मेरी ये दो कविताएं कादम्बिनी के जून अंक में छपी हैं, लेकिन वहाँ कम्पोजिंग के दौरान इनमें काफ़ी फ़ेरबदल हो गया। इन्हें मूल और दुरुस्त रूप में यहाँ लगा रहा हूँ।
अंत्योदय
आज के जीवन की मुश्किल ये कि स्वप्नों की प्रचुरता भरमाती उसे
विपन्न स्मृतियों के बीच
प्रेम अन्तत: बदल जाता हुआ करुणा और दया में
मित्रताएं कुछ दूर ही साथ आती
मोह सालता कुछ देर पालता नवजात शिशु जैसे कांपते ह्रदय को कहता अब पनप भी जाओ
बारिश होती धोती हताश क़दमों के निशान उत्तरापथ से
वहां दौड़ते विजयरथों की गड़गड़ाहट के बीच अचानक हडबड़ाहट़
बड़बड़ाहट सिपहसालारों की बताती जिसे जय समझे पराजय निकली
फ़सल दरअसल पोची
पुराने समय में कहीं जिनसे बिनोबा जी कराते अन्त्योदय
इक्कीसवीं सदी के उन महान नवरूपित ज़मीदारों- राजकुमारों ने अब सिर्फ़ कविता करने की सोची !
***
कविता लिखना
अट्ठारह से पच्चीस की उम्र तक
पोस्टर चिपकाना हुआ
पच्चीस से तीस तक यूँ ही कुछ दुक्खम-सुक्खम निभाना हुआ
तीस की उम्र में अचानक ही दिल्ली जाकर
पुरस्कार पाना हुआ
तीस से पैंतीस के बीच ख़ुद को वहां से ढूंढ़ कर लाना हुआ
पैंतीस के बाद थोड़ा शर्माना हुआ
न आना हुआ
न जाना हुआ
अख़बार में मुखड़ा देख
एक सहकर्मी वरिष्ठ आचार्य ने कहा चौंककर
अरे शिरीष
तू तो कवि है साला
माना हुआ !
***
अंत्योदय
आज के जीवन की मुश्किल ये कि स्वप्नों की प्रचुरता भरमाती उसे
विपन्न स्मृतियों के बीच
प्रेम अन्तत: बदल जाता हुआ करुणा और दया में
मित्रताएं कुछ दूर ही साथ आती
मोह सालता कुछ देर पालता नवजात शिशु जैसे कांपते ह्रदय को कहता अब पनप भी जाओ
बारिश होती धोती हताश क़दमों के निशान उत्तरापथ से
वहां दौड़ते विजयरथों की गड़गड़ाहट के बीच अचानक हडबड़ाहट़
बड़बड़ाहट सिपहसालारों की बताती जिसे जय समझे पराजय निकली
फ़सल दरअसल पोची
पुराने समय में कहीं जिनसे बिनोबा जी कराते अन्त्योदय
इक्कीसवीं सदी के उन महान नवरूपित ज़मीदारों- राजकुमारों ने अब सिर्फ़ कविता करने की सोची !
***
कविता लिखना
अट्ठारह से पच्चीस की उम्र तक
पोस्टर चिपकाना हुआ
पच्चीस से तीस तक यूँ ही कुछ दुक्खम-सुक्खम निभाना हुआ
तीस की उम्र में अचानक ही दिल्ली जाकर
पुरस्कार पाना हुआ
तीस से पैंतीस के बीच ख़ुद को वहां से ढूंढ़ कर लाना हुआ
पैंतीस के बाद थोड़ा शर्माना हुआ
न आना हुआ
न जाना हुआ
अख़बार में मुखड़ा देख
एक सहकर्मी वरिष्ठ आचार्य ने कहा चौंककर
अरे शिरीष
तू तो कवि है साला
माना हुआ !
***
"वाकई माना हुआ" .. बहुत ही अच्छी लगीं दोनों शिरीष ..बहुत खुली हैं.बड़ी देर तक गूंजेंगी. दूसरी वाली खासकर .. वाह - और पहली वाली थलग अलग ढंग से उदय है - मनीष [ और नाई की दूकान और थिएटर वाले चित्र काव्यों से भी अलग हैं]
ReplyDeleteशिरीष दो बिल्कुल अलग-अलग रंग की ये कवितायें वाकई बहुत अच्छी लगीं
ReplyDeleteदूसरी कविता में तो भाषा से क्या खेला है आपने …वाह
बहुत दिनों बाद हिन्दी मिज़ाज की हिन्दी कवितायें,प्यारे ये तेवर खलीफाई के हैं। पर मजाक अलग, बहुत कठिन इस अंतःकरण को पाना। अपार ईर्ष्या के साथ,और ज्यादे उम्मीद के साथ,कंजूस दुआओं के साथ।
ReplyDeletedusri kavita apni saralta se chakit hi nahi karti hai balki gahra aaghat bhi karti hai...bhasha ko aise saadhna,kaash mujhe bhi ata hota...badhaai mitr
ReplyDeleteyadvendra
बीते समय में भूदान यज्ञ से अपनी उदारता की पताका लहराने की लालसा रखने वाले चक्रवर्तिनों का ये कैसा स्वप्न है कि कविता करने लग गए है!
