Tuesday, March 30, 2010

औरतों की दुनिया में एक आदमी


वे दुखों में लिथड़ी हैं
और प्रेम में पगी
दिन-दिन भर खटीं किसी निरर्थक जांगर में
बिना किसी प्रतिदान के
रात-रात भर जगीं

उनके बीच जाते हुए
डर लगता है
उनके बारे में कुछ कहते कुछ लिखते
दरअसल
अपने तमामतर दावों के बावजूद
कभी भी
उनके प्रति इतने विनम्र नहीं हुए हैं हम
इन दरवाज़ों में घुसने की कोशिश भर से ही
चौखट में
सर लगता है

यक़ीन ही नहीं होता
इस दुनिया में भी घुस सकता है
कोई आदमी इस तरह
खंगाल सकता है इसे
घूम सकता है यूँ ही हर जगह
लेता हुआ
सबके हाल-चाल
और कभी
खीझता नहीं इससे
भले ही खाने में आ जाएं
कितने भी बाल!

यहां सघन मुहल्ले हैं
संकरी गलियां
पर इतनी नहीं कि दो भी न समा पाएं

इनमें चलते
देह ही नहीं आत्मा तक की
धूल झड़ती है
कोई भी चश्मा नहीं रोक सकता था इसे
यह सीधे आंखों में
पड़ती है

कहीं भी पड़ाव डाल लेता है
रूक जाता है
किसी के भी घर
किसी से भी बतियाने बैठ जाता है
जहां तक नहीं पहुंच पाती धूप
वहाँ भी यह
किसी याद या अनदेखी खुशी की तरह
अन्दर तक पैठ जाता है

वे इसके आने का बुरा नहीं मानती
हो सकता है
कोताही भी करती हों
पर अपने बीच इसके होने का मतलब
ज़रूर जानती है
उन्हें शायद पता है
समझ पाया अगर तो यही उन्हें
ठीक से समझ पाएगा
उनके भीतर की इस गुमनाम-सी यातना भरी दुनिया को
बाहर तक ले जाएगा

एक बुढ़िया है कोई अस्सी की उमर की
उसे पुराने बक्से खोलना
अच्छा लगता है
दिन-दिन भर टटोलती रहती है
उनके भीतर
अपना खोया हुआ समय या फिर शायद कोई आगे का पता
पूछताछ करते किसी दरोगा की तरह
चीख पड़ती है
अचानक खुद पर ही- "बता !
बता नहीं तो ...... "


एक औरत
जो कथित रूप से पागल है
आदमी को देखते ही नंगी होने लगती है
उसके दो बरस के बच्चे से
पूरी की थी एक दिन
किसी छुपे हुए जानवर ने अपनी वासना
मर गया था उसका बच्चा
कहती है घूम-घूम कर नर-पशुओं से -
"छोड़ दो !
छोड़ दो मेरे बच्चे को
- बच्चे को कुछ करने से तो मुझ मां को करना अच्छा ! "

एक लड़की है
जो पढ़ना चाहती है और साथ ही यह भी
कि भाई की ही तरह मिले
आज़ादी उसे भी
घूमने-फिरने की
जिससे मन चाहे दोस्ती करने की
कभी रात घर आए
तो मां बरजने और पिता बरसने को
तैयार न मिलें
बाहर कितनी भी गलाज़त हो
कितने ही लगते हों अफ़वाहों के झोंके
कम से कम
घर के दरवाज़े तो न हिलें

एक बहुत घरेलू औरत है
इतनी घरेलू कि एक बार में दिखती ही नहीं
कभी ख़त्म नहीं होते उसके काम
कोई कुछ भी कह कर पुकार सकता है उसे
वह शायद खुद भी भूल चुकी है
अपना नाम
सास उसे अलग नाम से पुकारती है
पति अलग
खुशी में उसका नाम अलग होता है और गुस्से में अलग
कोई बीस बरस पहले का ज़माना था जब ब्याह कर आयी
और काले ही थे उसके केश
जिस ताने-बाने में रहती थी वह
लोग
संयुक्त परिवार कहते थे उसे
मैं कहता हूं सामन्ती अवशेष

कुछ औरतें हैं छोटे-मोटे काम-धंधे वाली
इधर-उधर बरतन मांजतीं
कपड़े धोतीं
घास काटतीं
लकड़ी लातीं
सब्ज़ी की दुकान वगैरह लगातीं
ये सुबह सबसे पहले दृश्य में आती है
चोरों से लेकर
सिपाहियों तक की निगाह उन्हीं पर जाती है
मालिक और गाहक भी
पैसे-पैसे को झगड़ते हैं
बहुत दुख हैं उनके दृश्य और अदृश्य
जो उनकी दुनिया में पांव रखते ही
तलुवों में गड़ते हैं
जिन रास्तों पर नंगे पांव गुज़ार देती हैं
वे अपनी ज़िन्दगी
अपने-अपने हिस्से के पर्व और शोक मनाती
उन्हीं पर
हमारे साफ-सुथरे शरीर
सुख की
कामना में सड़ते है

वे पहचानती है हमारी सड़ांध
कभी-कभार नाक को पल्लू से दबाये
अपने चेहरे छुपाए
हमारे बीच से गुज़र जाती हैं
मानो उन्हें खुद के नहीं
हमारे वहां होने पर शर्म आती हैं

वे दुनिया की सबसे सुन्दर औरतें थीं
लुटेरों
बटमारों
और हमारे समय के
कोतवालों से पिटतीं
हर सुबह
सूरज तरह काम पर निकलतीं
वे दुनिया की सबसे सुन्दर औरतें हैं
आज भी !

उनमें बहुत सारी हिम्मत ग़ैरत बाक़ी है अभी
और हर युग में
पुरुषों को बदस्तूर मुंह चिढ़ाती
उनकी वही चिर-परिचित
लाज भी !

कुछ औरतें हैं जो अपने हिसाब से
अध्यापिका होने जैसी किसी निरापद नौकरी पर जाती हैं
इसके लिए घरों की इजाज़त मिली है उन्हें
एक जैसे कपड़े पहनती
और हर घड़ी साथ खोजती हैं किसी दूसरी औरत का
वे घर से बाहर निकल कर भी
घर में ही होती हैं
सुबह काम पर जाने से पहले
पतियों के अधोवस्त्र तक धोती हैं

हर समय घरेलू ज़रूरतों का हिसाब करतीं
खाने-पकाने की चिन्ता में गुम
पति की दरियादिली को सराहतीं हैं कि बड़े अच्छे हैं वो
जो करने दी हमको भी
इस तरह से नौकरी
आधी ख़ाली है उनके जीवन की गागर
पर उन्हें दिखती है
आधी भरी

कुछ बच्चियां भी हैं दस-बारह बरस की
हालांकि बच्चों की तो होती है एक अलग ही दुनिया
पर वे वहां उतनी नहीं हैं
जितनी कि यहां
उन्हें अपने औरत होने का पूरा-पूरा बोध है
वह नहीं देखना चाहता था
उन्हें जहां
उसकी सदाशयता पर कोड़े बरसातीं
वे हर बार
ठीक वहाँ हैं

वे भाँति-भाँति की हैं
उनके नैन-नक्श रंग-रूप अनन्त हैं
उनके जीवन में अलग-अलग
उजाड़ पतझड़
और उतने ही बीते हुए बसन्त हैं

उनके भीतर भी मौसम बदलते हैं
शरीर के राजमार्ग से दूर कई पगडंडियाँ हैं
अनदेखी-अनजानी
ज़िदगी की घास में छुपी हुई
बहुत सुन्दर
मगर कितने लोग हैं
जो उन पर चलते हैं?

फ़िलहाल तो
विलाप कर सकती हैं वे
इसलिए
रोती हैं टूटकर

मनाती हैं उत्सव
क्योंकि उनका होना ही इस पृथ्वी पर
एक उत्सव है
दरअसल

आख़िर
कितनी बातें हैं जो हम कर सकते हैं उनके बारे में
बिना उन्हें ठीक से जाने
क्या वे ख़ुद को जानने की इज़ाजत देंगी
कभी?

अभी
उन्हें समझ पाना आसान नहीं है
अपने अन्त पर हर बार
वे उस लावारिस लाश की तरह है
जिसके पास शिनाख़्त के लिए कोई
सामान नहीं है

इस वीभत्स अन्त के लिए कवि के साथ-साथ
यह आदमी भी बेहद शर्मिन्दा है

पर क्या करे
आख़िर पुरुषों की इस दुनिया में किस तरह कहे
किस तरह कि अभी बाक़ी है लहू
उसमें

अभी कुछ है
जो उसमें जिन्दा है !
***

Friday, March 26, 2010

विश्व रंगमंच दिवस (२७ मार्च) पर विस्साव शिम्बोर्स्का की कविता

दुखांत

मेरे लिए दुखांत नाटक का सबसे मार्मिक हिस्सा
इसका छठा अंक है
जब मंच के रणक्षेत्र में मुर्दे उठ खड़े होते हैं
अपने बालों का टोपा संभालते हुए
लबादों को ठीक करते हुए
जब जानवरों के पेट में घोंपे हुए छुरे निकाले जाते हैं।
और फांसी पर लटके हुए शहीद
अपनी गर्दनों से फंदे उतारकर
एक बार फिर
जिंदा लोगों की कतार में खड़े हो जाते हैं
दर्शकों का अभिवादन करने।


वे सभी दर्शकों का अभिवादन करते हैं.
अकेले और इकठ्ठे
पीला हाथ उठता है जख्मी दिल की तरफ
चला आ रहा है वह जिसने अभी-अभी ख़ुदकुशी की थी,
सम्मान में झुक जाता है
एक कटा हुआ सिर।


वे सभी झुकते हैं
जोडिय़ों में-
ज़ालिम मजलूम की बाहों में बाहें डाले,
बुजदिल बहादुर को थामे हुए,
नायक खलनायक के साथ मुस्कुराते हुए।


एक स्वर्ण-पादुका के अंगूठे तले
शाश्वतता कुचल दी जाती है।
मानवीय मूल्यों का संघर्ष छिप जाता है
एक चौड़े हैट के नीचे।
कल फिर शुरू करने की पश्चातापहीन लालसा।


और अब चला आ रहा है वह मेहमान
जो तीसरे या चौथे अंक या बदलते हुए दृश्यों के बीच
कहीं मर गया था।
लौट आए हैं
बिना नाम-ओ-निशान छोड़े खो जाने वाले पात्र
नाटक के सभी संवादों से ज्यादा दर्दनाक है यह सोचना
कि ये बेचारे
बिना अपना मेकअप या चमकीली वेशभूषा उतारे
कब से मंच के पीछे खड़े इंतजार कर रहे थे।


सचमुच नाटक को सबसे ज्यादा नाटक बनाता है
पर्दे का गिरना,
वे बातें जो गिरते हुए पर्दे की पीछे होती हैं
कोई हाथ किसी फूल की तरफ बढ़ता है,
कोई उठाता है टूटी तलवार,
उस समय...सिर्फ उस समय
मैं अपनी गर्दन पर महसूस करती हूं
एक अदृश्य हाथ,एक ठंडा स्पर्श।
***
(अनुवाद- विजय अहलूवालिया)

Thursday, March 25, 2010

कपिलदेव त्रिपाठी की एक कविता

कविता की किताब

कल की सुबह के बारे में
कल वाले कल के पहले वाले कल ही सोच लिया जाना चाहिए
यह सोचते हुए कल सोचा कि
कल कविता की वह किताब पढ़ूंगा
दफ़्तर जाने के पहले - किसी लावारिस वक़्त में
दूबे जी से मिलना
क्या आज ही ज़रूरी है
कल न भी मिलें
तो क्या
इस तरह तो कविता वाली वह किताब
कब पढ़ी जाएगी ?

