चम्बा की धूप
--------
ठहरो भाई,
धूप अभी आएगी
इतने आतुर क्यों हो
आखिर यह चम्बा की धूप है-
एक पहाड़ी गाय-
आराम से आएगी.
यहीं कहीं चौगान में घास चरेगी
गद्दी महिलाओं के संग सुस्ताएगी
किलकारी भरते बच्चों के संग खेलेगी
रावी के पानी में तीर जाएगी.
और खेलकूद के बाद
यह सूरज की भूखी बिटिया
आते के पेडे लेने को
हर घर का चूल्हा चौखट चूमेगी.
और अचानक थककर
दूध बेच कर लौट रहे
गुज्जर-परिवारों के संग,
अपनी छोटी-सी पीठ पर
अँधेरे का बोझ उठाए,
उधर-
जिधर से उतरी थी
चढ़ जाएगी-
यह चम्बा की धूप-
पहाड़ी गाय.
***
मुक्ति का दस्तावेज़
----------------
मैं एक ऐसी व्यवस्था में जीता हूँ
जहाँ मुक्त ज़िंदगी की तमाम सम्भावनाएँ
सफ़ेद आतंक से भरी इमारतों के कोनों में
नन्हे खरगोशों की तरह दुबकी पड़ी हैं.
और मुक्ति के लिए छटपटाता मेरा मन-
वामपंथी राजनीति के तीन शिविरों में भटकता है
और हर शिविर से-
मुक्ति का एक दस्तावेज़ लेकर लौटता है.
और अब-
शिविर-दर-शिविर भटकने के बाद
कुछ ऐसा हो गया है
कि मुझ से मेरा बहुत-कुछ खो गया है
मसलन कई प्रिय शब्दों के अर्थ
चीज़ों के नाम
संबंधों का बोध
और कुछ-कुछ अपनी पहचान.
अब तो हर आस्था गहरे संशय को जन्म देती है
और नया विश्वास अनेकों डर जगाता है.
संशय और छोटे-छोटे डरों के बीच जूझता मैं-
जब कभी हताश हो जाता हूँ
तो न किसी शिविर की और दौड़ सकता हूँ
न ही किसी दस्तावेज़ में अर्थ भर पाता हूँ.
अब तो अपने स्नायुतंत्र में छटपटाहट ले
इस व्यवस्था पर-
केवल एक क्रूर अट्टहास कर सकता हूँ.
***
एक प्रेम कविता
------------
यह गाड़ी अमृतसर को जाएगी
तुम इसमें बैठ जाओ
मैं तो दिल्ली की गाड़ी पकडूँगा
हाँ, यदि तुम चाहो
तो मेरे साथ
दिल्ली भी चल सकती हो
मैं तुम्हें अपनी नई कविताएँ सुनाऊंगा
जिन्हें बाद में तुम
अपने दोस्तों को
लतीफ़े कहकर सुना सकती हो.
तुम कविता और लतीफ़े के फ़र्क़ को
बखूबी जानती हो.
लेकिन तुम यह भी जानती हो
कि जख्म कैसे बनाया जाता है
और नमक कहाँ लगाया जाता है
वैसे मैं, अमृतसर भी चल सकता हूँ
वहाँ की नमक मंडी का नमक मुझे खासतौर से
अच्छा लगता है.
***
पहचान
------
यह जो सड़क पर ख़ून बह रहा है
इसे सूँघकर तो देखो
और पहचानने की कोशिश करो
यह हिन्दू का है या मुसलमान का
किसी सिख का या किसी ईसाई का
किसी बहन का या भाई का.
सड़क पर इधर-उधर पड़े
पत्थरों के बीच में दबे
`टिफिन कैरियर` से
जो रोटी की गंध आ रही है
वह किस जाती की है?
क्या तुम मुझे यह सब बता सकते हो
इन रक्तसने कपड़ों, फटे जूतों, टूटी साइकिलों
किताबों और खिलौनों की कौम क्या है?
क्या तुम मुझे बता सकते हो
स्कूल से कभी न लौटने वाली
बच्ची की प्रतीक्षा में खड़ी
माँ के आँसुओं क़ धर्म क्या है
और अस्पताल में दाख़िल
जख्मियों की चीखों का मर्म क्या है?
