आलोक श्रीवास्तव की इस कविता को दरअसल स्त्रियों पर लिखी गई आधुनिक कविता और स्त्री विमर्श का संक्षिप्त आलोचनात्मक काव्येतिहास भर माना जाए या इसके अलावा कविता का अपना एक अलग और प्रभावशाली अस्तित्व भी है, इस निर्णय को मैं पाठकों के विवेक पर छोड़ता हूं। कभी प्रकाशित कविता के बारे में प्रस्तोता का ज़रूरत से ज़्यादा दिया गया वक्तव्य उसके मूल आस्वाद या धार को बेमानी भी बना देता है, इसलिए आइये बिना वक्त बर्बाद किए पढ़े आलोक की यह कविता।
वह कहीं भी हो सकती है!यह कहानी शुरू होती है
गुज़री सदी के आखिरी हिस्से से
जब निराला की प्रिया
किसी अतीत की वासिनी हो गई थी
और प्रसाद की नायिकाएं
अपनी उदात्तता, भव्यता, करुणा और विडंबना में
किसी सुदूर विगत और
किसी बहुत दूर के भविष्य का स्वप्न बन गई थीं
अब यहां थी
एक लड़की जिसके बारे में लिखा था रघुवीर सहाय ने
जीन्स पहनकर भी वह अपने ही वर्ग का लड़का बनेगी
या वह स्त्री जो अपनी गोद के बच्चे को संभालती
दिल्ली की बस में चढ़ने का संघर्ष कर रही थी
और सहाय जी के मन में
दूर तक कुछ घिसटता जाता था
वहां स्त्रियां थीं, जिनको किसी ने कभी
प्रेम में सहलाया न था
जिनके चेहरों में समाज की असली शक्ल दिखती थी...
उदास, धूसर कमरों में
अपने करुण वर्तमान में जीती
उत्तर भारत के निम्न मध्यवर्ग की वे स्त्रियां
कभी हमारी bahanein बन जातीं, कभी मॉंएं
कभी पड़ोस की जवान होती किशोरी
कभी कस्बे की वह लड़की
जो अपनी उम्र की तमाम लड़कियों से
कुछ अलग नज़र आती
इतनी अलग कि
किताबों में पढ़ी नायिकाओं की तरह
उसके साथ मनोजगत में ही कोई
भव्य, उदात्त, कोमल, पवित्र प्रेम घटित हो जाता...
फिर वह सदी भी गुज़र गई
निराला और प्रसाद तो दूर
लोग रघुवीर सहाय को भी भूल गए
और उन लड़कियों को भी जो
अभी-अभी गली-मुहल्ले के मकानों से कविता में आई थीं
फिर वे लड़कियां भी खुद को भूल गईं
और जैसे-तैसे चली आईं
महानगरों में....
एक संसार बदल रहा था
ठस नई बनती दुनिया में लड़कियों के हाथों में मोबाइल फोन थे
ब्हुराष्ट्रीय पूंजी की कृपा से ही क्यों न हो
आंखों में कुछ सपने भी थे
ये दो भारतों के बीच के तीसरे भारत की लड़कियां
ठस दुनिया को बेहतर जानती थीं
साहित्य-संस्कृति, कविता, विश्व-सिनेमा
फिर मॉल और मल्टीप्लैक्स की यह दुनिया
गद्गद् भावुकता और आत्मविभोर बौद्धिकता
और हिंदी की इस पिछड़ी पट्टी से आए
स्त्री-विमर्श रत खाए-अघाए कुछ कलावंत, कवि, साहित्यकार...
दो भारतों के बीच के इस तीसरे भारत की
इन लड़कियों के अलावा एक और दुनिया थी लड़कियों की
जो आलोकधन्वा की भागी हुई लड़कियों की तरह
न तो साम्राज्यवादी अर्थ-व्यवस्था की सुविधा से
अपने सामंती घरों से भाग पाईं
न ही टैंक जैसे बंद और मजबूत घरों के बाहर बहुत बदल पाईं
कवि का यूटोपिया पराजित हुआ.
यह तीन भारतों का संघर्ष है
स्त्रियां ही कैसे बचतीं इससे
वे तसलीमा का नाम लें या सिमोन द बोउवा का
उनकी आकांक्षाएं, उनके स्वप्न, उनका जीवन
उन्हें किसी ओर तो ले ही जाएगा
ठीक वैसे ही जैसे
माक्र्सवाद, क्रांति, परिवर्तन का रूपक रचते-रचते
पुरुषों का यह बौद्धिक समाज
व्यवस्था से संतुलन और तालमेल बिठा कर
बड़े कौशल से
अपनी मध्यवर्गीय क्षुद्रताओं का जीवन जीता है....
बेशक ये तफ़़सीलें हमारे समय की हैं
समय हमेशा ही कवियों के स्वप्न लोक को परास्त कर देता है
पर यदि हम अपने ही समय को निकष न मानें तो
कवियों के पराजित स्वप्न भी
अपनी राख से उठते हैं
और पंख फड़फड़ाते हुए
दूर के आसमानों की ओर निकल जाते हैं
फिर लौटने के लिए...
हो सकता है वनलता सेन अब भी नाटौर में हो....
या चेतना पारीक किसी ट्रॉम से चढ़ती-उतरती दिख जाए....
या फिर वह झारखंड से विदर्भ तक कहीं भी हो सकती है
कोई स्वप्न तलाशती
और खुद किसी का स्वप्न बनी!
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01 नवंबर, 2009
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