अक्षरों और आंखों के बीच तरंगित दूरियों को फलांग कर
आई आवाजों से
लड़ते हुए
पढ़ते हुए कविता की किताब
सुना मैंने -
बेटा कुछ कह रहा था मम्मी से....
दबा कर दाँत मम्मी नें कहा, सुना जो मैनें-
वह नहीं था जो-
मम्मी नें कहा था
मैं अपनी आशंका को सुन रहा था मसलन
पैसा
ख़रीद फ़रोख्त
दोस्त से मिलने की मुश्किलात
मोटरसाइकिल में पेट्रोल
महीने की तारीख़ आदि जैसा कुछ
सुनाई दिया
यह डर भी कि
भड़क जाएगा लड़का
तंगहाली पर तड़क जाएगा

तन गया तनाव
कविता वाली किताब पढ़ते हुए कविता
खिसक गई कोने में
खाली कर दी जगह
दुख और अभावों और आशंकाओं का अंधकार
बैठ गया जम कर जहां
बैठी थी कविता
अभी, बिलकुल अभी, कुछ देर पहले

इसी डर और तनाव और नफ़रत और डर और संकोच से भरे
वक़्त में
मैं पढ़ रहा था कविता वाली वह किताब
दफ़्तर जाने के पहले के लावारिस वक़्त में
खोज रहा था बचपन का छूटा हुआ
`फिसलपट्टी´ पर चढ़ने उतरने का खेल
कविता की किताब में
जबकि
डर और आशंका और अभाव से भरा
किताब का `बाहर´
बदल दे रहा था मेरा `भीतर´
बार-बार पढ़ते हुए
कविता की किताब !

इस तरह पढ़ी गई
कविता की किताब
पाटा गया दफ़्तर जाने के पहले का
लावारिस समय
खेला गया फिसलपट्टी का खेल
वक़्त के कूबड़ पर बिठाई गई
कविता
उछाली गई
दफ़्तर जाने से पहले
कहा गया - सिद्ध हुई
कविता की ताक़त
अपराजेय!
***

Monday, March 22, 2010

भुतहा मकान के बाहर : मुक्तिबोध के लिए - हरि मौर्य

यह मेरे पिता की कविता है, कमाल की बात ये कि इसे उन्होंने 63 वर्ष की उम्र में लिखा है। उनके अतीत में बहुत पीछे 1968-69 के ज़माने में यानी उनके छात्रजीवन में कभी कहीं कुछ कविताएं थीं और भाऊ समर्थ, रामेश्वर शर्मा, नागार्जुन आदि से उनपर मिली ख़ूब प्रशंसा भी। फिर एक लम्बा समय नौकरी करने और खुद से लड़ने का समय रहा, जिसमें बहुत कुछ रचनात्मक हो सकता था पर हुआ नहीं। 90 के आसपास शमशेर और दुश्यन्त से प्रेरित होकर कुछ ग़ज़लें लिखीं और जिन पर ज्ञानप्रकाश विवेक और कान्तिमोहन जैसे कुछ लेखकों ने महत्वपूर्ण हिन्दी ग़ज़लकार होने का श्रेय भी उन्हें दिया। ग़ज़लों की एक पुस्तिका `सपनों के पंख´ कथ्यरूप ने छापी, लेकिन यह लेखन भी जैसे विलुप्त होता गया। 2006 में वे अपनी सरकारी नौकरी से निवृत्त हुए। अब एक बार फिर कुछ रचनात्मक सोचते-समझते हुए मेरे ब्लाग के नाम अनुनाद को एक पत्रिका के रूप में पंजीकृत करा साहित्यिक पत्रकारिता करने की ओर कदम बढ़ाने लगे हैं। जाहिर है कवि होने जैसी कोई महत्वाकांक्षा वे नहीं रखते पर उनके हाथ का लिखा ये पन्ना पिछले दिनों बिना उन्हें बताये चुपचाप उठा लाया. इस कविता(?) को यहां छाप रहा हूं यानी एक पिता को उनके बेटे की शुभकामनाएं। उम्मीद है इस पोस्ट के निजत्व को भी अनुनाद के पाठक समझेंगे और इस बहाने मेरे काव्य संस्कारों के आदिस्त्रोत की शिनाख़्त भी वे कर पायेंगे।
_______________
_______________

वे ही वे रहेंगे
किसी और को नहीं रहने देंगे
इक्कीसवीं सदी में
ग़रीबों को तो बिलकुल नहीं

एक भुतहा मकान जैसी
अपनी दुनिया में
वे एक-दूसरे से टकराते हुए
भूतों की तरह घूमेंगे

उन्हें नहीं मालूम
उनके उस भुतहा मकान के
बाहर भी होगी एक दुनिया
ठीक वैसे ही जैसे -
एक आकाशगंगा के बाद होती है
एक और आकाशगंगा

बची हुई मानवता के पौधे
वहीं लहलहायेंगे
वहीं सुनाई देगी
मुक्तिबोध की `धुकधुकियों´ की आवाज़

उसी खण्डहर से, उसी टीले से
नई कोंपलें फूटेंगी
और रचेंगी नया संसार

भुतहा मकान जैसी
उस दुनिया के बाहर भी
एक दुनिया होगी
और वहां होगी `मानव के प्रति
मानव के जी की पुकार
कितनी अनन्य´

सुनकर होगी
यह धरा धन्य !
***

Saturday, March 20, 2010

हवा के माथे की सलवटें : सिनान अन्तून


1
हवा है एक अंधी माँ
लाशों के ऊपर से
लड़खड़ाती गुज़रती
कफ़न भी नहीं
बादलों को बचाओ तो सही
मगर कुत्ते हैं बहुत ज्यादा तेज़

2
चाँद है कब्रिस्तान
रौशनी का
और सितारे हैं
कलपती औरतें

3
हवा थक गई
ढो-ढोकर ताबूत
और एक ताड़ के पेड़ के सहारे
टिक गई
एक उपग्रह ने पूछा:
अब किस तरफ?
हवा की बेंत के भीतर की ख़ामोशी बुदबुदाई:
"बग़दाद"
और ताड़ के पेड़ में आग लग गई

4
खुरचती हैं टटोलती हैं सैनिकों की उँगलियाँ
प्रश्न चिन्हों की भाँति मुड़े हुए
हँसियों की तरह
हवा के गर्भ में
वे तलाशती हैं हथियार
....
धुंए और चुक चुके यूरेनियम के सिवा
कुछ भी नहीं

5
कितना संकरा है यह रास्ता
जो सोया पड़ा है
दो लड़ाइयों के बीच
लेकिन मुझे इसे पार करना होगा.

6
बग़दाद में
बहुत दूर किसी गुम्बद पर बैठा
एक सारस है दिल मेरा
उसका घोंसला हड्डियों से बना हुआ
और मौत का आसमान उसका

7
ऐसा पहली बार नहीं हुआ
कि भ्रांतियों ने अपना मुँह
हमारे खून से धोया
हमारी हड्डियों का जामा पहनते हुए
वे फिर निहार रही हैं
उफ़क़ के आईने में

8
लड़ाई लार टपकाती है
हाँफते हैं अत्याचारी और इतिहासकार
बच्चे के चेहरे पर
एक सलवट मुस्काती है
कौन खेलेगा
दो लड़ाइयों के बीच के अंतराल में

9
नहरुल-फुर'अत है एक लम्बा जुलूस
शहर थपथपाते हैं
उसके कंधे
जब ताड़ के पेड़ बिलखते हैं

10
एक बच्चा खेल रहा है
समय के बागीचे में
भीतर से मगर
उसे पुकारती है लड़ाई:
अन्दर आ जाओ!

11
कब्र है एक आईना
जिसमें निहारता है बच्चा
और देखता है ख्वाब:
मैं कब बड़ा होकर
बनूँगा अपने पिता की तरह
...
मुर्दा

12
नहर दिजला और नहरुल-फुर'अत
हैं दो तार
मौत के बाजे के
और हम हैं गीत
या कि बेसुरी उँगलियाँ

13
ढाई लड़ाइयों से मैं हूँ
इस कमरे में
जिसकी खिड़की वह कब्र है
जिसे खोलने से डरता हूँ मैं
एक आईना है दीवार पर
जिसके सामने मैं जब होता हूँ खड़ा
विवस्त्र
हँसती है मेरी हड्डियाँ
और मैं सुनता हूँ
दरवाज़े पर मौत की उँगलियाँ को
गुदगुदी करते

14
इस क्षण के उदर पर
मैं रखता हूँ अपने कान
विलाप है सुनाई देता
रखता हूँ दूसरे क्षण पर
-वही!

**********
नहरुल-फुर'अत (Euphrates) और नहर दिजला (Tigris) इराक़ से होकर बहने वाली नदियों के नाम हैं.

(सिनान अन्तून का परिचय और एक कविता यहाँ है; व्हाइट हाउस के सामने प्रदर्शन कर रही महिला की तस्वीर मेरे अपने कैमरे से ली गई है. और हाँ, इराक़ पर अमेरिकी हमले की आज सातवीं बरसी है.)

