Tuesday, June 29, 2010

निकानोर पार्रा और होर्खे लुईस बोर्खेस श्रीकांत दुबे के सौजन्य से


वे रहे, हू ब हू वैसे ही, जैसे वे थे
उन्होंने चांद को पूजा - लेकिन थोड़ा कम

उन्होंने टोकरियां बनाईं लकड़ियों की
गीत और धुनों से खाली थे वे
खड़े खड़े किए बेलौस प्यार
अपने मृतकों को दफनाया भी खड़े ही
वे रहे, हू ब हू वैसे ही, जैसे वे थे।


- निकानोर पार्रा ______________________________
***

आत्महत्या

एक सितारा तक न बचेगा रात में।
नहीं बचेगी रात।
मैं मरूंगा और,
मेरे साथ
ब्रह्माण्ड की असह्य संपूर्णता भी।
मैं मिटा दूंगा मीनारों, प्रशस्तियों,
महाद्वीपों और चेहरों को।
मैं इकट्ठे इतिहास का सफाया कर दूंगा।
धूल में बदल दूंगा इतिहास को, धूल को धूल में।
मैं देख रहा हूं अंतिम सूर्यास्त।
सुन रहा हूं आखिरी परिंदे को।
मैं 'कुछ नहीं' को 'किसी को नहीं' सौंपता हूं।

-होर्खे लुईस बोर्खेस ________________________________
***

श्रीकांत एक कुशल अनुवादक होने साथ साथ एक आत्मीय मित्र, कवि और कथाकार भी हैं. मूल से अनूदित इन कविताओं के लिए श्री का आभार....

Friday, June 25, 2010

एक प्रेम कविता ...

आज दोपहर
मेरे जीवन के भीतर एक औरत चली जा रही थी
गुस्से में
अपने चार साल के बच्चे के साथ

बच्चे के कंधे पर बस्ता था
बस्ता चार किलो से ज़्यादा था
किताबें भारी थीं
भारी था उत्तरआधुनिक ज्ञान
औरत का मन भी हल्का नहीं था
पर उन किताबों में औरत के मन का ब्यौरा नहीं था
तब भी बच्चे ने कहा -
मम्मा अब मैं अच्छा बच्चा बनूँगा

औरत अब सुबक पड़ी थी
और बच्चे से बस्ता मांग रही थी
बच्चा फिर कह रहा था अब मैं अच्छा बच्चा बनूँगा
औरत फिर सुबक रही थी
आंसू दिखाई देने लगे थे
वह उन्हें पोंछ रही थी

घर थोड़ा आगे था
घर के रास्ते में सीढ़ियां थी बहुत सारी
बच्चा हांफते हुए उन्हें गिन रहा था
औरत हालांकि बस्ता नहीं उठा रही थी
फिर भी थकी हुई थी
पसीने से भीगी

मेरे जीवन के भीतर वह औरत थी
अपने बच्चे के साथ
घर के भीतर जाती हुई वह मानो जीवन से
बाहर जाती थी

जहां वह बच्चा था कहता हुआ अब मैं
अच्छा बच्चा बनूँगा
जहां वह औरत थी आंसू पोंछती बच्चे से
बस्ता मांगती

ग़लत थी या सही
बढ़िया थी या घटिया
उसे होना चाहिए था या नहीं
पर ठीक वहीं
मेरी कविता थी
बगटुट भागती
रास्ते पर उसे कुछ कुत्ते खदेड़ते थे
जिन्हें मैं पुचकारता
अचानक ही ख़ुद को कवि मान बैठा था !
***
25.06-2010

पाकिस्तानी कविता में स्त्री तेवर- तीसरी कड़ी


अंगारा मेरी ख्वाहिश
- सारा शगुफ्ता

इज्जत की बहुत सी किस्में हैं
घूंघट, थप्पड़, गंदुम
इज्जत के ताबूत में कैद की मेखें ठोंकी गई हैं
घर से लेकर फुटपाथ तक हमारा नहीं
इज्जत हमारे गुजारे की बात है
इज्जत के ने$जे से हमें दागा जाता है
इज्जत की कनी हमारी जुबान से शुरू होती है
कोई रात हमारा नमक चख ले
तो एक जिंदगी हमें बेजायका रोटी कहा जाता है
ये कैसा बाजार है
के: रंगसा$ज ही फीका पड़ा है
खला की हथेली पे पतंगें मर रही हैं
मैं कैद में बच्चे जनती हूं
$जायज औलाद के लिए जमीन खिलंदड़ी होनी चाहिए
तुम डर में बच्चे जनती हो इसलिए आज तुम्हारी कोई नस्ल नहीं
तुम जिस्म के एक बंद से पुकारी जाती हो
तुम्हारी हैसियत तो चाल में रख दी गई है
एक खूबसूरत चाल
झूठी मुस्कुराहट तुम्हारे लबों पर तराश दी गई है
तुम सदियों से नहीं रोईं
क्या मां ऐसी होती है
तुम्हारे बच्चे फीके क्यों पड़े हैं
तुम किस कुंबे की मां हो
रेप की, कैद की, बंटे हुए जिस्म की
या ईंटों में चुनी हुई बेटियों की
बा$जार में तुम्हारी बेटियां
अपने लहू से भूख गूंधती हैं
और अपना गोश्त खाती हैं
ये तुम्हारी कौन सी आंखें हैं
ये तुम्हारे घर की दीवार की कौन सी चुनाई है
तुमने मेरी हंसी में तआरुफ रखा
और अपने बेटे का नाम सिक्का-ए-रायजुलवक्त
आज तुम्हारी बेटी अपनी बेटियों से कहती है
मैं अपनी बेटी की जुबान दागूंगी
लहू थूकती औरत धात नहीं
चूडिय़ों की चोर नहीं
मैदान मेरा हौसला
अंगारा मेरी ख्वाहिश
हम सर पे क$फन बांधकर पैदा हुए हैं
कोई अंगूठी पहनकर नहीं
जिसे तुम चोरी कर लो.

