
एक मेरा दिल था बेशर्म
(अभिन्न कविमित्र गिरिराज किराडू और उसके "है था हो गया था" के लिए...)
(अभिन्न कविमित्र गिरिराज किराडू और उसके "है था हो गया था" के लिए...)
है में घटने वाली चीज़ें
अब था में घटने लगी थीं
है अब भी था
पर मेरा समय कुछ गड़बड़ा गया था
मेरे भीतर
और होगा के बारे में भी मैं
था से पूछता था
गली में दो सफ़ेद से धूसर होते जाते आवारा पिल्ले
आपस में झूमकर मिलते थे
अपनी मित्रता को बचाते हुए
लगातार मोटरसाइकिल पर ही सवार रहने की आदत के कारण थोड़ी तोंद निकाले
दो छोकरे
मां-बहन की गालियों में बतियाते छिछोरपन झाड़ते थे
सूयास्त के थोड़ा पहले
एक लड़की ऊन-सलाइयां थामे पड़ोस की भाभी जी के पास जाती थी
क़स्बे में अभी फरवरी है मतलब थी
धूल कुछ और महीन और चिकनी थी
रात को तो होना था कुछ देर बाद
शायद उसी की अगवानी में हूटर बजाती
पुलिस की गश्ती जीप के साथ
एक बूढ़ी बेघर औरत नर्मदा मइया के नाम पर कुछ आटा मांगती
चली जाती थी
रास्ते पर
एक बूढ़ा बैठा साइकिल के पंचर सुधारता था
पान की दुकान पर
बंग्ला ज़र्दा पिपरमेंट चटनी-चमनबहार
जैसा कुछ होता था
रतन टाटा से बिलकुल भी न डरता हुआ
एक मैकेनिक
नैनो में विक्रम का इंजन लगाये जाने का रहस्य
गाहक के आगे
सप्रमाण खोलता था
उसे नई ली गाड़ी के भविष्य के प्रति
जितना हो सके
उतना हताश करता था
नालियों में बहता पानी
कुछ अधिक पानी था
पत्तों से टकराती खड़खड़ाती हवा
कुछ अधिक हवा थी
मन्दिर में होनेवाली आरती की तैयारी में
कुछ अधिक
आपसी राम राम थी
मन्दिर में होनेवाली आरती की तैयारी में
कुछ अधिक
आपसी राम राम थी
मैं देखता था आंखें सिकोड़
चौतरफ़ा घिरती शाम कुछ अधिक शाम थी
उसी झुटपुटे में डूबता जाता था एक मैला नंगा बच्चा
उसकी मां को एक लफंगा पटाता था
शराब पीते हुए बमुश्किल बचाए पैंतीस रुपयों के एवज़ में
``तेरेइ लाने बचाए हैं जे पइसे´´ कहता
साभिमान मांगता था कुछ समय सहवास का
बच्चे को मां कुछ देर में सड़क पर ही रुके रहने का निर्देश देती
रात के भोजन का ढाढ़स
बंधाती थी
नज़दीक ही
होनेवाले सभी था में से हो रहे सभी है को घटाता
एक मेरा दिल था बेशरम
अपने होने के ख़याल से
बेतरह धकधकाता था रह-रहकर
और पता नहीं कैसे
आनेवाले दिनों में किसी अच्छे की
लगभग अश्लील आकांक्षा से
भर जाता था ...
चित्र- पिकासो/गूगल से साभार
शिरीष भाई यह कविता मुझे कई उपन्यासों के दृश्य याद दिलाती है। किसी उदास और ग़र्म दिन की उतनी ही उदास शाम की तरह बोझिल। ऐसा लगता है दर्द की हद से गुज़र गया कोई पूरी निसंगता से दर्द की किस्सागोई कर रहा है…पता नहीं मैं जो महसूस कर रहा हूं कह भी पा रहा हूं कि नहीं।
ReplyDeleteइसे फिर-फिर पढ़ना होगा…
बड़े सारे चित्र हैं ...एक साथ ...गुंथें
ReplyDeleteकई कहानिया इक साथ समेटे हुए....
