने में अभी तकनीकी अवकाश बीच में था. एक पलटी से वो फिर गेम में आ सकता था.


असल में उसकी तमाम यांत्रिक क्रियाएं शरीर की खुद को बनाए रखने की चेष्टाओं जैसी थीं. उसका दिमाग लेकिन संभावित बचाव की सूरत में फिर से रोजमर्रापन में झोंके जाने की अनिवार्यताओं से जंग लड़ रहा था.करवट बदलने के बाद भी फौरी तौर पर उसे एक लगभग निर्वात चाहिए. निशब्द. बाहर के इस भीषण शोर में 'सटल' स्पंदन को महसूस किये जाने लायक. संवेदी तंतुओं के सिरों को फिर से जो आवेश ग्राही बना सके.एक ऐसी अवस्था चाहिए थी उसे एक बार की कि जिसमें चेतना एक बेहद हल्की दीप्ति में ही हो.
बस पाँव के अंगूठों के पोर पर ही हो महसूस करने जैसा कुछ.


जीवन की करवट में लौटने पर दुनिया में जाने से पहले सब कुछ शून्य से प्रारंभ चाहता था वो.
पर उसका शरीर अब भी तड़प से भरा था.

Thursday, July 15, 2010

तरुण भारतीय की कविता-२


गुप्त वस्तुओं की सूचना

ज़बान के तरीक़े तमाम
इतने भी नहीं कि
शरबत के किस्से अधूरे पड़ जाएँ

सुनोगी और हंसते—हंसते
निकलोगी दरवाजे से बैठो
यह तो तय है कि कानों–कान ख़बर होगी
पूजा पर बैठे तानाशाह को

जैसे कि यौडो बाजार के
गिटार बजाते मिस्टर थाबा
उनसे हमने अभी भी नहीं खरीदे
फारेंग वक्‍त के ग्लेड्यूला बीज

अभी तो चार ही बजे हैं
शहर के चेरा दरवाजे पर
शायर आशिक ड्राइवरों की भीड़ इकठ्ठी भी नहीं हुई
बैठो

ज़बान की हसरतें तमाम
इतनी भी नहीं कि
शिलांग पीक से चीखीं जा सकें

ड्रीमलैंड की ब्लैकिया काँगें याद हैं
रुमानियत से तर गालियाँ
यहीं इन्हीं अलमारियों में
नीम पत्तों के साथ समेटा है तुमने

हाँ हाँ यह ख़बर
बेच सकती हो
फारेंग पार्टियों में
नाचने से बचने के लिए

हड़बड़ी क्या है
बैठो
भींगने दो होंठ
87 आने दो तीर में

ज़बान के नुक्कड़ तमाम
इतने भी नहीं कि
सियासत की जुगाली की जा सके

अब तो एब्बा का हाफ़ वेज नूडल्स भी नहीं
उत्तर भी नहीं दक्षिण भी नहीं
चुटकुलों से कैसे खींचोगी बर्लिन की दीवार
बैठो

1934 के पियानो पर बजते ग़लत मोत्ज़ार्ट पर
हंसते-हंसते
गोविंदा के गीत रुकते हैं
मौलाई के बंदूकों के बीच

सब यहीं है
ख़ुदा फादर अडोनीस की कब्र ब्रिगेडियर पैकेन्टाइन का कैमरा
एलबर्ट की निराशा लीज़ा की बेतरतीब टैक्सी
शायद मैं डखार चीखते अलगाववादी

ज़बान की तारीख़ें तमाम
इतनी कि
सोया भी ना जा सके
- - -
*सोहरा-चेरापूँजी का खासी नाम

Wednesday, July 14, 2010

तरुण भारतीय की कविता

शिलोंग में रहने वाले तरुण भारतीय मैथिल फिल्मकार और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। उनकी कविताएँ पहल, हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, अक्षर पर्व, साक्षात्कार आदि में छपी हैं. सहमत द्वारा प्रकाशित चयन दस बरस में भी उनकी कविताएँ संकलित हैं और उनमें से कुछ का बाँग्ला और पंजाबी में अनुवाद हुआ है. तरुण ने नार्थ-ईस्ट की कविता का हिंदी और अंग्रेजी, दोनों में अनुवाद किया है. अनुनाद के पाठक उनकी कविताएँ अब लगातार यहाँ पढेंगे. इस ख़ास कविता को यहाँ अभी लगाने का विचार व्योमेश के अनुवाद में चूसना-चूमना विवाद के कारण भी आया.......