Thursday, June 24, 2010

पाकिस्तानी कविता में स्त्री तेवर- दूसरी कड़ी

हम गुनहगार औरतें

- किश्वर नाहीद
ये हम गुनहगार औरतें
जो अहले-जुब्बा की तमकनत से
न रोआब खोयें
न जान बेचें
न सर झुकायें
न हाथ जोड़ें
ये हम गुनहगार औरतें हैं
के: जिनके जिस्मों की फसल बेचें जो लोग
वो सरफ़राज़ ठहरें
नियाबते-इम्तियाज़ ठहरें
ये हम गुनहगार औरतें हैं
के: सच का परचम उठा के निकलीं
तो झूठ से शाहराहें अटी मिली हैं
हर एक दहलीज़ पे
सज़ाओं की दास्तानें रखी मिली हैं
जो बोल सकती थीं, वो ज़बानें कटी मिली हैं
ये हम गुनहगार औरतें हैं
के: अब ताअकुब में रात भी आये
तो ये आंखें नहीं बुझेंगी
के अब जो दीवार गिर चुकी है
उसे उठाने की ज़िद न करना
ये हम गुनहगार औरतें हैं
जो अहले-जुब्बा की तमकनत से
न रोआब खोयें
न जान बेचें
न सर झुकायें, न हाथ जोड़ें.

(अहले जुब्बा- मजहब के ठेकेदार, तमकनत- प्रतिष्ठा, सरफ़राज़ - सम्मानित, नियाबते-इम्तेयाज- सही गलत में फर्क करने वाला, ताअकुब- तलाश में )

जारी...

Tuesday, June 22, 2010

पाकिस्तानी कविता में स्त्री तेवर - और एक ज़रूरी सूचना



बारह फरवरी 1983
सईदा गजदार
(पाकिस्तान में कानून-ए-शहादत के तहत किसी अदालत में औरतों की गवाही का कोई खास मूल्य नहीं है. 12 फरवरी 1983 को लाहौर की महिलाओं ने इस कानून के विरोध में एक जुलूस निकाला. इस प्रदर्शन के दौरान महिलाओं के साथ पुलिस बड़ी बेरहमी से पेश आई. यह कविता इसी घटना से प्रभावित होकर लिखी गई है.)
सुनो मरियम, सुनो खदीजा, सुनो फातिमा
साले-नौ की खुशखबरी सुनो
अब वालिदैन बच्चियों के जनम पे
उन्हें मौत के टीके लगवायेंगे
के कानून और इख्तियार उन हाथों में है
जो फूल, इल्म और आज़ादी के खिलाफ
लिखते हैं, बोलते हैं, फैसला सुनाते हैं
हाकिम और सिक्का माने जाते हैं
हां सुनो मरियम, सुनो खदीजा
सुनो फातिमा
आज वो ऐसा कानून बनाते हैं
के: आंखों से लगाओ
होठों से चूमो
एहसान मानो और शुक्राना अदा करो
घर की मल्लिका हो
बच्चों की मां हो
सर झुकाये खिदमत करती कितनी अच्छी लगती हो
कैसी महफूज और पुरवकार हो
बुलंद-मकाम और जन्नत की हकदार हो
इसलिए तुम्हारे भले को बताते हैं
दो औरतों की गवाही समझाते हैं
यूं तन्हा निकलना ठीक नहीं
आना-जाना मुनासिब नहीं
ये हुक्मे आसमानी है
जिसे मानना निजात की निशानी है
जो इससे इनकारी है
इरतदाद का मुजरिम
काबिले गर्दन जदनी है
सड़कों पर निकलना
लडऩा-भिडऩा
आजादी का हक मांगना
निसवानी तकद्दुस के खिलाफ है
गुंडों का काम है
क्यों इस नाजुक वजूद को थकाती हो
हलकान करती हो
चीनी की गुडिय़ा हो
नजरों में आओगी
टूट के बिखर जाओगी
तेज धूप में पिघल जाओगी
अदालत में सच्ची बात कह न पाओगी
शर्म-व-हया से चुप हो जाओगी
लाज की मारी बेहोश हो जाओगी
मातमी झंडियां फडफ़ड़ा रही थीं
कनीजे बागी हो गई थीं
मुसलेह पुलिस के नर्गे में थीं
आंसू गैस, राईफल और बंदूकें
वायरलेस वैन और जीपें
हर रास्ते की नाकाबंदी थी
कोई पनाह न थी
ये लड़ाई ख़ुद ही लडऩी थी
वो पालतू और चहीते
जमीयत के गुंडे
जब सड़कों पर दनदनाते थे
आग लगाते लूटमार करते थे
बर्छे-भाले घुमाते थे
शहरियों को धमकाते थे
तब ये आहनी टोपी वाले
दूर से मुस्कराते थे
शफकत से हंसते थे
बच्चे हैं....
कहकर दूध पिलाते थे
औरत का पीछा छोड़ो
और अपनी फिक्र करो
ये खोखले एखलाकी बंधन और जाब्ते
अपनी हुक्मरानी के वास्ते
मुझे क्यों समझाते हो?
क्या इस्लाम लाना इतना मुश्किल है
क्या अब से पहले लोग नमाज न पढ़ते थे
क्या रोजा न रखते थे
या कुरान और कलमे को न मानते थे?
फिर क्यों जवानियों को बर्बाद करते हो
इतने कठोर और जालिम बनते हो
बात-बात पे कोड़े मारते हो
अजीयत पहुंचाते हो
मैं आजादी का मंशूर पढ़ती हूं
और तुम!
लिखा हुआ जो सामने है
इतना मोटा और वाजेह है
नविश्ता-ए-दीवार है
पढऩे से कासिर हो
ये तुमने कैसे समझा?
के: तुमको पैदा करती हूं
और तुम्हारे सामने शरमाकर, ल$जाकर
सच कहने से घबराऊंगी
जबान से वो सब अदा न कर पाऊंगी
जो हम दोनों के बीच
मुहब्बत, नफरत, इज्जत और हिकारत का रिश्ता है
क्या औरत की सच्चाई से डरते हो?
क्या मैं माऊफ हूं?
या जेहन मेरा मफलूज है
के: साथ खड़ी मेरी हमजिंस
मुझे याद कराती रहे
मुझे तो रत्ती-रत्ती याद है
तुम्हें भी याद कराना जानती हूं
याद करो....के: जु़ल्म $कानून के हवाले से ख़ूब पहचाना जाता है
समझ में आता है
तुम मुझ से इंसान का दर्जा छीनते हो
मैं तुम्हें जन्म देने से इनकार करती हूं
क्या मेरे जिस्म का मसरफ यही है
के: पेट में बच्चा पलता रहे
तुम्हारे लिए अंधे, बहरे, गूंगे
गुलामों की फौज तैयार करती रहे
हम जानते हैं के: तुम्हारा साथ देकर
हम अपने बच्चों की कब्रें खोदेंगे
इसलिए हम तुम्हारा साथ नहीं देंगे
तुम दो कहते हो
हम दो करोड़ औरतें
इस जुल्म और जब्र के खिलाफ गवाही देंगे
जो $कानूने-शहादत के नाम पर
तुमने हमारे सरों पे मारा है
हम नहीं तुम
वाजिबुल-कत्ल हो
के: रोशनी और सच्चाई के दुश्मन हो
मुहब्बत के कातिल हो.
(अनुवाद-शाहिद अनवर)

