यह पुरानी कविता है। मेरी कविताओं की पिछली पोस्ट पर अपनी टिप्पणी में चन्दन इसे याद किया तो सोचा संजय व्यास की बस के बाद अपनी ट्रेन यहाँ लगा दूँ....शायद पहले कभी लगायी भी हो......इस कविता की ट्रेन यूँ तो झांसी से भुसावल जाती है पर लोग इसे इटारसी-भुसावल पैसिंजर ही कहते हैं।

अभी रेल आएंगी एक के बाद एक
गुंजाती हुई आसपास की हरेक चीज़ को अपनी रफ़्तार के शोर से
आएंगी लेकिन रुकेंगी नहीं
इस जगह को बेमतलब बनाती हुई पटरियों को झिंझोड़ती
चली जाएंगी
भारतीय रेल्वे की समय-सारणी तक में
अपना अस्तित्व न बचा पाने वाले इस छोटे से स्टेशन पर
किसी भी रेल का रुकना एक घटना की तरह होगा
मुल्क की कुछ सबसे तेज़ गाड़ियाँ गुज़रती हैं यहां
उन सबको राह देती
हर जगह रुकती
पिटती
थम-थमकर आएगी
झांसी से आती
वाया इटारसी भुसावल को जाती
अपने-अपने छोटे-छोटे ग़रीब पड़ावों के बीच
कोशिश भर रफ़्तार पकड़ती
हर लाल-पीले सिगनल को शीश नवाती
पांच पुराने खंखड़ डिब्बों वाली
पैसिंजर गाड़ी
लोग भी होंगे चढ़ने-उतरने वाले
कंधों पर पेटी-बक्सा गट्ठर-बिस्तर लादे
आदमी-औरतें, बूढे़ और बच्चे
मेहनतकश
उन्हीं को डपटेगा जी.आर.पी. का अतुलित बलशाली
आत्ममुग्ध सिपाही
पकड़ेगा टी.सी. भी
अपने गुदड़ों में जब कोई टिकट ढूंढता रह जाएगा
**
उन्हें बहुत दूर नहीं जाना होता जो चलते हैं पैसिंजर से
बस इस गाँव से उस गाँव
या फिर कोई निकट का पड़ोसी शहर
उन्हे नहीं पता कि हमारे इस मुल्क में
कहाँ से आती हैं पटरियां
कहाँ तक जाती हैं ?
गहरे नीले मैले-चीकट कपड़ों में उन्हें खटखटाते क्या ढूंढते हैं
रेल्वे के कुछेक बेहद कर्त्तव्यशील कर्मचारी
वे नहीं जानते
पर देखते उन्हें कुछ भय और उत्सुकता से
अकसर वे उनसे प्रभावित होते हैं
**
राजधानी के फर्स्ट ए0सी0 में बैठा बैंगलोर जाता यात्री
कभी नहीं जान पाएगा
कि वह जो खड़ी थी रुक कर राह देती उसकी रेल को
एक नामालूम स्टेशन पर
लोगों से भरी एक छोटी सी गाड़ी
उसमें बैठे लोग भी यात्री ही थे
दरअसल
उन्होंने ही करनी थीं जीवन की असली यात्राएं
बहुत दूर न जाते हुए भी
कोई मजूरी करने जाता था शहर को
कोई पास गाँव से बिटिया विदा कराने
कोई जाता था बहन-बहनोई का झगड़ा निबटाने
बच्चे चूँकि बिना टिकट जा सकते थे इसलिए जाते थे
हर कहीं
उनमें से अधिकांश की अपने स्कूल से
जीवन भर की छुट्टी थी
**
यह आज सुबह चली है
कल सुबह पहुंचेगी
बीच में मिलेगी वापस लौट रही अपनी बहन से
राह में ही कहीं रात भी होगी
लोग बदल जाएंगे
भाषा भी बदल जाएगी
थोड़ा-बहुत भूगोल भी बदलेगा
चाय के लिए पुकारती आवाज़ें वैसी ही रहेंगी
वैसा ही रह-रहकर स्टेशन-स्टेशन शीश नवाना
ख़ुद रुक कर
तेज़ भागती दुनिया को राह दिखाना
डिब्बे और भी जर्जर होते जाएंगे इसके
मुसाफि़र कुछ और ग़रीब
दुनिया आती जाएगी क़रीब
और क़रीब
पर बढ़ते जाएंगे कुछ फ़ासले
बहुत आसपास एक दूसरे चिपक कर बैठे होंगे लोग
लेकिन अकसर रह जाएंगे बिना मिले
रोशनी नीले कांच से छनकर
और हवा पाइपों से होकर आएगी
या फिर हर जगह
ऐसी ही ख़ूब खुली
दिन में धूप और रात में तारों की टिमक से भरी
हवादार खिड़की होगी
अभी फैसला होना बाक़ी है यह
दुनिया
आख़िर कैसी होगी?
