Monday, December 27, 2010

बग़ावत पर उतरा ईश्वर - फ़रोग फ़रोख्जाद

चयन, अनुवाद और प्रस्तुति - यादवेन्द्र
यदि मैं ईश्वर होती तो एक रात फरिश्तों को बुलाती
और हुक्म देती कि गोल सूरज को लुढका कर ले जाएँ
और झोंक दें अँधेरे की जलती हुई भट्ठी में
गुस्से से लाल पीली होती, स्वर्ग के तमाम मालियों को एक लाइन में खड़ा कर देती
और फ़रमान जारी करती कि रात की टहनी से फ़ौरन छाँट कर अलग कर दें
वे चन्द्रमा की पीली पीली बुढ़ाती पत्तियां....

स्वर्ग के राजमहल के आधी रात परदे चीरती
और अपनी बेचैन उँगलियों से दुनिया को उलट पुलट देती
हजारों साल की निष्क्रियता से सुन्न पड़े हाथ उठाती
और सारे पहाड़ों को एक एक कर ठूंस देती
महासागर के खुले मुंह के अंदर...

ज्वर से तपते हजारों सितारों को बंधन खोल कर मुक्त कर देती
जंगल की गूंगी शिराओं में प्रवाहित कर देती अग्नि का रक्त
सदियों से किसी नम देह पर फिसलने को आतुर
रात्रि के आकाश को मैं लेप देती
दलदली धरती की मरणासन्न छाती पर....

प्यार से मैं हवा को गुहार लगाती और कहती
कि रात की नदियों में उन्मुक्त छोड़ दें पुष्पगंधी नौकाएं
मैं कब्रों के मुंह खोल देती और
अनगिनत रूहों से गुजारिश करती
कि चुन कर अपने लिए पसंद के जिन्दा बदन
वे एक बार फिर जीवन का आनंद लें...

यदि मैं ईश्वर होती तो एक रात फरिश्तों को बुलाती
कहती नरक के कडाहे में वे उबालें चिरंतन जीवन का जल
फिर मशालें ले कर खदेड़ डालें उन पवित्र मवेशियों के झुण्ड
जो खा खा कर नष्ट किये जा रहे हैं
स्वर्ग की हरी भरी चरागाहें...

मैं पर्दानशीं छुईमुई बने बने थक गयी हूँ
अब आधी रात को ढूंढ़ रही हूँ शैतान का बिस्तर
क़ानूनी बंदिशें अब छोडूंगी नहीं कोई सलामत
चाहे गहरे फिसल क्यों न जाऊं चिकनी ढलान पर
मैं हंसते हंसते उछाल कर परे फेंक दूंगी
ईश्वरीय वरदान का ये स्वर्णिम राजमुकुट
और बदले में दौड़ कर भींच लूंगी
काला दमघोंटू आलिंगन
गुनाह का.
***

Tuesday, December 21, 2010

महेश वर्मा की कविताएँ


हिसाब

ब्लेड से पेंसिल छीलते में
एक पूर्ण विराम भर कट सकती है उंगली
लेकिन अश्लील होता
बिल्कुल सफ़ेद काग़ज़ पर गिरना
अनुस्वार भर भी
रक्त की बूँद का।

नहीं आ पाई थी कोई भी ऐसी बात
कि उँगली से ही लिख दी जाती-
लाल अक्षरों में

उत्तापहीन हो चला था इतिहास,
सिर्फ़ हवाओं की साँय-साँय सुनाई देती थी
कविताओं के खोखल से

सिर्फ़ प्रेम ही लिख देने भर भी
ऊष्म नहीं बचे थे ह्रदय, तब
प्रेमपत्रों को कौन पढ़ता ?

बचती थी केवल प्रतीक्षा ज़ख्म सूखने की
कि पेंसिल छीलकर लिखा जा सके-
हिसाब।
***

एक जगह

उदासी एक जगह है जैसे कि यह शाम
जहां अक्सर मैं छूट जाता हूं।
मुश्किल है बाहर का कुछ देखना-सुनना।

उदासी की बात सुनकर
दोस्त बताते हैं नज़दीक के झरनों के पते
जहां बीने जा सकते हैं पारिवारिक किस्म के सुख।

पता नहीं यह अंधेरा है,
या नींद,
या सपना,
जिसपर,
गिरती रहती है झरने सी उदासी।

मेरी हर यांत्रिक चालाकी के विरूद्ध
मेरी अनिद्रा, मेरा प्रत्युत्तर है मुझको इस समय।
और एक जगह है यह अनिद्रा भी, जिसके भीतर सोकर,
नींद भूल गई हो बाहर का संसार।

पत्थर हो चुके इसको खोजने निकले राजकुमार।
***


भाषा

मैं अपनी धूल हटाता हूं
कि देखो वहां पड़े हुए हैं कुछ शब्द।
मेरे होने की संकेत लिपि से बेहतर,
विकसित भाषा के शब्द ये-
शायद इनसे लिखा जा सके निशब्द।

***

Tuesday, December 14, 2010

गिरिराज किराडू की नई कविताएँ....

मेरे प्रिय कवि गिरिराज किराडू की ये नई कविताएँ कई वजहों से महत्वपूर्ण हैं। पहली बात ये कि इनमें से पहली को लोक गायकों से एक सीधा और गहरा रिश्ता रखते हुए लिखा गया है- रिश्ता जो पहले से रहा है लेकिन उसकी शिनाख्त इधर की कविता में लगातार कम होती गई है.....वह लोक परंपरा ही है जिसे नामवर सिंह साहित्य की असली परंपरा मानते हैं। गिरिराज ने इस अद्भुत सम्बन्ध को फिर से पूरी आत्मीयता के साथ खोजा है। दूसरी बात, जिस पर तुरत ध्यान जाता है, वो ये कि यह कविता मीर-ए-आलमों और सृष्टिदास बाउल के लिये, सर झुकाते हुए लिखी गई हैं। गिरिराज ने उस रिश्ते में शामिल सम्मान के ज़रूरी बोध को पूरी शिद्दत और प्यार से याद रखा है। उन फकीरों-प्रेमियों के आगे हमारा कागज़ी कविता व्यवहार अक्सर बेमानी ही साबित होता आया है। मुझे ख़ुशी है कि ऐसे प्रेमी-फ़कीर हमारे क्रूर और किसी हद तक संवेदनशून्य समाज में जिस शान से जीते-रहते-गाते आये हैं, उस पीर, टीस और उदात्तता को गिरिराज ने अपनी पहली और प्रकारांतर से आगे की कविताओं में भी उतनी ही शान से बचाया-रचाया है। मैं कवि को इस सबके लिए सलाम पेश करता हूँ ....पिटा हुआ वाक्य कवि की एक पुरानी कविता है जो अनुनाद पर ही छपी है..... जिसका यह विस्तार है.... गौर करने की बात है कि पहली कविता में आये आत्मा के खंडहर का विस्तार पिटे हुए वाक्य तक पहुँचा है तो यूँ नहीं....बाक़ी आप पढ़ें और अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें रोशनी दें।

(नोटः टूरियाँ टूरियाँ जा... पश्चिमी राजस्थान के मीर संगीतकारों द्वारा गायी जाने वाली बाबा फरीद की एक रचना है. अपने को सूफीमत से जोड़ने वाले ये संगीतकार मुख्यतः बाबा फरीद, कबीर और मीरां को गाते हैं. नज़्रे खाँ जिस वाद्य मश्क को बजाते हैं वह कुछ कुछ बैगपाइपरों के वाद्य जैसा होता है लेकिन उससे बहुत अलग भी. सृष्टिदास बाउल एक बाउल गायक हैं जिन्हें सुनने का सौभाग्य मुझे उसी शाम मिला जिस शाम मीर-ए-आलम भी गा रहे थे. पिटा हुआ वाक्यः 1 को अनुनाद पर यहाँ पढ़ा जा सकता है.- कवि)

टूरियाँ टूरियाँ जा फरीदा टूरियाँ टूरियाँ जा
(मीर-ए-आलमों और सृष्टिदास बाउल के लिये, सर झुकाते हुए)



अजनबी गाँव था शाम घिर रही थी वह अपना बोरिया बिस्तर समेटने को था कुछ और नहीं अपने उस वक्त इस दुनिया में किसी तरह होने की ज्यादती इस कदर घेरे थी कि जब अचानक गाने लगे सृष्टिदास बाउल नदिया गाँव वाले तो लगा पास होती एक बंदूक और दाग देता हवा में निकाल देता सब अकड़ कलाकारी की – क्यूँ नहीं चुप बैठ जाते ये ऊटपटांग लोग कुछ नहीं कर सकती यह सारी कलाकारी किसी के बिगड़े हिसाब किताब का किसी की आत्मा के खंडहर का

उधर उसके हिसाब किताब से बिल्कुल बेपरवाह आँखें मुँद गई सृष्टिदास बाउल की रोने लगे जार जार और पीछे कहीं अपनी मश्क के सुर कसते दिखे नज़्रे खाँ –

रहो बरबाद गाओ फरीद करो तमाशा मरो अकड़ में मुझे बख़्शो बख़्शो मेरा बोरिया मैं चला टूरियाँ टूरियाँ
***

अपने कहे से बिंधे एक ख़ाक़सार का नग़्मा जिसने कभी कहे थे कुछ अलफ़ाज दहाड़ते हुए और तब से भूला हुआ है खुद को

इसे कहकर भूल जाना कहकर भेज दिया तुमने वह शब्द कहने के लिये प्रलय बन गये जो साँस की तरह पराये उन विधर्मियों के लिये

भूल गये वे अलफ़ाज काफ़िर भूल गये उस कहर को भी जो बरपा उन पर

लेकिन मुझे नहीं भूले वो अलफ़ाज एक दूसरा मानी बना दिया जिन्हें हमेशा के लिये मैंने कभी गिरेंगे वे कहर बनकर ही मेरे कबीले पर –

क्या उन शब्दों को है ये पता एक दूसरा ही मनुष्य बना दिया उन्होंने मुझे?
***

पिटा हुआ वाक्यः दो

शायद से शुरू हुआ हर वाक्य किसी धोखे या धुंधलके में शुरू होता है और किसी बेहया उम्मीद पर खत्म इसे अनुभव से जान कर भी लिखता हूँ शायद यह हो गया है कि हम वही नहीं हैं

अब अगर किसी अनजान उजाड़ पॉर्क में फैल जाये मेरे हाथ उसी तरह तो उन पर लिखा संदेसा तुम नहीं पढ़ पाओ या मैं उन्हें और करीब से देखूँ और वहाँ कोई संदेसा नहीं सिर्फ हाथ ही मिलें मुझे, हवा में कोई खँडहर थामे

यह लिख कर मैं शुरूआत की तरफ ताकता हूँ
वहाँ एक शायद है एक खँडहर है और एक प्रेमः यह धोखा है
वहाँ एक शायद है फैले हुए हाथ हैं और एक हरकत आँखों में: यह धुंधलका है

अंधेरा हो रहा है पॉर्क की तरह यहाँ से पुलिस खदेड़ नहीं देगी यह हमारा घर है हमारा राज्य जहाँ हम ही नष्ट कर रहे एक दूसरे को हाथों को फैल जाने दो आँखों को एक संदेसा पढ़ने दो: यह उम्मीद है, बेहया

क्या यह जीवन में भी बहुत पिटा हुआ एक वाक्य लगेगा:
हमें खुद को एक मौका देना चाहिये
***

Sunday, December 5, 2010

तिन मोए : चयन अनुवाद एवं प्रस्तुति यादवेन्द्र

तिन मोए (1933 -2007 )बर्मा(अब म्यांमार) के राष्ट्रकवि माने जाते हैं,हांलाकि सरकारी तौर पर उन्हें यह पदवी नहीं दी गयी। ऊपरी बर्मा के एक गाँव में मौंग बा ग्यान के नाम से जन्मे कवि ने शुरुआती शिक्षा एक स्थानीय बौद्ध मठ में प्राप्त की,फिर बर्मी साहित्य की शिक्षा मांडले विश्वविद्यालय में ली। सत्रह बरस में उनकी कवितायेँ छपने लगीं पर पहला संकलन 1959 में छपा और पुरस्कृत हुआ। उन्होंने बच्चों के लिए भी प्रचुर साहित्य लिखा और उनकी कवितायेँ स्कूलों में पढाई जाती रही हैं पर सैनिक तानाशाहों के मुखर विरोध के कारण उनकी कविताओं पर पाबन्दी लगा दी गयी...यहाँ तक की शासन ने उनकी पूर्व प्रकाशित किताबों के पुनर्प्रकाशन पर भी रोक लगा दी। कविताओं के साथ साथ देश की राजनैतिक स्थितियों पर वे खूब मुखर रहे।1988 के लोकतंत्र बहाली के आन्दोलन का उन्होंने खुल कर समर्थन किया..आंग सान सू ची के और उनकी पार्टी के वे सलाहकार अंत तक बने रहे। नतीजा ये हुआ कि देश का सबसे लोकप्रिय कवि होने के बावजूद तिन मोए को चार साल की कैद की सजा दी गयी। अपनी काल कोठरी में उन्हें दीवार पर किसी पूर्ववर्ती कैदी द्वारा कालिख से लिखी अपनी ही कविता दिखी तो उन्हें जनता के बीच अपनी लोकप्रियता का आभास हुआ। 30 से ज्यादा पुस्तकों के रचयिता को सैनिक तानाशाही से तंग आ कर 1999 में अपना देश छोड़ना पड़ा। अपने पचास साल लम्बे रचनात्मक जीवन में उन्हें अनेक राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर के सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए। अंत तक अपने देश लौटने की आस लिए कवि ने अपनी बेटी के घर अमेरिका में जनवरी 2007 में आखिरी साँस ली। बर्मा की सैनिक तानाशाही को उनसे इतना खतरा महसूस होता था की देश के किसी अख़बार या पत्रिका में उनके लिए श्रद्धांजलि नहीं प्रकाशित करने दी। यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कवितायेँ: राह गुम नहीं हुई

यदि सूरज न भी उगे
कोई बात नहीं
धवल स्निग्ध चन्द्रमा तो है
चमकने के लिए...