(पुरवकार- इज्जतदार, इरदतदाद- नास्तिक होना, काबिले-गर्दन-जदनी- गर्दन काटने के लायक, निसवानी तकद्दुस- नारी की पवित्रता, मुसलेह- सुधारवादी, शफकत- अपने से छोटों से प्यार, अजीयत- तकलीफ, मंशूर- दस्तावेज, नविश्ता-किस्मत, कासिर-कोताही करने वाला, माऊफ- जिसे सदमा पहुंचा हो, मसरफ- इस्तेमाल)
जारी....
____________________________________________________________
दोस्त कवि और संपादक प्रतिलिपि गिरिराज किराडू की ओर से एक ज़रूरी सूचना


अर्शिया सत्तार से मेरा परिचय काफी दिलचस्प तरीके से हुआ. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में वे एक खाली पूल के किनारे बैठी लिटिल मैग्ज़ीन की संपादक अंतरा देवसेन के साथ ऐसे बतिया रही थीं जैसे महीनों बाद ससुराल से लौटी लड़कियां अपनी सहेलियों से. अंतरा से थोड़ा-सा परिचय था, ई-मेल आदि के मार्फ़त।

इस फेस्टिवल में हर रोज़ हम दोपहर आते आते आत्म-मुग्ध, कुछ कुछ दयनीय ढंग से मंडरा रहे सितारा लेखकों की थोक मौजूदगी से त्रस्त हो जाते हैं. कुछ वैसा ही हाल और समय था. हमने अंतरा से दुआ सलाम की और उसके यह कहने पर कि वो सबस्क्राइब करेगी उसे चौथे अंक की एक प्रति दे दी. हमने अर्शिया को बिलकुल भी एड्रेस नहीं किया और काफी थका हारा-सा हलो कह कर चल दिए. अगले दिन अर्शिया का सत्र था और वे जिस तरह दुर्लभ अंतर्दृष्टि के साथ, बहुत निर्भीक स्वर में लेकिन आत्म-मुक्त होकर खुद पर अधिक हंसते हुए बोलीं हमें अपने किये पर किंचित शर्मिन्दगी हो आयी. मैंने उनसे कहा अगर आप चाहें तो मैं आपको एक प्रति इसलिए भी दे सकता हूँ कि उसे पढ़कर आप तय कर लें कि प्रतिलिपि आपके लिखने लायक मंच है कि नहीं. वे मुस्कुरा कर बोलीं, " कल से मैं सोच रही थी क्या किया जाये कि यह सुन्दर पत्रिका मुझे भी मिल जाये!"


