
दहशत
पारे सी चमक रही है वह
मुस्कुराते हुए होंठों के उस हलके दबे कोर को देखो
जहाँ से रिस रही है दहशत
एक दृश्य - अपने अपने भीतर बनते बंकरों का
एक ध्वनि - फूलों के चटाचट टूटने की
एक कल्पना - सारे आपराधिक उपन्यासों के पात्र
जीवित हो गए हैं
बहिष्कृत स्मृतियाँ लौटी हैं फिर
एक बार फिर
रगों में दौड़ने के बजाय
ख़ून, गलियों में दौड़ने लगा है
***
(थॉमस वेइगल की पेंटिंग उनकी वेबसाइट से साभार)
अद्भुत ....
ReplyDeletebahut prabhavi kavita hai. mujhe to kai cheejen judti lag rahi hain is prastuti men
ReplyDeleteहर अच्छी कविता को पढ़कर दिल बेचैन होता है
ReplyDeleteमित्र
ReplyDeleteऐसा नहीं लगता कि बुरुँश के बाद हरीश चंद्र पाण्डे की कविता में से खिलना खत्म हो गया है। न भूमिकाँ बची हैं न कविता।
मैं आपसे जानना चाहूँगा कि इस कविता मेंऐसा क्या है जो उनकी फिछली तमाम कविताओं में नहीं है। भूमिका खत्म नहीं होती कहने भर से भूमिका नहीं बची रहती। उसके लिए कर्म करना पड़ता है। हरि जी की कविता से नयापन चुक गया है। केवल चम्कार रह गया है।
एक हिन्दी सेवक