चुम्मा

हंसी चूसते, आलू-मूड़ी फांकते लौंडों की जवान चिढ़
बापों की हकलाहट रेजगारी रिक्त ठनठनाते नीले जेब में
शायर अब, हाँ अब ही करें बखान परदे की पारदर्शिता
असरदार छंदबद्ध फूंक संग्रहणीय प्राचीन द्वार पे

वैवाहिक सौंदर्यबोध के चर्चे आलमारियों में ऊंघते रहें
देखो सिनेमा के छिनाल सच में भींग चुके किस्से
लौटे पीक फेंकता सदाबहार मासिकों में पारिवारिक मूल्य
सुनो लुकती छिपती अरण्यक ध्वनियाँ रंगीन, पाँच बजे हैं

गोभक्षी आर्य, नरभक्षी शास्त्र, उबासियां संजोता संसद
बासी प्रेम का स्वाद और चिंतित श्री श्री १०८ शर्मा जी
इस देश की प्राचीनता से सस्ते चुटकुलों की किताबों में
यूँ वे खुश हैं मकान के मौसम विरोधी रंग के टिकाउपन से

तब शिलौंग की शाम, तीखी उबली चाय, वोदका वाली ठंड
लेटना रैप्स सुपरमार्केट के गलियारों में लौंग की गंध खोजते
दबे पैरों पहुँचना संविधान खरोचते चूहों के पास और हंसना
हटना अचानक, बर्फ़ की सिल्लियों पर फिसलना और फिर
..... चूमना
***

Monday, July 12, 2010

काले द्वीप : मार्टिन एस्पादा



काले द्वीप

दारियो के लिए

इएला नेग्रा* में
नेरुदा
की कब्र और बगीचे में पड़े लंगर के बीच
उस आदमी ने, जिसके हाथ पत्थर तोड़ने वालों
जैसे थे, पांच साल के अपने बच्चे को उठाया
ताकि
उस बच्चे की आँखें
मेरी
आँखों को टटोल सकें.
बच्चे
की आँखें मानो काले फल जैतून के.
बेटा, कहा बाप ने, ये कवि हैं
पाब्लो नेरुदा की तरह.
बच्चे
की आँखें मानो काला शीशा.
मेरे बेटे को दारियो कहकर बुलाते हैं
निकारागुआ के कवि** के नाम पर,
बाप
ने बताया.
उस
बच्चे की आँखें मानो काले पत्थर.
मेरे
चेहरे पर कविता को ढूँढते हुए,
मेरी
आँखों में अपनी आँखों को ढूँढते हुए,
उस
बच्चे ने कुछ नहीं कहा.
उस
बच्चे की आँखें मानो काले द्वीप.

******

*इएला नेग्रा चीले के मध्य में स्थित एक तटवर्ती इलाका है जहाँ पाब्लो नेरुदा का का घर है. स्पैनिश में इएला नेग्रा का अर्थ है 'काला द्वीप'; वहाँ के तट पर स्थित काले पत्थरों के कारण यह नाम खुद नेरुदा ने दिया था.

