अनुनाद

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ज्योत्स्ना शर्मा (११ मार्च १९६५-२३ दिसम्बर २००८ ): प्रस्तुति धीरेश सैनी

ज्योत्स्ना शर्मा (११ मार्च १९६५-२३ दिसम्बर 2008) और उनके लेखन के बारे में साहित्य की दुनिया अनजान है। इसी महीने आये संबोधन के कविता विशेषांक में ज़रुर उनकी कुछ कवितायेँ छपी हैं। हम उनकी तीन अप्रकाशित कवितायें दे रहे हैं। उनके निधन पर अलीगढ़ में मनमोहन द्वारा शोक प्रस्ताव के रूप में पढ़ी गई संक्षिप्त टिप्पणी भी यहाँ दी जा रही है।

परिवार के शामियाने में

नाराज़ है बच्चा
पत्ते की तरह खामोश, अभेद्य
रह रह कर सुनता है हृदय में उदास क्रोध
प्रेम इसे बना रहा है उद्दंड
वफ़ादारी के एवज में
पूरा नहीं पड़ता
बच्चे का प्यार
बार बार जोड़ते हैं हिसाब माँ बाप
प्रेमी रहेगा वो या फिर शत्रु
पर कभी नहीं कहीं नहीं
शुक्रगुज़ार
इस तरह बचा लेगा इज्ज़त
इस यतीम रिश्ते की।

बहुत से थप्पड़ खाकर
सीख लेगा शुक्रगुज़ारी
धीमे धीमे पढ़ेगा खाता
रोटी और कपड़े का
एहसानमंदी बनायेगी इसे सभ्य
विस्मृति बन कर देह
छा जायेगी आत्मा पर
गिरेगा बार बार पर
सीख लेगा अपना आइटम
परिवार के शामियाने में
चलायेगा
एक पहिये की साइकिल।
***

गुमनाम साहस

वयस्कों की दुनिया में बच्चा
और पुरुषों की दुनिया में स्त्री
अगर होते सिर्फ़ योद्धा
अगर होती ये धरती सिर्फ़ रणक्षेत्र
तो युद्ध भी और जीत भी
आसान होती किस कदर;

लेकिन मरने का साहस लेकर
आते हैं बच्चे
और हारने का साहस लेकर
आती हैं स्त्रियाँ

ऐसा साहस जो गुमनाम है
ऐसा विचित्र साहस जो लील जाता है
समूचे व्यक्ति को

और कहते हैं जो मरा और हारा
कमज़ोर था
कि यही है भाग्य कीड़ों का;

ऐसी भी होती है एक शक्ति
छाती में जिस पर
हर रोज़ गुज़र जाती है
एक ओछी दुनिया।
***

चल ओ मेरी प्यारी !

आह! भारी हो गई है कचरागाड़ी
छोड़ यहीं विषविधाले के कम्पस में

खड़ी छोड़; बँट जायेगा अपने आप सारा माल मत्ता!
अरे छोड़ यहीं धीरज ओ मेरी प्यारी!

ओ काली करुण भैंस मेरी न्यारी!
ओ मेरी आत्मा! आत्मा, चल!!
रस बन कर भर गई है घास में बरसात
हरे फूल सा खिलकर झूमता मैदान
और सूरज भी कैसा टुकुर टुकुर चल!

अब मार भी उछाल जरा डकरा के चल!
सींगों की नोंक पे ठौर सब उछल के
फूली हुई दम से मक्खियाँ सब झाड़ के
चल कुलकलंकिनी प्रेमिका सी मेरे संग चल!

फूलों का स्वाद
और स्वाद के बीचोंबीच रंग छुआछू
और रंग के बीचोंबीच गंध छुआछू
छोड़ दे सब थाम ले अब सिर्फ़ छुआछू

फिर जायेंगे नदी पर
मैं तोड़ दूँ किनारा तू पीना खूब जल
घूँट नहीं ओक नहीं डुबकियों से पीना जल, चल!
फिर मिट्टी में लोटेंगे

आड़ नहीं बाड़ नहीं
रुकना नहीं सींच देना नई विषुवत रेखा धरती पर, चल!

