आज रघुवीर सहाय का जन्मदिन है। अत्यन्त संक्षेप में कहें तो सहाय जी आधुनिक हिंदी कविता के उन कद्दावर कवियों में हैं, जिनकी कविता में हमारा सामाजिक जीवन और उसके संघर्ष कहीं व्यापक, जटिल और सम्पूर्णता के स्तर को छूते दिखाई देते है। इस अवसर पर यहाँ हम रघुवीर सहाय को समर्पित व्योमेश शुक्ल की एक कविता प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे पता लगता है कि अपने समय का एक महान कवि और उसकी कविता की परम्परा कहाँ कहाँ पहचानी जा सकती है। जैसे निराला पर रामविलास शर्मा की कविता, जैसे नागार्जुन पर बोधिसत्व की कविता, वैसे ही (उतनी घोषित न होते हुए भी) व्योमेश की यह कविता अपनी पूर्वज कविता की याद का एक दुर्लभ आख्यान है।
व्योमेश शुक्ल की कविता
दादर कबूतरख़ाना
(और रघुवीर सहाय की याद)
कबूतर कितने साल ज़िन्दा रहते हैं नहीं मालूम
आज के कबूतर पन्द्रह साल पहले के कबूतर लगे
यथार्थ के कबूतर हैं कि स्मृति में फड़फड़ाते हुए कबूतर
ये वही कबूतर नहीं हैं कि वही हैं बूढे़ कबूतर
आज में कल के कबूतर
आज में आज के कबूतर
आज में कल के कबूतर
कबूतर कबूतर कबूतर कबूतर
आज में आज के कबूतर
आज में कल के कबूतर
कबूतर कबूतर कबूतर कबूतर
सड़क वही लगती है वही है
लोग वही लगते हैं वही नहीं हैं
लगना वही लगता है बिलकुल बदल गया है बिलकुल बदलना
हमेशा दलबदल जैसा घृणित नहीं होता
मराठी और कम लागत वाली हिंदी फि़ल्मों का एडिटिंग लैब
अब यहाँ नहीं है यहाँ पन्द्रह साल पहले है
लोग वही लगते हैं वही नहीं हैं
लगना वही लगता है बिलकुल बदल गया है बिलकुल बदलना
हमेशा दलबदल जैसा घृणित नहीं होता
मराठी और कम लागत वाली हिंदी फि़ल्मों का एडिटिंग लैब
अब यहाँ नहीं है यहाँ पन्द्रह साल पहले है
है नहीं है, था है, है था, है है
है है है है है है है है
है है है है है है है है
दादा कोंडके नहीं हैं रमाकान्त दाभोलकर नहीं है
बाम्बे लैब नहीं है सस्ती फि़ल्में नहीं हैं मतलब
`नहीं´ है
जगह का नाम
वही है
बाम्बे लैब नहीं है सस्ती फि़ल्में नहीं हैं मतलब
`नहीं´ है
जगह का नाम
वही है
***
पोस्ट का ही मतलब समझ नही पाया . कविता के बारे क्या कहूँ ?
ReplyDeleteसहाय जी को हमारी श्रद्धांजलि. आज के दिन को छूती उनकी बहुत अच्छी छोटी कविता लगायी शिरीष जी आपने. सहाय जी ने कभी नहीं सोचा होगा की इस कविता को उनके जन्मदिन की कविता बनाया जा सकता है. व्योमेश शुक्ल की कविता पढ़ कर "हंसो हंसो जल्दी हंसो" की कविताएँ याद आने लगी हैं.
ReplyDelete@अजेय
आज हिंदी के महानतम कवि रघुवीर सहाय का जन्मदिन है. युवा कवि और ब्लोगर शिरीष मौर्य ने उनकी याद में युवतर कविता में उनके गहरे प्रभाव को सप्रमाण प्रस्तुत करते हुए एक पोस्ट लगायी - यह कितनी अबूझ बात है! अजेय जी आप कौन हैं? क्या आपकी समझ में नहीं आता ये तो आपने बता दिया अब ज़रा ये भी बता दीजिये की क्या क्या आपकी समझ में आता है. आपकी समझ में आने के लिए आखिर चीजों को कितना सिकुड़ना पड़ेगा?