**स्पैनिश-अमेरिकी साहित्य में मॉडर्निज़्मो (आधुनिकतावाद) के प्रणेता, निकारागुआ के महान कवि रूबन दारियो .

(आज 12 जुलाई को नेरुदा के जन्मदिन के मौके पर यह कविता मार्टिन एस्पादा के संकलन 'रिपब्लिक ऑफ़ पोएट्री' से; ऊपर लगी तस्वीर नेरुदा के बागीचे में रखे लंगर की है जिसका ज़िक्र कविता में आया है)

Thursday, July 8, 2010

पाठक कृपया अपने विवेक से काम लें....सन्दर्भ हैरॉल्ड पिंटर की एक कविता (अनुवाद एवं प्रस्तुति व्योमेश शुक्ल)

(दुनिया में अनाचार और अनाचारियों की उपस्थिति कभी कभी किसी कवि को कितना क्रोधित, हताश और क्षुब्ध करती है, इसका एक भीषण उदाहरण व्योमेश द्वारा उपलब्ध करायी गई इस कविता (?) में मिलता है। यहाँ अनूदित के साथ मूल कविता भी पेश है। हालाँकि इस कविता के लिए "पेश" ग़लत शब्द है....बस ये है....और क्या कह सकता हूँ....बाक़ी आप पाठक बताएँगे। इस कविता का अनुवाद और प्रस्तुति एक ऐसा विकट काम है, जिसके लिए साहस और दुस्साहस छोटे शब्द हैं....लेकिन व्योम ने इसे कर दिखाया है।)
हैरॉल्ड पिंटर नाटककार और कवि के रूप में लोकप्रिय हैं। उनके कई नाटकों के पूरी दुनिया में अनगिनत मंचन हुए हैं और उनकी लिखी पटकथाओं पर बनी फिल्में भी ख़ासी कामयाब हैं। पिंटर को नोबेल समेत पश्चिम के अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार मिले हैं और उनका नोबेल पुरस्कार व्याख्यान साम्राज्यवाद के प्रतिकार के मॉडल की तरह सुना, पढ़ा और समझा गया है। पिंटर हमारे लिए एक ऐसे सर्जक के तौर पर सामने आते हैं जिसके लिए राजनीति और कला अलग-अलग चीजें नहीं हैं। उन्होंने अमेरिकी ज़्यादतियों की मीमांसा की हरेक संभावना का कला और सच्चाई के हक़ में इस्तेमाल कर अप्रत्याशित संरचनाएँ संभव की हैं। पिंटर के यहां गद्य और कविता, नाटक और व्याख्यान, यात्रावृत्त और संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को लिखी गई चिट्ठी में ज़्यादा फ़र्क नहीं है।

शायद मनुष्यता के काम आने वाली रचना हर बार विधागत घेरेबंदी के बाहर चली जाती है। उनकी नीले रंग के कवर वाली गद्यपद्यमय किताब ‘वैरियस वायसेज़: प्रोज, पोएट्री, पॉलिटिक्स 1948-2005’ इस धारणा का अद्वितीय प्रमाण है जिसे पढ़ते हुए रघुवीर सहाय की ऐसी ही पुस्तक ‘सीढ़ियों पर धूप में’ लगातार याद आती है। ज़ाहिर है कि ये दोनों कृतियाँ साहित्य, कला, विचार और संघर्ष के सुविधामूलक, शरारती, प्रवंचक और प्राध्यापकीय द्वैतों का अतिक्रमण करती हुई आती हैं। हैरॉल्ड पिंटर की कविताओं में साम्राज्यवादी उतपात, दमन और फरेब को लेकर गहरी नफरत है जिसे अपने विलक्षण कौशल से वे अलग-अलग शक्लों में ढाल लेते हैं। इराक और दूसरे इस्लामी देशों के साथ हुए जघन्य दुष्कृत्यों का बयान करती उनकी कविताएं किसी अतियथार्थवादी फिल्म की तरह देखी भी जा सकती हैं।

अमरीकी फुटबाल
(खाडी युद्ध पर एक प्रतिक्रिया)

प्रभु तेरी लीला अपरम्पार!
हमने उनकी ले ली।
उनकी टट्टी निकल गई।

हमने उनका गू उनकी गाँड में
घुसेड कर
उनके कानों से निकाल दिया।

उनकी तो बस ले ली।
टट्टी निकाल दी और अब वे
अपनी ही टट्टी में घुट रहे हैं।

धन्य हो प्रभु
तेरी लीला अपरम्पार!

