अनुनाद

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मनोज कुमार झा की कविताएँ

यह नौजवान साथी प्रगतिशील हिंदी कविता की परंपरा से जीवनद्रव खींचता हुआ हमारे समय की  कविता लिख रहा है। बिहार की धरती नागार्जुन, अरुण कमल के बाद एक बार फिर हिंदी कविता का उदात्ततम रूप लेकर हमारे सामने उपस्थित है। उसका ट्रीटमेंट अद्भुत और स्पृहणीय है। अनुनाद इस कवि को सेलीब्रेट कर रहा है। दरअसल यह पहले ही हो जाना था पर कवि से तब संपर्क नहीं हो पाया। मनोज के कविकर्म पर यह पहली प्रस्तुति है, आगे यह क्रम जारी रहेगा। पहली बार में मनोज को दिए गए भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार की संस्तुति और मनोज की तीन कविताएँ।

संस्तुति – भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार 2008

इस वर्ष का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार श्री मनोज कुमार झा को उनकी कविता `स्थगन´ के लिए प्रदान किया जाता है। यह कविता `कथन´ पत्रिका के जुलाई-सितम्बर, 2008 अंक में प्रकाशित है।

स्थगन कविता को निरीक्षण की नवीनता, बिम्बों की सघनता और कथन की अप्रत्याशित भंगिमाओं के लिए रेखांकित किया जाता है। बार-बार घटित होने वाले एक पुरातन अनुभव और स्थिति को बिल्कुल नयी तरह से रचते हुए यह कविता भारतीय ग्राम-जीवन को अद्यतन सन्दर्भों में प्रस्तुत करती है। हमारे समाज के निर्धनतम वर्ग की लालसा और जीवट को अभिव्यक्त करती यह कविता हमें पुन: उन लोगों और दृश्यों की ओर ले जाती है जो बाहर छूटते जा रहे हैं।

मनोज कुमार झा की कविताएं जो हाल के दिनों में प्रकाशित हुई हैं उन्होंने अपने गहन इन्द्रिय बोध, वैचारिक निजता और साहसिक भाषिक आचरण से सहृदय पाठकों को आकर्षित किया है। दरभंगा के एक धुर गांव मउ बेहट में रहकर सृजनरत मनोज की कविताओं की सामग्री प्राय: गांवों के जीवन से आती है, लेकिन अपनी अन्तिम निर्मिति में वह विचारप्रवण तथा वैश्विक होती है मानों यह सिद्ध कर रही हो कि कविता का जीवन स्थानबद्ध होते हुए भी सार्वदेशिक होता है। मैथिली के शब्दों-मुहावरों से संपृक्त उनकी कविताएं हिन्दी को एक सलोनापन देती हैं और सर्वथा नये बिम्बों की श्रृंखला अभी के निचाट वक्तव्यमय काव्य मुहावरे को अभिनंदनीय संश्लिष्टता। 1976 में जन्मे मनोज कुमार झा आजीविका की अनिश्चितता के बावजूद निरन्तर अध्ययनशील और रचनाकर्म में संलग्न हैं। उन्होंने अनेक अनुवाद किए हैं, निबंध भी लिखे हैं और वह सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों में भी सक्रिय रहे हैं। इस वर्ष का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्रदान करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है।

– अरुण कमल
***
इस कथा में मृत्यु

(1)
इस कथा में मृत्यु कहीं भी आ सकती है
यह इधर की कथा है।
जल की रगड़ से घिसता, हवा की थाप से रंग छोड़ता
हाथों का स्पर्श से पुराना पड़ता और फिर हौले से निकलता
ठाकुर-बाड़ी से ताम्रपात्र
– यह एक दुर्लभ दृश्य है
कहीं से फिंका आता है कोई कंकड़
और फूट जाता है कुंए पर रखा घड़ा ।

गले में सफेद मफलर बांधे क्यारियों के बीच मन्द-मन्द चलते वृद्ध
कितने सुन्दर लगते हैं
मगर इधर के वृद्ध इतना खांसते क्यों हैं
एक ही खेत के ढ़ेले-सा सबका चेहरा
जितना भाप था चेहरे में सब सोख लिया सूखा ने
छप्पर से टपकते पानी में घुल गया देह का नमक
कागज जवानी की ही थी मगर बुढ़ापे ने लगा दिया अंगूठा
वक्त ने मल दिया बहुत ज्यादा परथन ।