शिरीष जी माफ़ करना आपके ब्लॉग पर आ के चंद तल्ख़ बातें कह गया. नौकरी के सिलसिले में कुछ ऐसा उलझा कि ब्लॉग की दुनिया से लगातार दूर रहा. आज दुबारा इधर लौटा हूँ. आगे बना रहूँगा.
www.talkhzaban.blogspot.com
रघुवीर सहाय जी को इस तरह याद करना अच्छा लगा । जनाब तल्ख़ ज़ुबान आपका गुस्सा जायज़ है लेकिन क्या यह हम लोगों की ग़लती नहीं है कि हमने इस पीढ़ी को नहीं बताया कि रघुवीर सहाय कौन है ..चलिये इस ब्लॉगरी के बहाने ही सही यह पीढ़ी इन साहित्यकारों के करीब तो पहुंच रही है ।
ReplyDeleteशिरीष जी
ReplyDeleteसहाय जी को याद करना अच्छा लगा
सहाय जी को श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteव्योमेश की कविताओं का हिन्दी अनुवाद भी साथ ही साथ पेश करें शिरीष जी। बेतुकी कवितायें है या उस कवि की सलीकेदार कविताओं में से चयन का आपका सलीका ही गलत है। उनकी 6 दिस्मबर वाली कविता भी बेमानी ही थी। अब कृपया मुझे समझाने के बजाय आप मेरी बात पर गौर करियेगा जरा।
रघुवीर सहाय का बाद की पीढ़ी पर बेहद सार्थक असर रहा है. मुक्तिबोध के बाद सहाय ही हैं जो सच्चे मायनों में राह दिखाते हैं. व्योमेश शुक्ल की कवितायेँ बेहतरीन हैं.
ReplyDeleteमैंने रघुवीर सहाय पर एक लम्बा लेख टाइप पर चिपकाते-चिपकाते जाने कैसे उड़ गया. फिर कोशिश करूँगा. शायद एक दिन लेट हो जाए.
@ anurag: aapke aagrah ko dekh kar prasadji ki in panktiyon ka sahaj hi smaran ho aaya : yah vidambna ari sarlate, teri hansi udaun main!...aapka aagrah ( gyan samet) kitna chichla hai yah to aap yahan zahir kar hi gaye!...yun hi anawrit hote jaiye...
ReplyDeleteअनुराग जी, मेरी हँसी उड़ा के अगर आप खुश हो तो जरुर उड़ायें। पर आप यह बता दीजिये कि मेरी प्रतिक्रिया में ऐसी कौन सी नादानी है? ये जो घटिया तरीका है जबाव देने का, मसलन किसी अज्ञानी के उपर हंसने का, तो आपसे एक प्रार्थना है कि आप ही इस कविता का अर्थ समझा दें।
ReplyDeleteव्योमेश को आप लोग खा रहे हैं। उनकी हरेक ऊल-जलूल चीज की तारीफ करके। आपने भी उसे छापा और आप इतने ज्ञानी हैं जो छापते हुए भी यह समझ नहीं पाया कि वो कविता है या कहानी?
कविता का अर्थ जरूर समझाईयेगा।
प्रिय कवि रघुवीर सहाय को हार्दिक श्रद्धांजली।
ReplyDeleteअति सुन्दर... उनकी प्रतिनिधि कवितायेँ मेरे पास हैं... आज पढूंगा... जानकारी बांटने के लिए आभार...
ReplyDeleteरघुवीर सहाय को श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteसम्भवत: सन्दर्भ नहीं पता, इसलिए व्योमेश जी की कविता का मर्म मुझे भी समझ में नहीं आया। ..ऐसे में बेनामी की विष्णु खरे, केदार या श्री प्रकाश वाली बात जँची लेकिन बेनामी जी को हिन्दी से इतनी नाराजगी क्यों है? समझ में नहीं आया।
इसके लिए बेनामी रहने की क्या जरूरत है? बात कुछ और लगती है।
@अजय ,आपका व्योमेश की कविता और पोस्ट को न समझना ही इस कविता की और पोस्ट की सार्थकता है वो एक पंक्ति है न कविता में 'आज में आज के कबूतर 'उसे बार बार पढ़िए |
ReplyDelete@अनुराग जी ,मुझे लगता है व्योमेश की कविताओं के हिंदी अनुवाद के बजाय आपको आत्मानुवाद करने की जरुरत है ,मुझे आश्चर्य होता है की कितनी आसानी से आपने कविता के साथ बेईमानी शब्द जोड़ दिया ,संवेदनाएं बेईमानी नहीं होती ,यहाँ तो श्रद्धांजलि है |
@anonymous वक़्त आने पर आपको भी कुछ न कुछ समर्पित किया जायेगा
आप सबकी टिप्पणियों के लिए शुक्रिया दोस्तो !
ReplyDeleteबेनामी टिप्पणियां हटा दी गई हैं.
शिरीष भाई , इसे अध्यक्षीय भाषण मानूं, या कुछ आगे बढ़ा जाए?
ReplyDeleteअजेय बिलकुल आगे बढ़ो यार ! अध्यक्षीय भाषण जैसा कुछ नहीं बस बेनामी टिप्पणी हटाने की सूचना थी सो शुक्रिया भी कह दिया.