किसकी होगी?
***
2005
कमाल है भाई .... अद्भुत रचना ... बहुत ज़बरदस्त !
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना .. बहुत बधाई !!
ReplyDeletekavita hai ki collage hai talchhat ke jeevan ka. panch dibbo wali rail gadi shram aur saundray ka rochak akhyan hai.
ReplyDeleteमंगलेश डबराल के बाद आप पहले कवि मुझे दिख रहे हैं जो सामान्य मनोभावों वाले शुष्क गद्य पंक्तियों से सशक्त कविता संभव कर सकता है।
ReplyDeleteआनन्द आ गया पढ़कर.
ReplyDeleteकविता और अकविता का अंतर शायद ख़त्म हो गया है.
ReplyDeleteबहरहाल एक बढ़िया रचना पढने को मिली.
एक अलग ही समाज और उसके लोगों की जीवन यात्राओं में शामिल ये ट्रेन अद्भुत है.पहले भी इस कविता के माध्यम से इस गाडी में और उसको सुस्ताने का मौका देते स्टेशन पर आना हुआ है. और हर बार की तरह इस बार भी वही विलक्षण अनुभव.
ReplyDeletebachpan me tapti hui dupriya me bhusaval ki talash me na jane kitani der padi rahati thi relgadi,,,,,,,,ki manate manate gala suk jata ,,, pani ki nai talash shuru ho jati,,,,,,,,,bachpan ki yado ke liye ,,,behtar rachna
ReplyDeleteपढ़कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए.. दरअसल, इटारसी के ही पास का बाशिंदा हूँ, और अभी अभी पैसेंजर और जनरल डिब्बे में पुरी की यात्रा से लौटा हूँ. ( ये बात और है की इस एक ही सफ़र में अपने आप पर शहीदाना गर्व हो आया है.) साधुवाद स्वीकार करें. क्या इस रचना का लिंक फेसबुक पर दे सकता हूँ?
ReplyDeleteइकबाल अभिमन्यु जी बिलकुल दे सकते हैं. मैं ख़ुद फेसबुक पर हूँ.
ReplyDeletebahut din baad lautna ho paya.....aapko padhkar achhchha laga,yahan bhi aur PARIKATHA me bhi.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता| मुझे तो लगता है कि यह दुनिया और वह दुनिया साथ-साथ चलती रहेंगी, बस थोड़ा 'लुक' बदल जाएगा|
ReplyDeleteइस वर्ष मैंने जीवन की पहली रेल यात्रा की....रेल पर सफर करना असली भारत को क़रीब से देखने जैसा है. जो मैं हिमालय की इस ऊँचाई से चाह कर भी नहीं देख सकता..... रेल पर कुछ लिखने का मन है. पिछले दिनो शरद कोकास की कविताओं ने भी इस तरफ उकसाया था.... और आज तुम्हारी इस कविता ने भी, थेंक्स शिरीष.
ReplyDeleteबेहद असरदार कविता है, शिरीष भाई. जबकि फैसला होना बाकी है कि दुनिया कैसी और किसकी होनी है तो `सफल` कवियों ने इस ट्रेन का सफ़र छोड़ दिया है.
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