यदि चन्द्रमा अपना प्रकाश न भी बिखेरे
कोई बात नहीं
बहुतेरे हैं आकाश में सितारे
प्रकाश बिखेरने के लिए...

यदि चन्द्रमा न भी चमके
और सितारों की प्रभा मलिन पड़ जाये
हम तैयार कर लेंगे दीप
घर के प्रवेश द्वार पर लगाने को
सब कुछ के बाद भी
होनी ही होगी वहां रौशनी.
(मिनट जान के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित)***

ख्वाहिशों की कैद

एक चिकनी चुपड़ी मकड़ी मंच पर सबके सामने
बुने जा रही थी सुन्दर लुभावना जाल
सुनहरे भूल भुलैय्या सा आड़ा तिरछा...
एक अभागी मक्खी जा कर फंस गयी उसमें
लाख फडफडाने पर भी निकल नहीं पाई बाहर
आँखों के ऊपर रेशों की परतें
और टांगें फंसी हुई
पिद्दी सी मक्खी वहीँ फंसी रह गयी
चालाकी से बुने हुए फन्दों के बीच....
यह मक्खी का अंतिम समर्पण था
ख्वाहिशों के अंधकूप के सामने.
(मे न्ग के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित)***

मेहमान
सिगार तो कब की बुझ चुकी
सूरज भी धुंधला पड़ गया
क्या यहाँ अब भी कोई है
जो ले जाये मुझे मेरे घर??
***

Thursday, December 2, 2010

निज़ार कब्बानी की एक कविता - अनुवाद एवं प्रस्तुति : मनोज पटेल

ख़ुदा से सवाल



मेरे ख़ुदा !
यह क्या वशीभूत कर लेता है हमें प्यार में ?
क्या घटता है हमारे भीतर बहुत गहरे ?
और टूट जाती है भीतर कौन सी चीज भला ?
कैसे वापस पहुँच जाते हैं हम बचपन में जब करते होते हैं प्यार ?
एक बूँद केवल कैसे बन जाती है समंदर
और लम्बे हो जाते हैं पेड़ ताड़ के
और मीठा हो जाता है समंदर का पानी
आखिर कैसे सूरज हो जाता है कीमती कंगन एक हीरे का
जब प्यार करते हैं हम ?

मेरे ख़ुदा :
जब प्यार होता है अचानक
कौन सी चीज छोड़ देते हैं हम ?
पैदा होता है क्या हमारे भीतर ?
कमसिन बच्चों से क्यों हो जाते हैं हम
भोले और मासूम ?
और ऐसा क्यों होता है कि जब हंसता है हमारा महबूब
दुनिया बरसाती है यास्मीन हम पर
क्यों होता है ऐसा कि जब रोती है वह
सर रखके हमारे घुटनों पर
उदास चिड़िया सी हो उठती है दुनिया सारी ?

मेरे ख़ुदा :
क्या कहा जाता है इस प्यार को जिसने सदियों से
मारा है लोगों को, जीता है किलों को
ताकतवर को किया है विवश
और पिघलाया किया है निरीह और भोले को ?
कैसे जुल्फें अपनी महबूबा की
बिस्तर बन जाती हैं सोने का
और होंठ उसके मदिरा और अंगूर ?
कैसे हम चलते हैं आग में
और मजे लेते हैं शोलों का ?
कैदी कैसे बन जाते हैं जब प्यार करते हैं हम
गोकि विजयी बादशाह ही रहे हों क्यों न ?
क्या कहेंगे उस प्यार को जो धंसता है हमारे भीतर
खंजर की तरह ?
क्या सरदर्द है यह ?
या फिर पागलपन ?
कैसे होता है यह कि एक पल के अंतराल में
यह दुनिया बन जाती है एक मरु उद्यान.... प्यारा एक नाजुक सा कोना
जब प्यार करते हैं हम ?

मेरे ख़ुदा :
कहाँ बिला जाती है हमारी सूझ-बूझ ?
हो क्या जाता है हमें ?
ख्वाहिशों के पल कैसे बदल जाते हैं सालों में
और अवश्यम्भावी कैसे हो उठता है एक छलावा प्यार में ?
कैसे जुदा हो जाते हैं साल से हफ्ते ?
मिटा कैसे देता है प्यार मौसमों के भेद ?
कि गर्मी पड़ती है सर्दियों में
और आसमान के बागों में खिलते हैं फूल गुलाब के
जब प्यार करते हैं हम ?

मेरे ख़ुदा :
प्यार के सामने कैसे कर देते हैं हम समर्पण,
सौंप देते हैं इसे चाभी अपने शरण स्थल की
शमां ले जाते हैं इस तक और खुशबू जाफ़रान की
कैसे होता है यह कि गिर पड़ते हैं इसके पैरों पर मांगते हुए माफी
क्यों होना चाहते हैं हम दाखिल इसके इलाके में
हवाले करते हुए खुद को उन सब चीजों के
जो यह करता है साथ हमारे
सबकुछ जो यह करता है.

मेरे ख़ुदा :
अगर हो तुम सचमुच में ख़ुदा
तो रहने दो हमें प्रेमी
हमेशा के लिए.
***

तुमसे प्रेम करने के बाद

(1943 में जन्मी निकी जियोवानी अफ्रीकी मूल की अमरीकी कवयित्री हैं, इनकी कविताओं में नस्लीय गौरव और प्रेम की झलक है। निकी वर्जीनिया में अंग्रेज़ी की प्रोफेसर हैं और नागरिक अधिकारों के लिए समर्पित हैं)

1)
ब्रह्माण्ड के छोर पर
लटकी हूं मैं,
बेसुर गाती हुई,
चीखकर बोलती,
ख़ुद में सिमटी
ताकि गिरने पर न लगे चोट।
मुझे गिर जाना चाहिए
गहरे अंतरिक्ष में,
आकार से मुक्त और
इस सोच से भी कि
लौटूंगी धरती पर कभी।
दुखदायी नहीं है यह।
चक्कर काटती रहूंगी मैं
उस ब्लैक होल में,
खो दूंगी शरीर, अंग
तेज़ी से..
आज़ाद रूह भी अपनी।
अगली आकाशगंगा में
उतरूंगी मैं
अपना वजूद लिए,
लगी हुई ख़ुद के ही गले,
क्योंकि..
मैं तुम्हारे सपने देखती हूं।

2)
ख़ूबसूरत ऑमलेट लिखा मैंने,
खाई एक गरम कविता,
तुमसे प्रेम करने के बाद।
गाड़ी के बटन लगाए,
कोट चलाकर मैं
घर पहुंची बारिश में..
तुमसे प्रेम करने के बाद।
लाल बत्ती पर चलती रही,
रुक गई हरी होते ही,
झूलती रही बीच में कहीं..
यहां कभी, वहां भी,
तुमसे प्रेम करने के बाद।
समेट लिया बिस्तर मैंने,
बिछा दिए अपने बाल,
कुछ तो गड़बड़ है...
लेकिन मुझे नहीं परवाह।
उतारकर रख दिए दाँत,
गाउन से किए गरारे,
फिर खड़ी हुई मैं
और
लिटा लिया ख़ुद को,
सोने के लिए..
तुमसे प्रेम करने के बाद।

अनुवाद- माधवी शर्मा गुलेरी




Thursday, November 25, 2010

विकी फीवर की दो कविताएँ - चयन, अनुवाद और प्रस्तुति: यादवेन्द्र

1943 में जनमी विकी फीवर अंग्रेजी में लिखने वाली स्कॉट्लैंड की प्रमुख कवि हैं,जिन्हें स्त्री विषयक कविताओं के लिए जाना जाता है।हांलाकि लम्बे रचना काल में उन्होंने तीन कविता संग्रह ही प्रकाशित किये पर अनेक महत्वपूर्ण प्रतिनिधि कविता संचयनों में उनकी कवितायेँ शामिल की गयी हैं।विश्वविद्यालय में सृजनात्मक साहित्य पढ़ाने के दौरान उन्होंने साहित्यिक रचना प्रक्रिया और बीसवीं सदी की स्त्री कवियों पर महत्वपूर्ण निबंध भी लिखे हैं। यहाँ प्रस्तुत है विकी फीवर की दो छोटी प्रेम कवितायेँ..

छतरी

एक छतरी में साथ चलते हुए
थामना पड़ता है एक दूसरे को हमें
कमर के चारों ओर
जिस से कि साथ बना रहे...
तुम चकित हुए जा रहे हो
कि आखिर क्यों मुस्कुरा रही हूँ मैं...
सीधी सी वजह ये कि सोच रही हूँ
बारिश होती रहे यूँ ही
उम्र भर के लिए.
***

कोट

कई बार मेरी इच्छा होती है
तुम्हें वैसे ही परे झटक दूँ
जैसा किया करती हूँ मैं
भारी भरकम से कोट के साथ.
कभी कभी मैं खीझ के कह भी देती हूँ
तुम मुझे बिलकुल उस तरह से ढांप लेते हो
कि मैं सांस नहीं ले पाती
और न ही हिलना डुलना होता है मुमकिन.
पर जब मुझे मिल जाती है आज़ादी
हल्का फुल्का कपडा पहनने की
या बिलकुल ही निर्वस्त्र होने की
लगने लगती है ऐसे में मुझे ठण्ड
और मैं सोचने लगती हूँ लगातार
कि कितना गर्म होता था कोट.
***

Friday, November 19, 2010

राजेश सकलानी की एक कविता

राजेश सकलानी अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उम्र के लिहाज से देखें तो कुमार अम्बुज, लाल्टू, एकांत श्रीवास्तव, कात्यायनी के समकालीन बैठेंगे। हालाँकि वे उतने सक्रिय नहीं रहे और न ही उन पर पर्याप्त चर्चा हुई। उनका एक संग्रह "सुनता हूँ पानी गिरने की आवाज़" प्रकाशित है पर उपलब्ध नहीं। मुझे इसकी एक प्रति अशोक पांडे के अनुग्रह से प्राप्त हुई है। मैं इस संग्रह पर लिख भी रहा हूँ। जल्द ही अनुनाद पर राजेश जी की कुछ और कविताएँ और अपना लिखा उपलब्ध कराऊंगा। अभी प्रस्तुत है उनकी एक कविता।
उस सन तक आते हिंदी फ़िल्मों का नायक
करूणा और प्रेम का संगीत लेकर कहीं
ग़ुम हो गया

गल्ली मोहल्ले से गुज़रते उसका स्वर
रेडिओ पर सुनाई पड़ जाता

हमारा ध्यान बँटा कई चीज़ें अब
हमारे साथ नहीं हैं

ख़ास चीज़ों में दोपहरों में
सुरीलापन नहीं लगता

नगर में किसी फ़िल्म की हवा रहती
उसकी कथाओं से हम समाज में
सम्बंधित रहते
कोई गुनगुनाता कोई धुन लेकर
आगे बढ़ जाता
गाते सब मिलकर एक ही गाना

जाना मिलकर रोना हाल के अँधेरे में
हमारे कालेज का स्टंट नायक घूसों से
दुश्मन का मुंह सुजा देता
पर वह किसी को मार डालना नहीं चाहता था
पापियों के चेहरों के बारे में कई किंवदंतियाँ
रहतीं
सेंसरबोर्ड खलनायक से पराजित नहीं होता

किन्हीं दिनों का गीत गूंजता है
किसी वर्ष की साँसे
क़रीब आती हैं।
***

Wednesday, November 17, 2010

अशोक कुमार पांडे की नई कविता



मैं बेहद परेशान हूं इन दिनों
पलट डाले आलमारी में सजे सारे शब्दकोश
कितनी ही ग़ज़लों के नीचे दिये शब्दार्थ
गूगल की उस सर्वज्ञानी बार को खंगाला कितनी ही बार
अगल-बगल कितने ही लोगों से पूछ लिया बातों ही बातों में
पर यह शब्द है कि सुलझता ही नहीं

कितना सामान्य सा तो यह आमंत्रण
बस जहां होते हैं मंत्र वहां शायद अरबी में लिखा कुछ
और भी सब वैसे ही जैसे होता है अकसर
नीचे की पंक्तियों में झलक रहे कुछ व्यंजन लज़ीज़
पर इन जाने-पहचाने शब्दों के बीच वह शब्द एक ‘अबूझ’