ReplyDeleteथेंक्स शिरीष, ज़रा अपने ब्लॉग के फोटो एद्जस्ट करने मे फ़ँस गया था .यहाँ जी पी आर एस धीमा है. अपलोडिंग मे दिक़्क़त है. क्षमा चाहता हूँ.
ReplyDeleteमेरी नासमझी पर इतनी तल्खी, इतनी नासमझी, इतना आवेश?
जनाब जी, कवियों और कविताओं पर तो मैं ने कुछ कहा ही नही. मैं तो शिरीष से यह जानना चाह रहा था कि इस पोस्ट का का मतलब( प्रभावों का सन्दर्भ) अभिधा मे लूँ, या व्यंजना में?
# तल्ख , अपनी बात कहने के लिए अपना नाम छिपाना जायज़ है. बुज़्दिली और कुछ जेनुईन कारणो के चलते ऐसा करना पड़्ता है आदमी को.
कुछ दिन पूर्व अशोक पांडेय ने किसी भीम सींग को यह प्रश्न किया था कि तुम कौन हो, वह जायज़ है. लेकिन जो खुद छिप के बैठा हो, वह एक आदम्ज़ात नंगे को क्यों और कैसे पूछ सकता है कि तुम कौन हो? उल्टा चोर...
सहाय जी मेरे और आप के प्रिय तम कवि हो सकते हैं, महानतम क़तई नहीं.फतवे देने का काम आप नामवर जी पर ही छोड- दें.
और चीज़ों को तो बन्धु सिकुड़्ना ही पड़ेगा(वैसे मै इसे खुलना कहता हूँ) पाठक के भेजे मे घुसने के लिए. वरना उस चीज़ का क्या महत्व रह जाएगा?
# शरद, धीरेश भाई, रघुबीर सहाय कि कविताओं से थोड़ा बहुत परिचय है मेरा, मुझे लगा था वे किसी और ही परम्परा के कवि हैं. मुक्तिबोध के बाद तो मुझे विजय देव नरायण साही नज़र आये थे. खैर आप लोग ऐसा कहते है तो मैं रघुवीर सहाय को दोबारा पढ़ूँगा. मन से! मैं यहाँ सीखने ही आया हूँ.
# अनोनिमस, व्योमेश सिंसेयर कवि हैं, उन की कविता ऊल जलूल नही हो सकती, हाँ हम जैसे पाठक तक पहुँचने के लिए उन्हे चीज़ो को थोड़ा खोलना चाहिए.
# आवेश, इतनी जल्दी आवेश मे न आएं. पहले बेमानी और बेईमानी का फर्क़ जान लें . ये संस्कार धीरे धीरे ही आते हैं बड़े संयम की ज़रूरत होती है.
AUR भला शिरीष और व्योमेश को मुझ नौसिखिए से इतनी क्या खुन्नस हो सकती है कि किसी कविता , पोस्ट का मतलब ही समझ मे न आने देना चाहते हों?
वैसे तुम्हारा जज़्बा (कवि के लिए या कविता लिए)
जो भी हो क़ाबिले क़द्र है.
यार आवेश, तुम्हे कम से कम हिन्दी पढ़ने तो आना ही चाहिये। कैसे पत्रकार हो यार, जो बेमानी और बेईमानी में फर्क नहीं ढ़ूढ पाया। अक्षरज्ञान बेहद अनिवार्य है आवेश जी। और उससे भी ज्यादा अनिवार्य है, तमीज। भाई अजेय ने तुम्हे इस गलती का ध्यान भी दिलाया पर तुम शायद जरूरी नहीं समझते कि गलतियाँ सुधारी जाये।
ReplyDeleteऔर साहब ये आत्मानुवाद क्या होता है? किसी ढोंगी बाबा-टाबा की शरण तो नही ले रहे आजकल?
@अनुराग ,मित्र आपका बेमानी भी बेईमानी के साथ लिखा था ,इसलिए बेईमानी लिखना समीचीन लगा ,वैसे अक्षरज्ञान से क्या फायदा ,जब अर्थज्ञान ही न हो ,मतलब समझ रहे हों न मित्र ?तमीज का जहाँ तक प्रश्न है देख रहा हूँ ,तुममे ये बहुत पहले से नदारद है ,कोई भी टिप्पणी शालीनता के हद में रख कर की जा सकती थी |किसी कविता को बेतुकी कहना किसी की टिप्पणी को घटिया कहना यदि तमीज है तो वो तुम खुद के पास रखो |बिजुडिया बरम बाबा का नाम सुना है ?नहीं सुना होगा ,उन्ही की शरण में हूँ ,फिर कुछ तमीज से लबरेज शब्दों की प्रतीक्षा में
ReplyDelete@अजेय भाई ,भाषाज्ञान देने के लिए धन्यवाद ,मुझे सच में नहीं पता था |हां ,एक नयी बात ये भी जाना की भाषाज्ञान संस्कार की चीज है
ReplyDeleteअरे, any time , आवेश! एक हिन्दी प्रेमी होने के नाते यह मेरा फर्ज़ था. बिल्कुल, भाषा संस्कार की चीज़ है. वह भी जन्मगत नहीं, परिवेश गत संस्कार की. बस अच्छे साहित्य से जुड़ाव बनाए रखॆं. फिर हिन्दी तो आप लोगों की भाषा है.