Friday, March 19, 2010

बख्तियार वहाब्ज़ादे : अनुवाद एवं प्रस्तुति- यादवेन्द्र

१९२५ में जन्मे बख्तियार वहाब्ज़ादे अजरबैजान के सबसे प्रसिद्द कवियों में शुमार किये जाते हैं.अजरबैजान की आज़ादी के लिए सोविएत संघ से अलग होने की लड़ाई में उनका सक्रिय योगदान रहा है...खास तौर पर अज़र भाषा को ले कर वे खासे संवेदनशील रहे हैं. अपनी भाषा के बारे में उनकी ये उक्ति बहुत चर्चित है: यदि तुम कह नहीं सकते कि आजाद हो तुम...एकदम मुक्त...अपनी मातृभाषा में..तब आखिर किसको होगा यकीन...कि तुम सचमुच आज़ाद हो..जीविका के लिए उन्होंने विश्वविद्यालय में दर्शन शतर का अध्यापन किया.उनकी कविताओं के अनेक संकलन प्रकाशित हुए...विश्व की अनेक भाषाओँ में उनके अनुवाद किये गए...अज़री भाषा में उन्होंने खूब लोकप्रिय गीत भी लिखे जिन्हें संगीतबद्ध किया गया.कविताओं के अलावां उन्होंने कहानी,उपन्यास और नाटक भी लिखे.२००९ में पकी उमर में उनका निधन हुआ.

यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक लोकप्रिय कविता:

उम्र से शिकायत


जब मैं था १५-२० साल का
तो सोचा करता था कि ४० साल कि उम्र में तो
बूढ़ा हो जाता है आदमी...
अब मैं ५० साल को छूने जा रहा हूँ
तब भी बचपन की ख्वाहिशें जिन्दा हैं
मेरे मन के अन्दर हिलोरें लेती हुई...

ऐसा लगता है जैसे कल की ही तो बात है
कि मैं स्कूल के रास्ते में होऊं
रोंदता जाता सूरजमुखी के सड़क पर फैलाये बीज
और कंधे पर भारी भरकम बस्ता उठाये हुए...
ऐसा लगता है जैसे कल की ही तो बात है
कि मैं सवारी कर रहा होऊं
सरकंडों से निर्मित घोड़ों की पीठ पर...

क्या करूँ... मुझे एहसास नहीं हो पा रहा
अपनी सही उम्र का..
दिल तो अब भी वही दिल है
ख्वाहिशें तो अब भी वही ख्वाहिशें हैं...
दिल को देखो तो कभी पहाड़ की चोटी पर
तो पलक झपकते सागर की अतल गहराईयों में..
जाने क्यूँ उमड़ते घुमड़ते रहते हैं
ऐसे अनगिनत एहसास मेरे अन्दर?

कभी कभी तो लगता है
जैसे मैं संतान हूँ बीते हुए कल का
इन मचलनों पर तो मुझे खुद भी हंसी आ जाती है..
पर खुद को क्यों कोसना
वक्त इतना तंग था
कि ज्यों दिखा आकाश में
अगले पल छू मंतर हो गया..

जैसे जैसे हम गंवाते जाते हैं अपनी जवानी
जीवन को चार हाथों से थामने की कोशिश करते हैं
पेड़ की मानिंद हमारी जड़ें बेधती जाती हैं
धरती को अन्दर..और अन्दर..
और हम फलों की तरह पकने लगते हैं..
देखो तो..वहां पिछवाड़े में शोर शराबा कैसा है
बच्चे भाग रहे हैं इधर उधर
और चहारदीवारों को लाँघ रहे हैं..
जाता हूँ अभी और उनको देता हूँ खेलने के लिए सामान कुछ
गुत्थम गुत्था करके खेलूँगा मैं भी उनके संग
और पहुँच जाऊंगा अपने बचपन में
पलक झपकते ही...

आँख मिचौली खेलने को आतुर हो रहा है मेरा मन
इन खेत खलिहानों में
इतनी सफाई से छुप जाना चाहता हूँ इस बार मैं
कि चाहे कितना भी जोर लगा ले
मुझे ढूंढ़ न पाए
बुढापा...

पर उम्र का अपना निराला ही ढंग है
इसके मन के तहखाने में जाने कितनी तो छुपी हुई हैं धडकनें.. ..
सड़क पर चलते चलते
जब होने लगती है सांस लेने में मुश्किल
मैं कोसने लगता हूँ सड़क पर बिखरे कंकड़ पत्थरों को
या फिर इस नामुराद बेहिसाब चढ़ाई को..

अपने ही बाल बच्चों के साथ चलते चलते
जब पीछे छूट जाता हूँ
जानता हूँ नहीं कोई वाजिब वजह
कंकड़ पत्थर या चढ़ाई को कोसने की..
पर सामने जब पड़ जाये बला की खूबसूरती
तो एहसास होता है मैं भी उसको ऐसे ही निहारे जा रहा हूँ
जैसे टकटकी लगाये देख रहा है मेरा बेटा...
***
( जाला गरिबोवा के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित प्रस्तुति)

Wednesday, March 17, 2010

आभा बोधिसत्व की एक कविता



तुम्हारे साथ वन-वन भटकूँगी
कंद मूल खाऊँगी
सहूँगी वर्षा आतप सुख-दुख
तुम्हारी कहाऊँगी
पर सीता नहीं मैं
धरती में नहीं समाऊँगी।

तुम्हारे सब दुख सुख बाटूँगी
अपना बटाऊँगी
चलूँगी तेरे साथ पर
तेरे पदचिन्हों से राह नहीं बनाऊँगी
भटकूँगी तो क्या हुआ
अपनी राह खुद पाऊँगी
मैं सीता नहीं हूँ
मैं धरती में नहीं समाऊँगी।

हाँ.....सीता नहीं मैं
मैं धरती में नहीं समाऊँगी
तुम्हारे हर ना को ना नहीं कहूँगी
न तुम्हारी हर हाँ में हाँ मिलाऊँगी
मैं सीता नहीं हूँ
मैं धरती में नहीं समाऊँगी।

मैं जन्मीं नहीं भूमि से
मैं भी जन्मी हूँ तुम्हारी ही तरह माँ की
कोख से
मेरे जनक को मैं यूँ ही नहीं मिल गई थी कहीं
किसी खेत या वन में
किसी मंजूषा या घड़े में।

बंद थी मैं भी नौ महीने
माँ ने मुझे जना घर के भीतर
नहीं गूँजी थाली बजने की आवाज
न सोहर
तो क्या हुआ
मेरी किलकारियाँ गूँजती रहीं
इन सबके ऊपर
मैं कहीं से ऐसे ही नहीं आ गई धरा पर
नहीं मैं बनाई गई काट कर पत्थर।

मैं अपने पिता की दुलारी
मैं माँ कि धिया
जितना नहीं झुलसी थी मैं
अग्नि परीक्षा की आँच से
उससे ज्यादा राख हुई हूँ मैं
तुम्हारे अग्नि परीक्षा की इच्छा से
मुझे सती सिद्ध करने की तुम्हारी सदिच्छा।

मैं पूछती हूँ तुमसे आज
नाक क्यों काटी शूर्पणखा की
वह चाहती ही तो थी तुम्हारा प्यार
उसे क्यों भेजा लक्ष्मण के पास
उसका उपहास किया क्यों
वह राक्षसी थी तो क्या
उसकी कोई मर्यादा न थी
क्या उसका मान रखने की तुम्हारी कोई मर्यादा न थी
तुम तो पुरुषोत्तम थे
नाक काट कर किसी स्त्री की
तुम रावण से कहाँ कम थे।
तुमने किया एक का अपमान
तो रावण ने किया मेरा
उसने हरण किया बल से मेरा
मैं नहीं गई थी लंका
हँसते खिलखिलाते
बल्कि मैं गई थी रोते बिलबिलाते
अपने राघव को पुकारते चिल्लाते
राह में अपने सब गहने गिराते
फिर मुझसे सवाल क्यों
तुम ने न की मेरी रक्षा
तो मेरी परीक्षा क्यों

बाटे मैंने तुम्हारे सब दुख सुख
पर तुमने नहीं बाँटा मेरा एक दुख
मेरा दुख तुम तो जान सकते पेड़ पौधों से
पशु पंछिओं
तुम तो अन्तर्यामी थे
मन की बात समझते थे
फिर क्यों नहीं सुनी
मेरी पुकार।

मुझे धकेला दुत्कारा पूरी मर्यादा से
मुझे घर से बाहर किया पूरी मर्यादा से
यदि जाती वन में रोते-रोते
तो तुम कैसे मर्यादा पुरुषोत्तम होते

मेरे कितने प्रश्नों का तुम क्या दोगे उत्तर
पर हुआ सो हुआ चुप यही सोच कर
अब सीता नहीं मैं
सिर्फ तुम्हारी दिखाई दुनिया नहीं है मेरे आगे
अपना सुख दुख मैं अकेले उठाऊँगी
याद करूँगी हर पल हर दिन तुम्हें
पर धरती में नहीं समाऊँगी।
सीता नहीं मैं
मैं आँसू नहीं बहाऊँगी।
सीता नहीं मैं
धरती में मुँह नहीं छिपाऊँगी
धरती में नहीं समाऊँगी।
***

Sunday, March 14, 2010

नवनीता देवसेन की कवितायेँ


नवनीता देवसेन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाषा और साहित्य के क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित और आदरणीय नाम है. यह उनकी जबर्दस्त बहुआयामी प्रतिभा ही है कि उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में स्तरीय लेखन किया जो बहुत पसंद किया गया. बारह वर्ष की उम्र में भारतवर्ष पत्रिका में पहली कविता के प्रकाशन के साथ उनकी जिस रचनायात्रा की शुरुआत हुई थी. वह आज भी बदस्तूर जारी है। नवनीता जी का जन्म एक बहुत ही प्रतिष्ठित साहित्यिक परिवार में हुआ. आपके पिता श्री नरेन्द्र देव और मां राधा रानी देवी दोनों की बंगला के प्रख्यात कवि थे. उनकी इन कविताओं का अनुवाद किया है उत्पल बनर्जी ने. ये कविताएं हाल ही में प्रकाशित संग्रह और एक आकाश से संग्रहित हैं.