कई दिनों बाद आज इतने याद आये बाबा
कहीं किसी विस्मृत से कोने में रखी उनकी डायरी
पाँच बेटों और पन्द्रह नाती-नतनियों में कोई नहीं जानता वह भाषा
धार्मिक ग्रंथों सी रखी कहीं धूल खाती अनछुई
होते तो पूछ ही लेता कि क्या बला है यह प्रसंग
निकाह और ख़तने के अलावा हम तो जानते ही नहीं उनकी कोई रस्म
बस इतना कि ईद में मिलती हैं सिवईंयां और बकरीद में गोश्त शानदार
इसके आगे तो सोचा ही नहीं कभी
लौट आये हर बार बस
बैठकों के जाने कितने ऐसे रहस्य उन पर्दों के पार

अभी भी तो चिन्ता यही कि न जाने यह अवसर ख़ुशी का कि दुःख का
पता नहीं कहना होगा- मुबारक़ या बस बैठ जाना होगा चुपचाप!
***

Monday, November 15, 2010

कुमार अम्बुज की डायरी




.१०.२००२

उर्वर कविताओं के अनेक डिम्ब बिखरे हैं सब तरफ़

जिज्ञासु, आतुर और श्रमशील पाठक की समझ के गतिमान शुक्राणु उसे भेद पाते हैं। बाक़ी उनसे निष्फल रूप से टकराते हैं और नष्ट होते चले जाते हैं। जो प्रवेश कर लेते हैं, उनसे मिलकर एक नया संसार बनता जाता है।

यह कला के साथ समागम है। यह संसार आपसी सर्जनात्मकता का संसार है। संवेदना और कला का जनित संसार है। यह कला का सामाजिक संसार भी है।

यह अंततः प्रेम का प्रतिफलन है।

यह छोटा-सा सुन्दर संसार अकेले कवि की पैदाइश नहीं है।
***
एक रात : १२.५० पर
(अपमानित किये जाने के क्षण के अनुभव में)

तुम चुप रहो और लिखो। अपनी बेचैनी, घबराहट, असहायता से पैदा होने वाली उम्मीद, रोज़मर्रा की चोटों, अपनी पराजयों और दिए जाने वाले धोखों को याद रखो। और लिखो। रचनाशीलता ही सबसे कठोर और निर्णायक प्रतिक्रिया है, सबसे अच्छा उत्तर। वे लोग तुम्हारे साथ हमेशा रहेंगे जो कविताएँ पढ़कर, बेचैन होकर टहलते हैं। जिनमें से अधिकांश तुमसे कभी कोई वार्तालाप नहीं कर पाते। कभी कभी जो तुम्हें कुछ शब्दों में टूटी-फूटी बातें बताते हैं। जो संख्या में बहुत कम हैं लेकिन जो तुम्हारे सामने एक व्यापक संसार के साथ प्रस्तुत हो जाते हैं। विश्वास करो, इस विशाल आकाश के नीचे यदि तुम अपने वजूद के साथ आते हो तो तुम्हारी परछाई भी एक जगह घेरती है। यह किसी की अनुकम्पा नहीं है, प्राकृतिक नियम ही है। यह अलग बात है कि यदि तुम तीतर हो, मोर हो, हिरन हो या शेर भी हो, तब भी तुम पर कुछ लोग निशाना लगायेंगे ही।

लेकिन यह भी विश्वास करो कि तुम एक जीवित, स्पंदित व्यक्ति की तरह जीवन के सामने खड़े हो, किसी रेत के ढेर की तरह हवाएं तुम्हें उड़ा कर नहीं ले जा सकतीं।
***
कथादेश, अक्टूबर २०१० से साभार।

Saturday, November 13, 2010

असद ज़ैदी की कविता


खाना पकाना

नानी ने जाने से एक रोज़ पहले कहा -
सच बात तो यह है कि मुझे कभी
खाना पकाना नहीं आया

उसकी मृत्युशैया के इर्दगिर्द जमा थे
कुनबे के बहुत से फर्द - ज़्यादातर औरतें ढेरों बच्चे -
सुनकर सब हंसने लगे
और हँसते रहे जब तक कि उस सामूहिक हंसी का उजाला
कोठरी से उसारे फिर आँगन में फैलता हुआ
दहलीज़ के रास्ते बाहर न आ गया
और कुछ देर तक बना रहा

याददाश्त धोखे भरी दूरबीन से
मुझे दिखती है नानी की अधमुंदी आँखें, तीसरे पहर का वक़्त
होठों पर कत्थे की लकीरें और एक
जानी पहचानी रहस्यमय मुस्कान

मामला जानने के लिए अन्दर आते कुछ हैरान और परेशान
मेरे मामू मेरे पिता

रसोई से आ रहा था फर - फर धुंआ
और बड़ी फूफी की आवाज़ जो उस दिन रोज़े से थीं
अरे मुबीना ज़रा कबूली में नमक चख कर बताना

वे सब अब नदारद हैं

मैंने एक उम्र गुज़ार डी लिखते
काटते मिटाते बनाते फाड़ते चिपकाते
जो लिबास पहनता हूँ लगता है आख़िरी लिबास है
लेटता हूँ तो कहने के लिए नहीं होता
कोई एक वाक्य
अँधेरे में भी आकर नहीं जुटता एक बावला कुनबा
वह चमकीली हंसी वैसा शुद्ध उल्लास !
***
आभार - पब्लिक एजेंडा

Wednesday, November 10, 2010

नरेन्द्र जैन की तीन कविताएँ

पब्लिक एजेंडा के साहित्य विशेष से मैंने पिछली पोस्ट में राजेश जोशी की कविता लगाई थी. इस बार अग्रज कवि-अनुवादक नरेन्द्र जैन की तीन कविताएँ ....पिछली बार की तरह इस बार भी कार्यकारी संपादक , साहित्य संपादक और कवि के प्रति आभार के साथ. नरेन्द्र जैन का महत्वपूर्ण नया संग्रह "काला सफ़ेद में प्रविष्ट होता है" अभी आया है, जिसकी आवरण छवि यहाँ प्रस्तुत है।


वाद्य संगीत सुनते हुए

सुनते हुए बहुत से वाद्यों का मिला-जुला स्वर
वह गीत सहसा याद आ जाता है
जिसे वाद्य बजा रहे होते हैं

हम सुनते हैं संगीत
और गीत के बोल याद करते हैं

कभी-कभी हमें बोल याद नहीं आ पाते
लेकिन संगीत बजता रहता है

हम संगीत को सुनते हुए
उन बोलों को दोहराते हैं
जिन्हें लिखा होगा किसी ने
अपनी पस्ती के आलम में


अब हमारी पस्ती का आलम है
और यह संगीत है
जहाँ हमें अपने बोल याद नहीं आ पाते
लेकिन समूचा संगीत केन्द्रित हुआ करता है
उसी विस्मृति पर
***

स्थगित यात्रा

स्थगित यात्रा के बाहर
ज़मीं पर पड़े हैं दो जूते
कालातीत वहाँ कुछ भी नहीं
न ज़मीन
न आकाश
न स्मृतियाँ
न यात्रा
दो पैरों के ठहर जाने से
काल ठहर गया है
धुरी से कहीं भटक गई है पृथ्वी

कहीं जाने के लिए यात्रा ज़रूरी नहीं
कहीं से लौटने के लिए भी यात्रा ज़रूरी नहीं
किसी यायावर का कथन है
यात्रा का एक दिन
यात्रा के बाहर के एक बरस के बराबर होता है

जूते तत्पर हैं
कोई आये
और निकल पड़े एकाएक यात्रा पर.
***

नदी

जब नदी के ऊपर से गुज़री हमारी रेल
सहसा बहुत से यात्रियों ने अपने कानों को छुआ
और नदी की ओर देख हाथ जोड़े
एक थके-हारे यात्री ने आह भरी और
नदी की ओर देख बुदबुदाया
हे माँ रक्षा करना

नदी सबसे बेख़बर
वेग से बही जा रही थी

किसी की स्मृति में नदी का तट कौंध रहा था
कोई याद कर रहा था अपनी ज़मीन
किसी यात्री ने खिड़की से फेंका एक सिक्का
जो लोहे के पुल से टकराकर जा गिरा नदी में

लम्बे पुल पर
जब तक दौड़ती रही रेल
यात्रियों के ज़ेहन में वह नदी बहती ही रही

जैसे ही पुल ख़त्म हुआ
खिड़की पर बैठे लड़के ने
प्रसन्न भाव से हिलाए हाथ और नदी से विदा ली

नदी उसके लिए
ईश्वर नहीं किसी दोस्त का पर्याय रही होगी!
***

Tuesday, November 9, 2010

राजेश जोशी की एक कविता

राजेश जोशी अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक चर्चित कवि हैं। साधारण लोगों से जुड़ी कई असाधारण और महत्वपूर्ण कविताएँ उन्होंने लिखी हैं। अभी पब्लिक एजेंडा की साहित्य अंक में उनकी एक कविता मैंने पढ़ी और आपके पढने के लिए यहाँ लगा रहा हूँ। इस पोस्ट के लिए मैं पत्रिका के कार्यकारी संपादक मंगलेश डबराल, साहित्य संपादक मदन कश्यप और कवि का आभारी हूँ। इस अंक से और भी कविताएँ मैं अनुनाद पर आपके लिए लाऊंगा।

बिजली का मीटर पढ़ने वाले से बातचीत

बाहर का दरवाज़ा खोल कर दाखिल होता है
बिजली का मीटर पढ़ने वाला
टार्च की रोशनी डाल कर पढ़ता है मीटर
एक हाथ में उसके बिल बनाने की मशीन है
जिसमें दाखिल करता है वह एक संख्या
जो बताती है कि
कितनी यूनिट बिजली खर्च की मैंने
अपने घर की रोशनी के लिए

क्या तुम्हारी प्रौद्योगिकी में कोई ऐसी हिकमत है
अपनी आवाज़ को थोड़ा -सा मजाकिया बनाते हुए
मैं पूछता हूँ
कि जिससे जाना जा सके कि इस अवधि में
कितना अँधेरा पैदा किया गया हमारे घरों में?
हम लोग एक ऐसे समय के नागरिक हैं
जिसमें हर दिन महँगी होती जाती है रोशनी
और बढ़ता जाता है अँधेरे का आयतन लगातार
चेहरा घुमा कर घूरता है वह मुझे
चिढ कर कहता है
मैं एक सरकारी मुलाजिम हूँ
और तुम राजनीतिक बकवास कर रहे हो मुझसे!

अरे नहीं नहीं....समझाने की कोशिश करता हूँ मैं उसे
मैं तो एक साधारण आदमी हूँ अदना -सा मुलाजिम
और मैं अँधेरा शब्द का इस्तेमाल अँधेरे के लिए ही कर रहा हूँ
दूसरे किसी अर्थ में नहीं
हमारे समय की यह भी एक अजीब दिक्क़त है
एक सीधे-सादे वाक्य को भी लोग सीधे-सादे वाक्य की तरह नहीं लेते
हमेशा ढूँढने लगते हैं उसमें एक दूसरा अर्थ

मैं मीटर पढ़ने निकला हूँ महोदय लोगों से मज़ाक करने नहीं
वह भड़क कर कहता है
ऐसा कोई मीटर नहीं जो अँधेरे का हिसाब-किताब रखता हो
और इस बार तो बिजली दरें भी बढा दीं हैं सरकार ने
आपने अख़बार में पढ़ ही लिया होगा
अगला बिल बढ़ी हुई दरों से ही आएगा

ओह ! तो इस तरह लिया जायेगा इम्तिहान हमारे सब्र का
इस तरह अभ्यस्त बनाया जायेगा धीरे-धीरे
अँधेरे का
हमारी आँखों को

पर ज़बान तक आने से पहले ही
अपने भीतर दबा लिया मैंने इस वाक्य को

बस एक बार मन ही मन दोहराया सिर्फ़!
***

Thursday, November 4, 2010

नैनीताल में दीवाली- वीरेन डंगवाल


ताल के ह्रदय बले
दीप के प्रतिबिम्ब अतिशीतल
जैसे भाषा में दिपते हैं अर्थ और अभिप्राय और आशय
जैसे राग का मोह

तड-तड़ाक-तड-पड़-तड-तिनक-भूम
छुटती है लड़ी एक सामने पहाड़ पर
बच्चों का सुखद शोर
फिंकती हुई चिनगियाँ

बग़ल के घर की नवेली बहू को
माँ से छुप कर फुलझड़ी थमाता उसका पति
जो छुट्टी पर घर आया है बौडर से.
***
अनुनाद के सभी पाठकों को दीवाली की मुबारकबाद.