हमने उनक गू निकाल दिया।
अब वे अपना ही गू खा रहे हैं।

प्रभु की लीला अपरम्पार।

हमने उनके अंडकोशों को
पीसकर चटनी कर दिया।

हमने कर दिखाया।

अब तुम पास आकर
मेरा मुँह चूसो।

( इस कविता के अनुवाद में वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी से कई मूल्यवान सुझाव मिले थे. अनुवादक उनका शुक्रगुज़ार है।)

-व्योमेश शुक्ल



American Football
(A Reflection upon the Gulf War)

Hallelullah!
It works.
We blew the shit out of them.

We blew the shit right back up their own ass
And out their fucking ears.

It works.
We blew the shit out of them.
They suffocated in their own shit!
Hallelullah.
Praise the Lord for all good things.

We blew them into fucking shit.
They are eating it.
Praise the Lord for all

good things.

We blew their balls into shards of dust,
Into shards of fucking dust.

We did it.

Now I want you to come over here

and kiss me on the mouth.

***

Wednesday, July 7, 2010

कविता इसलिए कि मेरे तलवे मेरी माँ जैसे हैं : मरयम अफ़क

कविता इसलिए कि मेरे तलवे मेरी माँ जैसे हैं

जन्नत है माँ के क़दमों तले
-मुहम्मद साहब



और ताज्जुब कर रही हूँ मैं
कि अपने पैरों पर मौइशचराईज़र लगाने के सिवाय
मैंने किया ही क्या है जो मैं इस लायक हो गई
कि मेरे तलवे माँ जैसे हो जाएं?
मैं पांच बच्चे नहीं पैदा किये
और न ही बड़ा किया उन्हें
इस्लामाबाद में
या पेशावर या कुआलालम्पुर में
या सनीवेल में भी
रसोईघर में कभी खड़ी रही
कई रातों को लगातार
प्याज छीलते या छौंकते हुए
धीमी आंच पर लहसुन या अदरक भूनते हुए
बच्चों की गन्दी लंगोटियां नहीं बदली
न मुलाकातें की टीचरों से
और न बच्चों को स्कूल या दोस्तों के घर ही कभी छोड़ा
सिर्फ एक दिन नहीं बल्कि सालों के
मां के प्यार वाले कामों से ऐसी थक कर
कभी सोई नहीं
कि एक-एक हड्डी दर्द से टूटती रहे
अपनी माँ की तरह
मैंने ज़िन्दगी को सहा नहीं
मैंने इनमें से कुछ भी नहीं किया
पर रातों को माँ के पैरों की मालिश करकर
मैंने याद कर लिए है उसके तलवे
उसके थके हुए औंधे शरीर पर बैठ
नथुनों पर हमला सी करने वाली
गठिया की मरहम मलते हुए
उसके दुबले-पतले पैरों की मालिश करते हुए
रेत जैसे रूखे तलवे और भूकंप के बाद
धरती में पड़ी दरारों जैसे गहरी बिवाइयाँ
मैं सोचा करती
कि उसके तलवों का कुछ नहीं हो सकता
उसके पैर कभी नहीं हो सकते कोमल राजकुमारी जैसे
चाहे जितनी वेसलीन से भरी जुराबें रात भर पहना कर रखी जाएं
कोई भी दवा
मेरी माँ की बिवाइयों का इलाज नहीं कर सकती
अब चौबीस की उम्र में
देखती हूँ अभी से कि मेरे भी हैं बिवाइयाँ
शायद इतना ही बहुत है
कि मैं अपनी माँ की बेटी हूँ
और हम दोनों चलते हैं एक दूसरे के पीछे पीछे
एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप
एक शहर से दूसरे शहर
और तलवों की दरारों में अगर धूल बैठ जाए
और वहीँ बसेरा करने का मन बना ले
तो हम कर ही क्या सकते हैं?

