अनुनाद

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पंकज चतुर्वेदी की दो कविताएँ

हाल ही में लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट ने देश की राजनीति में हलचल मचा दी है और इस सन्दर्भ में संबोधन के कविता विशेषांक में छपी पंकज चतुर्वेदी की ये दो कविताएँ मुझे बेहद प्रासंगिक लगीं। कविता की बेहद ज़रूरी सामाजिक-राजनीतिक भूमिका को ध्यान में रखते हुए आप भी पढ़िये इन्हें और अपनी राय भी दीजिये।
एक अच्छी ख़बर ये भी है की पंकज जी ने एक लम्बी अनुपस्थिति के बाद अनुनाद पर अपना लोकप्रिय स्तम्भ “दहलीज़” बहुत जल्द दुबारा शुरू करने का वादा किया है।

1947 में
(सईद अख़्तर मिर्ज़ा की फि़ल्म `नसीम´ देखकर)

1947 में जो मुसलमान थे
उन्हें क्यों चला जाना चाहिए था
पाकिस्तान …

जिन्होंने भारत में ही रहना चाहा
उन्हें ग़रीब बनाये रखना
क्यों ज़रूरी था…

जिस जगह राम के जनमने का
कोई सुबूत नहीं था
वहाँ जब बाबरी मस्जिद का
दूसरा गुम्बद भी ढहा दिया गया
तो पहले और दूसरे गुंबद के बीच
सरकार कहाँ थी
कहाँ था देश
और संविधान …

फिर भी तुम पूछो
क्यों नीला है आसमान
तो उसकी यही वजह है
कि दर्द के बावजूद
मुस्करा सकता है इंसान

मगर इससे भी अहम है
हिन्दी के लेखकों से पूछो :
जब आर्य भी बाहर से आये
तो मुसलमानों को ही तुम
बाहर से आया हुआ
क्यों बताते हो
उनकी क़ौमीयत पर सवाल उठाते हुए
उन्हें देशभक्त साबित करने की
उदारता क्यों दिखाते हो …

दरअस्ल बाहर से आया हुआ
किसी को बताना
उसे भीतर का न होने देना है
जबकि उनमें-से कोई
महज़ एक दरख़्त की ख़ातिर
1947 में
यहीं रह गया
पाकिस्तान नहीं गया
***

कुछ सवाल
(सईद अख़्तर मिर्ज़ा की फि़ल्म `नसीम´ देखकर)

खुशी के चरम बिन्दु पर
इंसान को
दुख की आशंका क्यों होती है

ताजमहल देखकर
यह क्यों लगता है
उसे किसी की नज़र न लगे

हिन्दू घरों में औरतें
जलायी क्यों जाती हैं
मुसलमान घरों में
तलाक़ का रिवाज क्यों है

क्या तुम जानते हो
कविता को उसके संदर्भ से काटकर
शाइर के अस्ल मानी
बदलना गुनाह है
तहज़ीब और शख़्सीयत
यादों का कारवाँ है
तो तेरी तहज़ीब
मेरी भी क्यों नहीं है

मेरे होने में
तू भी शामिल है
तो यह आपस का
झगड़ा क्यों है
***

0 thoughts on “पंकज चतुर्वेदी की दो कविताएँ”

  1. पहली कविता झकझोरती है… अगर 'काम' के लोग ध्यान दें तो परिवर्तन होगा देश का… और पढ़ कर गाल बजाने लगें तो फिर तो कोई चारा नहीं है…

  2. दूसरी कविता लाजवाब है… श्रेष्ठ कविता.. शिरीष जी आप बधाई के पात्र हैं…

  3. उम्मीद से कम पर ठहरती है पहली कविता.हो सकता है ऐसा इसलिए हो कि मैंने नसीम नहीं देखी, फिर भी कविता गलत कार्य- कारण सम्बन्ध जोड़कर तर्क करती लगती है.
    राम के जन्मने का कोई सबूत दे पाता तो क्या ये सब जायज़ था? फिर तो उत्तर भारत के कई मध्य युगीन स्मारक मिल जायेंगे जहां आज भी हिन्दू स्थापत्य ट्रेस किया जा सकता है.सल्तनत काल की तमाम जल्दबाजी में बनाई गयी मस्जिदे पुराने मलबे के इस्तेमाल से बनी हैं,कई जगह तो खम्भे भी वही हैं.हिन्दू मंदिरों की कई बैठी हुई मूर्तियाँ बुद्ध की हैं…

    कविता आखिर में कविता की तरह लगती है.

  4. पंकज जी का हार्दिक धन्यवाद ………कुछ टीस ऐसी होती है जो साँसों के साथ जुड़ जाती है और जब जब सांस लेते हैं वह दर्द हरा हो जाता है .

  5. प्रिय संजय व्यास जी ,
    आपने कविता में अपनायी गयी तर्क-प्रक्रिया में निहित बुनियादी खोट की ओर ध्यान आकृष्ट किया ; इसके लिए बहुत आभारी हूँ . मेरी निजी राय यह है कि इतिहास में
    वापसी मुमकिन नहीं है . कोई समाज अगर ऐसी कोशिश करता है , तो उसका पिछड़ना , आपस में ही लड़ना और टूटना तय है . इस विडम्बना का तथाकथित 'रामजन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन ' से बड़ा कोई सुबूत नहीं है . इस सन्दर्भ और अन्य सभी सन्दर्भों में मैं तो अदम गोंडवी साहब के इस शेर का क़ायल हूँ—–
    "हममें कोई हूण , कोई शक , कोई मंगोल है
    दफ़्न है जो बात , उस बात को मत छेड़िये "
    मगर कविता में हमेशा रचयिता की निजी राय मानी नहीं रखती . ख़ास तौर पर इस कविता में विवादित ढाँचे को ढहाने वाली ताक़तों और तत्त्वों के नज़रिये को मैंने सामने
    रखा है और उस पर सवाल उठाने की कोशिश की है , उसके बोदा होने को ज़ाहिर किया है . उन लोगों का कहना यह है कि "राम यहीं पैदा हुए थे , इसलिए मंदिर यहीं बनायेंगे , हम क़सम राम की खाते हैं ." यहाँ सवाल सिर्फ़ इस बात का नहीं है कि मुस्लिम शासकों ने कोई हिन्दू धार्मिक इमारत गिराकर मस्जिद की तामीर की ; बल्कि कृपया गौर करें कि सवाल इस ख़ास नुक्ते का है . इस सन्दर्भ में कविता पर —–अगर मुमकिन हो तो—–कृपया पुनर्विचार कीजियेगा ! और हाँ , 'नसीम ' फिल्म ज़रूर देखियेगा ! वह एक महान फिल्म है .

  6. शुक्रिया पंकज जी
    कविता से letter and spirit में सहमत हूँ.सिर्फ उस विडम्बना की ओर संकेत कर रहा था कि किसी अन्यथा घटित या संभाव्य स्थिति में ये तर्क कविता की मूल भावना से भिन्न का समर्थन भी कर सकता है.
    नसीम ज़रूर देखने की कोशिश करूंगा.

  7. शिरीष दा, बेहद अच्छी कवितायें चुनीं हैं तुमने। पंकज भाई की कुछ कवितायें पहले भी पढीं हैं। अगली खेप कब ला रहे हो?

  8. dusari kavita pasand aayi .pahli men sirf ek band men kavita lagti hai -"fir bhi kyon nila hai asman …..dard men muskura raha hai insan". Pankaj sir, sambhavtah kahin pahle bhi aapki yah ya is jaisi koi kavita parh chuka hun ,sambhavtah kisi sangrah men .

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