Tuesday, November 2, 2010

अयोध्या मुद्दे पर एक बात : जिसका कोई ज़िक्र नहीं रपट में

स्त्री का कंकाल
(लीलाधर मंडलोई की एक कविता)

खुदाई में
न माया मिली
न राम

मिला स्त्री का कंकाल
राम के ज़माने का
जिसका कोई ज़िक्र नहीं रपट में

***
(चित्र गूगल से साभार)

Thursday, October 28, 2010

यहाँ एक शब्द है बेचैनी

मित्रो ये एक पुरानी कविता है...१९९८ की...जो मेरे दूसरे संग्रह "शब्दों के झुरमुट में" शामिल है।
यहाँ
हवा कुछ उड़ाने के लिए
बेचैन है
और पानी कुछ बहाने के लिए

यहाँ
पत्थर कुछ दबाने के लिए
बेचैन है
और मिटटी कुछ उगाने के लिए

यहाँ
पाँव कहीं जाने के लिए
बेचैन हैं
और स्मृतियाँ आने के लिए

यहाँ
चिड़िया दाने के लिए
बेचैन है
और वंचितों का मन
कुछ पाने के लिए

यहाँ
एक शब्द है बेचैनी
जो
सारे शब्दों पर भारी है

छुपा हुआ
शब्दों के झुरमुट में
एक और शब्द है यहाँ
कविता

जो पहले शब्द से बना है
और
उसका आभारी है।
***

Sunday, October 24, 2010

बुढापे की कविता - चयन, अनुवाद और प्रस्तुति: यादवेन्द्र

मैं यहाँ दो छोटी अमेरिकी कवितायेँ दे रहा हूँ जिन दोनों का सामान विषय है---बुढ़ापा....पर इन दोनों में इस विषय के साथ खेलने में अद्भुत भिन्नता है... कोई महानता इन कविताओं में नहीं है पर हमारे समाज से अलग समाज की कवितायेँ हो कर भी ये ऐसा बहुत कुछ कह जाती हैं जो हमारे मन में दबा हुआ रह जाता है..इनको कह पाने का साहस हमारे यहाँ थोड़ा कम दीखता है.

छोटा बच्चा और बूढ़ा - शेल सिल्वरस्टीन

छोटा बच्चा बोला:
मुझसे छूट जाता है चम्मच
कई बार खाते खाते...
बूढ़े ने हाँ में हाँ मिलाया:
कोई बात नहीं
मुझसे भी होता है ऐसा ही.
बच्चे ने धीरे से फुसफुसा कर कहा:
अक्सर मैं गीली कर लेता हूँ अपनी चड्ढी..
ये तो मुझसे भी हो जाता है
मुस्कुरा कर बूढ़ा बोल पड़ा.
फिर बच्चा बोला:
आये दिन बात बात पर मुझे छूट जाती है रुलाई..
बूढ़े ने सिर हिलाया, ये मुझ से भी तो हो जाता है बच्चे.
पर सबसे बुरी बात है कि बड़े लोग
मेरी बात गौर से नहीं सुनते
बच्चे ने कुछ सोच कर कहा.
मैं खूब समझ सकता हूँ तुम्हारा दर्द मेरे बच्चे
एकदम से बूढ़ा बोल पड़ा..
और बच्चे ने अचानक महसूस की गर्माहट
अपने हाथों पर झुर्रियों भरी हथेलियों की.
- - -
अंकल शेल्बी के नाम से अमेरिकी बच्चों के बीच प्रसिद्ध शेल सिल्वरस्टीन (1930 -1999 )
बाल साहित्यकार ,कवि, गायक और गीतकार,संगीतकार,कार्टूनिस्ट और पटकथा लेखक थे...इनकी दर्जनों पुस्तकें तो प्रकाशित ही हैं,बड़ी संख्या में संगीत एल्बम निकले हैं...प्रतिष्ठित ग्रामी पुरस्कार तो मिला ही है,ओस्कर के लिए नामित भी हुए. 20 भाषाओँ में उनका साहित्य अनूदित हुआ है और 2 करोड़ किताबें बिक चुकी हैं. उनकी लोकप्रियता का आलम ये है कि मृत्यु के बाद भी कविता संकलन दुनिया के बड़े प्रकाशक छाप रहे हैं.
****


यहाँ बस इसी वक्त - ग्रेस पेली

मैं यहाँ बाग़ में बैठी हंस रही हूँ
बुढ़िया...जिसके बड़े बड़े स्तन झूल रहे हैं
पर चेहरा करीने से निखरा हुआ है.
ऐसा हो कैसे गया ???
पर ठीक ही तो हुआ
मैं चाहती भी यही थी
की आखीर में बनूँ पुराने चाल ढाल वाली
एक औरत
बड़े घेर वाले स्कर्ट से ढंकी रहे
जिसकी मोटी मोटी जांघें
गर्मी में चूता रहे पसीना
और उधम मचा मचा के मेरी गोद
गुलजार कर दें मेरे नाती पोते.
मेरा बुड्ढा कुछ दूर सामने दिखाई दे
बिजली के मीटर वाले से बतियाता हुआ
कि देखो कितना बदल गया ज़माना
अब तो बिजली के मायने हो गए
सीधे सीधे तेल और युरेनियम
और भी दुनिया भर की बातें..
मैं पोते से कहती हूँ
जाओ जा कर अपने दादा से बोलो
कि मिनट भर के लिए आ कर यहाँ बैठ जाएँ
मेरे बगल में
अब सबर नहीं होता पल भर भी
यहाँ बस इसी वक्त
मैं चूमना चाहती हूँ
उनके कोमल लपलपाते हुए होंठ...
- - -
ग्रेस पेली (1922 -2007 ) अमेरिका की मशहूर कथा लेखिका,कवि और सामाजिक कार्यकर्ता थीं..अपने समाजवादी विचारों के लिए जार के रूस से निष्कासित माँ पिता की बेटी पेली बचपन में ही अमेरिका आ गयीं.शुरूआती तीस सालों में कवितायेँ लिखीं,कई कविता संकलन प्रकाशित और प्रशंसित.बाद में कहानियों की तरफ उनका झुकाव हुआ और आम परिवारों की स्त्रियों के दुःख दर्द उनकी रचनाओं में खूब बोलते हैं.पेली को साहित्य के कारण जितना जाना जाता है उस से ज्यादा युद्ध विरोधी प्रदर्शनों के लिए जाना जाता है...वियतनाम से ले कर इराक युद्ध तक.इसी कारण उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी.अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे स्तन कैंसर से पीड़ित रहीं।
भारत भाई द्वारा किये गए संशोधन के अनुसार -
ग्रेस पेली के परिचय में आपने लिखा है कि वे बचपन में ही अमेरिका आ गई थीं. पर मेरी जानकारी यह है कि उनका जन्म अमेरिका (ब्रोंक्स, न्यू योंर्क सिटी) में ही हुआ था. विकिपीडिया पर उनका परिचय भी इस बात की तस्दीक करता है.
http://en.wikipedia.org/wiki/Grace_Paley

Thursday, October 21, 2010

सिर्फ हम : एलिस वाकर


सिर्फ हम कर सकते हैं सोने का अवमूल्यन
बाज़ार में
उसके चढ़ने या गिरने की
परवाह न करके.
पता है, जहाँ भी सोना होता है
वहां होती है ज़ंजीर
और आपकी ज़ंजीर अगर है
सोने की
तो और भी बुरा.

पंख, सीपियाँ
समुद्री कंकड़-पत्थर
सब उतने ही दुर्लभ हैं.

यह हो सकती है हमारी क्रान्ति:
जो बहुतायत में है उसे भी
उतना ही प्यार करना
जितना दुर्लभ से.

********
उपन्यास 'दि कलर पर्पल' एलिस वाकर का मैग्नम-ओपस है जिसके लिए उन्हें पुलित्ज़र पुरस्कार मिला था. इस उपन्यास पर स्टीवन स्पिलबर्ग ने इसी नाम की एक फिल्म भी बनाई थी. अनेकों कविता संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हैं. नवीनतम कविता संकलन 'हार्ड टाइम्स रिक्वायर फ्यूरियस डांसिंग' हाल ही में आया है. कालों के नागरी अधिकारों के लिए 1963 में मार्टिन लूथर किंग जूनियर के साथ वाशिंगटन पर मार्च करने से लेकर 2003 में अन्य साथी लेखकों-बुद्धिजीवियों के साथ व्हाईट हाउस के सामने युद्ध विरोधी प्रदर्शन करने में शामिल रही हैं.

Sunday, October 17, 2010

एक काले कुत्ते की कविता प्रणय जी के लिए


आप तो नाहक ही डर गए
मैं तो अभी गुस्से में नहीं मुहब्बत में झपटता हूँ हर आने वाले पर उसकी अंगुलियां अपने मुंह में रखकर
अपने दांतों के हल्के दबाव से परखना चाहता हूँ
उनकी मज़बूती
त्वचा का स्वाद मैं महसूस करना चाहता हूँ अपनी अबाध बहती लार में लपेटकर
जान-पहचान बढ़ाने का यह मेरा तरीका है
आप तो .....

मेरा कोई मालिक नहीं...जिन्हें मालिक कहा जाता है मेरा वो तो बब्बा, मम्मा और दद्दा हैं मेरे
मेरी तरह कभी आंखों में देखिए उनकी

ये कुत्ता क्या होता है प्रणय जी?
बब्बा कहते हैं कभी-कभी नाराज़गी में मुझे 'कुत्ता है साला'
और ये साला क्या होता है प्रणय जी?
नाराज़गी क्या होती है मैं पहले नहीं जानता था पर अब जानता हूँ जब बब्बा बात नहीं करते मुझसे
देखते नहीं मुझको देखते भी हैं तो बहुत खुली आंखों से
वरना तो प्यार में
उनकी आंखें कभी खुलती ही नहीं पूरी

प्यार क्या होता है मैं नहीं पूछूंगा आपसे
आप चाहें तो पूछ सकते हैं मुझसे

बब्बा आपको कहते हैं प्रणय जी इसलिए मैं भी कह रहा हूँ प्रणय जी और बब्बा जब कहते हैं प्रणय जी तो उनकी आंखों में भी वैसी ही मुहब्बत होती है जैसी मुझमें जब मैं झपटता हूँ आप पर
बब्बा झपट नहीं सकते हैं इसलिए कहते हैं प्रणय जी शब्दों के हल्के दबाव से
वे भी परखना चाहते हैं
आपकी मज़बूती

ये अज्ञेय क्या होता है प्रणय जी?
बब्बा जब कहते हैं प्रणय जी किसी से बात करते हुए फोन पर तो वो अज्ञेय भी कहते हैं
कभी-कभी मैं जब अलस काली रात के बेहद दार्शनिक दबाव में
निपट लेता हूँ घर के भीतर ही
किसी चोरकोने में तो मुझे डर लगता है
मैं आंखें नहीं मिला पाता बब्बा से मुंह फेरता किसी और जगह चले जाना चाहता हूँ
तब बब्बा सारा ग़ुस्सा छोड़ हंसकर कहते हैं -
कितना
तो अपराधबोध है इस साले कुत्ते में
दुनिया चलाने वाले कच्चा चबा रहे हैं उसे और उनमें कोई अपराधबोध नहीं ... अब तो अपराधबोध का होना ही हमारे देश में सच्चा राष्ट्रवाद है

ये महान क्या होता है प्रणय जी?
ये अपराधबोध क्या होता है प्रणय जी?
ये देश क्या होता है प्रणय जी?
ये राष्ट्रवाद क्या होता है प्रणय जी?

जब मैं खाना खाता हूँ बहुत सारा और पेट भर जाने पर भी और मांगता जाता हूँ तब बब्बा कहते हैं -
कुत्ता है कि अमरीका है साला !

ये अमरीका क्या होता है प्रणय जी?

ये जो आपके साथ बैठे थे सौम्यता साधे बब्बा पंकज भाई कहते हैं इन्हें
इनके बारे में कुछ बोलते बब्बा की आवाज़ बहुत मुलायम हो जाती है
शायद वो प्यार करते हैं इन्हें
इनका या किसी और का भी बब्बा से हाथ मिलाना पसन्द नहीं मुझे
बब्बा सिर्फ़ मेरे हैं और मम्मा के हैं और दद्दा के हैं
दद्दा को देखा है आपने ध्यान से - गौतम दद्दा मेरा!
कितना प्यारा दोस्त...यार
जिसके साथ उछलना-कूदना-झपटना-काटना-चाटना सभी कुछ सम्भव है
प्यार क्या होता है आप गौतम दद्दा से पूछ सकते हैं
जब वो लाड़ में गाल खींचता मेरे कहता है बार-बार -
छ्वीटी....छ्वीट.....छ्वीटीबब्बा कुछ पीते हैं अकसर रात को जिसे आप पी रहे हैं दिन में
मैं भी बहुत चाव से पीता हूँ इसे बब्बा अकसर मेरे कटोरे में डाल देते हैं कुछ बूंदें उस तरल की फिर कभी ख़ुश तो कभी नाराज़ रहते हैं ऐसी हालत में अपने पिता से बात हो जाने पर हमेशा कहते हैं ज़ोर ज़ोर से -

सामंत!
सामंत
!
सामंत
!
मैं भी उन्हें देख पूरी ताक़त से सिर झटकाता भौंकता हूँ बार-बार
ये सामंत क्या होता है प्रणय जी?