*****

(यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया, बर्कली की स्नातक मरयम अफ़क पाकिस्तान में पैदा हुईं, मलेशिया में पली-बढीं और दिसंबर २००२ में अमेरिका आ गईं. उनकी यह कविता देसीलिट मैगज़ीन के छठे अंक में (मूल अंग्रेजी में) प्रकाशित हुई है. इसे यहाँ प्रतिभा जी की 'पाकिस्तानी कविता में स्त्री तेवर' की एक और कड़ी के रूप में लगाया जा रहा है.)

Monday, July 5, 2010

उधो, मोहि ब्रज - वीरेन डंगवाल

हिन्दी कविता में इलाहाबाद सबसे ज़्यादा है तो वीरेन डंगवाल की कविता में। उनके हर संग्रह में यह शहर पूरी विकलता से पुकारता है। उनकी स्मृतियों में जहां-जहां प्रेम है, मित्रता है, लालसा है, कुछ कोमल कठिन इच्छाओं की सफलता-असफलता है, वहां इलाहाबाद अनिवार्य रूप से है। यहां उनके तीसरे संकलन से इसी तरह की एक कविता प्रस्तुत की जा रही है, जिसे वीरेन जी अपने कुछ परमप्रिय पुराने पदों से फिर-फिर रचा है। इस ब्लॉग पर वीरेन जी की जो फोटो है उसे अल्मोड़ा के वरिष्ठ पत्रकार नवीन सिंह बिष्ट ने खींचा था, जिसमें बगल में मैं भी बैठा हूँ.....पर वीरेन जी और कहाँ मैं....मैंने अपनी छवि क्रॉप करके हटा दी है....इस तस्वीर को ब्लॉगजगत में कई जगह उपयोग किया गया है...इसके लिए मैं सबकी ओर से नवीन जी को शुक्रिया कहता हूँ।

उधो, मोहि ब्रज
(इलाहाबाद पर अजय सिंह, गिरधर राठी, नीलाभ, रमेन्द्र त्रिपाठी और ज्ञान भाई के लिए)

गोड़ रहीं माई मउसी देखौ
आपन आपन बालू के खेत
कहां को बिलाये बेटवा बताओ
सिगरे बस रेत ही रेत
अनवरसिटी हिरानी हे भइया
हेराना सटेसन परयाग
जाने केधर गै सिविल लैनवा
किन बैरन लगाई आग

वो जोश भरे नारे वह गुत्थमगुत्था बहसों की
वे अध्यापक कितने उदात्त और वत्सल
वह कहवाघर !
जिसकी ख़ुशबू बेचैन बुलाया करती थी
हम कंगलों को

दोसे महान
जीवन में पहली बार चखा जो हैम्बरगर।

छंगू पनवाड़ी शानदार
अद्भुत उधार।

दोस्त निश्छल, विद्वेषहीन
जिनकी विस्तीर्ण भुजाओं में था विश्व सकल

सकल प्रेम
ज्ञान सकल।

अधपकी निमोली जैसा सुन्दर वह हरा-पीला
चिपचिपा प्यार

वे पेड़ नीम के ठण्डे
चित्ताकर्षक पपड़ीवाले काले तनों पर
गोन्द से सटी चली जाती मोटी वाली चींटियों की क़तार
काफ़ी ऊपर तक
इन्हीं तनों से टिका देते थे हम
बिना स्टैण्ड वाली अपनी किराये की साइकिल।

सड़के वे नदियों जैसी शान्त और मन्थर
अमरूदों की उत्तेजक लालसा भरी गंध
धीमे-धीमे डग भरता वह अक्टूबर
गोया फि़राक़।

कम्पनीबाग़ के भीने-पीले वे गुलाब
जिन पर तिरती आ जाया करती थी बहार
वह लोकनाथ की गली गाढ़ी लस्सी वाली
वे तुर्श समोसे मिर्ची करा मीठा अचार
सब याद बेतरह आते हैं जब मैं जाता जाता- जाता हूँ।

अब बगुले हैं या पण्डे हैं या कउए हैं या हैं वकील
या नर्सिंग होम, नए युग की बेहूदा पर मुश्किल दलील

नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक लूमड़ सियार
खग कूजन भी हो रहा लीन !
अब बोल यार बस बहुत हुआ
कुछ तो ख़ुद को झकझोर यार!