हाँ, मैं बता सकता हूँ
यह ख़ून उस आदमी का है
जिसके टिफिन में बंद
रोटी की गंध
उस जाती की है
जो घर और दफ़्तर के बीच
साइकिल चलाते है
और जिसके सपनों की उम्र
फाइलों में बीत जाती है
ये रक्तसने कपड़े
उस आदमी के हैं
जिसके हाथ
मिलों में कपड़ा बुनते हैं
कारख़ानों में जूते बनाते हैं
खेतों में बीज डालते हैं
पुस्तकें लिखते, खिलौने बनाते हैं
और शहर की
अँधेरी सड़कों के लैंप-पोस्ट जलाते हैं
लैंप-पोस्ट तो मैं भी जला सकता हूँ
लेकिन
स्कूल से कभी न लौटने वाली बच्ची की
माँ के आँसुओं का धर्म नहीं बता सकता
जैसे
जख्मियों के घावों पर
मरहम तो लगा सकता हूँ
लेकिन उनकी चीखों का मर्म नहीं बता सकता.
***
(मशहूर कवि कुमार विकल का निधन 23 फरवरी 1997 को हुआ था. यह पोस्ट उनकी बरसी पर श्रद्धांजलि के रूप में है.)
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ठहरो भाई,
धूप अभी आएगी
इतने आतुर क्यों हो
आखिर यह चम्बा की धूप है-
एक पहाड़ी गाय-
आराम से आएगी.
यहीं कहीं चौगान में घास चरेगी
गद्दी महिलाओं के संग सुस्ताएगी
किलकारी भरते बच्चों के संग खेलेगी
रावी के पानी में तीर जाएगी.
और खेलकूद के बाद
यह सूरज की भूखी बिटिया
आते के पेडे लेने को
हर घर का चूल्हा चौखट चूमेगी.
और अचानक थककर
दूध बेच कर लौट रहे
गुज्जर-परिवारों के संग,
अपनी छोटी-सी पीठ पर
अँधेरे का बोझ उठाए,
उधर-
जिधर से उतरी थी
चढ़ जाएगी-
यह चम्बा की धूप-
पहाड़ी गाय.
***
मुक्ति का दस्तावेज़
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मैं एक ऐसी व्यवस्था में जीता हूँ
जहाँ मुक्त ज़िंदगी की तमाम सम्भावनाएँ
सफ़ेद आतंक से भरी इमारतों के कोनों में
नन्हे खरगोशों की तरह दुबकी पड़ी हैं.
और मुक्ति के लिए छटपटाता मेरा मन-
वामपंथी राजनीति के तीन शिविरों में भटकता है
और हर शिविर से-
मुक्ति का एक दस्तावेज़ लेकर लौटता है.
और अब-
शिविर-दर-शिविर भटकने के बाद
कुछ ऐसा हो गया है
कि मुझ से मेरा बहुत-कुछ खो गया है
मसलन कई प्रिय शब्दों के अर्थ
चीज़ों के नाम
संबंधों का बोध
और कुछ-कुछ अपनी पहचान.
अब तो हर आस्था गहरे संशय को जन्म देती है
और नया विश्वास अनेकों डर जगाता है.
संशय और छोटे-छोटे डरों के बीच जूझता मैं-
जब कभी हताश हो जाता हूँ
तो न किसी शिविर की और दौड़ सकता हूँ
न ही किसी दस्तावेज़ में अर्थ भर पाता हूँ.
अब तो अपने स्नायुतंत्र में छटपटाहट ले
इस व्यवस्था पर-
केवल एक क्रूर अट्टहास कर सकता हूँ.
***
एक प्रेम कविता
------------
यह गाड़ी अमृतसर को जाएगी
तुम इसमें बैठ जाओ
मैं तो दिल्ली की गाड़ी पकडूँगा
हाँ, यदि तुम चाहो
तो मेरे साथ
दिल्ली भी चल सकती हो
मैं तुम्हें अपनी नई कविताएँ सुनाऊंगा
जिन्हें बाद में तुम
अपने दोस्तों को
लतीफ़े कहकर सुना सकती हो.