अभी शाम जब आप चले गए बब्बा के पंकज भाई के साथ तो बोतल की बची हुई थोड़ी मुझे देते और बाक़ी ख़ुद पीते हुए वे बड़बड़ा रहे थे थोड़ी ख़ुशी और थोड़ी खीझ के साथ -

जसम....जसम.....जसम...
पार्टी.....पार्टी....पार्टी....
कविता....कविता....कविता....
दोस्ती.....दोस्ती...दोस्ती...

ये जसम क्या होता है प्रणय जी?
ये पार्टी क्या होती है प्रणय जी?
ये कविता क्या होती है प्रणय जी?
जैसी गौतम दद्दा की और मेरी है उसके अलावा ये दोस्ती क्या होती है प्रणय जी?

मुझे आपकी हंसी बहुत अच्छी लगती है प्रणय जी
जैसा आप और पंकज भाई और बब्बा मिलकर हंस रहे थे अभी
या जैसी गौतम दद्दा और मम्मा और बब्बा मिलकर हंसते हैं हमेशा
उसके अलावा भी कोई हंसी होती है क्या?
मैं तो हंस नहीं सकता इसलिए हांफता हूँ ऐसे मौकों पर पूरी जीभ बाहर निकाल कर
बब्बा कहते हैं एक और हंसी दुनिया में होती है -

तानाशाह की हंसी....
अनाचारकी हंसी...
ज़बरे की हंसी..

ये तानाशाह क्या होता है प्रणय जी?
ये अनाचार क्या होता है प्रणय जी?
ये ज़बरा क्या होता है प्रणय जी?

भौं...भौं...भौं...गुर्रर्र.....भौं...भौं...गुर्र......भौं...भौं
- - -
पहुंचाने वाला- शिरीष कुमार मौर्य शाम/9 अक्टूबर 2010/नैनीताल।

(प्रणय जी यानी हमारे ख़ूब जाने-पहचाने प्रणय कृष्ण। वे उन चन्द आलोचकों में हैं, जिनसे हिन्दी की विचारशील प्रतिबद्ध आलोचना का भविष्य बंधा हुआ है। आइसा के जुझारू कार्यकर्ता और जे.एन.यू स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष रहे। इन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं और जन संस्कृति मंच के महासचिव भी। कर्रे वक्ता हैं और प्यारे इंसान। हमारे दोस्त हैं। 9 अक्टूबर को वे कुमाऊं विश्वविद्यालय में हिन्दी के रिफ्रेशर कोर्स में व्याख्यान देने आए तो मुलाक़ात हुई मुझसे और हमारे घर में पले इस प्यारे काले लैब्राडोर कुत्ते से भी जिसका का नाम उसके गौतम दद्दा ने 'चार्जर' रखा है। इसकी उम्र अभी एक साल है पर लगता है ये हमेशा से हमारे साथ था...आंखों से ओझल...पर हमेशा हमारे साथ।

पंकज चतुर्वेदी भी इस दिन साथ थे...ये कविता जैसा कुछ इन्हीं सब लोगों के लिए...बकौल वीरेन डंगवाल ख़ुदा करे हमारी ये `नदियों जैसी महान वत्सल मित्रताएं´ बची रहें हमेशा। आमीन!)

Wednesday, October 13, 2010

मोचग्रस्त यह पांव


आज मोचग्रस्त है उन पांवों में से एक पांव
कुछ बरस पहले
जो दाखिल हो गए थे मेरे जीवन में
प्रेम की पहली बारिश से तर भीतर की गाढ़ी मिट्टी पर
छप्प....से
छोड़ते हुए
अपने होने की भरपूर छाप

दरअसल इससे पहले भी बरसों इन्होने मेरा पीछा किया
बहुत धूल उड़ती थी तब मेरे भीतर
संकल्पों की चट्टानें टूटने की हद तक तपती थीं
ज्वालामुखियों-से
जब तब फूट पड़ते थे
मन के पठार
दिनों-दिन क्षीण होती जाती थी
जीवन की जलधार

उन दिनों मैं नहीं देख पाता था अपने ही बनाए
एक प्रतिरोधी
और प्रतिहिंसक संसार के पार
मेरे आगे उड़ते रहते थे
धुंए के ग़ुबार
उस आग के पीछे-पीछे ही
शीतल बौछारों से भरा एक बवण्डर लिए
आते थे दो पांव

एक दिन अचानक मैंने देखा इन्हें क़रीब आते
ये बहुत गोरे-पतले और सुन्दर थे
लेकिन
एक अजीब-सी चमक और ताक़त भी दिखती थी इनमें
बहुत ध्यान से देखने पर

मै लगभग बेबस था इनके आगे
प्रेम के इस औंचक आगमन की हैरत से भरा और बहुत ख़ुश
दरअसल मुझे बेबस होना ही अच्छा लगा

देखता हूँ आज
कितने बरसों और कितनी जोखिमभरी यात्राओं की थकान है
प्यारी
कि टिक नहीं पा रहा धरती पर तेरा यह सूजा हुआ पांव
मेरे जीवन के बीहड़ में चलकर भी
लगातार
मुझको साध न सकने की पीड़ा से भरा

बेवक़्त ही इस पर दीखते हैं नीली नसों के जाल
अपनी इस अविगत गति से डरा मैं
बेहद शर्मिन्दा-सा बुदबुदाता हूँ
कि अब
ज़रूर कुछ न कुछ करूंगा और कुछ नहीं तो कम से कम
आगे की लम्बी और ऊबड़-खाबड़ यात्रा में
धीरे ही चलूँगा

पीड़ा और चिन्ता को आंखों तक भरकर
अपलक
ताकती
मुझको
वह सोचती है शायद - क्या सचमुच
मैं कुछ करूंगा ?

और अगर धीरे ही चला तो तेज़ी से भागती इस दुनिया में
कितनी दूर चलूँगा?

सोचता हूँ मैं
क्यों बनाते हैं इतनी दूर हम मंज़िलें अपनी
जो सदा ओझल ही रहती हैं

अपने आसपास को भूल देखते हैं स्वप्न झिलमिलाते ऐसे मानो जीवन और भी हो कहीं
ब्रह्माण्ड में
कई-कई आकाशगंगाओं के पार

क्यों तय कराते हैं खुद को इतने लम्बे फासले
किसी भी क़ीमत पर
क्यों हो जाते हैं उतावले
कहलाने को क़ामयाब
जबकि
क़ामयाबी ही सबसे कमीनी चीज़ है इस धरती पर
जिसका सबूत
फिलहाल
कुल इतना है मेरे पास -

ख़ुद को छुपा पाने में विफल
अब मेरे हाथों में आने से भी डरता
कांपता
झिझकता
मुश्किलों के ठहर चुके
जमे हुए
गाढ़े - नीले रक्त से भरा तेरा
मोचग्रस्त
यह पांव !
२००७
***
पृथ्वी पर एक जगह से

Saturday, October 9, 2010

पंकज चतुर्वेदी की तीन कविताएँ

पंकज चतुर्वेदी कल कुमाऊं विश्वविद्यालय के एकेडेमिक स्टाफ कालेज में चल रहे हिंदी के रिफ्रेशर कोर्स में हिंदी आलोचना पर व्याख्यान देने आये और मेरे आग्रह पर अनुनाद के लिए तीन कविताएँ भी दे गए, जिन्हें यहाँ लगा रहा हूँ।

एक खो चुकी कहानी

क्या तुम्हें याद है
अपनी पहली रचना
एक खो चुकी कहानी
जो तुमने लिखी
जब तुम नौ-दस साल के थे
वही कोई सन् अस्सी-इक्यासी की बात है

तुम्हारे पिता यशपाल पर
शोध कर रहे थे
और कभी-कभार समूचे परिवार को
उनकी कुछ कहानियां सुनाते थे
शायद उसी से प्रभावित होकर
तुमने वह कहानी लिखी
जिसमें एक चोर का पीछा करते हुए
गांववाले उसे पकड़ लेते हैं
गांव के बाहर एक जंगल में
उसे पीटते हैं
और इस हद तक
कि आख़िर
उसकी मौत हो जाती है

तब क्या तुम्हें याद है
कि एक दिन घर में आये
बड़े मामा के बेटे
अपने सुशील भाईसाहब को
जब तुमने वह कहानी दिखायी
उन्होंने तुम्हारा मन रखने
या हौसला बढ़ाने के मक़सद से कहा :
अरे, इसका अन्त तो बिलकुल
यशपाल की कहानियों जैसा है

आज जब इस घटना को
लगभग तीस साल बीत गये
क्या तुम्हें नहीं लगता
कि देश-दुनिया के हालात ऐसे हैं
कि गांव हों या शहर
चोर कहीं बाहर से नहीं आता
वह हमारे बीच ही रहता है
काफ़ी रईस और सम्मानित
उसे पकड़ना और पीटना तो दूर रहा
हम उसकी शिनाख़्त करने से भी
बचते हैं
***

टैरू

कुछ अरसा पहले
एक घर में मैं ठहरा था

आधी रात किसी की
भारी-भारी सांसों की आवाज़ से
मेरी आंख खुली
तो देखा नीम-अंधेरे में
टैरू एकदम पास खड़ा था
उस घर में पला हुआ कुत्ता
बॉक्सर पिता और
जर्मन शेफ़र्ड मां की सन्तान

दोपहर का उसका डरावना
हमलावर भौंकना
काट खाने को तत्पर
तीखे पैने दांत याद थे
मालिक के कहने से ही
मुझको बख़्श दिया था

मैं बहुत डरा-सहमा
क्या करूं कि यह बला टले
किसी तरह हिम्मत करके
बाथरूम तक गया
बाहर आया तो टैरू सामने मौजूद
फिर पीछे-पीछे

बिस्तर पर पहुंचकर
कुछ देर के असमंजस
और चुप्पी के बाद
एक डरा हुआ आदमी
अपनी आवाज़ में
जितना प्यार ला सकता है
उतना लाते हुए मैंने कहा :
सो जाओ टैरू !

टैरू बड़े विनीत भाव से
लेट गया फ़र्श पर
उसने आंखें मूंद लीं

मैंने सोचा :
सस्ते में जान छूटी
मैं भी सो गया
सुबह मेरे मेज़बान ने
हंसते-हंसते बताया :
टैरू बस इतना चाहता था
कि आप उसके लिए गेट खोल दें
और उसे ठण्डी खुली हवा में
कुछ देर घूम लेने दें

आज मुझे यह पता लगा :
टैरू नहीं रहा

उसकी मृत्यु के अफ़सोस के अलावा
यह मलाल मुझे हमेशा रहेगा
उस रात एक अजनबी की भाषा
उसने समझी थी
पर मैं उसकी भाषा
समझ नहीं पाया था
***

संवाद

मेरा एक साल का बच्चा
रास्ते में मिलनेवाली
हर गाय, भैंस, कुत्ता
बकरी और सूअर को
कितने प्यार, उत्कंठा
और सब्र से
`बू.....आ´, `बू....आ´
कहकर पुकारता है
वह कितनी ममता से चाहता है
वे उससे बात करें

मैं एक लाचार दुभाषिये की मानिन्द
दुखी होता हूं

मैं उसे कैसे समझाऊं
वे बोल नहीं सकते

वे अक्सर अपने में मशगूल रहते हैं
कोई कुत्ता कभी विस्मय से
उसे निहारता है
कोई गाय भीगी आंखों से
उसे देख-भर लेती है

तब मुझे उसकी ललक
अच्छी लगती है
जो दरअसल यह बताती है
कि संवाद
हर सूरत में
सम्भव है
***

-------------------
फ़ोन-(0512)-2580975
मोबाइल-09335156082

Friday, October 8, 2010

बाँदा - वीरेन डंगवाल


मैं रात, मैं चाँद, मैं मोटे कांच
का गिलास
मैं लहर ख़ुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल

मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रूदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चाँदनी में चुपचाप रोती एक
बूढी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के ख़ाली
पुरानेपन की बास
मैं खपरैल, मैं खपरैल
मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढा केदार।
***

Wednesday, October 6, 2010

अयोध्या फैसले पर जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा पारित प्रस्ताव


जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक (2 अक्टूबर 2010, नई दिल्ली) में अयोध्या मसले पर हाल के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर पारित प्रस्ताव


जन संस्कृति मंच विवादित अयोध्या मुद्दे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के उससे भी ज्यादा विवादित फैसले पर सदमे और दुख का इजहार करता है. यूं तो सर्वोच्च न्यायालय तक का सफर बाकी है, लेकिन इस फैसले के पक्ष में एक ओर संघ परिवार तो दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी जिस तरह राजनीतिक सर्वानुमति बनाने का प्रयास कर रही हैं, वह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है. यह फैसला सत्ता की राजनीति के तकाजों को पूरा करने वाला, तथ्यों और न्याय-प्रक्रिया के ऊपर धार्मिक आस्था को तरजीह देने वाला और पुरातत्व सर्वेक्षण की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट से निकाले गए मनमाने निष्कर्षों पर आधारित है. इस फैसले ने अप्रामाणिक, निराधार, तर्कहीन ढंग से इस बात पर मुहर लगा दी है कि जहां रामलला की मूर्ति 1949 में षड्यंत्रपूर्वक रखी गई थी, वहीराम का जन्मस्थान है. ऐसा करके न्यायालय के इस फैसले के परिणामस्वरूप न केवल 1949 की उस षड्यंत्रकारी हरकत, बल्कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने की बर्बर कार्रवाई को भी प्रकारांतर से वैधता मिल गई है. सवाल यह भी है कि क्या यह फैसला देश के संविधान के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष प्रतिज्ञाओं के भी विरुद्ध नहीं है?

