अनुनाद

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कविता की काया को देखना- दूसरी किस्त /प्रस्तुति यादवेन्द्र

अब्बास कैरोस्तामी की ही एक और फिल्म है विंड विल कैरी अस, जो आधुनिक फारसी कविता की बेहद महत्वपूर्ण स्तम्भ फ़रोग फ़रोख्जाद की इसी शीर्षक की कविता से प्रभावित है.इस फिल्म में यूँ तो जीवन मृत्यु के सवाल को अपनी तरह से देखने का प्रयास किया गया है,पर फिल्म जिस वाक्य से शुरू होती है वह भी बहुत महत्वपूर्ण है: ये रास्ता न तो कहीं से आ रहा है, न ही कहीं ले जा रहा है….यानि जीवन मृत्यु के सवाल मानव जाति की शुरुआत से ही उसको उलझाये हुए हैं और सदियाँ बीत जाने के बाद भी उनका कोई सर्वमान्य समाधान नहीं खोजा जा सका है.इस फिल्म में तेहरान से तीन लोगों का एक दल सात सौ किलो मीटर दूर कुर्दिस्तान के एक ऐसे गाँव में जा कर अपना डेरा डंडा डालता है जहा सेल फ़ोन का सिग्नल तभी मिल पाता है जब ऊँचे टीले पर जा कर संपर्क साधने की कोशिश की जाये.इस छोटे से गाँव में सेल फ़ोन से आवाज आ तो कहीं भी जाती है पर अपनी आवाज भेजने के लिए संघर्ष करना पड़ता है.शहर से जो दल आता है गाँव के लोगों को उनके मकसद के बारे में बिलकुल नहीं मालूम…बस गाँव का ही एक छोटा सा बच्चा उनके और गाँव के लोगों के बीच सेतु का काम करता है.शहर से आए हुए लोग दर असल खबरों से जुड़े वो लोग हैं जिनके पास सूचना है कि इस गाँव में एक बूढी स्त्री मृत्यु शय्या पर है और उनको उसकी मृत्यु के बाद किये जाने वाले खास खास रस्मो रिवाज का फोटोग्राफिक दस्तावेजीकरण करना है.जैसे जैसे फिल्म आगे बढती जाती है इसके मृत्यु पक्ष धीमा पड़ता जाता है…कभी झूठ न बोलने वाला लड़का अन्दर की जानकारी इकठ्ठा कर के खबर देता रहता है कि बूढी स्त्री स्वास्थय लाभ करने लगी है…लगभग एक व्यावसायिक मज़बूरी और अनिच्छा(मृत्यु) से शुरू हुई ये यात्रा धीरे धीरे शहरी लोगों के सुदूर गाँव के रीति रिवाज और जीवन को गहरे जुडाव के साथ समझने की यात्रा में बदलने लगती है इसका आभास ही नहीं होता.बार बार गाँव के ऊँचे टीले पर खुदाई करते हुए एक व्यक्ति (चेहरा कभी नहीं दिखता,एक बार दिखता भी है तो नजदीक से पैर का तलवा) की उपस्थिति दिखाने की कोशिश की जाती है जो दर असल चोरी छुपे कब्रों को खोदने के अभियान में जुटा हुआ है…पूछने पर बोलता है कि communication के लिए खुदाई करता है.फिल्म में एक प्रसंग ऐसा भी आता है कि कब्र खोदते खोदते आस पास की ढेर सारी मिटटी उसके ऊपर गिर जाती है…दम घुटने से मृत्यु के करीब पहुँचता हुआ ये आदमी शहर से आए दल की चिंता का कारण तो बनता है, उसको ये लोग अपनी गाड़ी से डॉक्टर के पास ले चलते हैं पर बीच में ही किसी और मामूली काम में उलझ कर उसको उसके हाल पर ही छोड़ देते हैं…आधुनिक जीवन की विडम्बना देखिये कि जिसकी मृत्यु की प्रतीक्षा की जा रही थी वो जीवन की ओर लौट जाता है और जो बार बार प्रगति की राह पर चलने की जिजीविषा के साथ दिखाई पड़ता है,उसका दम घुटना कोई खास आकर्षण और दायित्व बोध नहीं पैदा करता.बूढी स्त्री की मृत्यु का दस्तावेज बनाने गए लोगों को उसकी वास्तविक मृत्यु में कोई खास रस नहीं मिलता…उस मृत्यु में रस्मी तौर पर जुटी कम उम्र की और जवान स्त्रियों की फोटो उनको ज्यादा मूल्यवान,लाभप्रद और जरुरी लगती है.फिल्म में कब्र खोदनेवाला बे-चेहरे वाला किरदार शहर से आए दल के मुखिया को चाय के लिए ताज़ा दूध दिलाने के लिए अपनी युवा प्रेमिका के घर ले जाता है…घुटन भरे अँधेरे तहखाने में रौशनी के छोटे छोटे वृत्तों में जीवन की बे-पनाह सुन्दरता से रु-ब-रु होने पर हमें फ़रोग फ़रोख्जाद की बेहद लोकप्रिय कविता…हवा बहा ले जाएगी हमें…का पाठ सुनने को मिलता है… बार बार…प्रकट रूप में मृत्यु की बात करने वाली जीवन की उत्तप्त स्मृतियों का आख्यान कहती हुई एक कालातीत कविता….