ReplyDeleteVartmaan tane-baane ko ingit karti aapki rachna kahi drashy upsthit karti hain.
ReplyDeleteBahut shubhkamnayne.
कमाल लिखा है आपने, शिरीष भैया...
ReplyDeleteबधाई!!!
कामकाज भटकाता रहा....मैं भटकता रहा. कई दिनों बाद ब्लॉग की दुनिया में आया तो आपकी यह कविता देखी जनाब शिरीष जी ......क्यों इतना दर्द ....और क्यों उसे संक्रमण की तरह इस तरह फैलाना...आपकी कविता की यह संक्रमण शक्ति बढती ही जा रही है. ....पर शायद असलियत भी यही है जीवन की....धीरे-धीरे पिछली पोस्ट भी देखूँगा.
ReplyDeleteहै था हो गया था.....
ReplyDelete'पर डरो नहीं
चूहे
आखिर
चूहे ही हैं
मानव की महिमा नष्ट नहीं कर पायेंगे
आयेंगे
अच्छे दिन जरूर आयेंगे !'
अच्छे दिनों की आकांक्षा की लगभग अश्लीलता के बावजूद .
मध्यम वर्ग की आम सी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में अपने होने का एक अदना सा एहसास भी इतना दुर्लभ है कि अश्लील हों रही है आकांक्षा खुद के होने में ...बीतती हुई .एक त्रासदी का दौर हों जैसे.कमाल लिखा है आपने
ReplyDeleteशिरीष बहुत खूबसूरत ओब्ज़र्वेशंस हैं तुम्हारे । और यह केवल द्रश्य नहीं हैं । कवि सिर्फ दिखाता नहीं है इसलिये कवि के विज़न के साथ जुड़ना ज़रूरी होता है ।
ReplyDeleteअश्लील आकांक्षाओं वाले टेक सही, सही हैं.
ReplyDeleteकविता के लिए बधाई।
ReplyDeleteउफ़्फ़्फ़्फ़...इतने सारे बिम्ब हमारे समस्त यथार्थों को आपस में गुत्थम-गुत्था किये।
ReplyDeleteकविता यकीनन बहुत अच्छी है, लेकिन डराती है कि हम कैसे समय में जी रहे हैं।
गिरिराज की "है था..." पढ़नी पड़ेगी।
maharaaj,,,abhi aapki kavita pdi..poetic sense k sath wit shayd isi ko kahte hain.....
ReplyDelete".........kuch adhik aapsi ram-ram thi"_____is line ko shayd M.P.ka paani hi likha sakta tha..
किराडू जी ki ''प्रतिलिपि ''से तो परिचित हूँ पर ........उनके कवि से साक्षात आज हुआ ...सुखद लगा ,कविता एक सुन्दर कोलाज बनाती है और कहन का नयापन पढने की ललक बढाता है .
ReplyDeleteहाँ , ऐसी कुछ कविता शिरीष !
ReplyDeleteऐसी ही कुछ और.
Achchhi kavita hai, carry on!
ReplyDeleteभीतर के घाव से रक्त बहता हो
ReplyDeleteकोई दिल दर्द चुपचाप सहता हो
बाहर का समाज समूचा ढहता हो
और उसकी दास्तान कवि कहता हो
........तो यह कवि निश्चित रूप से आप हैं शिरीष जी.
बहुत दिन बाद नेट पर आई और आते ही ऐसी कविता पढ़ पाई.
बहुत अच्छी कविता सचमुच
ReplyDeleteवाह तेरेई लाने बचाये बचाये हैं जे पैसे कितना उनउघड़ा सच नंगा हो गया।
ReplyDeleteकविता झंझोड़ के रख देती है।
बहुत सुन्दर बधाई।
कवि व् प्रस्तोता दोनों को
शुक्रिया इस सच से रूबरू कराने का