फिर उनसे अगली बार मुलाकात हुई बनारस में एक सेमिनार में. वहां उनसे कुछ कायदे का परिचय हुआ. वहां जो हतप्रभ कर देने वाला परचा उन्होंने पढ़ा, वह बाद में प्रतिलिपि में प्रकाशित हुआ. पाठकों की जानकारी के लिए अर्शिया सत्तार के वाल्मीकि रामायण और कथासरित्सागर के अंग्रेजी अनुवाद पेंग्विन ने प्रकाशित किये हैं. उन्होंने क्लासिकी भारतीय साहित्य में शिकागो यूनिवर्सिटी से पी.एचडी की है. वे मुंबई में रहती हैं. संगम हाउस उनके स्थापित किया हुआ है. दक्षिण एशिया में इसका काम वे खुद देखती हैं जबकि अमेरिका में डी.डब्ल्यू. विल्सन. संगम हाउस रेजीडेंसी उन लेखकों पर फोकस करती है जिन पर शुरुआती ध्यान तो गया है लेकिन जिन्हें अभी ठीक से स्थापित होना बाकी है. भारतीय भाषाओँ के साथ इसमें डेनिश, जर्मन, पुर्तगाली, ऑस्ट्रियाई और अंग्रेजी में लिखने वाले नए लेखक भी आये हैं. इस वर्ष भी इसका स्वरुप इसी तरह बहु-भाषीय और बहु-देशीय बने रहने की उम्मीद है. रेजीडेंसी में आने वाले लेखकों में से किसी एक को कोरिया में महीने भर की रेजीडेंसी के लिए भी चुना जाता है. अनुनाद के मार्फ़त मैं यह सूचना इच्छुक हिंदी लेखकों तक पहुंचा रहा हूँ. संक्षिप्त विज्ञप्ति नीचे है.
(गिरिराज किराडू)




दक्षिण भारत स्थित अंतर्राष्ट्रीय लेखक पीठ (रायटर्स रेजीडेंसी) संगम हाउस सभी भारतीय भाषाओँ के लेखकों से वर्ष २०१०-२०११ के लिए आवेदन आमंत्रित करती है. रेजीडेंसी सत्र नवम्बर-दिसंबर में दस सप्ताह तक चलता है और एक लेखक के लिए यह अवधि सामान्यतः २ से ४ हफ्ते की होती है. लेखक उपयुक्त सामग्री के साथ आवेदन कर सकते हैं. चयनित लेखकों के आतिथ्य की व्यवस्था हम करते हैं लेकिन उन्हें आने जाने का किराया खुद उठाना होता है.
इस वर्ष आवेदन की अंतिम तिथि ३० जून है. सफल आवेदनकर्ताओं को निर्णय की सूचना अगस्त २०१० के अंत तक दी जाएगी.

और जानकारी के लिए हमारी वेबसाईट देखें: http://sangamhouse.org

Saturday, June 19, 2010

विशाल श्रीवास्तव की कविताएँ ....


विशाल बहुत दिनों बाद अपनी चुप्पी तोड़ कर संबोधन में विष्णु नागर पर एक लेख और परिकथा में कुछ कविताओं के साथ दिखाई दिया है....मेरे लिए ये एक निजी खुशखबरी है। यहाँ प्रस्तुत है परिकथा से उसकी कविताएँ....जल्द ही उस अंक से कुछ और कविताएँ अनुनाद पर होंगी।

छूना, कांपना, डूबना!

हवा जिस तरह छूती है
हवा को
जिस तरह पानी को पानी
मैं तुम्हें छूना चाहता हूं
इस तरह

जिस तरह एक भीगी सुबह में
कांपती है कोई शावक किसलय
वैसे ही
किसी पत्ती की तरह कांपना चाहता हूं
पाकर तुम्हारी देह का ताप

छोड़कर उज्ज्वलता का मोह
डुबकी लगाता है सूरज जिस तरह
शायक संध्या में
उसी तरह
मैं डूब जाना चाहता हूं
तुम्हारे आस-पास की अंधेरी तन्द्रा में

हर तरफ कुहासा है
और बादल काले भ्रम के
तो बची है क्या इतनी निर्मलता
कि सम्भव हो
इस तरह
छूना कांपना डूबना!

***

वो आई

वो आई
उसके आने ने जैसे
रात के आसमान में फेंका कंकड़
खिड़की के आकाश में
पहले चांद थरथराया
फिर जल कांपा आसमान का
फिर एक एक करके झिलमिलाये तारे
सबने कहा देखो वो आई

उसके आने से जागा मेरे कमरे का अंधेरा
उसकी तांबई रंगत से खुश हुआ दरवाजा
खुश हुए मेरे गन्दे कपड़े और जुराबें
खिल उठीं बेतरतीब किताबें
सब खुसफुसाये ... वो आई

वो आई मेरे मनपसन्द पीले कपड़ों में
जिनके हरेक तन्तु की गन्ध मुझे परिचित
मैंने जैसे कपड़ों से कहा - बैठो
कपड़े बैठे ... वो बैठी

जैसा कि उसकी आदत है, उसने कहा
कि मन नहीं लगता मेरे बिना उसका
जीना असम्भव है
उसने कहा ... मैंने सुना