तुम कविता और लतीफ़े के फ़र्क़ को
बखूबी जानती हो.
लेकिन तुम यह भी जानती हो
कि जख्म कैसे बनाया जाता है
और नमक कहाँ लगाया जाता है
वैसे मैं, अमृतसर भी चल सकता हूँ
वहाँ की नमक मंडी का नमक मुझे खासतौर से
अच्छा लगता है.
***
पहचान
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यह जो सड़क पर ख़ून बह रहा है
इसे सूँघकर तो देखो
और पहचानने की कोशिश करो
यह हिन्दू का है या मुसलमान का
किसी सिख का या किसी ईसाई का
किसी बहन का या भाई का.
सड़क पर इधर-उधर पड़े
पत्थरों के बीच में दबे
`टिफिन कैरियर` से
जो रोटी की गंध आ रही है
वह किस जाती की है?
क्या तुम मुझे यह सब बता सकते हो
इन रक्तसने कपड़ों, फटे जूतों, टूटी साइकिलों
किताबों और खिलौनों की कौम क्या है?
क्या तुम मुझे बता सकते हो
स्कूल से कभी न लौटने वाली
बच्ची की प्रतीक्षा में खड़ी
माँ के आँसुओं क़ धर्म क्या है
और अस्पताल में दाख़िल
जख्मियों की चीखों का मर्म क्या है?
हाँ, मैं बता सकता हूँ
यह ख़ून उस आदमी का है
जिसके टिफिन में बंद
रोटी की गंध
उस जाती की है
जो घर और दफ़्तर के बीच
साइकिल चलाते है
और जिसके सपनों की उम्र
फाइलों में बीत जाती है
ये रक्तसने कपड़े
उस आदमी के हैं
जिसके हाथ
मिलों में कपड़ा बुनते हैं
कारख़ानों में जूते बनाते हैं
खेतों में बीज डालते हैं
पुस्तकें लिखते, खिलौने बनाते हैं
और शहर की
अँधेरी सड़कों के लैंप-पोस्ट जलाते हैं
लैंप-पोस्ट तो मैं भी जला सकता हूँ
लेकिन
स्कूल से कभी न लौटने वाली बच्ची की
माँ के आँसुओं का धर्म नहीं बता सकता
जैसे
जख्मियों के घावों पर
मरहम तो लगा सकता हूँ
लेकिन उनकी चीखों का मर्म नहीं बता सकता.
***
(मशहूर कवि कुमार विकल का निधन 23 फरवरी 1997 को हुआ था. यह पोस्ट उनकी बरसी पर श्रद्धांजलि के रूप में है.)
साड़ी कवितायेँ बहुत अच्छी हैं... पर विशेष कर प्रेम कविता और चंबा की धूप सबसे अच्छी लगी...
ReplyDeleteshukriya deeersh is yaad k liye जो हम जैसे क्रत्घनों को शर्मिन्दा कर सके, कि उन्हीं के शहर में उन्हें बिसराए बैठे हैं।
ReplyDeleteविकल, पाश और गोरख के साथ मेरे लिये वह त्रयी बनाते हैं जिनके जैसा मैं लिखना चाहता हूं।
ReplyDeleteकवितायें बार-बार पढ़ी हुई हैं फिर भी हर बार इन्हें पढ़ना एक अलग अनुभव होता है। आज उस कवि को याद करके आपने हम सब को एक शर्म से बचा लिया।
nice....................
ReplyDeleteइस कवि का पाठ सुन कर मैंने तय किया था कि मैं भी कविता लिखूँगा. और आज भी हताश क्षणों में यही कवि मेरा संबल बनता है. ....
ReplyDeleteज़िद्दी धुन साब, ज़रा निधन का वर्ष देख लीजिए ठीक से. क्यों कि मैं चंडिगढ़ 1980 के बाद गया था.
अजेय भाई, ठीक कर दिया है. वाकई गलत हो गया था. शुक्रिया
ReplyDeleteचंबा की धूप और प्रेम कविता बड़ी सहज उतर गईं मन में
ReplyDeletebehtareen kavitaen... vikalji ko naman.. aapka shukriya.
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