Saturday, June 19, 2010

विशाल श्रीवास्तव की कविताएँ ....


विशाल बहुत दिनों बाद अपनी चुप्पी तोड़ कर संबोधन में विष्णु नागर पर एक लेख और परिकथा में कुछ कविताओं के साथ दिखाई दिया है....मेरे लिए ये एक निजी खुशखबरी है। यहाँ प्रस्तुत है परिकथा से उसकी कविताएँ....जल्द ही उस अंक से कुछ और कविताएँ अनुनाद पर होंगी।

छूना, कांपना, डूबना!

हवा जिस तरह छूती है
हवा को
जिस तरह पानी को पानी
मैं तुम्हें छूना चाहता हूं
इस तरह

जिस तरह एक भीगी सुबह में
कांपती है कोई शावक किसलय
वैसे ही
किसी पत्ती की तरह कांपना चाहता हूं
पाकर तुम्हारी देह का ताप

छोड़कर उज्ज्वलता का मोह
डुबकी लगाता है सूरज जिस तरह
शायक संध्या में
उसी तरह
मैं डूब जाना चाहता हूं
तुम्हारे आस-पास की अंधेरी तन्द्रा में

हर तरफ कुहासा है
और बादल काले भ्रम के
तो बची है क्या इतनी निर्मलता
कि सम्भव हो
इस तरह
छूना कांपना डूबना!

***

वो आई

वो आई
उसके आने ने जैसे
रात के आसमान में फेंका कंकड़
खिड़की के आकाश में
पहले चांद थरथराया
फिर जल कांपा आसमान का
फिर एक एक करके झिलमिलाये तारे
सबने कहा देखो वो आई

उसके आने से जागा मेरे कमरे का अंधेरा
उसकी तांबई रंगत से खुश हुआ दरवाजा
खुश हुए मेरे गन्दे कपड़े और जुराबें
खिल उठीं बेतरतीब किताबें
सब खुसफुसाये ... वो आई

वो आई मेरे मनपसन्द पीले कपड़ों में
जिनके हरेक तन्तु की गन्ध मुझे परिचित
मैंने जैसे कपड़ों से कहा - बैठो
कपड़े बैठे ... वो बैठी

जैसा कि उसकी आदत है, उसने कहा
कि मन नहीं लगता मेरे बिना उसका
जीना असम्भव है
उसने कहा ... मैंने सुना

फिर
मैंने कहा - बीत गया है अब सब कुछ
मैंने कहा ... उसने सुना

उसने कहा - बीतना भूलना नहीं होता
दर्द को सम्मिलित करना होता है जीवन में
मैंने कहा दर्द .. हां दर्द कहां बीतता है
सिर्फ हम बीतते हैं थोड़ा-थोड़ा समय के साथ
वह थोड़ा और उदास हुई
गीली हो गईं उसकी आंखें
आखिर वह उठी
मैंने उठते हुए देखा पीले कपड़ों को
मैंने देखा पीले कपड़ों को जाते हुए

कांपना बन्द हुआ आसमान का
सो गया फिर से कमरे का अंधेरा
दुखी हुए कपड़े और जुराबें
दुखी हुआ दरवाजा
इस बार
सब जैसे चीखकर बोले
वो गई .... वो गई .... वो गई

मैंने सिगरेट सुलगाई
और आहिस्ते से कहा
जाने दो
***

पीले पत्ते

ओ पीले पत्ते
यूं ही नहीं रुका हूं तुम्हारे पास
इसकी वजहें हैं

तुम्हारी शिरा की नोक पर रुका पानी
जो रुकते रुकते गिरने वाला था और
अभी गिरते गिरते रुक गया है
जिसकी रंगत ठीक वैसी है
जैसी विगत प्रेमिकाओं की आंखों की कोर के तरल की
जब वे बाज़ार में मुझे मिलती हैं अपने बच्चों के साथ
लेकिन यह पानी क्यों रुका है तुम्हारी शिरा पर
क्या तुम आज किसी के लिए दुखी हो
ओ पीले पत्ते

यह तुम्हारा सम्मोहक झुकाव
जिसे देखकर मुझे
कौसानी के पहाड़ी पेड़ की वह पत्ती याद आती है
जो वहां पन्त के झोपड़े के पीछे
ठीक उसी अंश में झुकी थी जैसे तुम
ठीक उसी तरह सजल थी जैसे तुम

कहीं तुम उसके बदमाश प्रेमी तो नहीं हो
ओ पीले पत्ते

अजीब हो यार तुम भी
दुनिया भाग रही है तुम्हारे आस-पास
अपनी-अपनी घृणा के थैले उठाये हुए
और तुम हो कि कर रहे हो प्यार
उस सुदूर पत्ती से
सिर्फ इसलिए कि
वह भी ठीक उसी तरह झुकी है
जैसे तुम