फिर
मैंने कहा - बीत गया है अब सब कुछ
मैंने कहा ... उसने सुना

उसने कहा - बीतना भूलना नहीं होता
दर्द को सम्मिलित करना होता है जीवन में
मैंने कहा दर्द .. हां दर्द कहां बीतता है
सिर्फ हम बीतते हैं थोड़ा-थोड़ा समय के साथ
वह थोड़ा और उदास हुई
गीली हो गईं उसकी आंखें
आखिर वह उठी
मैंने उठते हुए देखा पीले कपड़ों को
मैंने देखा पीले कपड़ों को जाते हुए

कांपना बन्द हुआ आसमान का
सो गया फिर से कमरे का अंधेरा
दुखी हुए कपड़े और जुराबें
दुखी हुआ दरवाजा
इस बार
सब जैसे चीखकर बोले
वो गई .... वो गई .... वो गई

मैंने सिगरेट सुलगाई
और आहिस्ते से कहा
जाने दो
***

पीले पत्ते

ओ पीले पत्ते
यूं ही नहीं रुका हूं तुम्हारे पास
इसकी वजहें हैं

तुम्हारी शिरा की नोक पर रुका पानी
जो रुकते रुकते गिरने वाला था और
अभी गिरते गिरते रुक गया है
जिसकी रंगत ठीक वैसी है
जैसी विगत प्रेमिकाओं की आंखों की कोर के तरल की
जब वे बाज़ार में मुझे मिलती हैं अपने बच्चों के साथ
लेकिन यह पानी क्यों रुका है तुम्हारी शिरा पर
क्या तुम आज किसी के लिए दुखी हो
ओ पीले पत्ते

यह तुम्हारा सम्मोहक झुकाव
जिसे देखकर मुझे
कौसानी के पहाड़ी पेड़ की वह पत्ती याद आती है
जो वहां पन्त के झोपड़े के पीछे
ठीक उसी अंश में झुकी थी जैसे तुम
ठीक उसी तरह सजल थी जैसे तुम

कहीं तुम उसके बदमाश प्रेमी तो नहीं हो
ओ पीले पत्ते

अजीब हो यार तुम भी
दुनिया भाग रही है तुम्हारे आस-पास
अपनी-अपनी घृणा के थैले उठाये हुए
और तुम हो कि कर रहे हो प्यार
उस सुदूर पत्ती से
सिर्फ इसलिए कि
वह भी ठीक उसी तरह झुकी है
जैसे तुम

ओ पीले पत्ते
चिढ़ हो रही है मुझे तुमसे
ये क्या बात हुई
आदमियों की तरह प्यार करने की
गुस्सा आ रहा है मुझे तुम पर बेहद
अच्छा होगा मैं तुमसे विदा लूं

मिलूंगा तुमसे फिर किसी उदास रात को
जब मैं दुखी रहूंगा थोड़ा ज्यादा
मेरी शिराओं की नोक पर भी
कुछ रुका हुआ होगा
डूबा रहूंगा मैं भी किसी सान्द्र द्रव में
ठीक तुम्हारी ही तरह।
***

बचा रह जाए प्रेम

कठिन दुपहरियों में
जब धूप सोख लेती थी सारी दुनिया का रंग
और फीके श्वेत श्याम दृश्यों में
खिलखिलाहट की तरह उड़ता था
तुम्हारा धानी दुपट्टा
मैं था
कि सोचता था
कि अभी बोलूंगा अपनी गरम सांसों के सहारे
प्यार जैसा कोई नीम नम शब्द
और वो किसी नाव की तरह तैर जायेगा
तुम्हारे कानों की लौ तक

मैंने सोचा था कि तमाम
जंगल, पहाड़ लांघकर
सर सर सर
मैं दौड़ता जाऊंगा और लाऊंगा
तुम्हारे बालों के लिए
उदास बादल के रंग वाला फूल

पर यह जीवन था
और उसमें धरती से ज्यादा
लोगों के दिमाग में जंगल थे
उनके दिलों में भरे थे पहाड़

सम्भव था सिर्फ इतना
कि किसी शैवाल की तरह बस जाऊं
तुम्हारे मन की अन्तरतम सतह पर चुपचाप

बचा रह जाए प्रेम
बस किसी मद्धिम आंच की तरह
पूरता हुआ हमारे जीवन को
अपने जादुई नरम सेंक से
***

Thursday, June 17, 2010

वियतनामी भाषा में चूमना : ओशन वोंग


वियतनामी भाषा में चूमना


मेरी दादी ऐसे चूमती है
जैसे पिछवाड़े के आँगन में बम हों फूट रहे,
रसोईघर की खिड़की से होकर जहाँ
पुदीना और चमेली अपनी महक फैलाती हो,
जैसे कोई लाश कहीं गिर रही हो भरभरा कर
और किसी बच्चे की जांघ की नसों से होकर
जैसे लौट रही हो लपटें,
बिदा के ज़ख्मों के साथ जैसे थिरक उठे तुम्हारा धड़
दरवाज़े से बाहर निकलने के लिए.
नहीं होते भड़कीले चुम्बन, और न ही पश्चिमी संगीत सिकुड़े
होठों वाला, जब चूमती है मेरी दादी, चूमती है ऐसे
जैसे खुद को भर देना चाहती है
तुम्हारी साँसों में, गाल से एकदम सटी हुई नाक
जिससे कि तुम्हारी खुशबू उसके फेफड़ों के भीतर
सुनहली बूंदों के मोतियों में बदल जाए, मौत भी जैसे जकड़ती है
कलाई को तुम्हारी, जिस वक़्त तुम्हें थामे हो दादी.
मेरी दादी ऐसे चूमती है
इतिहास का अंत हुआ ही न हो जैसे
जैसे अब भी कहीं कोई लाश
गिर रही हो भरभरा कर.