हवा बहा ले जाएगी हमेंफ़रोग फ़रोख्जाद

मेरी पल भर में उड़ जाने वाली रात …काश
हवा को इसी अफरा तफरी में मिलना है पत्तियों से–
मेरी पल भर में उड़ जाने वाली रात
लबालब भरी हुई है विनाशकारी संताप से….
सुनो,क्या तुम तक
पहुँच पा रही है परछाइयों की फुसफुसाहटें ?
वहां- रात में- कुछ कुछ घट रहा है
रक्तिम और व्याकुल होता जा रहा है चन्द्रमा
देखो तो कैसे जा कर चिपक गया है छत से
और वहां से छूट कर कभी भी
फर्श पर गिर सकता है बरबस…
बादल जैसे हों स्यापा करती हुई औरतें
बाट जोह रहे हैं अब हो ही जाये बारिश
खिड़की के पीछे कुछ है
जो दिखता है पल भर
फिर सब कुछ पर छा गयी हो जैसे मौत
थर थर कांप रही है रात
और थम रहा है धरती का अपनी धुरी पर घूमते रहना…
इसी खिड़की के पीछे
ठिठक कर खड़ा है एक अजनबी
मेरी और तुम्हारी नेकी भरी चिंता में आकुल…
तुम अपने हरे भरे आँगन में
बढ़ा कर रख देते हो अपनी हथेलियाँ–
उत्तप्त स्मृतियों की मानिंद-
मेरी स्नेहिल हथेलियों के ऊपर कस कर..
अपनी जीवनदायी ऊष्मा से सराबोर होंठ
ले आते हो मेरे प्रेमासक्त होंठों के पास…
हवा बहा ले जाएगी हमें
अपने संग संग…
हवा बहा ही ले जाएगी हमें
अपने संग संग………

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0 thoughts on “कविता की काया को देखना- दूसरी किस्त /प्रस्तुति यादवेन्द्र”

  1. आज बहुत दिन बाद नेट पर आई. यादवेन्द्र जी आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. कविता पर फिल्म की ये दोनों पोस्ट लाजवाब हैं.

    और एक बात शिरीष जी आपसे- पिछली पोस्ट पर सोनू जी की टिप्पणी खासी अभद्र है, जिसे आपने एप्रूव कर दिया! पोस्ट किस बारे में है और ये महाशय किस बारे में बात कर रहे हैं. अनुनाद पर ऐसी टिप्पणियां देखना दुखद है. शिरीष जी माफ़ कीजिये पर आप मोडरेटर हटा लीजिये, क्योंकि उसका उपयोग तो आप कर नहीं रहे.

    @ सोनू –
    किसको सिखा रहे हैं सोनू जी? आप अपनी काबिलियत पर ज़रा कुछ प्रकाश डालिए. या फिर इस तरह से पेश आना ही आपकी काबिलियत है? मुद्दा आपने ठीक उठाया पर देख तो लीजिये कि कहाँ और किस सन्दर्भ में क्या कह रहे हैं. यहाँ बात हो रही है कि कहानी ही नहीं कविता पर भी फिल्म बन रही हैं और आप हैं कि अनुवादक को कई कई भाषाएं सीखने की सलाह देने पर तुले हैं. आपके हिसाब से अनुवादक या तो दुनिया भर की भाषाएं सीखें या फिर अनुवाद करना छोड़ दें और हम पाठक उस सबसे वंचित रह जाएं, जिसे हम इस बहाने जान रहे हैं. जानो तो सब कुछ जानो या फिर अनपढ़ रह जाओ का सिद्धांत आपने कहाँ से सीखा? मैं आगाह करना चाहती हूँ कि ये फंडामेंटलिज़्म हमारे लिए घातक होगा. बात करने-रखने का सलीका सीखना चाहें(वैसे आप सीखेंगे नहीं) तो यादवेन्द्र जी की जिस शालीन और अत्यंत विनम्र टिप्पणी पर आप थोथे अहंकार भरे जाहिलपन से टूट पड़े, उसी से कुछ सीखिए.

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