ओ पीले पत्ते
चिढ़ हो रही है मुझे तुमसे
ये क्या बात हुई
आदमियों की तरह प्यार करने की
गुस्सा आ रहा है मुझे तुम पर बेहद
अच्छा होगा मैं तुमसे विदा लूं

मिलूंगा तुमसे फिर किसी उदास रात को
जब मैं दुखी रहूंगा थोड़ा ज्यादा
मेरी शिराओं की नोक पर भी
कुछ रुका हुआ होगा
डूबा रहूंगा मैं भी किसी सान्द्र द्रव में
ठीक तुम्हारी ही तरह।
***

बचा रह जाए प्रेम

कठिन दुपहरियों में
जब धूप सोख लेती थी सारी दुनिया का रंग
और फीके श्वेत श्याम दृश्यों में
खिलखिलाहट की तरह उड़ता था
तुम्हारा धानी दुपट्टा
मैं था
कि सोचता था
कि अभी बोलूंगा अपनी गरम सांसों के सहारे
प्यार जैसा कोई नीम नम शब्द
और वो किसी नाव की तरह तैर जायेगा
तुम्हारे कानों की लौ तक

मैंने सोचा था कि तमाम
जंगल, पहाड़ लांघकर
सर सर सर
मैं दौड़ता जाऊंगा और लाऊंगा
तुम्हारे बालों के लिए
उदास बादल के रंग वाला फूल

पर यह जीवन था
और उसमें धरती से ज्यादा
लोगों के दिमाग में जंगल थे
उनके दिलों में भरे थे पहाड़

सम्भव था सिर्फ इतना
कि किसी शैवाल की तरह बस जाऊं
तुम्हारे मन की अन्तरतम सतह पर चुपचाप

बचा रह जाए प्रेम
बस किसी मद्धिम आंच की तरह
पूरता हुआ हमारे जीवन को
अपने जादुई नरम सेंक से
***

10 comments:

  1. बहुत ही बढ़िया कविता(यें)!
    विशाल को बधाई !
    'अनुनाद' आजकल बहुर देर से खुलता है! क्यों भला?

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  2. विशाल की कविता में व्यक्त प्रेम टटका और अछूता है. इतनी अच्छी और गहरी अनुभूतिपरक कविता पढ़वाने के लिए साधुवाद.

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  3. विशाल की कुछ कविताएं कुछ समय पहले एक साथ पढ़ीं थीं। पर यह एक नया कवि है जो इन कविताओं में प्रकट हुआ है मेरे लिये।

    कि अभी बोलूंगा अपनी गरम सांसों के सहारे
    प्यार जैसा कोई नीम नम शब्द
    और वो किसी नाव की तरह तैर जायेगा
    तुम्हारे कानो की लौ तक

    चुप्पी के बाद वापसी कुछ नया कर देती है? वेलकम!

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  4. विशाल को पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है, उनके यहां बेहद सरल लेकिन सघन संवेदनायें हैं और उन्हें व्यक्त करने के लिये वैसी ही सुन्दर भाषा।

    और हां, इस नये रूप में ब्लाग और भी ख़ूबसूरत लग रहा है…

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  5. आप बेहतर लिख रहे/रहीं हैं .आपकी हर पोस्ट यह निशानदेही करती है कि आप एक जागरूक और प्रतिबद्ध रचनाकार हैं जिसे रोज़ रोज़ क्षरित होती इंसानियत उद्वेलित कर देती है.वरना ब्लॉग-जगत में आज हर कहीं फ़ासीवाद परवरिश पाता दिखाई देता है.
    हम साथी दिनों से ऐसे अग्रीग्रटर की तलाश में थे.जहां सिर्फ हमख्याल और हमज़बाँ लोग शामिल हों.तो आज यह मंच बन गया.इसका पता है http://hamzabaan.feedcluster.com/
    आप से आग्रह है कि आप अपना ब्लॉग तुरंत यहाँ शामिल करें और साथियों को भी इसकी सूचना दें.

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  6. अच्छा है विशाल लगे रहो...और ...

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  7. बहुत बहुत अच्‍छी कविताएं। देर तक पढ़ते रहना होगा।

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  8. बहुत खूब!
    घुघूती बासूती

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  9. एक सुरुचिपूर्ण ब्लॉग पर बेहतर कविताएं...बधाई

    अर्पण कुमार

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  10. भाव सान्द्र कविताएँ ।

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