******

(1988 में सैगोन (वियतनाम) में जन्मे ओशन वोंग एक साल की उम्र में अमेरिका आ बसे ; सम्प्रति सिटी यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यू योंर्क के ब्रूकलिन कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक कर रहे हैं. उनकी कविताएँ कई अमेरिकी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.)

Wednesday, June 9, 2010

इटारसी-भुसावल पैसिंजर : तालबेहट स्टेशन - मध्य रेल्वे

यह पुरानी कविता है। मेरी कविताओं की पिछली पोस्ट पर अपनी टिप्पणी में चन्दन इसे याद किया तो सोचा संजय व्यास की बस के बाद अपनी ट्रेन यहाँ लगा दूँ....शायद पहले कभी लगायी भी हो......इस कविता की ट्रेन यूँ तो झांसी से भुसावल जाती है पर लोग इसे इटारसी-भुसावल पैसिंजर ही कहते हैं।

इटारसी-भुसावल पैसिंजरतालबेहट स्टेशन - मध्य रेल्वे
अभी रेल आएंगी एक के बाद एक
गुंजाती हुई आसपास की हरेक चीज़ को अपनी रफ़्तार के शोर से
आएंगी लेकिन रुकेंगी नहीं
इस जगह को बेमतलब बनाती हुई पटरियों को झिंझोड़ती
चली जाएंगी
भारतीय रेल्वे की समय-सारणी तक में
अपना अस्तित्व न बचा पाने वाले इस छोटे से स्टेशन पर
किसी भी रेल का रुकना एक घटना की तरह होगा

मुल्क की कुछ सबसे तेज़ गाड़ियाँ गुज़रती हैं यहां
उन सबको राह देती
हर जगह रुकती
पिटती
थम-थमकर आएगी
झांसी से आती
वाया इटारसी भुसावल को जाती
अपने-अपने छोटे-छोटे ग़रीब पड़ावों के बीच
कोशिश भर रफ़्तार पकड़ती
हर लाल-पीले सिगनल को शीश नवाती
पांच पुराने खंखड़ डिब्बों वाली
पैसिंजर गाड़ी

लोग भी होंगे चढ़ने-उतरने वाले
कंधों पर पेटी-बक्सा गट्ठर-बिस्तर लादे
आदमी-औरतें, बूढे़ और बच्चे
मेहनतकश
उन्हीं को डपटेगा जी.आर.पी. का अतुलित बलशाली
आत्ममुग्ध सिपाही
पकड़ेगा टी.सी. भी
अपने गुदड़ों में जब कोई टिकट ढूंढता रह जाएगा
**
उन्हें बहुत दूर नहीं जाना होता जो चलते हैं पैसिंजर से
बस इस गाँव से उस गाँव
या फिर कोई निकट का पड़ोसी शहर

उन्हे नहीं पता कि हमारे इस मुल्क में
कहाँ से आती हैं पटरियां
कहाँ तक जाती हैं ?
गहरे नीले मैले-चीकट कपड़ों में उन्हें खटखटाते क्या ढूंढते हैं
रेल्वे के कुछेक बेहद कर्त्तव्यशील कर्मचारी
वे नहीं जानते
पर देखते उन्हें कुछ भय और उत्सुकता से
अकसर वे उनसे प्रभावित होते हैं
**
राजधानी के फर्स्ट ए0सी0 में बैठा बैंगलोर जाता यात्री
कभी नहीं जान पाएगा
कि वह जो खड़ी थी रुक कर राह देती उसकी रेल को
एक नामालूम स्टेशन पर
लोगों से भरी एक छोटी सी गाड़ी
उसमें बैठे लोग भी यात्री ही थे
दरअसल
उन्होंने ही करनी थीं जीवन की असली यात्राएं
बहुत दूर न जाते हुए भी

कोई मजूरी करने जाता था शहर को
कोई पास गाँव से बिटिया विदा कराने
कोई जाता था बहन-बहनोई का झगड़ा निबटाने
बच्चे चूँकि बिना टिकट जा सकते थे इसलिए जाते थे
हर कहीं
उनमें से अधिकांश की अपने स्कूल से
जीवन भर की छुट्टी थी
**
यह आज सुबह चली है
कल सुबह पहुंचेगी
बीच में मिलेगी वापस लौट रही अपनी बहन से
राह में ही कहीं रात भी होगी
लोग बदल जाएंगे
भाषा भी बदल जाएगी
थोड़ा-बहुत भूगोल भी बदलेगा
चाय के लिए पुकारती आवाज़ें वैसी ही रहेंगी
वैसा ही रह-रहकर स्टेशन-स्टेशन शीश नवाना
ख़ुद रुक कर
तेज़ भागती दुनिया को राह दिखाना
डिब्बे और भी जर्जर होते जाएंगे इसके
मुसाफि़र कुछ और ग़रीब
दुनिया आती जाएगी क़रीब
और क़रीब
पर बढ़ते जाएंगे कुछ फ़ासले
बहुत आसपास एक दूसरे चिपक कर बैठे होंगे लोग
लेकिन अकसर रह जाएंगे बिना मिले