यह पहली बार हुआ है कि आस्था और विश्वास को सियासत के तकाजे से दीवानी मुकदमे की अदालती प्रक्रिया में निर्णय के एक वैध आधार के रूप में मान्यता दी गई. मिल्कियत का विवाद सिद्ध किए जा सकने योग्य सबूतों के आधार पर नहीं, बल्कि अवैज्ञानिक आस्थापरक आधारों पर निपटाकर इस फैसले ने न्याय की समूची आधुनिक परिभाषा को ही संकटग्रस्त कर दिया है. इतना सबकुछ करने के बाद भी यह फैसला इस विवाद को सुलझाने में न केवल नाकामयाब रहा है, बल्कि उसने धर्मस्थानों को लेकर तमाम दूसरे सियासी विवादों के लिए भविष्य का रास्ता खोल दिया है. एक तो पुरातत्व सर्वेक्षण खुद में ही मिल्कियत के विवाद निबटाने के लिए एक संदिग्ध आधार है, दूसरे देश के तमाम बड़े इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने सर्वेक्षण की प्रक्रिया और तौर-तरीकों पर लगातार एतराज जताया है. अनेक विश्वप्रसिद्ध पुरातत्वविद पहले से ही कहते आए हैं कि इस भूखंड की खुदाई में ऐसे कोई भी खंभे नहीं मिले हैं, जिनके आधार पर पुरातत्व की रिपोर्ट वहां मंदिर होने की संभावना व्यक्त करती है, दूसरी ओर पशुओं की हड्डियों और अन्य पुरावशेषों से वहां दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का अवश्य ही प्रमाण मिलता है. ऐसे में न्यायालय की खंडपीठ द्वाराबहुमत से यह मान लेना कि मस्जिद से पहले वहां कोई हिंदू धर्मस्थल था, पूरी तरह गैरवाजिब प्रतीत होता है.

‘‘वर्तमान की सियासत को जायज ठहराने के लिए हम अतीत को झुठला नहीं सकते."- इतिहासकार रोमिला थापर के इस वक्तव्य में निहित एक अध्येता, एक नागरिक और एक देशप्रेमी की पीड़ा में अपना स्वर मिलाते हुए हम इतना और जोड़ना चाहेंगे कि अमूल्य कुर्बानियों से हासिल आजादी, लोकतंत्र, न्याय और धर्मनिरपेक्षता के उसूलों के खिलाफ जाकर ‘आस्था की राजनीति’ के तकाजों को पूरा करने वाले किसी भी अदालती निर्णय को कठोर राजनैतिक-वैचारिक बहस के बगैर स्वीकार करना देश के भविष्य के साथ एक अक्षम्य समझौता होगा.


प्रणय कृष्ण
महासचिव, जन संस्कृति मंच
द्वारा जारी

Saturday, October 2, 2010

एक पिस्तौल की गोली : अनिल अवचट




एक
पिस्तौल की गोली
यही कोई आधा इंच लम्बी
फिर पौना इंच मान के चलिए
उस लिबलिबी दबाने वाली उंगली को
सिर्फ ज़रा सी पीछे खींचनी है
ऐसे ही, बहुत हुआ तो चौथाई इंच
कि निकल ही पड़ी वह गोली
ज़ोरदार आवाज़ करती हुई, चिंघाड़ती हुई
बेध ही दिया उसने
छाती का वह दुर्बल पिंजरा
ढह ही गया वह
अनशन कर करके
जर्जर हो चुका शरीर
टेढ़े ही हो गए
वे चल चलकर
थक चुके पैर
शांत हो गया आखिर
अमानवीय धार्मिक दंगों
से घायल हो चुका मन भी
वाह भई वाह,
उस पिस्तौल का कमाल
वह गोली, यही कोई आधा इंच
और वह लिबलिबी दबाने वाली
इंसानी उंगली
हे राम!


******

जिस दिन गांधी पैदा हुए थे उस दिन गांधी को मार दिए जाने के बारे में कविता बड़ी 'डिप्रेसिंग' लगती है पर..
अनिल अवचट मराठी के बड़े लेखक हैं. उन्होंने अपनी पत्नी डॉ. सुनंदा अवचट के साथ मिलकर पुणे में 'मुक्तांगण' नाम के नशामुक्ति केंद्र की स्थापना की जो आज देशभर में प्रसिद्द है. अवचट स्वयं और उनका 'लेखक' सामाजिक न्याय के लिए सदैव संघर्षरत रहे हैं. हाल ही में उनकी पुस्तक 'सृष्टीत...गोष्टीत' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी के पहले (मराठी) बाल-साहित्य पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा की गई है.

Tuesday, September 28, 2010

मिरास्लोव होलुब की कुछ कवितायेँ...चयन और प्रस्तुति : यादवेन्द्र

कुछ दिनों से मेरे मन में ये विचार आ रहा था कि विज्ञान में अच्छी शोहरत पाए लोगों की इतर प्रवृत्तियों के बारे में कुछ पढने को मिले.कवि गुरु रबीन्द्रनाथ और वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु की दोस्ती के रचनात्मक पहलुओं पर मैं पहले कुछ पढ़ और लिख चुका था.हाल में मैंने दो बार नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली इकलौती वैज्ञानिक मेरी क्युरी के पति की स्मृति में लिखे डायरी के कुछ पन्ने पढ़े और उनका अनुवाद किया तो जिज्ञासा और भी बढ़ गयी.महाकवि निराला के एक विज्ञान लेख को पढने का भी सौभाग्य मिला जिस की भाषा पढ़ के मन प्रफुल्लित रोमांचित तो हुआ ही,अपनी भाषा को लेकर ग्लानि भी हुई. इसी क्रम में जीवन भर विज्ञान में उच्च शोध में प्रवृत्त रहे मिरोस्लाव होलुब की कवितायेँ पढने का अवसर मिला...मैंने उनकी कवितायेँ पहले भी पढ़ी हैं पर यह जानने पर कि होलुब मूल रूप में वैज्ञानिक थे उनकी कविताओं में एक अलग स्वाद मिला.
1923 में जन्मे मिरोस्लाव होलुब चेकोस्लोवाकिया के सर्वाधिक चर्चित कवियों में से एक हैं.जीवन के शुरूआती दिनों में नाज़ी और बाद में स्तालिनवादी सत्ता के दमन के शिकार रहे होलुब मूल रूप में एक डॉक्टर के तौर पर प्रशिक्षित हुए और पूर्वी यूरोप में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में इम्यूनोलोजी के जाने माने विशेषज्ञ के रूप में इन्हें मान्यता भी मिली.पैंतीस वर्ष की पकी उम्र में उनका पहला कविता संग्रह छपा तो उनका कवि रूप सामने आया,पर जब आया तो खूब आया.अपने स्वतन्त्र विचारों के लिए उन्हें उनकी सरकारी शोध संस्थान में वैज्ञानिक की नौकरी छोड़ के छोटे पद पर दूसरे संस्थान में वैकल्पिक नौकरी करनी पड़ी,प्रकाशन पर प्रतिबन्ध झेलना पड़ा पर लेखनी बंद नहीं हुई.दो दर्जन से ज्यादा कविता और निबंध संग्रह उनके नाम हैं और अंग्रेजी सहित अनेक भाषाओँ में उनका अनुवाद छपा है.1998 में 75 की पकी उम्र में उनका देहांत हुआ.


दरवाज़ा

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो..
हो सकता है बाहर
खड़ा कोई दरख़्त, या जंगल भी
या कोई बाग़ भी हो सकता है
हो सकता है कोई जादुई शहर ही खड़ा हो.

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो...
हो सकता है कोई कुत्ता धक्के मार रहा हो
कोई चेहरा भी दिखाई दे सकता है तुम्हे
संभव हो सिर्फ आँख हो
कोई चित्र भी हो सकता है
किसी दूसरे चित्र से अवतरित होता हुआ..

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो...
बाहर यदि कोहरा जमा होगा तो
तो इसको छंटने का रास्ता मिल जाएगा.

जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो..
यदि सिर्फ और सिर्फ
वहां अँधेरा ठहरा हुआ हो, तब भी
सूनी हवा सिर झुकाए खड़ी हो
तब भी
ये सब न हो..कहीं कुछ भी न हो
तब भी
जाओ और जा कर दरवाज़ा खोल दो.

और कुछ न भी हो
कम से कम
हवा का झोंका तो आर पार होगा ही.. ...
***
आनंद का प्रशस्तिगान

आप सचमुच प्यार तभी करते हैं
जब प्यार करते हैं बिला वजह...

रेडियो सुधारते हुए जब ख़राब निकल जाएँ दसियों पुर्जे
तब भी देखते रहें लगा लगा कर दूसरे नए पुर्जे..
कोई बात नहीं चाहे तो दो सौ खरगोशों का जुगाड़ करें
यदि एक एक कर मरते जाएँ सैकड़ों खरगोश...
दर असल इसी को विज्ञानं कहते हैं.

अब इसका भेद पूछते हैं आप
तो एक ही जवाब मैं हर बार दूंगा:
एक बार...दो बार...
बार बार...
***
बच्चे का माथा

इसके अन्दर रहता है एक अंतरिक्षयान
और साथ में एक तरकीब भी
कि कैसे पिंड छुड़ाया जाये पियानो की क्लास से.

इसके अन्दर बसती है
नुह की किश्ती भी
भला है,सबसे ऊपर ऊपर यही रहती है.

इसके अन्दर बसेरा लिए हुए है
एक निहायत नया परिंदा
एक नया खरगोश
एक नया भौंरा.

नीचे से ऊपर को चलती हुई
एक नदी बहती रहती है इसके अन्दर ही अन्दर....
गुणा भाग वाले पहाड़े भी हैं इसके अन्दर
प्रतिपदार्थ (anti matter) भी रहता है इसके अन्दर
और इसपर कोई चला नहीं सकता
कतर ब्योंत वाली कैंची..

मुझे लगता है
कि माथा ही ऐसी बला है
जिसको काटना छांटना नहीं है
किसी तरह भी मुमकिन..
और आज के पतले हालात में
आश्वस्त करने के लिए यही सच काफी है
कि दुनिया में बहुतेरे लोग अब भी
बचे हैं साबुत माथों वाले...
***
सूरज पर संक्षिप्त टिप्पणी

मौसमवेत्ताओं के गहन अध्ययन को सलाम
अन्य अनेकानेक लोगों कि मेहनत को भी सलाम
कि हम जान पाए कब होते हैं दिन
सबसे लम्बे और सबसे छोटे
हमें देखने को मिले सूर्य ग्रहण
और हर सुबह सूर्योदय.
पर कभी नहीं दिखाई दिया हमें
कैसा होता है असल में असली सूरज.

इसको ऐसे समझें: हम देखते हैं सूरज को
जंगलों के ऊपर पर पेड़ों के झुरमुट से
किसी टूटी फूटी सड़क के उस पार
गाँव के पिछवाड़े डूबते हुए..
पर सच ये कि नहीं देख पाते हम असल सूरज
देखते हैं..बस सूरज जैसा कुछ...

सूरज जैसा कुछ..सच पूछें तो
मुश्किल है इसको रोज रोज झेल पाना...
दरअसल लोगों को तो सूरज दिखता है
पेड़,परछाईं,पहाड़ी,गाँव और सड़कों की मार्फ़त...
यही प्रतीक हैं सूरज के.

सूरज जैसा कुछ दिखता रहता है
जैसे हो कोई मुट्ठी तनी हुई..
समंदर या रेगिस्तान या हवाई जहाज के ऊपर....
मजेदार बात है कि न तो खुद इसकी छाया पड़ती है
न ही हिलता टिमटिमाता है कभी
यह इतना अजूबा अनोखा है
कि जैसे हो ही न कहीं कुछ..

