१९६२ में अल्बानिया की राजधानी तिराना में जनमी रीता पेत्रो स्टालिन कालीन साम्यवादी पाबंदियों से मुक्त हुए अल्बानिया की नयी पीढ़ी की एक सशक्त कवियित्री हैं.उन्होंने तिराना विश्वविद्यालय से अल्बानी भाषा और साहित्य की डिग्री ली और बाद में एथेंस विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि.उनके तीन बहुचर्चित कविता संग्रह डीफेम्ड वर्स (१९९४),दी टेस्ट ऑफ़ इंस्टिंक्ट(१९९८) तथा दे आर सिंगिंग लाइन डाउन हियर(२००२) प्रकाशित हुए हैं और विश्व की अनेक भाषाओँ में उनकी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं. यहाँ उनकी कुछ छोटी कवितायेँ प्रस्तुत हैं :
पूर्णता
ईश्वर...एक मर्द
अपने आंसुओं से इसने रच डाली दुनिया
दुनिया..एक औरत
अपनी पीड़ा में वो चलती गयी
और जा पहुंची पूर्णता की हद तक...
***
क्या इसको प्रेम कहेंगे?
क्या इसको प्रेम कहेंगे
यदि हमारा शरीर बना हो
गोश्त और लहू के बगैर...
आधी खुली आधी छिपी निहायत लुभावनी
इन मांसल गोलाइयों के बगैर...
नैनों के लपलपाते तीरों के बगैर..
गर्माते लहू और धड़कनों के बगैर...
क्या इसको भी हम कह पायेंगे
प्रेम?
***
यह प्यार
इस प्यार ने
उभार दिए हैं इतने मेरे सीने
कि आस पास की हवा होने लगी है विरल.
इस प्यार ने
हाथ पकड़ कर पहुंचा दिया है मुझे
स्वर्ग द्वार तक
पर मेरी खिड़की पड़ने लगी है छोटी.
इस प्यार कि मांग है
कि निछावर कर दूँ मैं सर्वस्व अपना
पर पाप का खौफ मन पर छाने लगा है
ये खौफ उतना ही उम्र दराज है
जितनी है ये दुनिया...
मेरी आँखें खोलो मेरे ईश्वर
कि मैं समझ सकूँ
यह प्यार तोड़ रहा है मेरी जंजीरें
या उल्टा उनसे ही बाँध रहा है मुझे???
***
अंतिम दरवाज़ा
अपनी रूह तक पहुँचने वाले
तमाम दरवाजे खोल दिए हैं मैंने-
सिवा एक दरवाजे के
बंद कर रखा है अंतिम दरवाज़ा...
इसके आस पास बसते हैं फ़रिश्ते
और यहीं मटरगश्ती करते फिरते हैं शैतान..
यदि तुम मुखातिब हो गए फरिश्तों से
तो बन जाउंगी मैं तुम्हारी गुलाम
पर अगर तुम चले गए शैतानों के पास
तो बन जाओगे फ़ौरन मेरे गुलाम...
अंतिम दरवाज़ा बंद है...बंद ही रहेगा.
***
तुमने मुझे समझा नहीं
नहीं,मैं तड़प नहीं रही हूँ तुम्हारे लिए...
जैसे अग्नि जला कर लकड़ी को
बदल देती है राख में
मैंने वैसा सलूक किया नहीं तुम्हारे साथ
जैसे हिंसक पशु करता है अपने शिकार के साथ
अट्ठहास करता हुआ उसको अपनी गिरफ्त में ले कर...
मैं तो बस एक रुदन थी
ख़ामोशी के बियावान में.
अब हो रही हूँ विदा
गुड नाईट
आंसुओं से लथपथ और सुबगती हुई
अँधेरे की ओर.
***
प्यास
यदि जीवन होता एक गिलास
ऊपर तक भरा हुआ लबालब
तो मैं गटक जाती उसे
एक घूंट में पलक झपकते...
***
तुम्हारे बिना
इस खाली और ठण्ड से जमे घर में
जिन्दा रहने के लिए देती है तपिश
बस एक ही चीज...तुम्हारी जाकेट.
***
कोई वादा मत मांगो
कोई वादा मत मांगो
ये गुम हो सकता है कभी भी
चाभियों की मानिंद...
न ही मांगो
अनवरत अविछिन्न प्रेम
अमरत्व और मृत्यु छाया अक्सर
डोलते मिलते हैं आस पास ही..
मत मांगो वो शब्द जो कहे नहीं गए
शब्दों की औकात
मामूली वस्तुओं से ज्यादा होती नहीं कुछ भी..
मांगना ही है तो बस ये मांगो
कि तुम्हारे जीवन में आऊं
तो सिरे से पलट कर रख सकूँ बस एक पल...
***
हम और हमारा बच्चा
मेरा बच्चा
तुम्हारा बच्चा
हमारा बच्चा
आज पहली बार चला.
मेरा बच्चा
तुम्हारा बच्चा
हमारा बच्चा
आज उसने सीखा पहली बार दौड़ना.
मेरा बच्चा
तुम्हारा बच्चा
हमारा बच्चा
आज बड़ा हुआ और चला गया.
हम आज बूढ़े हो गए.
***
(रोबर्ट एलसी और जानिस मथाई हेक के अंग्रेजी अनुवादों पर आधारित प्रस्तुति)

ईश्वर...एक मर्द
अपने आंसुओं से इसने रच डाली दुनिया
दुनिया..एक औरत
अपनी पीड़ा में वो चलती गयी
और जा पहुंची पूर्णता की हद तक...