पहाड़

कोई कहे, न कहे
तुम सब कुछ जानते हो,
फिर भी कहीं पर पहाड़ है
छोटी बातें, बड़ी बातें, छोटे दुख, बड़ी वेदनाएं
सब कुछ के पार
एक बड़ा सा पहाड़ है खिलखिलाहट का
एक दिन
उस पहाड़ पर तुम्हारे ही संग बसाऊंगी घर
लोग कहें न कहें,
तुम्हें तो सब पता ही है.
***

आदि अंत
मेरे अलावा और कौन है तुम्हारा?
उसने कहा-नीला आसमान.
आसमान के अलावा और कौन है तुम्हारा?
उसने कहा-हरियाले धान,
धान के अलावा और कौन है?
गेरूई नदी.
नदी के बाद?
...पंचवटी.
पंचवटी के अलावा?
...सुनहले हिरण,
हिरणों के बाद?
...तूफान.
तूफान के अलावा
...अशोक कानन.
...अशोक कानन.
अशोक कानन के अलावा और कौन है तुम्हारा?
...काली मिट्टी
काली मिट्टी के बाद?
...तुम हो ना!
***

मकान
इस मकान
इस बरामदे, उस बरामदे
इस कमरे से उस कमरे में
मैं सिर्फ भागती रहती हूं.
एक ही तो मकान है और गिने-चुने कमरे
इसलिए घूम-घूम कर
जहां से शुरू, वहीं थक कर लौट आती हूं.
दीवार की तस्वीर कितनी लीलामयी हंसी-हंसती है
फर्श की परछाई जताती है उसका विरोध,
कितनी ऊंची आवाज में
चीख-पुकार होती रहती है इस मकान में
कांच चूर-चूर...
तहस-नहस बर्तन.
जबर्दस्त कलह में व्यस्त इस मकान के दरवाजे
खिड़कियां...छतें...दीवारें और बरामदे.
मैं भागती-भागती
एकदम थककर
आंचल बिछाकर इस पागल फर्श पर लेट जाती हूं.
***

छुट्टी
मेरे प्रिय
तुम्हारे लिए मैं क्या नहीं कर सकती?
मेरा जो कुछ भी है
सजा हुआ है तुम्हारे लिए.
मेरे प्रिय,
तुम्हें खुश देखने के लिए
मैं क्या नहीं कर सकती!
तुमने कहा था...
तुम्हें सहन नहीं होती बकुल फूलों की गंध
मेरे आंगन में लगे परदादा वाले बकुल के पेड़ को
मैंने इसीलिए काट दिया
कि तुम्हें खुश देख सकूं,
रत्न पाकर शायद तुम्हें अच्छा लगे सोचकर
देखो मैं अपने बच्चे का ह्दय
गोद से कैसे उखाड़ लाई हूं तुम्हारे रत्नकोश के लिए,
(इससे कीमती रत्न मुझे और कहां मिलता)
कि तुम्हें खुश देख सकूं.
लेकिन कमाल है प्रिय,
इंसान के मन का खेल!
फिर भी तुमने छुट्टी दे दी मुझे!
***

मुलाकात


भले न हुई हो मुलाकात
इससे भला क्या नुकसान है
मन के भीतर तो
दिन रात मुलाकात होती रहती है
सीने के भीतर बह रही है एक नदी
अकेली-अकेली
शर्मीली सरस्वती...
लहरों पर लहरें टूट रही हैं घाट पर
मन के भीतर चांद का पेड़ बढ़ता घटता है.
अजिर में झर जाते हैं चांदनी के फूल
चांदनी के फूलों से हवा के टकराने पर
फटते हैं दुखफल
अंगरखा पहने बीज दूर तक बिखर जाते हैं
भले न हुई हो मुलाकात
इससे भला क्या नुकसान है
इसी तरह दिन-रात मरना और बचना होता है
भस्म में से धार के विपरीत उभर आते हैं मायावी कामदेव
अवाक जल से भर उठती है सीने की झारी
सीने के भीतर निरवधि बह रही है एक नदी
मन के भीतर होती रहती है अंतरहीन मुलाकात।
***

Thursday, March 11, 2010

मैं चुपके से कहता अपना प्यार: जॉन बर्जर

(महाकवि नाज़िम हिकमत की कालजयी कविता यादवेन्द्र जी के सुन्दर अनुवाद में पढ़ने के बाद बारी है जॉन बर्जर के इस निबंध की. हिकमत की स्मृति में लिखे गए इस निबंध (के हिंदी अनुवाद) का प्रथम प्रकाशन प्रतिलिपि-में हुआ था।)



मैं चुपके से कहता अपना प्यार
(जनवरी 2002)
शुक्रवार.

नाज़िम, मैं मातम मना रहा हूँ और इसे तुमसे साझा करना चाहता हूँ, जिस तरह तुमने बहुत सी उम्मीदें और बहुत से ग़म हमसे साझा किये थे.


रात में तार मिला
सिर्फ तीन लफ्ज़:
'वह नहीं रहा.'1

मैं मातम मना रहा हूँ अपने दोस्त ह्वान मून्योस के लिए. वह नक्काशियाँ और इन्स्टलेशन बनाने वाला एक अद्भुत कलाकार था.कल अड़तालीस की उम्र में स्पेन के किसी समुद्र-तट पर मर गया.


एक बात जो मुझे हैरान करती है वह मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ. किसी चीज़ का शिकार हो जाने, मार दिए जाने या भूख से मर जाने से अलहदा एक कुदरती मौत के बाद पहले तो एक झटका लगता है. और अगर मरने वाला लम्बे समय तक बीमार न रहा हो, तो फिर भयावह किस्म का हानि-बोध होता है खासकर जब मरनेवाला जवान हो-


दिन निकल रहा है
पर मेरा कमरा
एक लम्बी रात से बना है.2

- और उसके बाद आता है दर्द जो अपने बारे में कहता है कि वह कभी ख़त्म न होगा.फिर दर्द के साथ चोरी-छुपे कुछ और आता है जो लगता तो मज़ाक है मगर है नहीं (ह्वान बहुत मजाकिया था). कुछ ऐसा जो छलावा पैदा करे, करतब दिखाने के बाद के किसी जादूगर के रूमाल जैसा कुछ, एक किस्म का हल्कापन जो सर्वथा विपरीत है उसके जो आप महसूस कर रहे होते हैं. तुम समझ रहे हो न कि मैं क्या कह रहा हूँ? यह हल्कापन एक ओछापन है या कोई नई हिदायत?


तुमसे यह पूछने के पाँच मिनट बाद ही मेरे बेटे इव का फैक्स आया जिसमें कुछ पंक्तियाँ हैं जो उसने ह्वान के लिए अभी-अभी लिखी हैं.

तुम हमेशा एक हँसी
एक नई तरकीब के साथ
नमूदार हुए.

तुम हमेशा गायब हुए
अपने हाथ हमारी
मेज़ पर छोड़ कर.
तुम गायब हुए
अपने ताश के पत्ते
हमारे हाथों में छोड़कर.

तुम फिर दिखाई दोगे
एक नई हँसी के साथ
जो होगी एक तरकीब.

शनिवार.

मुझे पक्का यकीन नहीं है कि मैं नाज़िम हिक्मत से कभी मिला हूँ. मैं सौगंध उठा लूँगा कि मिल चुका हूँ पर ब्यौरेवार सबूत नहीं दे सकता. मुझे लगता है मैं उनसे लन्दन में 1994 में मिला था. उनके जेल से रिहा होने के चार सालों बाद, उनकी मृत्यु से 9 साल पहले. रेड लायन स्क्वेयर में हुई एक राजनीतिक बैठक में वे बोल रहे थे. पहले उन्होंने कुछ शब्द कहे और फिर चंद कविताएँ पढीं. कुछ अंग्रेजी में, और कुछ तुर्की में.उनकी आवाज़ दमदार,शांत,अत्यंत आत्मीय और बेहद सुरीली थी. मगर ऐसा नहीं लग रहा था कि आवाज़ उनके गले से आ रही है- या उस क्षण तो आवाज़ उनके गले से आती नहीं लग रही थी. लगता था जैसे उनके सीने में कोई रेडियो रखा है जो वे अपने चौड़े, हल्के काँपते हाथों से शुरू और बंद कर रहे थे. मैं इसे ठीक तरह बयान नहीं कर रहा हूँ क्योंकि उनकी उपस्थिति और निश्छलता एकदम ज़ाहिर थी. अपनी एक लम्बी कविता में वे छह लोगों का वर्णन करते हैं जो तुर्की में चालीस के दशक के किसी शुरूआती साल में रेडियो पर शोस्ताकोविच की एक सिम्फ़नी सुन रहे हैं. उन छह में से तीन व्यक्ति (उन्हीं की तरह) जेल में है. सीधा प्रसारण हो रहा है, उसी वक़्त हजारों किलोमीटर दूर मास्को में वह सिम्फ़नी बजाई जा रही है. रेड लायन स्क्वेयर में उन्हें अपनी कविताएँ पढ़ते हुए सुनकर मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे उनके शब्द दुनिया के दूसरे हिस्से से भी आ रहे हैं. इसलिए नहीं कि उन्हें समझना मुश्किल था (ऐसा बिल्कुल नहीं था), इसलिए भी नहीं कि वे अस्पष्ट और सुस्त थे (वे धैर्य की क्षमता से भरपूर थे), बल्कि इसलिए क्योंकि वे शब्द कहे जा रहे थे किसी भी तरह दूरियों पर फतह पाने के लिए और बेअंत हिज्रों पर मात करने के लिए. उनकी सभी कविताओं का यहीं और कहीं है.

एक टमटम प्राग में-
एक ही घोड़े वाली गाड़ी
पुराने यहूदी कब्रगाह के आगे से गुज़रती है.
टमटम भरी है किसी दूसरे शहर की हसरतों से
गाड़ीवान मैं हूँ.3

बोलने के लिए खड़े होने से पहले जब वे चबूतरे पर बैठे हुए थे, तब भी यह देखा जा सकता था कि वे असामान्य तौर से लम्बे-चौड़े आदमी हैं. 'नीली आँखों वाला दरख्त' यह नाम उन्हें यूं ही नहीं दिया गया था. जब वे खड़े हुए, तो ऐसा महसूस होता था कि वे बहुत हल्के भी हैं, इतने हल्के कि उनके हवा में उड़ जाने का खतरा है.