बिलकुल सूरज की तरह ही विलक्षण है
सच्चाई भी.
***
सटीक समय के बारे में

मछली हरदम सही सही जानती है
उसको कहाँ जाना है..और कब.
इसी तरह
परिंदों को होता है सही सही ज्ञान
काल और और स्थान का भी...
आदमियों में नहीं होता यह नैसर्गिक बोध
तभी तो उन्होंने शुरू किये वैज्ञानिक अनुसंधान.
इसके बारे में खुलासा करने को
मैं देता हूँ एक छोटी सी मिसाल:
एक सैनिक को कहा गया
दागना है उसको ठीक छह बजे हर शाम एक गोला..
सैनिक था सो करता रहा यह पूरी मुस्तैदी से.
जब उस से पूछा गया कितना सटीक रहता है उसका समय
तो वो सहज होकर बोल पड़ा:
पहाड़ी से नीचे शहर में रहने वाले
घड़ीसाज की खिड़की से देखता हूँ
वहां लगा हुआ है एक कालमापी यन्त्र..
उस से ज्यादा सही और भला क्या हो सकता है?
हर शाम पौने छह बजे उससे मिलाता हूँ अपनी घड़ी
और चढ़ने लगता हूँ पहाड़ी पर लगी तोप की ओर
ठीक पाँच उनसठ पर मैं तोप में भरता हूँ गोला
और घड़ी देखकर ठीक अगले ही मिनट गोला दाग देता हूँ.
जाहिर था उसकी यह कार्यप्रणाली
आना पाई सही थी...सटीक.
अब जांचना था की कितना सही था कालमापी यन्त्र
सो घड़ीसाज को फ़रमान सुनाया गया
साबित करे वो कि बिलकुल सटीक है उसका यन्त्र.
बे तकल्लुफी से घड़ीसाज बोला:
हुजूर, आजतक जितने भी कालमापी यन्त्र बनाये गए हैं
ये उन सब में सबसे सही है..
तभी तो सालों साल से हर शाम
दागा जाता है तोप का गोला
ठीक छह बजे..
हर शाम बिला नागा मैं देखता हूँ इस यन्त्र को
और हर बार ये मुझे छह बजाता हुआ ही दिखाई देता है.

देखो तो आदमी को कितनी चिंता है
बिलकुल चाकचौबंद और सटीक रहे समय..
यह सोचते हुए मछली फिसल गयी पानी के अन्दर
और आसमान भर गया परवाज भरते परिंदों से..
कालमापी यन्त्र है कि अब भी टिक टिक कर रहा है
और दागे जा रहे हैं दनादन गोले...
***

Tuesday, September 21, 2010

नगाड़े ख़ामोश हैं और हुड़का भी - रमदा

गिरदा पर एक स्मृतिलेख


रामनगर में इंटरनेशनल पायनियर्स द्वारा आयोजित पहली अखिल भारतीय नाटक प्रतियोगिता(1977) के दौरान गिरीश तिवाड़ी (गिरदा) से पहली बार मिला था। तब वह युगमंच, नैनीताल की प्रस्तुति `अंधेर नगरी´ लेकर आया था। गिरदा के अलावा यह रंगकर्म की दुनिया से भी मेरी पहली नज़दीकी मुलाक़ात थी। नाटकों को पढ़ भर लेने से इतर किसी नाट्यदल को नज़दीक से देखने-समझने-भुगतने, रिहर्सल्स में मौजूद रहने और प्रस्तुति के लिए एकाएक ज़रूरी हो आई किसी चीज़ के जुगाड़ में जुटने का पहला अवसर। प्रतियोगिता में गिरदा ही सर्वश्रेष्ठ निर्देशक माना गया। यहीं से गिरदा के साथ थोड़ा उठ-बैठ सकने का सिलसिला बना। अगले वर्ष की प्रस्तुति `भारत दुर्दशा´ थी। चूंकि गिरदा के व्यक्तित्व के इसी पहलू से मैं सबसे पहले परिचित हुआ, गिरदा की छवि मेरे मन में हमेशा एक रंगकर्मी- ज़बरदस्त रंगकर्मी की रही। यह बात दीगर है कि अभिव्यक्ति के तमाम अन्य माध्यमों पर अपनी पकड़ से वह लगातार इस छवि को ध्वस्त करता रहा। हुड़के पर थाप देते...होली गाते....गोष्ठियों में अपनी बात रखते....गीत/कविता पढ़ते/सुनाते...गिरदा की भंगिमाओं को याद कीजिए...रंग ही रंग हैं। सी.आर.एस.टी. नैनीताल प्रांगण `नगाड़े ख़ामोश हैं´ के रिहर्सल्स एवं प्रस्तुति के बाद से मैं गिरदा का कायल होता गया। प्रांगण के उन दो विशाल देवदारुओं के बीच गहराते, छितराते कोहरे और दो `लाइट बीम्स´ के नीचे सूत्रधार को सधे क़दमों से चलने का निर्देश करते हुए `अण्ड से पिण्ड और पिण्ड से ब्रह्माण्ड रचा....´ के उच्चारण का अभ्यास कराते गिरदा की छवि मेरी स्मृति में ताज़ा है। गिरदा की प्रस्तुतियों में लोक/लोकसंगीत/लोकसंस्कृति के साथ ब्रेख़्त के प्रोजेक्शंस की अद्भुत जुगलबन्दी थी - दोनों पर उसकी गहरी पकड़ का प्रतीक। `नगाड़े ख़ामोश हैं´ की प्रस्तुति की सूचना देने वाले बैनर को लेकर उसके मानस में था - टाट का एक लम्बा चीथड़ानुमा टुकड़ा जिस पर पिघलते कोलतार से लिखा हो - नगाड़े ख़ामोश हैं। ऐसा हो तो नहीं पाया मगर मल्लीताल में पन्त जी की मूर्ति के पास ऐसे एक बैनर का बिम्ब आज तक मन में है। उन दिनों कोरोनेशन होटल के पास की अपनी `हमन हैं इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या´ जैसी अद्भुत रिहाइश/जीवन-शैली में गिरदा ऐसा ही था...टाट के बैनर पर चमकते काले रंग से लिखे `नगाड़े ख़ामोश हैं´ जैसा।


इसी सबके दौरान डी.एस.बी. में `अंधायुग´ की ऐतिहासिक प्रस्तुति भी हुई और कहा जा सकता है कि कम से कम नैनीताल में तो रंगकर्म के पुनर्जागरण के केन्द्र में गिरदा ही था। यही वह समय भी है, जब नैनीताल में हो रही जंगलात की नीलामी के विरोध में वह अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ हुड़का बजाता, गाता-नाचता-सा निकला और गिरीश तिवाड़ी से गिरदा बन गया। यहीं से लोकवाद्य हुड़के को एक नया आयाम मिला। कृषिकर्म, मेले-ठेलों, जागर और यहां तक कि जनस्मृति से भी धीरे-धीरे बाहर होते जा रहे हुड़के को गिरदा ने और बदले में हुड़के ने गिरदा को एक अलग ही धज दी। विरोध की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति उठी बन्द मुट्ठी के समानान्तर उत्तराखण्ड में हुड़का जैसे स्खलित होती व्यवस्था के विरोध का प्रतीक बन गया। इसी हुड़के के साथ कुमाऊं की परम्परागत विशिष्ट खड़ी होली को जन-संघर्षों एवं आन्दोलनों का हथियार बनाने का काम गिरदा ने किया। इसी हुड़के की थाप के साथ वह `जंगल के दावेदारों´ के साथ रहा....व्यवस्था के विरोध में होने वाले छोटे-बड़े जन-संघर्षों एवं आन्दोलनों में पूरे जीवन के साथ शरीक हुआ ... आदमी की ग़लतियों एवं प्रकृति के कहर से होने वाली आपदओं के कष्ट भोग रहे लोगों के दु:ख-दर्द बांटने गया ....समाचार के लिए रिपोर्टिंग करता रहा। अब मुझे ठीक से मालूम नहीं है कि जनसरोकारों की लड़ाई के बदले जब रुद्रपुर में गिरदा पुलिसिया जुल्म का शिकार हुआ तो हुड़का उसके साथ था या नहीं। आपातकाल के दौर से लेकर अगस्त 2010 तक के उत्तराखण्ड के किसी भी जनसंघर्ष या व्यवस्था विरोधी स्वर को गिरदा के बिना, या अगर किसी वजह(पिछले तीन-चार सालों से गिरती तबीयत के कारण मुख्यत:) से वह सशरीर वहां अनुपस्थित रहा हो तो, उसके जनगीतों के बिना नहीं देखा जा सकता।

गिरदा की प्रतिभा अभिव्यक्ति के किसी एक माध्यम में बंधी नहीं रही। नाटक किये, गीत-कविताएं लिखीं - उत्तराखण्ड के जनआन्दोलनों की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का पयार्य बन गया गिरदा। गिरदा ने अनुवाद भी किये - फ़ैज़, साहिर के अनुवाद....फ़ैज़ की अमर रचना `हम मेहनतकश ...´ का ऐसा भावानुवाद गिरदा की कलम से निकला जिस पर फ़ैज़ को नाज़ होता। बानगी है - ` ओड़, बारुड़ि हम कुल्ली-कबाड़ी जै दिन यै दुनि थें हिसाब मांगुल। एक हांग नि ल्यूल एक फांग नि ल्यूल पुरि खसरा कतौनी किताब मांगुल´। फ़ैज़ की `सारी दुनिया´ को उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में `खसरा-खतौनी की किताब´ में समेट देनेवाली नज़र गिरदा के ही पास हो सकती थी।

अपने इस पूरे मानवीय पराक्रम में जो चीज़ गिरदा को गिरदा बनाती है, वह ये है कि यह सारा कुछ सवालों, मुद्दों और संघर्ष/आन्दोलन को असली लोगों(हाशिये पर सिमट गये लोगों) तक ले जाने के लिए ही था यानी चौराहे तक ले जाने के लिए, जिससे आम बुद्धिजीवी हमेशा हिचकता रहा। नाटक/गीत/कविता/होली/हुड़का/जुलूस सब केवल इसलिए कि मुद्दे पूरी शिद्दत के साथ असली लोगों के बीच ले जाये जा सकें.....और इसीलिए वह सबका गिरदा बन सका। यहां ऐसा कुछ नहीं था जो वह अपने लिए कर रहा हो, गिरदा की फक्कड़ी में अपने लिए की ज़्यादा गुंजाइश थी भी नहीं। समय विशेष पर अभिव्यक्ति के जिस भी ज़रिये को उसने अपनाया, मूल में चाह एक ही थी - मुद्दों को उन तक ले जाना, जिनसे वे बावस्ता हैं।

उत्तराखण्ड के जनसरोकारों की बात करने वाले लोगों में से अधिकांशत: कालान्तर में `स्वयंभू´ या `मठाधीश´ हो गए - टिहरी के राजा `बोलान्दा बद्री´ की तरह ` बोलान्दा उत्तराखण्ड´। इनकी व्यक्तिगत उपलब्धियों की सूची बड़ी होती गई, किन्तु जिस उत्तराखण्ड की बात करते यह लोग समाज और राजनीति में स्थापित हुए, उसकी उपलब्धियां ? गिरदा वहीं रहा, असली लोगों के बीच, अनिष्ट और अव्यवस्था को जड़ से पकड़ लेनेवाली अपनी पैनी नज़र के साथ। गिरदा की नज़र समकाल के पार बहुत आगे तक देख सकने वाली नज़र थी। 1994 के जन-उभार के दौरान `सतत् प्रवाहमान ऊर्जा´ और `आज दो-अभी दो´ के उतावलेपन में भी नैनीताल समाचार के सांध्य बुलेटिन में अपनी गीतात्मक अभिव्यक्ति में गिरदा का स्वर अकेला स्वर था, जो राज्यप्राप्ति के दौरान और राज्यप्राप्ति के बाद दलगत राजनीति के प्रति लोगों को आगाह कर रहा था। अपनी इन अभिव्यक्तियों में वह अचूक भविष्यदृष्टा ही साबित हुआ, क्योंकि अन्तत: `उत्तराखण्ड´, आन्दोलन का नहीं बल्कि राजनीति का ही विषय रह गया है। गिरदा के गीत `घुननि मुनई नि टेक जैंता ! एक दिन तो आलो´ की उदासी के मूल में दलगत राजनीति के हावी हो जाने का ही ख़तरा है।

अब गिरदा नहीं है। उसकी जगह शून्य है, लेकिन जैसी कि गिरदा की स्थाई टेक थी `भले ही मानी न जाये मगर सुन मेरी भी ली जाए´ - कहते हैं प्रकृति किसी भी शून्य को बर्दाश्त नहीं करती...हर शून्य अन्तत: भरता है। फिर भी एक जगह ऐसी है जहां गिरदा का होना बेहद ज़रूरी था...जहां गिरदा की ग़ैरमौज़ूदगी बड़े तीखेपन से महसूस की जायेगी। उत्तराखण्ड के जनसरोकारों की लड़ाई को `संघर्षवाहिनी´ के बिखराव ने अत्यधिक क्षति पहुंचाई थी। 1994 के `जन उभार´ के चढ़ाव के दौर में आन्दोलनकारी ताक़तों की जो एकजुटता दिखाई दे रही थी, वह भी अवसाद के दौर में बिखराव की शिकार हुई। आन्दोलनकारी ताक़तें इस सर्वव्यापी बिखराव की वजह से जितनी नेपथ्य में जाती रहीं, मंच दलगत राजनीति के लिए उतना ही खुलता गया। आन्दोलनकारी ताकतों के बीच इस समय ` जितने बांभन उतने चूल्हे´ की निर्लज्जता पसरी हुई है। मूल कारण छोटे-छोटे अहंकार और परस्पर अविश्वास हैं। उत्तराखण्ड की लड़ाई के लिए इन छोटे-छोटे शक्ति-समूहों एवं आन्दोलनकारी ताक़तों के किसी एक एक `फोकल प्वाइंट´ पर घनीभूत हो सकने का सपना गिरदा के इर्दगिर्द ही सम्भव था, किन्तु गिरदा अब नहीं है...नहीं है मतलब नहीं है!