ReplyDeleteमुझे देखिए, विद्वानों ने मेरी मातृ भाषा को आर्य परिवार का न मान कर आग्नेय परिवार का माना है. मतलब यह कि एक अंग्रेज़,जर्मन, अरब, और इरानी की भाषा हिन्दी के ज़्यादा निकट है, बजाय मेरी भाषा के. फिर भी मैं हिन्दी में कम्युनिकेट करना सहज महसूस करता हूँ.क्यों कि यह मेरे देश के आम जन की भाषा है, और बहुत गहरे में मानता हूँ कि हिन्दी ही इस देश को टूटने से बचा रही है, बचाएगी. इसी भाव से मैं 1983 के आस पास हिन्दी साहित्य से जुड़ा हूँ, और इसे सीख रहा हूँ. कहीं कुछ अखरता है तो टोक देता हूँ. जिज्ञासा ज़ाहिर कर देता हूँ. इसे सीखने की प्रक्रिया समझॆं.और कुछ नहीं... जुड़े रहें, बहुत सी हिन्दी मुझे तुम से भी सीखनी है.
रघुवीर जी को और इस कविता को कोटि-कोटि नमन...
ReplyDeleteमैं बस इतना ही कहना चाहूंगा कि:
"....तोता तोता तोता तोता
तो तो तो तो ता ता ता ता
बोल पट्ठे सीता राम"
(शायद रघुवीर जी की ये पंक्तियाँ भाई व्योमेश की कविता से साम्य बैठाने में कुछ मदद करें)
भविष्य की शुभकामनाओं के साथ.
सिद्धान्त मोहन तिवारी
वाराणसी
प्रिय अजेय जी,
ReplyDeleteगिरिराज जी वाली पोस्ट पर आपकी टिप्पणी देखी. लगता है आप मेरी शालीनता से सहमत नहीं हैं. आपने मुझे झगडाप्रेमी भी कहा - चलिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के लिए मैं इस तोहमत को स्वीकार करता हूँ. मेरे "झगड़े" को आप इस तरह भी देख सकते हैं. व्योमेश की कविता आज के समय और समाज के निर्वात और उचाट को उसी शैली में व्यक्त करने की कविता है. दो समयों के बीच का संक्रमण भी वहां है - है और था, है है और था था या फिर आज के कबूतर और कल के कबूतर आदि जान बूझ कर किये गए अजीब से प्रयोग रघुवीर जी के समय को एक नोस्टेल्जिया की तरह देखने का विरोध करते हैं और साथ ही उनके समय को अपने समय में घटता देखते हुए एक समान सच का उदघाटन भी करते हैं. अब हमारे समय का सच क्या है ये सबको पता है और पुराने समय का कितना कुछ भला बुरा नए समय में आया है ये भी किसी से छुपा नहीं है. अगर कुछ विकट है तो उसकी अभिव्यक्ति भी विकट है. कुछ उचाट है तो उसकी अभिव्यक्ति भी उचाट है. मैं जिस पेशे मैं हूँ वहां से इस विकट और उचाट के दर्शन कुछ ज्यादा खुले और साफ़ हैं. मैं वहां से रोज़ी कमाता हूँ पर जानता हूँ कि बहु...उदार....भू....आदि से शुरू होने वाले आर्थिक वैचारिक शब्द किस तरह एक समाज और पीढी को खा रहे हैं.....मैं उस तंत्र का हिस्सा बनता गया हूँ पर एहसास है कि जीवन किसी एनाकोंडा के पेट में जा रहा है.
बहकने के लिए मुआफी.
मैं हिंदी का आदमी नहीं हूँ इसलिए मेरा शब्द चयन गड़बड़ा सकता है लेकिन उम्मीद है बात पहुंचेगी. न पहुंचे तो इतना जान लीजिये मैं वैचारिक रूप से किसी लद्धड और जड़ आदमी की ज्यादा परवाह नहीं करता.
सादर आपका तल्ख़ ज़ुबान
यह पोस्ट बहुत पुरानी हो गयी. एक तो अनुनाद पर हफ्ते मे 5-7 पोस्ट लग जाते हैं . महमानों की सुविधा के लिए तल्ख ज़ुबान को यहाँ पर जवाब दे रहा हूँ:
ReplyDeletehttp://www.ajeyklg.blogspot.com/
यह पोस्ट अगले साल तक दिखता रहेगा.