ReplyDeleteदोनों कविताओं के लिए बधाई.
आपकी दोनों कविताएं बेहतरीन हैं। आपके प्यार भरे कमेंट ने इधर का रास्ता याद दिलाया। आया तो देखा कि बेहतीन चीजें पढ़ने से रह गई।
ReplyDeletei hai kavita ba ta vah-vah bhai
ReplyDeletevaise dusari vali trilochan baba ke faqiri that' us janpad ka kavi hun ki yad dilati hai . kamaal ki kavitai ke liye badhai
दूसरी कविता बेहद अच्छी है.
ReplyDeleteवैसे अगर पत्रिकाओं में सही तरह से छपे तब भी ब्लॉग पर देना चाहिये. हम जैसे पाठको को ब्लॉग ही मिल पाता है और दूसरे जो आपकी पुरानी कविताये है, आग्रह पूर्वक कह रहा हूँ, उन्हे भी ब्लॉग पर देना चाहिये, जैसे आपकी वो वागर्थ वाली कविता- जो रूकी हुई पैसेंजर ट्रैन की बात बताती है, शीर्षक ख्याल से उतर रहा है पर कविता की स्मृति है.
जनाब शिरीष जी ब्लॉग की दुनिया में आना जाना लगा रहता है पर टिप्पणी देना फिलहाल छोड़ दिया था लेकिन ये कविताएँ देख कर टीपने का लालच जागा. क्या कविताएँ हैं ! पहली वाली को पढ़ कर तुरंत एहसास हुआ कि नागार्जुन की परंपरा जिंदा है और कितने निखार पर है! मुझे एक पुराने माले दोस्त ने बताया कि जनाब किशोरावस्था में नागार्जुन की काफी अन्तरंग संगत कर चुके हैं और वो भी महीनों. जनाब आप उस औघड़ के कुछ संस्मरण क्यूँ नहीं लगाते अनुनाद पर. आपका गद्य डायरी के रूप में और किताबों की समीक्षा के रूप में पढ़ा है मैंने. असद जैदी पर शायद समयांतर में लिखा था आपने- वो लाजवाब था. डायरी तो खैर आपके दूसरे ब्लॉग पर है , जहाँ महीनों से पोस्ट बदली नहीं. उसे अनुनाद पर क्यूँ नहीं लगाते- ज्यादा लोग देख पायेंगे.
ReplyDeleteदूसरी कविता को जनाब गिरिराज किराडू ने बिलकुल सही पकड़ा- वाकई खलीफाई तेवर हैं और इस भीतरी संसार को पकड़ पाना मुश्किल है. पूँजी के प्रकोप में इतना सहज और सुथरा दिल कैसे रखते हैं जनाब आप? तारीफ कुछ ज्यादा कर रहा हूँ मैं आपकी- पर आप इसके हक़दार हैं. आप ही नहीं एक नया चेहरा जो अनुनाद पर युवा कविता का नमूदार हुआ है- आप, गिरिराज जी, मनोज झा, व्योमेश शुक्ल, प्रभात(हालांकि ये जनाब सिर्फ एक बार आये अनुनाद पर), गीत चतुर्वेदी- ये सब इतनी ही तारीफ़ के हक़दार हैं. वैसे मैं एक इंजिनियर हूँ और मेरी की हुई तारीफ़ की क्या बिसात. बहुत दिनों में आया इसलिए कहने को कई बातें थीं- टीप लम्बी हो गई.
संजीव शर्मा,
फ़िलहाल - मेरठ.
सच में माना हुआ
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कविताएं हैं.
अच्छी कविताएँ
ReplyDeleteसुंदर भाव विचार
बहुत खूब ....
दोनों बहुत सुन्दर कवितायेँ हैं..सचमुच बढ़िया.
ReplyDeleteदोनो रचनाएँ ... बहुत ही लाजवाब ... स्तब्ध करदेने वाली ....
ReplyDeleteबढ़िया कवितायेँ
ReplyDeleteऔर दूसरी वाली कविता तो बहुत ही अच्छी है
खासकर यह पंक्ति
तू तो कवि है साला माना हुआ..!