शायद मैंने उन्हें कभी नहीं देखा. क्योंकि यह मुमकिन नहीं कि लन्दन में इंटरनेशनल पीस मूवमेंट द्वारा आयोजित बैठक में हिक्मत को कई जहाज़ी तारों की मदद से चबूतरे से बाँध कर रखा गया हो जिससे कि वे ज़मीन पर बने रहें. फिर भी यह मेरी स्पष्ट स्मृति है. उनके शब्द बोले जाने के बाद आसमान में ऊपर उठ जाते थे - वह बैठक बाहर खुले में हो रही थी- और उनका शरीर मानो उनके लिखे शब्दों के पीछे पीछे जाने के लिए ही बना था, जैसे वह शब्द उठाते जाते थे स्क्वेयर के ऊपर और थियोबाल्ड्स रोड की उन पूर्ववर्ती ट्रामों की चिंगारियों से ऊपर जो तीन-चार साल पहले चलनी बंद हो गई थीं.

तुम अनातोलिया के
एक पहाडी गाँव हो,
तुम मेरे शहर हो,
बेहद खूबसूरत और अत्यधिक दुखी
तुम हो मदद की एक गुहार- यानी तुम मेरे देश हो;
तुम्हारी और दौड़ते कदम मेरे हैं.4

सोमवार की सुबह.
मेरे लम्बे जीवन में मेरे लिए महत्त्वपूर्ण रहे लगभग सभी समकालीन कवियों को मैंने अनुवाद में और कदाचित ही उनकी मूल भाषा में पढ़ा है. मैं सोचता हूँ कि बीसवीं सदी से पहले किसी के लिए ऐसा कहना असंभव होता. कविता के अनुवादयोग्य होने या न होने पर बहस सदियों तक चली - पर वे सब चेम्बर आर्ग्युमेंट्स थे - चेम्बर म्यूज़िक की तरह. बीसवीं सदी के दौरान बहुत सारे चेम्बर्स धराशायी हो गए. संचार के नए माध्यम, वैश्विक राजनीति, साम्राज्यवाद, विश्व बाज़ार वगैरह ने अंधाधुंध और अप्रत्याशित तरीके से लाखों लोगों को साथ ला दिया और लाखों लोगों को दूर कर दिया. नतीजतन कविता की अपेक्षाएँ बदलीं; श्रेष्ट कविता ने और भी ज्यादा उन पाठकों पर भरोसा किया जो दूर-बहुत दूर थे.

हमारी कवितायें
मील के पत्थरों की तरह
रास्ते के किनारे खड़ी रहें.5

बीसवीं सदी के दौरान, कविता की कई विवस्त्र पंक्तियाँ अलग-अलग महाद्वीपों के बीच, परित्यक्त गाँवों और दूरस्थ राजधानियों के बीच टाँगी गई थीं. तुम जानते हो यह बात, तुम सभी; हिक्मत, ब्रेष्ट, वयेहो, अतिल्ला योज़ेफ़, अदोनिस,ह्वान गेलमन...

सोमवार की दोपहर.

जब मैंने पहली बार हिक्मत की कुछ कविताएँ पढ़ीं तब मैं किशोरावस्था के आखिरी दौर में था. ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के तत्त्वावधान में छपने वाली एक गुमनाम सी अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिका में वे कविताएँ प्रकाशित हुई थीं. कविता के बारे में पार्टी की नीति बकवास थी, पर प्रकाशित होने वाली कविताएँ और कहानियां अक्सर प्रेरक होती थीं.

उस समय तक मायरहोल्ड को मास्को में मौत की सजा दे दी गई थी. अब मैं खासकर मायरहोल्ड के बारे में सोचता हूँ तो इसलिए कि हिक्मत उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते थे, और 1920 के दशक के शुरूआती सालों में जब वे पहली बार मास्को गए थे तब वे मायरहोल्ड से खासे प्रभावित भी थे.

'मायरहोल्ड के थिएटर का मैं बहुत ऋणी हूँ. 1925 में जब मैं तुर्की वापिस लौटा तो मैंने इस्तंबुल के एक औद्योगिक जनपद में पहले श्रमिक रंगमंच का गठन किया. इस थिएटर के साथ निर्देशक और लेखक के तौर पर काम करने पर मुझे महसूस हुआ कि दर्शकों के लिए और उनके साथ काम करने की नई संभावनाएं हमारे लिए मायरहोल्ड ने खोलीं.'

1937 के बाद, उन नई संभावनाओं की कीमत मायरहोल्ड को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी, पर उस पत्रिका के लन्दन स्थित पाठकों को यह बात मालूम नहीं हुई थी.

जब मैंने पहले-पहल हिक्मत की कविताएँ पढ़ीं तो जिस चीज़ ने मुझे आकृष्ट किया वह थी उनकी स्पेस; तब तक मेरी पढ़ी हुई अन्य कविताओं में मुकाबले उनमें सबसे ज़्यादा स्पेस मौजूद थी. उनकी कविताएँ स्पेस को बयान नहीं करती थीं बल्कि उस स्पेस से होकर आती थीं, वे पहाड़ों को लाँघती थीं. वे एक्शन के बारे में भी थीं. वे संदेहों, तन्हाई, वियोग, उदासी को जोड़ती थीं. ये भावनाएँ कर्त्तव्य का एवज नहीं थीं, बल्कि कर्त्तव्य उन भावनाओं का अनुगमन करता था. स्पेस और एक्शन साथ साथ चलते हैं. जेल उनकी प्रतिपक्षता है, और तुर्की की जेलों में ही राजनीतिक कैदी के तौर पर हिक्मत ने अपना आधा साहित्य रचा.

बुधवार.

नाज़िम, मैं जिस मेज़ पर लिख रहा हूँ उसका वर्णन मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूँ. यह बगीचे में रखी जाने वाली सफ़ेद धातु की बनी हुई टेबिल है, ठीक वैसी जैसी बोस्फोरस (i) पर बनी किसी याली (ii) के मैदान में नज़र आती है. यह टेबिल तो पेरिस के दक्षिण-पूर्वी उपनगर के छोटे से घर के ऊपर से ढँके बरामदे में रखी हुई है. यह घर 1938 में बना था, यहाँ उस समय दस्तकारों, कारीगरों, कुशल श्रमिकों के लिए बनाये गए अनेक घरों में एक घर. 1938 में तुम जेल में थे. तुम्हारे बिस्तर के ऊपर दीवार पर एक घड़ी कील के सहारे लटक रही थी. तुम्हारे ऊपर वाले वार्ड में ज़ंजीरों में बँधे तीन कैदी मौत की सजा का इंतज़ार कर रहे थे.

इस टेबिल हर समय बहुत सारे कागज़ पड़े होते हैं. हर सुबह सबसे पहले मैं कॉफ़ी की चुस्कियां लेते हुए इन कागज़ों को तरतीब से रखने की कोशिश करता हूँ. मेरी दाहिनी तरफ गमले में एक पौधा है, जो मुझे यकीन है तुम्हें पसंद आएगा. इसकी पत्तियाँ बेहद गहरे रंग की हैं. नीचे की तरफ पत्तियों का रंग डैम्सन जैसा है, ऊपर की तरफ रौशनी ने रंग को थोडा मटमैला कर दिया है. पत्तियां तीन-तीन के समूह में हैं, जैसे कि वे रात को मंडराने वाली तितलियाँ हों- उनका आकार तितलियों जितना ही है- जो उस फूल से अपना खुराक हासिल करती हैं. इस पौधे के फूल छोटे-छोटे, गुलाबी रंग के और गाना सीखते प्राइमरी स्कूल के बच्चों कि आवाज़ों की तरह मासूम हैं. यह एक बड़े से तिपतिया घास की तरह है. खासकर यह पोलैंड से मँगाया गया है जहाँ इस पौधे को कोनिकज़िना कहा जाता है. यह मुझे एक मित्र की माँ ने दिया था जिन्होंने यूक्रेन की सरहद के पास स्थित अपने बगीचे में इसे उगाया था. उनकी नीली आकर्षक आँखें हैं और वे बगीचे में टहलते हुए और घर में चहलकदमी करते हुए पौधों को वैसे ही छूती रहती हैं जैसे कुछ दादियाँ अपने नन्हे नाती-पोतों के माथों को छुआ करती हैं.

मेरे महबूब, मेरे गुलाब
पोलैंड के मैदानों से होकर गुजरने वाले मेरे सफ़र का हो चुका आग़ाज़:
मैं हूँ एक छोटा सा बच्चा खुश और हैरतज़दा
लोगों
जानवरों
चीज़ों, पौधों
वाली अपनी पहली तस्वीरों की किताब को देखता हुआ
एक छोटा सा बच्चा.6

दास्तानगोई में सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि क्या पहले आएगा और क्या बाद में. वास्तविक क्रम तो शायद ही ज़ाहिर हो पाता है. ट्रायल एंड एरर. कई कई बार. और इसलिए कैंची और स्कॉच टेप की एक रील भी टेबिल पर है. टेप की रील उस चीज़ में नहीं फिट की गई है जिससे टेप की पट्टी को काट कर अलग करना आसान हो जाता है. मुझे टेप पट्टी कैंची से काटनी पड़ती है. मुश्किल काम है टेप का सिरा खोजना और फिर उसे खींचना.


मैं बेसब्री से, खीजते हुए अपने नाखूनों से खुरचकर ढूँढता हूँ. नतीजतन जब मुझे सिरा मिल जाता है तो उसे टेबिल के सिरे से चिपका देता हूँ और रील को तब तक खुलने देता हूँ जब तक वह फर्श को न छूने लगे. और फिर उसे वैसे ही लटकता छोड़ देता हूँ.

कभी कभी मैं इस बरामदे से उठकर बगल वाले कमरे में चला जाता हूँ जहाँ मैं बतियाता हूँ, खाता हूँ या अखबार पढता हूँ. कुछ दिनों पहले इसे कमरे में जब मैं बैठा तो एक हिलती सी चीज़ की और मेरा ध्यान गया. टेबिल के सामने रखी मेरी खाली कुर्सी के पैरों के पास बरामदे की फर्श पर टपक रहा था झिलमिलाते पानी का बेहद छोटा सा सोता, हिलोरे लेता हुआ. आल्प्स से निकलने वाली नदियों का उद्गम भी इस टपकन से ज़्यादा कुछ नहीं होता.

खिड़की से अन्दर आते हवा के झोंके से झकझोरी जाने वाली टेप की रील भी कभी कभी पहाड़ों को हिला देने के लिए काफी होती है.

