अनुनाद

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स्याह कपड़ों वाली औरतें: मेरिलिन ज़ुकरमन की एक कविता

स्याह कपड़ों वाली औरतें

स्याह कपडे पहने कुछ यहूदी और फिलिस्तीनी औरतें हर जुमे की शाम
पश्चिमी तट और गाज़ा पर हुए कब्ज़े की मुखालफत में एक मूक प्रदर्शन में खड़ी होती हैं.
उजली धूप के इस देश में
हम कहानी का अंधियारा पक्ष हैं,
बाज़ार के गलियारों में
बमुश्किल नज़र आती परछाइयाँ हम.
हम खाना बनाती और परोसती हैं
पर कभी बैठती नहीं खाने की मेज पर.
नियुक्त कर दी गईं रुदालियाँ हम-
घंटियों के टुनटुने की भाँति हमारी जीभें-
हमने ओढ़े हैं स्याह कपड़े
और एक हिजाब
जो घना है निरी दीवारों से.
 
हमारे कपड़ों के नीचे
हैं दाग.
गंजा सिर,
शयतिल के भीतर.
चादर के नीचे,
एक तिरस्कृत औरत.
हमारे मर्दों की नज़रों में नापाक हम-
वे हमारी तरफ देखते नहीं
न ही इजाज़त देते हैं इबादत की
पश्चिमी दीवार पर या सिनागाग के भीतर.
इससे पहले कि वे हमें छुएँ,
हमें अपने आप को शुद्ध करना होता है.
अगर कहीं वे टकरा जाते हैं इत्तेफ़ाक़न
तो ऐसा मुंह बनाते हैं
जैसे पड़ गई हो कोई बुरी नज़र,
और थूकते हैं ज़मीन पर तीन मर्तबा.
 
जाओ थूको तुम
दोनों ज़बानों में हमें वेश्या कहकर बुलाओ.
हम खड़ी रहेंगी यहीं शहर के बीचो-बीच
जब तक हमारे स्याह कपडे
तुम्हारी अंतरात्मा को मैला न कर दें
जब तक तुम्हारी समझ में न आ जाए
कि तुम कितना मिलते हो एक दूसरे से,
हडीली नाकें तुम्हारी,
गिद्ध सी आँखें,
रेगिस्तानी यादें,
दुखों का पुराना इतिहास एक सा,
और अपनी औरतों के प्रति एक जैसा ही तिरस्कार.
 
*********
 
पश्चिमी दीवार: यहूदियों द्वारा अत्यंत पवित्र माने जाने वाले और यरूशलम में स्थित एक प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष
शयतिल: धार्मिक यहूदी महिलाओं द्वारा गंजे सिर को ढंकने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला विग
 
(पिछले दिनों प्रतिलिपि में प्रकाशित मेरिलिन ज़ुकरमन की एक और कविता और उस पर कुछ बेतरतीब बातें यहाँ देखी जा सकती है; कवियित्री का परिचय यहाँ मौजूद है).
 

0 thoughts on “स्याह कपड़ों वाली औरतें: मेरिलिन ज़ुकरमन की एक कविता”

  1. "जब तक हमारे स्याह कपड़े /तुम्हारी अंतरात्मा को मैला न कर दे " विरोध को अभिव्यक्त करती कविता मे सबसे सशक्त पंक्तिया जो एक परम्परा को परिभाषित भी करती हैं । भारत भूषण जी का यह अनुवाद भी अच्छा लगा ।

  2. टिप्पणी के साथ जोड़ कर इस कविता को विभिन्न स्तरों पर ग्रहण कर पाया. प्रस्तुति की प्रशंसा करनी पड़ेगी. यहाँ एक साँझी संस्कृति को खो देने की टीस भी दीख पड़ती है.
    हम कितनी ही कविताएं 'मिस् ' कर जाते हैं कमज़ोर प्रस्तुति के चलते.

  3. यह कविता सिर्फ प्रतिरोध की कविता नहीं है, यह उस देश और वहां की परिस्थितियों का शोकगीत भी है. प्रस्‍तुति के लिए बधाई.
    – प्रदीप जिलवाने, खरगोन

  4. यही कारण है की अनुनाद मेरे पसंदीदा ब्लॉग में से एक है… ऐसी कवितायेँ कहाँ पढ़ पता वरना… इस भाग-दौड़ में… कैसी अनोखी-अनोखी कवितायेँ हैं दुनिया में… क्या शानदार कंटेंट है यार क्या शानदार कवि! शायद यही कविता जीने का संबल देती हैं…

  5. itni prabhavshali kavita ke liye aapka shukriya mitr…sath sath ye mehsus karvane ke liye bhi ki ham sab bharat se le ke duniya ke dusre chhor tak ek hi dhang ke shoshan karte hain aur asweekar hone par ek hi bhasha me unka pratikar karte hain….a-santusht jubaan ek hi hoti hai…fir se aabhaar…yadvendra

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