Tuesday, December 8, 2009

अबू ताहा अपनी छत पर कबूतर पालता है: एप्रिल जॉर्ज


एप्रिल जॉर्ज की यह कविता (मूल अंग्रेजी में) दि नवेम्बर थर्ड क्लब के अद्यतन अंक में प्रकाशित हुई है.


अबू ताहा अपनी छत पर कबूतर पालता है


बगदाद में अबू ताहा अपनी छत पर
कबूतर पालता है.
सलेटी, भूरे, चितकबरे, कंठीदार.
सूरज ढलते वक़्त, वे करते हैं गुटरगूं
जब अबू आता है
और शहर के आसमान में उन्हें आज़ाद कर देता है.
मरता हुआ सूरज इमारतों पर नारंगी सा दमकता है.
वे मंडराते हैं मुहल्लों के ऊपर,
नीले गुम्बद वाली मस्जिद के सामने
चक्कर काटती चित्राकृतियों जैसे, झिलमिलाते हुए.
गश्त पर निकले ब्लैक हॉक* के जोड़े
के नीचे उड़ते हुए.
ज़मीन पर पड़े मुट्ठी भर दाने चुगने
अबू के पास लौटने से पहले
वे आखिरी बार
टाइग्रिस** के ऊपर उड़ान भरते हैं.
सिर्फ परिंदे बचे रह सकते हैं
नाकेबंदियों से, भीड़-भड़क्के से,
मार-काट से, गुस्से से फट पड़ते आदमियों से.
बगदाद में इन दिनों
सिर्फ परिंदे जहाँ मर्ज़ी वहां जा सकते हैं.


(3 जून 2007 को वाशिंगटन पोस्ट में छपे टेरी मैकार्थी के आलेख 'लाइफ़ इन दि इन्फर्नो ऑफ़ बगदाद' के पहले पैराग्राफ से प्रेरित)


***********

*ब्लैक हॉक: अमेरिकी सैन्य हेलीकॉप्टर
**टाइग्रिस: बगदाद से होकर बहने वाली नदी.

3 comments:

  1. समसामायिक कविता, अच्छी लगी

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  2. सरल और सुंदर राजनीतिक कविता।

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  3. It is always nice to have someone other than family like ones poem. My thanks to my daughter Emily for her suggestions along the way. I'm sending this to a friend whose parents are from India and read Hindi.

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