फिर करेंगे जुगाली
मैं सुनूँ तू कहना, खूब रंभायेंगे,
चल!
***

मनमोहन की टिप्पणी

ज्योत्स्ना का जीवन एक अकथ कथा है और पिछले ३०-३२ साल का उनका विपुल और असाधारण लेखन लगभग सारा का सारा अभी अँधेरे में गुम है। सब कुछ एक आत्मनिर्वासित अंतर्गुहावासी अतिसंवेदनशील और गहन दृष्टिसंपन्न शख्स की छटपटाहट भरी खोज़ की दुर्गम और दुस्सहासिक यात्रा का अकल्पनीय रोमांचक आख्यान जैसा लगता है. कुछ कुछ वैसा ही जैसा मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस ने रचा था. जिन लोगों को ज्योत्स्ना के कृतित्व को कुछ समीप से देखने-जानने का मौका मिला है, वे शायद इतना ज़रूर कह सकते हैं कि अपने संक्षिप्त आयुष्य क्रम में ही ज्योत्स्ना ने अपने ओछेपन, हृदयहीनता और अन्धताओं पर इतराती हमारी सभ्यता के भूगर्भ में पड़े अनेक अलक्षित,असम्बोधित और विस्मृत प्रश्नों और गुत्थियों को दुर्निवार ढंग से पेश कर दिया है और एक पतनशील समय की विडम्बनाओं से भरी गहन बीहड़ दुखान्तिकी का युगीन आख्यान रच दिया है। यह एक ऐसा ट्रेजिक आख्यान है जिसमें इसके उद्दात्त शिखर और अधोगामी गर्त सब एक सूत्र में बंधे हैं। अपने तमाम अंतर्विरोधों, आत्मघाती विचलनों, और विक्षेपों के दबावों से गुजरते हुए भी ज्योत्स्ना हमारे सामजिक जीवन की मुख्यधारा और प्रचलित चेतना की रूढ़ और कुटिल छद्म सरंचनाओं के ताने बाने से कभी समझौता न कर सकीं. न सिर्फ वे इससे से बाहर रहीं बल्कि उनके साथ उनका सम्बन्ध आद्य शत्रुता का रहा. उनमें एक प्रतिवादी और subvertive eliment था जिसकी कीमत उन्होंने पूरी अदा की. वे चाहतीं तो एक सरल सुरक्षित जीवन का आसान रास्ता उनकी पहुँच से दूर न था, लेकिन उन्होंने पूरी अभिव्यक्ति का जोखिम भरा मुश्किल रास्ता चुना और इसके एवज में एक दारुण आत्मनिर्वासित और बहिष्कृत जीवन की आत्महंता लांछना और पीड़ा को क़ुबूल किया. और एक चीज़ का पीछा किया जिसे वे अमूल्य समझती थीं.

ज्योत्स्ना की नज़र में आविष्कारशील विद्युतम्यता की कौंद थी और देखने का वह विरल कोंण था जो इतिहास में वंचित मनुष्यता के प्रतिनिधि को ही नसीब हो पता है, वह कोंण जहाँ से रंगे चुने जीवन की सारी बनावट और सारे खोल, सुन्दरता की कुरूपता, सुखी जीवन के दाग धब्बे और भद्रलोक की अमानुषिकताएं और अपराध साफ़-साफ़ देखे जा सकते हैं। उनकी भाषा में एक दुर्लभ स्पर्श और अचूक बेधकता थी.

ज्योत्स्ना के लिए लेखन श्वास प्रश्वास की तरह ऑर्गेनिक क्रिया थी. इसे उन्होंने कभी इससे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया. लेखन को कैरियर बनाने से उन्हें सख्त नफरत थी. उनका लेखन एक दुर्लभ गवाही की तरह है, हालाँकि अपने समय की अदालत जो उन्हें संदिग्ध और बेगानी लगती, उसमें इसे बयान करने की उनमें कोई इच्छा नहीं थी. फिर भी हमारी जिम्मेदारी है कि इसे हम सामने लायें, जिससे अपनी शक्ल को ज्यादा-ज्यादा साफ़-साफ़ देख सकें।

-मनमोहन
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( यह पोस्ट अनुनाद के अहम् सहयोगी मित्र धीरेश सैनी द्वारा लगायी गई थी, जो कुछ अजीब सी तकनीकी दिक्क़तों के कारण पब्लिश नहीं हो पा रही थी। मैंने इसे दुबारा अपने एकाउंट से पब्लिश किया है। इस ज़रूरी पोस्ट के लिए मैं धीरेश भाई का शुक्रगुज़ार हूँ – शिरीष )
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0 thoughts on “ज्योत्स्ना शर्मा (११ मार्च १९६५-२३ दिसम्बर २००८ ): प्रस्तुति धीरेश सैनी”

  1. बहुत बहुत आभार धीरेश जी और शिरीष आप दोनों का- एक महत्वपूर्ण रचनाकार से परिचय कराकर आपने सचमुच साहित्य की उस गिरोहगर्द होती दुनिया के सच को उदघाटित किया जिसके चलते सचमुच अनजान रह गईं एक महत्वपूर्ण रचनाकर। यदि संभव हो तो और भी कविताओं से परिचय करवाईए धीरेश जी। विस्तार से पढ़ने का मन है।

  2. सुरेश सैनी द्वारा प्रस्तुत ज्योत्सना की कवितायेँ पढ़कर एक अजब कसक हों गयी . उनका जाना तो घोर पीड़ा दे गया . उनकी कवितायेँ तकलीफों के वजूद से निकली हुई अँधेरे में उजाले का एहसास करती गहन संवेदनाओं की कहानी कहती हुई हैं .मनमोहन जी का कथ्य पढ़कर उनके बारे में और जानना बहुत अच्छा लगा और भी . उनका रचा हुआ पढ़ना और सुखद होगा ! सैनी जी को बहुत धन्यवाद .

  3. गहरी दृष्टि ,इतनी गुणवान ,मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
    आपके प्रयास बहुत सार्थक हैं।������

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