गुरुवार की शाम.

दस साल पहले इस्तंबुल में हैदर-पाशा स्टेशन के पास वाली एक इमारत के सामने मैं खड़ा था जहाँ संशयितों से पुलिस पूछ-ताछ कर रही थी. इमारत की सबसे ऊपर वाली मंजिल पर राजनीतिक कैदियों को रखा जाता था और उनसे सवाल पूछे जाते थे, कभी कभी हफ़्तों तक. 1938 में वहाँ हिक्मत से भी पूछ-ताछ की गई थी.

उस इमारत का ढाँचा किसी कैदखाने की तरह नहीं बल्कि एक विशाल प्रशासकीय दुर्ग की तरह बनाया गया था. यह इमारत अविनाशी प्रतीत होती है और ईंटों और ख़ामोशी से बनी है. वैसे तो कैदखानों की मनहूस मगर अक्सर मायूस कामचलाऊ सी फिजा भी होती है. मसलन, बुर्सा के जिस कैदखाने में हिक्मत ने दस साल बिताये उसे अपनी अजीब सी बनावट के कारण 'पत्थर के हवाई जहाज़' के नाम से जाना जाता था. इसके विपरीत इस्तंबुल में स्टेशन के पास वाले जिस अचल दुर्ग को मैं देख रहा था उसमें मौन के स्मारक की तरह एक निश्चय और प्रशांति थी.

यह इमारत संयत स्वरों में घोषणा करती है कि जो भी इसके अन्दर है या इसके भीतर जो कुछ भी होता है, वह भुला दिया जाएगा, रिकार्ड से हटा लिया जायेगा, योरप और एशिया के बीच की दरार में दफन कर दिया जाएगा.

और उस वक़्त मैंने उनकी कविता की अनोखी और अनिवार ऊर्जा को समझा; उसे लगातार अपने कारावास से पार पाना होता था. दुनिया भर के कैदियों ने हमेशा ग्रेट एस्केप के ख्वाब देखे हैं, मगर हिक्मत की कविता ने कभी नहीं.

उनकी कविता ने, शुरू होने से पहले ही, कैदखाने को दुनिया के नक़्शे पर एक बिंदु की तरह रख दिया.

सबसे खूबसूरत समंदर
अब तक पार नहीं किया गया.
सबसे खूबसूरत बच्चा
अब तक बड़ा नहीं हुआ.
सबसे खूबसूरत दिन हमारे
हमने अब तक देखे ही नहीं.
और सबसे खूबसूरत लफ्ज़ जो मैं तुमसे कहना चाहता था
वो मैंने अब तक कहे ही नहीं.

उन्होंने हमें कैद कर लिया है,
बंद कर दिया है:
मुझे दीवारों के अन्दर
और तुम्हें बाहर.

मगर यह कुछ भी नहीं है.
सबसे बुरा तब होता है जब लोग- जाने अनजाने
अपने अन्दर कैदखाने लिए चलते हैं
बहुतेरे लोगों को ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया है.

ईमानदार, मेहनतकश, भले लोग
जिन्हें प्यार किया जाना चाहिए
उतना ही जितना कि मैं तुमसे करता हूँ.7

उनकी कविता ज्यामितीय कम्पास की तरह वृत्त बनाती थी, कभी नज़दीकी तो कभी चौड़े और वैश्विक, जिसका सिर्फ नुकीला बिंदु जेल की कोठरी में गड़ा होता था.
शुक्रवार की सुबह.

एक बार मैं मद्रीद के एक होटल में ह्वान मून्योस का इंतज़ार कर रहा था. वह लेट हो गया था क्योंकि जैसा मैंने बताया रात में मेहनत करते वक़्त वह कार सुधारते मैकेनिक की तरह होता, और समय का हिसाब नहीं रखता.

आख़िरकार जब वह आया, मैंने उसे कारों के नीचे पीठ के बल लेटने की बात कहकर छेड़ा. और बाद में उसने मुझे एक चुटकुला फैक्स किया जो मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूँ, नाज़िम. पता नहीं क्यों. क्यों यह जानना शायद मेरा काम नहीं. मैं तो सिर्फ दो मृत व्यक्तियों के बीच के एक डाकिये का काम कर रहा हूँ.

'आपको मैं अपना परिचय देना चाहूँगा - मैं एक स्पैनिश मैकेनिक हूँ (सिर्फ कारें, मोटर-साइकिलें नहीं) जो अपना ज़्यादातर समय इंजिन के नीचे पीठ के बल लेटे हुए उसे देखने में गुजारता है. मगर, और यह महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, मैं कभी कभी कलाकृतियाँ भी बना लेता हूँ. ऐसा नहीं कि मैं कोई कलाकार हूँ. ना. मगर मैं चीकट कारों के अन्दर और नीचे रेंगने का बकवास काम छोड़ना चाहता हूँ और कला की दुनिया का कीथ रिचर्ड बनना चाहता हूँ. और अगर यह संभव न हो तो मैं पादरियों की तरह काम करना चाहूँगा, केवल आधे घंटे के लिए, और वह भी वाइन के साथ.

यह ख़त मैं तुम्हें इसलिए लिख रहा हूँ क्यों कि मेरे दो दोस्त (एक पोर्टो में और एक रोतेर्दम में) तुम्हें और मुझे पुराने शहर पोर्टो के बॉयमंस कार म्यूजियम और दीगर बेसमेंट्स ( उम्मीद है जो अधिक मदिर होंगे) में आमंत्रित करना चाहते हैं.

उन्होंने लैंडस्केप के बारे में भी कुछ कहा था जो मेरी समझ में नहीं आया. लैंडस्केप. मुझे लगता है शायद वह गाड़ी में घूमने और यहाँ वहाँ भटकने के बारे में था, या गाड़ी चलाते हुए इधर उधर निहारने के बारे में...

सॉरी सर! अभी अभी कोई दूसरा ग्राहक आया है. वाह! ट्रायम्फ स्पिटफ़ायर (iii).

मुझे ह्वान की हँसी सुनाई देती है, उस स्टूडियो में गूँजती हुई जहाँ वह अपनी निशब्द आकृतियों के साथ तनहा है.

शुक्रवार की शाम.

कभी कभी मुझे लगता है कि बीसवीं सदी की महानतम कविताएँ - चाहे वे पुरुष द्वारा लिखी गई हों या स्त्री द्वारा- शायद सर्वाधिक भ्रातृत्व वाली भी हैं. अगर ऐसा है तो इसका राजनीतिक नारों से कोई लेना-देना नहीं है. यह बात लागू होती है रिल्के के लिए जो अराजनीतिक थे, बोर्हेस के लिए जो प्रतिक्रियावादी थे और हिक्मत के लिए जो ताउम्र कम्युनिस्ट रहे. हमारी सदी अभूतपूर्व नरसंहारों वाली रही, फिर भी जिस भविष्य की इसने कल्पना की (और कभी कभी उसके लिए संघर्ष भी किया) उसमें भाईचारे का प्रस्ताव था. पहले की बहुत कम सदियों ने ऐसा प्रस्ताव रखा.

यह लोग, दीनो
जो रौशनी के तार-तार चीथड़े उठाये हैं
इस अँधेरे में
वे कहाँ जा रहे हैं, दीनो ?
तुम, मैं भी:
हम उनके साथ हैं, दीनो.
नीले आसमान की झलक
हमने भी देखी है दीनो.8

शनिवार.

नाज़िम, शायद इस बार भी मैं तुमसे मिल नहीं रहा हूँ. फिर भी सौगंध खा लूँगा कि मिल रहा हूँ. बरामदे में तुम मेरी मेज़ की दूसरी तरफ बैठे हो. कभी गौर किया है कि अक्सर सिर की बनावट उसके अन्दर आदतन चल रही विचार पद्धति की ओर इशारा करती है. कुछ सिर हैं जो लगातार गणनाओं की गति दर्शाते हैं. कुछ हैं जो खुलासा करते हैं पुरातन विचारों के दृढ़ अनुसरण का. इन दिनों कई सारे तो अनवरत हानि की अबोध्यता को धोखा देते हैं. तुम्हारा सिर- इसका आकार और तुम्हारी त्रस्त सी नीली आँखें- मुझे दिखाती हैं अलग अलग आसमानों वाली कई सारी दुनियाओं का सह-अस्तित्व, एक के भीतर दूसरा, अन्दर; डरावना नहीं शांत, मगर भीड़-भड़क्के का आदी.

मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ इस दौर के बारे में जिस में हम जी रहे हैं. जो कुछ भी तुम मानते थे कि इतिहास में हो रहा है, या समझते थे कि होना चाहिए, वह भ्रामक साबित हुआ. तुम्हारी कल्पना का समाजवाद कहीं नहीं बनाया जा रहा. कार्पोरेट पूँजीवाद बेरोक आगे बढ़ रहा है- यद्यपि उत्तरोत्तर प्रतिरोध के साथ - और वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर के टावर उड़ा दिए गए हैं. अत्यधिक भीड़ से भरी दुनिया दिन पर दिन गरीब होती जाती है. अब कहाँ है वह नीला आसमान जो तुमने दीनो के साथ देखा था?

तुम जवाब देते हो, हाँ, वे उम्मीदें तार-तार हैं, फिर भी वास्तव में इससे फ़र्क क्या पड़ता है? न्याय अब भी एक शब्द वाली प्रार्थना है, जैसा कि आज के तुम्हारे समय में ज़िगी मारली गाता है. सारा इतिहास ही उम्मीदों के बचे रहने,खो जाने और फिर नए होने का है. और नई उम्मीदों के साथ आते हैं नए विचार.