रोशनी नीले कांच से छनकर
और हवा पाइपों से होकर आएगी
या फिर हर जगह
ऐसी ही ख़ूब खुली
दिन में धूप और रात में तारों की टिमक से भरी
हवादार खिड़की होगी

अभी फैसला होना बाक़ी है यह
दुनिया
आख़िर कैसी होगी?
किसकी होगी?
***
2005

Monday, June 7, 2010

संजय व्यास की कविता - चौथी किस्त


बस की लय को पकड़ते हुए

ये बस दो रेगिस्तानी जिला मुख्यालयों को जोडती है
जो दिन में शहर और रात में गाँव हो जाते है
सुबह ये शहर का सपना लिए जगते हैं और रात को सन्नाटा लिए सो जातें हैं
इनके बीच सदियों का मौन हैं, सिर्फ कहीं कहीं जीवन तो कहीं इतिहास मुखर हैं।

बस की खिड़की से शहर छूटता दिखाई पड़ता है
और इमारतें विदा करतीं हैं अपने शिल्प की ख़ास भंगिमाओं को थोड़ा छोड़ते हुए

डेढ़ सौ किलोमीटर का फासला और बीच में तीन स्टॉप हैं
जिनमें एक पर सवारियां उतर कर चाय भी पीतीं हैं,जैसा की अक्सर लम्बी लगने वाली यात्राओं में होता है

इसके अलावा बहुत कुछ जनशून्य है
कुछ पेड़ जो अपनी सारी ऊर्जा झोंक कर भी
हरे होने के अहसास को ही जिंदा रख पाए हैं

ऊंटों के बरग अनंत यात्रा और मरीचिकाओं के मिथ्याभास में सत और असत के बीच झूलते हैं
बस के भीतर देखने पर ही जीवन कुछ नज़दीक लगता है,
यहाँ पीछे की सीटों पर लोगों से स्थान साझा करते हैं बकरी के शावक

पहले स्टॉप पर बस रूकती है
कुछ सवारियां उतरती हैं ,
एक दो चढ़ती है

इस जगह में शहर के नज़दीक होने का दर्प है
ये दीगर बात है कि जिसके नज़दीक होने पर वो इतराती है
उसे भी कायदे का शहर होने का गुमान नहीं

बस फिर लय पकडती है
आगे एक मोड़ पर ड्राईवर होर्न बजाता है
सामने से कोई नहीं आ रहा,एक हाजरी-सी दी गयी है लोकदेवता के थान को
किसी अनिष्ट से मुलाक़ात न हो

बारात वाली बसें तो बसें तो बाकायदा थान पर रुक कर
अफीम,सिगरेट या खोपरा अर्पित करतीं हैं।

अगला स्टॉप आ गया है
बाहर एक पुराने किले के खंडहर हैं,उपेक्षित
पास ही गाँव वाले चाय की दूकान पर बातों में मशगूल हैं
उनकी बातचीत का विषय किला न होकर काळ है,
जो लगातार तीसरे साल भी छाती पर बैठा है
किले के इतिहास के विषय में कोई नहीं जानता
यहाँ टूरिस्ट नहीं आते इसलिए इतिहास का गाईडी-गड्ड मड्ड संस्करण भी बन नहीं पाया है
लोक स्मृति में
कूटल-सकीना की प्रेम कथा का राग ज़रूर बजता है
गडरिये को गाँव के मुखिया की लड़की से प्रेम हो गया था
ये प्रेम गडरिये की मरदाना सुन्दरता से नहीं था,
उसके नड बजाने के हुनर से था
जो चांदनी रात में रेत के असीम विस्तार को हूरों की दुनिया में तब्दील कर देता था

बस फिर दौडती है
पूरे रास्ते में किसी गाँव या आदमी का दिखना
एक सुखद क्रम-भंग की तरह होता है
स्टॉप से बस का प्रस्थान पीछे छूटते अनजान लोगों के प्रति भारी बिछोह को जन्म देता है


ये वाला स्टॉप कुछ देर का है
यहाँ चाय पी जायेगी

चाय के साथ प्याज के पकौड़ियाँ आँख मूँद कर अनुभव करने के चीज़ हैं
गाँव से बड़ी और क़स्बे से छोटी ये जगह जो भी हो प्याज की पकौड़ियों के लिए याद रखी जाने लायक है

सभी घरों में लोग नहीं रहते
कुछ खाली हैं,पुराने
उनमें भूत रहते हैं
इसी गाँव के बाशिंदे जो समय की रेखीय अवधारणा में भूत हैं
और चक्रीय अवधारणा में अभी भी प्याज के पकौड़े खाने का इंतज़ार कर रहें हैं
ये ब्राह्मण तेल में खौलते इस हैरत अंगेज़ स्वाद से जबरन वंचित थे
उनके लिए खाद्य-अखाद्य सुनिश्चित था
एक स्व-निर्मित मर्यादा रेखा,
अलंघ्य लक्ष्मण रेखा
फांदी न जा सकने वाली कारा-भित्ति
यजमान वृत्ति के लिए इसे तोडना या लांघना फलदायी नहीं था
पर इसके लिए अपना मोक्ष भी स्थगित रखे हुए.


