Monday, November 9, 2009
8 comments:
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bahut badiya waah ghodhe se poocho
ReplyDeleteक्या ज़बरदस्त कविता है .. यथार्थ बस यथार्थ ! और उसमें भी कविता ... लोहे का स्वाद तो घोड़ा ही बताएगा .. तभी तो वे धूमिल हैं !!!
ReplyDeleteधूमिल हमेशा मुझे टुकडों-टुकडों में मिले... हमेशा... मैं जब भी उन्हें पाना चाहा मुकम्मल छिटक गए...
ReplyDeletebahut achhi kavita padhwayi hai aapne
ReplyDeletelohe ka swaad ghode se poocho
bahut khoob
यूं कहे उनकी कई कविता अपना अर्थ उम्र के हर मोड़ पे अलग अलग देती रही
ReplyDeletekash ye antim n hoti........
ReplyDeleteधूमिल का यह शिल्प बार बार प्रहार करता है .. इस तरह की कोंचने वाली कविताओं की सख्त ज़रूरत है ।
ReplyDeleteअद्भुत!!
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