मगर भारी भीड़ के लिए, उनके लिए जिनके पास बहुत थोड़ा है या कभी-कभी साहस और प्यार के सिवाय कुछ भी नहीं है, उनके लिए उम्मीद अलग तरह से काम करती है. फिर उम्मीद दाँतों के बीच रखकर चबाने की चीज़ हो जाती है. यह बात मत भूलो. यथार्थवादी बनो. दाँतों के बीच में उम्मीद रखे हुए ताक़त आती है उस वक़्त आगे बढ़ने की जब थकन उठने नहीं देती. ताक़त आती है ज़रुरत पड़ने पर असमय न चीख पड़ने की. और सबसे बढ़कर ताक़त मिलती है किसी पर न गुर्राने की. ऐसा व्यक्ति जो अपने दाँतों के बीच उम्मीद रखे है, उस भाई या बहन की सभी इज्ज़त करते हैं. वास्तविक दुनिया में बिना उम्मीद वाले लोग अकेले होने के लिए अभिशप्त हैं. वे ज्यादा से ज्यादा दया दिखा सकते हैं. और जब रातें काटने और एक नए दिन के तसव्वुर की बात आती है तो क्या फर्क पड़ता है कि दाँतों के बीच रखी उम्मीदें ताज़ा हैं यार तार-तार. तुम्हारे पास थोड़ी कॉफ़ी होगी?
मैं बनाता हूँ.
मैं बरामदे से निकलता हूँ. जब तक मैं दो कप लिए रसोईघर से लौटता हूँ- और कॉफ़ी तुर्की है- तुम जा चुके हो. मेज़ पर, जहाँ स्कॉच टेप चिपका है उसके एकदम पास, एक किताब है जिसमें उघरी है एक कविता जो तुमने 1962 में लिखी थी.

गर मैं होता गूलर का पेड़ तो उसकी छांह में दम लेता
गर मैं किताब होता
बिन ऊबे पढ़ता उन रातों में जब आँखों में नींद न होती
गर होता कलम तो खुद की उँगलियों के बीच भी नहीं चाहता फँसना
गर दरवाज़ा होता
तो खुलता भलों के लिए और बुरों के लिए बंद हो जाता
गर मैं होता खिड़की, बिना पर्दों वाली खुली चौड़ी खिड़की
अपने कमरे में सारे शहर को ले आता
गर मैं लफ्ज़ होता
तो पुकारता खूबसूरत को सच्चे को खरे को
गर मैं लफ्ज़ होता
मैं चुपके से कहता अपना प्यार.9

**************************

(होल्ड एवरिथिंग डियर: डिस्पैचेस ऑन सर्वाइवल एंड रज़िस्टन्स,विंटेज इंटरनेशनल,2008 से)

मूल नोट्स

1.नाज़िम हिक्मत, दि मास्को सिम्फ़नी, अनुवाद, तनेर बायबार्स, रैप एंड व्हिटिंग लि. 1970.
2.वही.
3.हिक्मत, प्राग डॉन, अनुवाद, रैंडी ब्लासिंग और मुतेन कोनुक, पेर्सिया बुक्स, 1994.
4.हिक्मत, यू, अनुवाद, ब्लासिंग और कोनुक, वही.
5.अनुवाद, जॉन बर्जर.
6.हिक्मत, लेटर फ्रॉम पोलैंड, अनुवाद जॉन बर्जर.
7.हिक्मत, 9-10पीएम. पोएम्स. अनुवाद ब्लासिंग और कोनुक.
8.हिक्मत, ऑन अ पेंटिंग बाइ अबिदीन, एंटाइटल्ड दि लॉन्ग मार्च. अनुवाद जॉन बर्जर.
9.हिक्मत, अंडर दि रेन. अनुवाद ओज़ेन ओज़ुनर और जॉन बर्जर.

अनुवादक के नोट्स

i.तुर्की के यूरोपीय हिस्से और एशियाई हिस्से को जोड़ने वाला जलडमरू मध्य जिसे इस्तंबुल स्ट्रेट भी कहा जाता है.
ii.इस्तंबुल की समुद्र तट से सटी विशाल कोठियाँ.
iii.एक ब्रिटिश स्पोर्ट्स कार का मॉडल

Tuesday, March 9, 2010

आज हमारे हिस्से का महिला दिवस है !

पता नहीं क्यों ...... पर आज ये एक अटपटी और बेहद निजी पोस्ट... इस थोड़ी-सी कैफ़ियत के साथ...१९९९ के बसंत में मित्र से जीवनसाथी बनने जा रही सीमा हर्बोला ने तय किया था कि शादी महिला दिवस के दिन करेंगे ....कोर्ट में अर्ज़ी लगायी पर एस० डी० एम० काशीपुर-नैनीताल को (जो कोर्ट मैरिज़ कराया करते थे) बाजपुर की किसी चीनी मिल में आग लग जाने के कारण अचानक वहाँ भागना पड़ा ....इस तरह हमारे हिस्से का महिला दिवस एक दिन आगे खिसक गया....इस दिन के हासिल के रूप में एक तस्वीर नीचे लगा रहा हूँ और एक कविता भी ..... जो मेरे संग्रह 'पृथ्वी पर एक जगह में' संकलित है......और हाँ... इस पोस्ट की प्रेरणा है प्यारे दोस्त भारतभूषण का वह मेल....जो सुबह सुबह ५ बजे मेरे इनबाक्स में पहुँच चुका था।


किसी पके हुए फल सा
गिरा यह दिन
मेरे सबसे कठिन दिनों में

उस पेड़ को मेरा सलाम
जिस पर यह फला
सलाम उस मौसम को
उस रोशनी को
और उस नम सुखद अँधेरे को भी
जिसमे यह पका

अभी बाक़ी हैं इस पर
सबसे मुश्किल वक़्तों के निशाँ

मेरी प्यारी !
कैसी कविता है यह जीवन
जिसे मेरे अलावा
बस तू समझती है

तेरे अलावा बस मैं !
***

Sunday, March 7, 2010

क्या होता है स्त्री होना -आलोक श्रीवास्तव की कविताएं : चयन - प्रतिभा कटियार

इस पोस्ट के साथ प्रतिभा कटियार अनुनाद की टीम का हिस्सा बन रही हैं। अनुनाद परिवार की ओर से मैं उनका स्वागत करता हूँ। ब्लॉग जगत में प्रतिभा एक सुपरिचित शख्सियत हैं। उनका रचनात्मक संग - साथ निश्चित रूप से अनुनाद को और समृद्ध बनाएगा। यहाँ महिला दिवस के अवसर पर वे अपनी पहली पोस्ट के रूप में आलोक श्रीवास्तव की कुछ कविताओं के साथ उपस्थित हैं। इसके बाद वे ख़ुद अनुनाद पर पोस्ट लगाएंगी।
......... इधर हमारे साथी यादवेन्द्र ने प्रस्ताव किया है कि जब परिवार बढ़ रहा है तो एक बार उसे एक जगह इकठ्ठा हो मिलना भी चाहिए। प्रस्ताव बहुत अच्छा है पर अमरीकावासी भारत और रूसवासी अनिल जनविजय जी एक साथ हिंदुस्तान पधारें तो .... मैं इसे धरातल पर लाने का प्रयास करता हूँ....वरना रूस और अमरीका के मोह में न पड़ कर बाक़ी जनों को ही नैनीताल या पचमढ़ी आने का न्यौता दूंगा।
महिला दिवस पर विशेष
क्या होता है स्त्री होना. कैसा होता है एक स्त्री का मन. कैसा होता है उसका चेतन व्यक्तिव. कितनी जरूरत है सृष्टि को उसके संपूर्णत्व की. कैसे पूरी की जाती है एक लंबी यात्रा स्त्री के मन के करीब पहुंचने की. क्यों किसी स्त्री के करीब होकर भी उसके पास पहुंच पाना आसान नहीं होता है कभी भी. सृष्टि की कितनी व्याधियों को पार करने की क्षमताएं अपने भीतर समाए कैसे एक स्त्री सिर्फ जी रही है इस धरती पर उदास. उन संभावनाओं को, उसके मन को, उसके संपूर्णत्व में स्वीकार करने वाली, उनसे शक्ति लेने वाली कविताएं प्रेम कविताओं के रूप में आलोक श्रीवास्तव की कलम से सधती हैं. आलोक का नया संग्रह दिखना तुम सांझ तारे को उनका पांचवां कविता संग्रह है. उनकी लगभग सभी कविताएं स्त्री के लिए लिखी गई हैं. लेकिन इनकी खासियत ये है कि ये स्त्री की देह के पार जाकर उसे समझते हैं. उसे पाने की कामना नहीं करते, उसके मुक्त होने की कामना करते हैं. आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर इन कविताओं के जरिये चलते हैं स्त्री के मन के पास...वहां जहां वो सचमुच रहती है अपनी संपूर्णता में - प्रतिभा कटियार
आलोक श्रीवास्तव की कविताएँ
दिखना तुम सांझ-तारे को

तुम मुक्त पांखी की तरह उडऩा
लहरों की तरह खेलना चट्टानी तट से

देश-देशावर में सुगंध की तरह फैली रहना तुम
मेरा प्रेम तुम्हें बांधेगा नहीं
वह आसमान बनेगा
तुम्हारी उड़ान के लिए
तुम्हारे स्वप्न के लिए नींद
तुम्हारी गति के लिए प्रवाह
तुम्हारी यात्रा के लिए प्रतीक्षा

प्रिय तुम
अपनी ही खुशबू में खिलना
अपनी ही कोमलता में
दिखना तुम सांझ-तारे को

मेरा प्रेम लौटा देगा तुम्हें
सुदूर किसी नदी के किनारे छूटा तुम्हारा कैशोर्य

वह तुम्हें आगत युगों तक ले जाएगा
भव्यता के, सौंदर्य के उस महान दृश्य तक
जो तुम खुद हो
और जिसे मैंने
जीवन भर निहारा है
अपने एकांत में!
***

क्या होता है एक स्त्री का मन?

कितने फूल गुंथे होते हैं उसमें
कितने रंग, कितने राग
कितने स्वप्न अस्फुट

या कितने भय
कितने विकल स्वर
असुरक्षित वन

कितना छूटा बालपन
बीती किशोर वय
सुदूर देखती
अधेड़ दिनों की ठहरी कतार

पूरब के एक उदास देश में
दु:ख का एक गीत रोता है
पथ पर

तुम पूछते हो
क्या होता है प्रेम!
***

एक लहर विशाल...