तलुवे के नीचे कुछ हिलता है
और जब तक खोल पाए पंख
लुढ़क जाता है शरीर।

उस बुढ़िया को ही देखिए जो दिनभर खखोरती रही चौर में घोंघे
सुबह उसके आंचल में पांच के नोट बंधे थे
सरसों तेल की शीशी थी सिर के नीचे
बहुत दिनों बाद शायद पांच रूपये का तेल लाती
भर इच्छा खाती मगर ठण्ड लग गई शायद
अब भी पूरा टोला पड़ोसन को गाली देता है
कि उसने रांधकर खा लिया
मरनी वाले घर का घोंघा ।

वह बच्चा आधी रात उठा और चांद की तरफ दूध-कटोरा के लिए बढ़ा
रास्ते में था कुआं और वह उसी में रह गया, सुबह सब चुप थे
एक बुजुर्ग ने बस इतना कहा-गया टोले का इकलौता कुआं।

वह निर्भूमि स्त्री खेतों में घूमती रहती थी बारहमासा गाती
एक दिन पीटकर मार डाली गई डायन बताकर ।

उस दिन घर में सब्जी भी बनी थी फिर भी
बहू ने थोड़ा अचार ले लिया
सास ने पेटही कहकर नैहर की बात चला दी
बहू सुबह पाई गई विवाहवाली साड़ी में झूलती
तड़फड़ जला दी गई चीनी और किरासन डालकर
जो सस्ते में दिया राशनवाले ने
– पुलिस आती तो दस हजार टानती ही
चार दिन बाद दिसावर से आया पति और अब
सारंगी लिए घूमता रहता है।

बम बनाते एक की हाथ उड़ गई थी
दूसरा भाई अब लग गया है उसकी जगह
परीछन की बेटी पार साल बह गई बाढ़ में
छोटकी को भी बियाहा है उसी गांव
उधर कोसी किनारे लड़का सस्ता मिलता है।

मैं जहां रहता हूं वह महामसान है
चौदह लड़कियां मारी गई पेट में फोटो खिंचवाकर
और तीन महिलाएं मरी गर्भाशय के घाव से ।

(2)
कौन यहां है और कौन नहीं है, वह क्यों है
और क्यों नहीं- यह बस रहस्य है।
हम में से बहुतों ने इसलिए लिया जन्म कि कोई मर जाए तो
उसकी जगह रहे दूसरा ।
हम में से बहुतों को जीवन मृत सहोदरों की छाया-प्रति है।
हो सकता है मैं भी उन्हीं में से होऊं ।
कई को तो लोग किसी मृतक का नाम लेकर बुलाते हैं।
मृतक इतने हैं और इतने करीब कि लड़कियां साग खोंटने जाती हैं
तो मृत बहनें भी साग डालती जाती हैं उनके खोइछें में ।
कहते हैं फगुनिया का मरा भाई भी काटता है उसके साथ धान
वरना कैसे काट लेता है इतनी तेजी से।
वह बच्चा मां की कब्र की मिट्टी से हर शाम पुतली बनाता है
रात को पुतली उसे दूध पिलती है
और अब उसके पिता निश्चिन्त हो गए हैं।

इधर सुना है कि वो स्त्री जो मर गई थी सौरी में
अब रात को फोटो खिंचवाकर बच्ची मारने वालों
को डराती है, इसको लेकर इलाके में बड़ी दहशत है
और पढ़े-लिखे लोगों से मदद ली जा रही है जो कह
रहे हैं कि यह सब बकवास है और वे भी सहमत हैं
जो अमूमन पढ़े-लिखों की बातों में ढू़ंढ़ते हैं सियार का मल।

इस इलाके का सबसे बड़ा गुण्डा मात्र मरे हुओं से डरता है।
एक बार उसके दारू के बोतल में जिन्न घुस गया था
फिर ऐसी चढ़ी कि नहीं उतरी पार्टी-मीटिंग में भी
मन्त्री जी ले गए हवाई जहाज में बिठा ओझाई करवाने।

इधर कोई खैनी मलता है तो उसमें बिछुड़े हुओं का भी हिस्सा रखता है।
एक स्त्री देर रात फेंक आती है भुना चना घर के पिछवाड़े
पति गए पंजाब फिर लौटकर नहीं आए
भुना चना फांकते बहुत अच्छा गाते थे चैतावर ।