बस रवाना होती है, रफ़्तार पकडती है.

विश्व-ग्राम की चौंध मारती रौशनी से दूर ये बस
लगभग रात पड़ते,
अँधेरे के स्थाई भाव में जीते अपने गंतव्य में दाखिल होती है।
***

Thursday, June 3, 2010

अन्त्योदय और कविता लिखना


मेरी ये दो कविताएं कादम्बिनी के जून अंक में छपी हैं, लेकिन वहाँ कम्पोजिंग के दौरान इनमें काफ़ी फ़ेरबदल हो गया। इन्हें मूल और दुरुस्त रूप में यहाँ लगा रहा हूँ।

अंत्योदय

आज के जीवन की मुश्किल ये कि स्वप्नों की प्रचुरता भरमाती उसे
विपन्न स्मृतियों के बीच
प्रेम अन्तत: बदल जाता हुआ करुणा और दया में
मित्रताएं कुछ दूर ही साथ आती
मोह सालता कुछ देर पालता नवजात शिशु जैसे कांपते ह्रदय को कहता अब पनप भी जाओ

बारिश होती धोती हताश क़दमों के निशान उत्तरापथ से
वहां दौड़ते विजयरथों की गड़गड़ाहट के बीच अचानक हडबड़ाहट़
बड़बड़ाहट सिपहसालारों की बताती जिसे जय समझे पराजय निकली

फ़सल दरअसल पोची

पुराने समय में कहीं जिनसे बिनोबा जी कराते अन्त्योदय
इक्कीसवीं सदी के उन महान नवरूपित ज़मीदारों- राजकुमारों ने अब सिर्फ़ कविता करने की सोची !
***

कविता लिखना

अट्ठारह से पच्चीस की उम्र तक
पोस्टर चिपकाना हुआ

पच्चीस से तीस तक यूँ ही कुछ दुक्खम-सुक्खम निभाना हुआ

तीस की उम्र में अचानक ही दिल्ली जाकर
पुरस्कार पाना हुआ

तीस से पैंतीस के बीच ख़ुद को वहां से ढूंढ़ कर लाना हुआ

पैंतीस के बाद थोड़ा शर्माना हुआ
न आना हुआ
न जाना हुआ

अख़बार में मुखड़ा देख
एक सहकर्मी वरिष्ठ आचार्य ने कहा चौंककर
अरे शिरीष
तू तो कवि है साला
माना हुआ !
***

Wednesday, June 2, 2010

संजय व्यास की कविता - तीसरी किस्त

फ्रेम


एक भरी पूरी उम्र लेकर
दुनिया से विदा हुई दादी के बारे में
सोचता है उसका पोता
बड़े से फ्रेम में उसके चित्र को देखता।

विस्तार में फ्रेम को घेरे उसका चेहरा
बेशुमार झुर्रियां लिए
जिनमे तह करके रखा है उसने अपना समय।
समय जो साक्षी रहा है
कई चीज़ों के अन्तिम बार घटने का।

अनगिन बार सुना है जिसने
समाप्त हो चुकी पक्षी प्रजातियों का कलरव
बहुत से ऐसे वाद्यों का संगीत
जो अब धूल खाए संग्रहालय की
कम चर्चित दीर्घा में पड़े हैं
या हैं जो किसी घर की भखारी में
पुराने बर्तनों के पीछे ठुंसे हुए।

देखा है जिसने
शहर के ऐतिहासिक तालाब को
चुनिन्दा अच्छी बारिशों में लबालब होते
फ़िर बेकार किए जाते
अंततः कंक्रीट से पाटे जाते।

देखा है जिसने
घर के सामने
खेजड़ी को हरा होते और सूखते
अन्तिम बार हुए
किसी लोकनाट्य के रात भर चले मंचन को भी।

कितने ही लोक संस्करण बोले हैं
इसने राम कथा और महाभारत के
जिन्हें उनके शास्त्रीय रूपों में
कभी जगह नहीं दी गई।
बताती थीं वो
कि पांडवों का अज्ञात वास
उसके पीहर के गाँव में ही हुआ था
जहाँ भीम के भरपेट खाने लायक
पीलू उपलब्ध थे
और अर्जुन ने वहीं सीखा था
ऊँट पर सवारी करना।

उसके हाथों ने, जो दिखाई नही दे रहे थे फोटो में
इतना जल सींचा था
जिनसे विश्व की समस्त नदीयों में
आ सकती थी बाढ़
कदम उसके इतनी बार
चल चुके थे इसी घर में
कि जिनसे की जा सकती थी
पृथ्वी की प्रदक्षिणा कई कई बार
इतनी सीढीयाँ वे चढ़ चुके थे घर की
कि जिनसे किए जा सकते थे कई
सफल एवरेस्ट अभियान
और इतनी दफा वे उतर चुके थे
घर के तहखाने में
जो पर्याप्त था
महासागरों के तल खंगालने को।

यद्यपि मृत्यु से पहले
सवा दो महीने तक
वो घर के अंधेरे कमरे में
शैय्या-बद्ध रही
पर हाँ अभी ही मिला था उसे अवसर
अपनी दुनिया में विचरने का
उसे पहली बार आबाद करने का।
***
पोस्ट में लगा चित्र कवि ने ख़ुद उपलब्ध कराया है।

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