तुम मुझे ले जाती हो इस पृथ्वी की निर्जन प्रातों तक
अक्लांत धूसर गहन रातों तक

तुम्हारे होने से ही खिलता है नील चंपा

मैंने तुममें देखा, पाया वह उन्नत भाव समवित
जो मानवता का अब तक का संचय

नहीं तुम रूप, नहीं आसक्ति, नहीं मोह, नहीं प्यार
जीवन का एक उदास पर भव्य गान
अंबुधि से उठी एक लहर विशाल
जिसमें भीगा मेरा भाल...
***

तुम्हारे जरिये

एक बहुत बड़ा संसार मिलता है मुझे तुम्हारे $जरिए
किसी अतीत में खोया हुआ
बीतता हुआ वर्तमान में
भविष्य में आता हुआ
जीवन से गुजरे तमाम चेहरे फिर से लौटते हैं
लौटती है एक शाम
एक तारा आसमान का फिर चमक उठता है सुदूर दिशा में

वह लड़की जो अल्हड़ उमर का एक प्रिय चेहरा थी
दिखती है जीवन की अनुभवी निगाहों से देखती हुई
एक किताब जिसमें मनुष्यों के दुख थे
आंसू बन टपकने लगती है आंखों से

यह जीवन गहरा है
इसमें सिर्फ उम्मीदें सच हैं

हजार दुखों और लाख हारों के बाद
सुदूर उदित वह तारा सच है.
***

Friday, March 5, 2010

नाज़िम हिक़मत की एक कविता

अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र

तुर्की के विश्व प्रसिद्द कवि नाज़िम हिक़मत की ये बेहद चर्चित युद्ध विरोधी कविता हिरोशिमा पर अमेरिकी अणु बम गिराए जाने के दस साल बाद लिखी गयी थी और दुनिया की सभी प्रमुख भाषाओँ में न केवल इसका अनुवाद हुआ बल्कि अनेक देशों के शांति कार्यकर्ताओं और जनगायकों ने इसको अपने युद्ध विरोधी अभियान का प्रतीक बना लिया.पाल रोब्सन,पीट सीगर जैसे अमेरिकी लोकगायकों ने तो इस कविता को अपनी आवाज दी ही,अनेक अन्य गायकों ने दुनिया के अन्य हिस्सों में इसका चयन और पाठ किया.हिरोशिमा के नरसंहार के साठ साल पूरे होने पर जापान की लोकप्रिय गायिका चितोसे हाजिमे ने इस कविता का जापानी अनुवाद प्रस्तुत किया. इस कविता के अनेक अनुवाद उपलब्ध हैं.यह प्रस्तुति jeanette turner के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है..

दरवाज़े दरवाज़े

दरवाज़े दरवाज़े मैं चल चल के आई
पर किसी को सुनाई नहीं देती मेरी पदचाप
खटखटाती हूँ दरवाज़ा पर दिखाई देती नहीं
कि मैं मर चुकी हूँ..मर चुकी हूँ मैं...

बस सात बरस की थी जब मैं मरी
इस बात को बीत गए सालों साल
अब भी मैं सात बरस की ही हूँ जैसी तब थी
कि मर जाने के बाद कहाँ बढ़ते हैं बच्चे...

मेरी लटें झुलस गयी थीं लपलपाती लौ से
ऑंखें जल गयीं..फिर मैं अंधी हो गयी
मृत्यु लील गयी मुझे और हड्डियों की बना डाली राख
फिर अंधड़ ने रख को उड़ा दिया यहाँ वहां...

मुझे फल की दरकार नहीं,न ही चाहिए भात
मुझे टॉफी की दरकार नहीं,न ही चाहिए मुझे ब्रेड
मेरी अपने लिए बाक़ी नहीं कोई लालसा
की मैं मर चुकी हूँ..मर चुकी हूँ मैं..

मैं आपके दरवाजे आयी हूँ अमन मांगने
आज आप ऐसी लड़ाई छेड़ें..ऐसी जंग
कि इस दुनिया के बच्चे जिन्दा बचें
फलें फूलें, बढ़ें, हंसें और खेलें कूदें...

***

Tuesday, March 2, 2010

माइकल जैक्सन अनुनाद पर ?

कुबेरदत्त समकालीन हिन्दी कविता के एक सुपरिचित और आत्मीय सहभागी है। उन्होंने दूरदर्शन के लिए लगातार साहित्य के कई ऐसे कार्यक्रम बनाए हैं, जिन्हें आज दस्तावेज़ माना जाता है। मल्टीमीडिया में तेज़ी से बढ़ती अपसंस्कृति और हत्यारी सभ्यताओं के हस्तक्षेप के बीच साहित्य और ख़ासकर कविता के लिए उनका यह समर्पण हमारे लिए पूर्वज और समकालीन रचनाकारों की थाती तैयार करता गया है। पिछले दिनों पश्चिमी गायक माइकल जैक्सन के निधन के बाद उन्हें ब्लागजगत में काफ़ी याद किया गया लेकिन मैं ऐसा कुछ कर पाने में ख़ुद को जानकारी और विचार, दोनों स्तरों पर असमर्थ पाता रहा। अभी महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिका पुस्तकवार्ता के पन्ने पलटते हुए मेरी निगाह `समय-जुलाहा´ स्तम्भ के अन्तर्गत छपे कुबेर दत्त के एक लेख पर गई जिसमें उन्होंने कवि सुदीप बनर्जी के साथ ही माइकल जैक्सन पर भी एक लम्बी टिप्पणी लिखी है। इस टिप्पणी में उन्होंने माइकल जैक्सन के एक गीत का काव्यानुवाद भी दिया है, जिसे पढ़ने के बाद मैं माइकल के विवादास्पद मिथकीय व्यक्तित्व के बारे में नए सिरे से कुछ सार्थक सोचने पर मज़बूर हो गया। मैंने कुबेरदत्त जी से इस अनुवाद को अनुनाद पर छापने की अनुमति मांगी और उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी दी भी। इस तरह यह अनुवाद और टिप्पणी का एक अंश अनुनाद पर लगाया जा रहा है। इसके लिए मैं पुस्तकवार्ता को महज समीक्षा के ऊसर धरातल से उठाकर रचनात्मकता के एक उर्वरप्रदेश में पहुँचा देने वाले वरिष्ठ साहित्यकर्मी सम्पादक श्री भारत भारद्वाज का भी आभारी हूँ। `` वह केवल अमरीकी समाज में ही लोकप्रिय नहीं था, पूरी दुनिया में लोकप्रिय था। अफ्रीका में भी, यूरोप में भी, लातिन अमरीका में भी, भारत में भी, चीन में भी। जो जानना नहीं चाहते पहले उन्हीं को बताऊं(क्योंकि जानने वाले तो जानते ही हैं) कि उसके गाए हुए ऐसे अनेक गीत हैं जो रंगभेद के ख़िलाफ़ हैं, नस्लभेद के ख़िलाफ़ हैं, ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ हैं, वृद्धों, महिलाओं, बच्चों पर होने वाले अत्याचारों के ख़िलाफ़ हैं, हर तरह के शोषण के ख़िलाफ़ हैं, इंसानियत के पक्ष में हैं, सामुदायिकता के पक्ष में हैं, शान्ति के पक्ष में हैं और युद्धों के विरुद्ध हैं। परमाणु होड़ के विरुद्ध हैं। सामाजिक न्याय के पक्ष में हैं, दुनिया भर के मज़दूरों और कामगारों के पक्ष में हैं। उसके गाए गीतों पर वंचित समाज ज़ार-ज़ार रोता था और उसे दुआएं देता था। उसने जीवनभर कोई अश्लील गीत नहीं गाया, चाहे वह मुक्तप्रेम का गीत हो या घोर रोमानी हो। माइकल जैक्सन जीनियस था, वाग्गेयकार था और साथ में नर्तक भी। भरतमुनि ने जितने गुण एक वाग्गेयकार के गिनाए हैं, उसमें कुछ अधिक ही थे। अपने पाठक मित्रों के लिए वाग्गेयकार माइकल जैक्सन द्वारा रचित एक गीत का अपना अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ ....- कुबेरदत्त

धरती का गीत

कहां गया हमारा सूर्य, और मौसम
कहां बिला गई बरखा हमारी
और प्रसन्नताएं सपने ?
उन्हें तो होना था हमारे लिए
वे हमारे थे....
कहां हैं वे कालखण्ड ...वह ज़मीन...वे खेत
जो हमारे ही तो थे ?
क्या हम हो गए इतने जड़-प्रस्तर
कि हमें नहीं दीखते नदियों के रक्तिम किनारे
और समुद्रों का लाल ज्वार ?
क्या वह हमारा ही रक्त नहीं है? आह!...
अरे ओ बूढ़े! तुम रोते हो अपने पुत्र की हत्या पर
धरती के अगणित लाल सूली चढ़ा दिए गए
युद्धों ने जला दी पृथ्वी की कोख
महसूस करो इसे, आह! आह!!
सोचें हम सब जो हैं जीवित अभी किसी तरह
सुनें ध्यान से आहत पृथ्वी के शोकगीत
और आसमानों की द्रवित धड़कन ...

देखो...पूरा ब्रह्माण्ड बीमार है, जर्जर है धरा
स्वर्ग टूट-टूट कर गिरते हैं....सांस लेना दूभर ...
प्रकृति का कंठ अवरुद्ध है, कहां है प्राणवायु?
एक दूजे को एक दूजे से विलग कर रहा कौन?

जबकि ध्वस्त हैं राजशाहियां...
फिर भी उनके प्रेत अब भी नाचते हैं...
एक गझिन अंधकार में हम खोजते हैं एक दूजे को
अपने प्रिय पशुओं को, प्रिय वनस्पतियों को,
फूलों और रंगों और जंगलों,
अपने लोगों को,
और अपनी आत्माओं को...

उफ़! ये बिलबिलाते... इंसानों के बच्चे
जिनके कंठों में धंसी बारूद...
क्या मृत्यु उपत्यकाएं फिर फिर? चारों तरफ़?
अरे ओ घिग्घी बंधे लोगो!
फिर से याद करो अपने अब्राहम लिंकन को
आहत धरती कहती है यह, फिर...फिर
गाती है अनवरत ... शोकगीत !
***

Monday, March 1, 2010

होली पर चोरी ...

मुझे याद है अपने बचपन और बाद में अपने छोकरेपन किंवा छिछोरपन में हम गाँव(नौगाँवखाल) भर से लकड़ी का सामान चोरी कर होली में जला दिए करते थे और गाँव भर की गाली खाते थे...ये आदत अब भी गयी नहीं और गाँव भर की तो नहीं पर दो साथियों की गाली शायद खानी पड़े..... पर यारो बुरा ना मानो होली है ......और मानो तो मानो ... होली है..........

एम० एफ़० हुसैन की पेंटिंग की चोरी धीरेश सैनी के ब्लॉग से



निराला की इस होली की चोरी प्रेमचंद गांधी के ब्लॉग से


नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली !
मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधु सुधबुध खो ली,
खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली--
बनी रति की छवि भोली!
***

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