(3)
संयोगों की लकड़ी पर इधर पालिश नहीं चढ़ी है
किसी भी खरका से उलझकर टूट सकता है सूता ।
यह इधर की कथा है
इसमें मृत्यु के आगे पीछे कुछ भी तै नहीं है।
***

मनोज कुमार झा
जन्म – 07 सितम्बर 1976 ई0। बिहार के दरभंगा जिले के शंकरपुर-मांऊबेहट गांव में।
शिक्षा – विज्ञान में स्नातकोत्तर
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं एवं आलेख प्रकाशित ।
चॉम्सकी, जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक इत्यादि के लेखों का अनुवाद प्रकाशित।
एजाज अहमद की किताब `रिफ्लेक्शन ऑन ऑवर टाइम्स´ का हिन्दी अनुवाद संवाद प्रकाशन से प्रकाशित।
सराय / सी. एस. डी. एस. के लिए `विक्षिप्तों की दिखन´ पर शोध ।
संप्रति – गांव में रहकर स्वतन्त्र लेखन, शोध एवं अनुवाद

0 thoughts on “मनोज कुमार झा की कविताएँ”

  1. इस कथा में मृत्यु कहीं भी आ सकती है
    यह इधर की कथा है…

    यह कथा मेरे उधर की ही है..पर इतनी भयावह है मैं अनभिज्ञ सा था

  2. मनोज कुमार झा का रचाव श्लाघनीय है।बधाई!
    साहित्य मेँ आयु तो बेमानी है फिर यूं प्रोढ़ोँ को युवा क्योँ बताया जाता है?मुझ 53 साल के आदमी को भी लौग इधर उधर युवा लिख देते हैँ।युवा लिखने पर भी मेरे घुटनोँ का दर्द नहीँ गया।जस का तस है।

  3. अच्छा किया जो आपने भूमिका दी; इसके सहारे ज्यादा सघनता से पढ़ पाया… बिहार में एक से एक कवि और लेखक हुए

    मैं जहाँ रहता हूँ वह महामसान है
    चौदह लड़कियां ….
    गर्भाशय से घाव से.

    कविता नोट कर ली गयी है… और इसका अब बुखार कई दिन रहने वाला है… आपका शुक्रिया.

  4. मनोज को और पढ़ने के लिये लिंक्सः
    http://pratilipi.in/2009/07/5-poems-by-manoj-kumar-jha/

    http://pratilipi.in/2009/10/poems-by-manoj-kumar-jha/

    http://pratilipi.in/2008/12/faith-in-me-stands-vindicated-nagarjuna/

    http://pratilipi.in/2009/10/manoj-kumar-jha-speech/

    http://girirajk.wordpress.com/2010/02/23/%e0%a4%a6%e0%a5%8b-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%af-%e0%a4%95%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%83-%e0%a4%a6%e0%a5%8b-%e0%a4%85%e0%a4%a8%e0%a5%81%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6/

    मनोज की कविता हमने प्रतिलिपि में, पुरस्कार मिलने से पहले और बाद में,प्रकाशित की है। उनकी एक कविता का अनुवाद मैंने अंग्रेजी में किया है अपने ब्लॉग पर, खुद उनका किया हुआ नागार्जुन की कविता का
    अंग्रेजी अनुवाद और पुरस्कार समारोह में दिया गया वक्तव्य भी प्रतिलिपि पर शाया हुए हैं।

  5. यह कविता अपने कहने के अंदाज में अद्भुत है लेकिन यह गहरी बेचैनी और संजीदगी से संभव हुई है. पाठक को भी यह कोई राहत नहीं देती बल्कि गहरी बेचैनी में ही छोड़ देती है. मनोज कुमार झा जिन विकट परिस्थितियों में फंसे हैं, उनके बीच ऐसी नज़र और रचनाशीलता अलग से भी काबिले गौर है. वर्ना तो इधर कविता में लीला रचने और अचरज में डालने (यह परवाह किए बिना कि रिएक्शनरी राग अलापा जा रहा है) की कोशिश को महत्वपूर्ण मानने की जिद पेश की जा रही है.

  6. कल से कई बार पढ़ गया इन्हें…बिल्कुल वैसी जैसी कविताओं की आज ज़रुरत है जबकि कलावाद को पूरे धूमधाम से रिपैकेज कर मार्केट किया जा रहा है। मनोज जी को ख़ूब सारी बधाई और आपका अब कितना आभार व्यक्त किया जाये भाई!

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