कुर्ते पर पहिने जींस जभी से तुम भइया
हम समझ लिए
अब बखत तुम्हारा ठीक नहीं।
***

Thursday, July 1, 2010

पारुल की तीन कविताएँ

पारुल एक समर्थ और लोकप्रिय ब्लोगर हैं। वे झारखंड में रहती हैं...... …पारूल…चाँद पुखराज का…… किसी परिचय का मुहताज नहीं। मैंने यहाँ बहुत अच्छा संगीत पाया और कविताएँ भी। उनकी तीन कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं। इनमें हमारे आसपास दिखती वस्तुओं, रंगों, गंधों और विरल मानवीय संवेदनाओं की एक अचूक समझ और संतुलन मौजूद हैं, जो उनकी कविताओं को एक अलग पहचान देते हैं। अनुनाद पर पारुल का यह प्रथम आगमन है...उन्हें हमारी शुभकामनाएँ।


इरेज़र

सुंदर थे बचपन के पेंसिलबाक्स और वे रंग बिरंगे
फूल,तितली,तारों,सितारों वाले
इरेज़र्स
उनके मिटाने से मिट जाती थी सभी ग़लतियाँ
पन्ना हो जाता था दोबारा
उजला-सफ़ा
उनसे उठती थी मीठी-मीठी गन्ध
जैसे सच ही तोड़ कर लाये गये हों
फलों के बाग़ीचों से…

मैने कभी उन्हे इस्तेमाल नहीं किया
गणित के उमसाए क्लास में चुपचाप
डिब्बा खोलकर सूँघती और फिर
निकाल एक सादी रबड़
हल करती सारे गलत सवाल…

सवाल
मुझसे न तब हल हुए न अब
आज भी उलझ कर टटोलती हूँ गाहे-बगाहे
कि शायद बचा हो अब भी कोई एक आध टुकड़ा
………इरेज़र……
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रात-बात

किस कदर पराये - उदास हो जाते हैं वो दरीचे ,वो ज़मीन
जिनसे पहरों पहर रही हो आशनाई कभी...

सहर से ज़रा पहले रात के आख़िरी पायदान पर
बजे वारिस शाह की हीर कहीं
या लहरे वायलन पर राग " सोहनी"
दोनो ही सूरतों का हासिल एक- सुरूर एक...

बिस्तर पर बेसबब देह क़तरा-क़तरा करवट-करवट
अलापे, दुगुन-तिगुन मे आड़ी-तिरछी तान
जिसके लयबद्ध होने की कतई कहीं गुंजाईश नहीं....

"जी",पतझड़ के चौड़े पत्तों में खड़खड़ाता फिरे
और बिना नैन नक़्श वाली रूह लगातार
खींचे तलवों से कोई बार-बार....

सुना है मरने से ज़रा पहले लोगों को खरोचते हैं बंदर
या डराते हैं शैतान ......

हाथ टटोल ऊबी आँखों से रात की सूखी कोरें पोंछ,
मन की रासों को लगाम--ज़रा लगाम
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बारिशें आती हैं

दर-ओ-दीवार से उठता हुआ ये उजला धुंआ
बुर्ज़ का ऊपरी पत्थर भी ना छू पायेगा
इक ज़रा देर को लहरायेगा-खो जायेगा--
रोटियॉ गीली रहीं रात जो चूल्हे पे पकीं
सीला-सीला था जलावन धुंध करता रहा
घर की बरसाती में क्यों लकड़ियां रख जाते हो?
बारिशें आती हैं--
नुकसान बड़ा होता है
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