उम्मीद ज़रूर की जा सकती है कि असल मुद्दों को असली लोगों तक पूरी शिद्दत के साथ ले जाने की गिरदा की अदम्य और अपार इच्छा को यदि हम अपने भीतर जीवित रख सकें तो उत्तराखण्ड में नई सुबह का सपना देखते हुए ` जैंता एक दिन तो आलो वो दिन यै दुनिं में...´ अब भी गाया जा सकेगा।


***


रमदा आदर और प्यार का संबोधन है...श्री प्रेमबल्लभ पांडे के लिए, जिन्होंने ये स्मृतिलेख लिखा है। वे कई वर्ष अर्थशास्त्र के प्राध्यापक रह कर साल भर पहले सेवा निवृत हुए। नैनीताल ज़िले के क़स्बे रामनगर में रहते हैं। साहित्य में उनकी गति अनंत है। ख़ासकर कविता वे बहुत प्यार से पढ़ते हैं। मेरी लिखी हर कविता उनसे सहमति प्राप्त होने के बाद ही प्रकाशित होती है। उनके जैसा मित्र पा लेना भी इस दुनिया में एक बड़ी उपलब्धि है। मैंने कई बार प्रयास किया कि समकालीन हिंदी कविता पर उनसे कुछ लिखवाया जा सके पर वे सनक की हद तक संकोची भी हैं....और मैं उनसे काफ़ी खीझा भी रहता हूँ। बहुत प्यारे दोस्त को खो देने के कारण गिरदा पर लिखना उनके लिए ख़ासा कष्टप्रद रहा, पर आख़िरकार उन्होंने कुछ लिखा और मैं आभारी हूँ कि अपने लिखे को अनुनाद के लिए भी दिया।

Sunday, September 19, 2010

जीवन रहेगा

उत्तराखंड विपदा में है। सब कुछ उजड़ा - उजड़ा। कुछ दिन से अनुनाद पर आना भी नहीं हुआ। आज आया हूँ तो सोचा पोस्ट बदल दूँ। बस एक कविता जो पब्लिक एजेंडा में छपी थी...पिछले महीने...

जीव रहेगा

जीवन था
क्योंकि शर्त थी कि जीवन रहेगा
एक बदला ख़ुद से
जिसे जीकर ही लिया जा सकता था
हर हाल में

बदले में तकलीफ़ थी
जैसी पुरानी लड़ाइयों में प्राणघातक घाव लग जाने से होती थी
पर सन्तोष था कि जीकर ही भुगत लिया सबकुछ

सबकुछ यानी सबकुछ
सब जो प्रेम था और कुछ जो प्रेम नहीं था
दोनों को अलगाना नहीं था
साथ में वो ज़्यादा अर्थ देते थे

जीवन को ज़्यादा अर्थ की ज़रूरत थी
कम अर्थ उसे बिगाड़ सकता था
ख़त्म भी कर सकता था
लेकिन शर्त थी कि जीवन रहेगा
पर ज़्यादा अर्थवान होने से वह गूढ़ होता जाता था
समझ में नहीं आता था

समझ में नहीं आता था इसीलिए तो जीवन था
और शर्त थी कि वह रहेगा

रहेगा में एक ढाढ़स होना था
पर नहीं था
वह भीतर ही रोक ली गई उस रुलाई की तरह लगता था
जिसे एक औरत
घर भर से छुपाती थी

टी.वी. पर एक रियलिटी शो में
प्रतिभागी भोजपुरी नायक रह-रहकर दहाड़ता था -
जिन्दगी झण्ड बा
तब भी घमण्ड बा !

इस तरह
अपने समय में चुकी हुई कविता तो
लगातार सरल होती हुई एक जगह आकर ख़त्म हो जाती थी
पर गुणीभूत होता हुआ जीवन था

और शर्त थी कि वह रहेगा !
***

Saturday, September 11, 2010

उस अलाव से कुछ बच ही निकलता है : मार्टिन एस्पादा



उस अलाव से कुछ बच ही निकलता है
विक्टर और जोअन हारा के लिए


I.क्योंकि हम कभी नहीं मरेंगे: जून 1969

विक्टर गा उठा हलवाहे की प्रार्थना अपनी
लेवंताते, य मिराते लास मानोस.
उठो और निहारो अपने हाथों को
रूखी त्वचा के दस्ताने पहने, विक्टर के पिता के हाथ
पत्थर हो गए हल चलाती मुट्ठियों की तरह.
इस्तादियो चीले ने लगाया जयकारा, बेसुध उस आदमी की
तरह जिसे पता है कि उसने आखिरी बार हल है चलाया
किसी और के खेतों में, जो सुनता है वह गीत कि जिसमें
कही जा रही है वह बात, जिसे वह न जाने कब से
अपनी गर्दन के निचले हिस्से पर ढोए जा रहा है.

जोअन. नर्तकी, जो भीड़ के सामने झूमा करती
उन्हीं झुग्गी बस्तियों में जहाँ विक्टर गाया करता
अपनी कुर्सी पर बैठे बैठे आगे को झुकी यह सुनने:
नवगीत महोत्सव का पहला इनाम विक्टर हारा को.
ये वो रातें हैं जब हम सोते नहीं
क्योंकि हम कभी नहीं मरेंगे.
फिर कैसे वह अँधेरे में तिरछी निगाह डाले,
सबसे आखिरी सीट से भी पीछे कहीं, अपनी गिटार उठाये,
गा सकता है: हम साथ-साथ जायेंगे, आपस में जुड़े हुए खून से,
इस घड़ी और हमारी मौत के पहर में. आमीन.


II. वह आदमी जिसके पास है सभी बंदूकें: सितम्बर 1973

तख्ता-पलट हुआ, और सैनिकों ने कोड़े लगाये राज्य के दुश्मनों को
हाथ सिर पर और कतारबद्ध, स्टेडियम के फाटकों से होकर.
दण्डित चेहरों ने अपने खून का उजाला बहाया इस्तादियो चीले
के दालानों में. उजाला बहता है वहाँ अब भी.
हत्यारों का भी था अपना उजाला, भुतहा सिगरेटें
हर गलियारे में टिमटिमातीं, खासकर प्रिंस,
या जैसा कि कैदी उस भूरे अफसर को कहते
जो ऐसे मुस्कुराता जैसे उसके दिमाग में गाते हों गिरजे.

जब गलियारे में विक्टर फिसल पड़ा
छाती से चिपके गठरी बन बैठे उन हजारों घुटनों से दूर
जो इंतजार कर रहे थे अपनी गर्दन पर सिगरेटों का
या घूरती मशीन-गनों को वापिस घूर रहे थे.
विक्टर मिला प्रिंस से, अपने दिमाग में सुन रखा होगा गाना उसने,
क्योंकि पहचान गया वह गायक का चेहरा, झनझना दी हवा
और उंगली से चीर दिया उसके गले को.
प्रिंस ऐसे मुस्कुराया जैसे वो हो वह आदमी जिसके पास है सभी बंदूकें.

बाद में, जब जाना दूसरे कैदियों ने
कि उनके कन्धों पे नहीं लगे हैं पर
जो उड़ा ले जाएँ उन्हें फाइरिंग दस्तों से दूर,
विक्टर ने गाया "वेंसेरेमोस'", हम फतहयाब होंगे,
और प्रतिबंधित उस तराने से ऊँचे उठ गए कंधे
चीख-चीख कर प्रिंस का चेहरा पड़ गया लाल जब.
जब उसकी अपनी चीख शांत न कर सकी उस तराने को
जो उसकी नसों से धड़कता हुआ पहुँच रहा था उसके दिमाग तक,
प्रिंस ने सोचा, कि मशीन गनें तो कर ही देंगी.


III. गर फ़क़त विक्टर: जुलाई 2004

तोड़ दो हरेक घड़ी इस्तादियो चीले पर पटक कर
इस जगह, विक्टर की आखिरी साँस
से गिने जाते हैं इकतीस साल. एक लम्हा,
जैसे मोमेंटो में, आखिरी गीत का आखिरी लफ्ज़
जो उसने लिखा था फेफड़ों के छत्ते में
गोलियों के घुस पड़ने से पहले.

उसकी आँखें अब भी जलती हैं. जीभ अब भी जम जाती है उसकी.
फिर हेलीकाप्टर गरजते हैं जोअन के लिए,
बजता है फौजी संगीत हर रेडियो स्टेशन पर,
रोटी की क़तार में औरतों को राइफल के हत्थे से ठेलते हैं सैनिक.
वह फिर पाती है अपने शौहर की लाश मुर्दाघर में
गंदे कपड़ों के ढेर की तरह पड़ी लाशों के बीच
और उठाती है उसका टूटा हुआ लटकता हाथ अपने हाथों में
जैसे कि नाच शुरू करने वाली हो कोई.

हाँ, जहाँ उसे मारा गया था उस स्टेडियम को अब उसका नाम दे दिया गया है
हाँ, लॉबी की समूची दीवार के पत्थरों में उसके शब्द हैं बहते
हाँ, आज रात चीनी नट यहाँ दिखायेंगे कलाबाजियाँ,
वह फिर भी फाड़ डालेगी वह बैनर जिस पर उसका नाम सजा है
उसके शब्दों की दीवारें तोड़ डालेगी हथौड़े से
और पसरा देगी नटों को रास्तों पर
गर फ़क़त विक्टर हो जाए दाखिल कमरे में
इस बहस को अंजाम देने
कि क्यों वह इतना धीरे चलता है सुबह सुबह
कि उसने जोअन को क्लास के लिए देरी करवा ही दी लगभग.



IV. उस अलाव से कुछ बच ही निकलता है: जुलाई 2004

सान्तियागो के दक्षिण में, इस्तादियो विक्टर हारा से दूर
तम्बू के नीचे जहाँ खड़खड़ाती है टाट बारिश की कीलों से
तख्ता-पलट के बरसों बाद पैदा हुए एक लड़का और लड़की
मंच पर एक कुर्सी के सहारे झुकते हैं अपनी आँखों में भर लेने को एक-दूसरे के चेहरे.
कैसेट घरघराता है, और विक्टर की आवाज़
जले हुए कागज़ की तरह चक्कर खाती हुई उठती है छत की ओर
प्रेमी के मौन का गाया जाना उन नर्तकों के लिए
जो अपने शरीरों के प्रतान को सीधा करते हैं.

उस अलाव से कुछ बच ही निकलता है
जिस पर अपने हाथ सेंका करते हैं सेनानायक
जले कागज़ के अंगारे, दफन कर दिए गए टेप-रिकार्ड
ख़ामोशी में गूंजती हुई आवाजें
जैसे हों अदृश्य जीव पानी से भरे गिलास में
नर्तकी कैसे झूमती जाती है उस संगीत पर जो गूँज रहा सिर में
तनहा मगर कुहनी पर उँगलियों की छुअन की है सिहरनें.


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चीले में सल्वादोर आयेंदे (Salvador Allende) की लोकतांत्रिक पद्धति से सत्ता में आई समाजवादी सरकार के खिलाफ 11 सितम्बर 1973 को हुए अमेरिका-समर्थित सैन्य विद्रोह के दूसरे ही दिन लोकगायक और राजनीतिक कार्यकर्त्ता विक्टर हारा को गिरफ्तार कर लिया गया था. चार दिनों तक यातनाएँ देने के बाद 15 सितम्बर को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई. 'उत्तरी अमेरिका के पाब्लो नेरुदा' कहे जाने वाले मार्टिन एस्पादा की यह कविता उनकी पुस्तक 'रिपब्लिक ऑफ़ पोएट्री' में संकलित है. कविता के पहले दो अंश विक्टर की पत्नी जोअन हारा (Joan Jara) की पुस्तक विक्टर: एन अनफिनिश्ड सॉन्ग (Victor: An Unfinished Song, Bloomsbury,1998) में दिए गए विवरण पर आधारित हैं. तीसरा अंश जुलाई 2004 में सान्तियागो में इस्तादियो विक्टर हारा में कवि की जोअन हारा के साथ हुई बातचीत पर आधारित है. पहले अंश में विक्टर हारा के गीत 'प्लेगारिया उन लाब्रादोर' (हलवाहे की प्रार्थना) की एक पंक्ति मूल स्पैनिश में उद्धृत की गई है. "वेंसेरेमोस" (हम फतहयाब होंगे) जिसका ज़िक्र तीसरे अंश में आया है, यूनिदाद पॉपुलर (Unidad Popular अर्थात जन एकता) गठबंधन और आयेंदे सरकार का कौमी तराना था. स्पैनिश में इस्तादियो का अर्थ है स्टेडियम; और तीसरे अंश में उल्लेखित 'मोमेंटो'(क्षण) दरअसल विक्टर हारा द्वारा लिखे गए अंतिम गीत का अंतिम शब्द है क्योंकि वाक्य पूरा होने से पहले उनपर गोलियाँ चला दी गई थीं. ऊपर की तस्वीर में विक्टर और जोअन हारा अपनी बेटियों अमांडा और मैन्युएला के साथ हैं.

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