***
क्या इसको प्रेम कहेंगे?
क्या इसको प्रेम कहेंगे
यदि हमारा शरीर बना हो
गोश्त और लहू के बगैर...
आधी खुली आधी छिपी निहायत लुभावनी
इन मांसल गोलाइयों के बगैर...
नैनों के लपलपाते तीरों के बगैर..
गर्माते लहू और धड़कनों के बगैर...
क्या इसको भी हम कह पायेंगे
प्रेम?
***
यह प्यार
इस प्यार ने
उभार दिए हैं इतने मेरे सीने
कि आस पास की हवा होने लगी है विरल.
इस प्यार ने
हाथ पकड़ कर पहुंचा दिया है मुझे
स्वर्ग द्वार तक
पर मेरी खिड़की पड़ने लगी है छोटी.
इस प्यार कि मांग है
कि निछावर कर दूँ मैं सर्वस्व अपना
पर पाप का खौफ मन पर छाने लगा है
ये खौफ उतना ही उम्र दराज है
जितनी है ये दुनिया...
मेरी आँखें खोलो मेरे ईश्वर
कि मैं समझ सकूँ
यह प्यार तोड़ रहा है मेरी जंजीरें
या उल्टा उनसे ही बाँध रहा है मुझे???
***
अंतिम दरवाज़ा
अपनी रूह तक पहुँचने वाले
तमाम दरवाजे खोल दिए हैं मैंने-
सिवा एक दरवाजे के
बंद कर रखा है अंतिम दरवाज़ा...
इसके आस पास बसते हैं फ़रिश्ते
और यहीं मटरगश्ती करते फिरते हैं शैतान..
यदि तुम मुखातिब हो गए फरिश्तों से
तो बन जाउंगी मैं तुम्हारी गुलाम
पर अगर तुम चले गए शैतानों के पास
तो बन जाओगे फ़ौरन मेरे गुलाम...
अंतिम दरवाज़ा बंद है...बंद ही रहेगा.
***
तुमने मुझे समझा नहीं
नहीं,मैं तड़प नहीं रही हूँ तुम्हारे लिए...
जैसे अग्नि जला कर लकड़ी को
बदल देती है राख में
मैंने वैसा सलूक किया नहीं तुम्हारे साथ
जैसे हिंसक पशु करता है अपने शिकार के साथ
अट्ठहास करता हुआ उसको अपनी गिरफ्त में ले कर...
मैं तो बस एक रुदन थी
ख़ामोशी के बियावान में.
अब हो रही हूँ विदा
गुड नाईट
आंसुओं से लथपथ और सुबगती हुई
अँधेरे की ओर.
***
प्यास
यदि जीवन होता एक गिलास
ऊपर तक भरा हुआ लबालब
तो मैं गटक जाती उसे
एक घूंट में पलक झपकते...
***
तुम्हारे बिना
इस खाली और ठण्ड से जमे घर में
जिन्दा रहने के लिए देती है तपिश
बस एक ही चीज...तुम्हारी जाकेट.
***
कोई वादा मत मांगो
कोई वादा मत मांगो
ये गुम हो सकता है कभी भी
चाभियों की मानिंद...
न ही मांगो
अनवरत अविछिन्न प्रेम
अमरत्व और मृत्यु छाया अक्सर
डोलते मिलते हैं आस पास ही..
मत मांगो वो शब्द जो कहे नहीं गए
शब्दों की औकात
मामूली वस्तुओं से ज्यादा होती नहीं कुछ भी..
मांगना ही है तो बस ये मांगो
कि तुम्हारे जीवन में आऊं
तो सिरे से पलट कर रख सकूँ बस एक पल...
***
हम और हमारा बच्चा
मेरा बच्चा
तुम्हारा बच्चा
हमारा बच्चा
आज पहली बार चला.
मेरा बच्चा
तुम्हारा बच्चा
हमारा बच्चा
आज उसने सीखा पहली बार दौड़ना.
मेरा बच्चा
तुम्हारा बच्चा
हमारा बच्चा
आज बड़ा हुआ और चला गया.
हम आज बूढ़े हो गए.
***
(रोबर्ट एलसी और जानिस मथाई हेक के अंग्रेजी अनुवादों पर आधारित प्रस्तुति)
पहली कविता ही विमर्श मांगती है.. बांकी सभी सरल हैं, सरस हैं... अच्छी हैं
ReplyDelete... कुछ एक बेहद साधारण भी.... तो... इसको प्रेम कहेंगे और प्यार दोनों बेहतरीन लगी ... thank you.
एक ही पोस्ट में कई बेहतरीन रचनाएं पढने को मिल गई। इनका अनुवाद करके हम तक पहुँचाने का बहुत बहुत शुक्रिया आपका।
ReplyDeleteबेहतरीन कविताएं हैं।
ReplyDeleteसागर से सहमत हूँ....पहली कविता लम्बी होती तो अनेको आयाम खोलती....
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगीं कवितायेँ .....प्रेम पर अच्छा लिखा .आपको प्रस्तुति के लिए शुक्रिया
ReplyDeleteपहली कविता में "अपने " है, या "आपने" ?
ReplyDeleteठीक कर दीजिए, ज़ायक़ा चला जा रहा है. महान कविताएं.
रीता पेत्रो की सभी कविताएं ध्यान खींचती है। यादवेन्द्र जी का अनुवाद कविताओं को पठनीय बनाता है।
ReplyDeleteअजेय शुक्रिया ! शब्द 'अपने' ही था, अब ठीक कर दिया.
ReplyDeleteसभी सुंदर लगीं
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