Monday, November 30, 2009

पंकज चतुर्वेदी की दो कविताएँ


हाल ही में लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट ने देश की राजनीति में हलचल मचा दी है और इस सन्दर्भ में संबोधन के कविता विशेषांक में छपी पंकज चतुर्वेदी की ये दो कविताएँ मुझे बेहद प्रासंगिक लगीं। कविता की बेहद ज़रूरी सामाजिक-राजनीतिक भूमिका को ध्यान में रखते हुए आप भी पढ़िये इन्हें और अपनी राय भी दीजिये।

एक अच्छी ख़बर ये भी है की पंकज जी ने एक लम्बी अनुपस्थिति के बाद अनुनाद पर अपना लोकप्रिय स्तम्भ "दहलीज़" बहुत जल्द दुबारा शुरू करने का वादा किया है।

1947 में
(सईद अख़्तर मिर्ज़ा की फि़ल्म `नसीम´ देखकर)

1947 में जो मुसलमान थे
उन्हें क्यों चला जाना चाहिए था
पाकिस्तान ...

जिन्होंने भारत में ही रहना चाहा
उन्हें ग़रीब बनाये रखना
क्यों ज़रूरी था...

जिस जगह राम के जनमने का
कोई सुबूत नहीं था
वहाँ जब बाबरी मस्जिद का
दूसरा गुम्बद भी ढहा दिया गया
तो पहले और दूसरे गुंबद के बीच
सरकार कहाँ थी
कहाँ था देश
और संविधान ...

फिर भी तुम पूछो
क्यों नीला है आसमान
तो उसकी यही वजह है
कि दर्द के बावजूद
मुस्करा सकता है इंसान

मगर इससे भी अहम है
हिन्दी के लेखकों से पूछो :
जब आर्य भी बाहर से आये
तो मुसलमानों को ही तुम
बाहर से आया हुआ
क्यों बताते हो
उनकी क़ौमीयत पर सवाल उठाते हुए
उन्हें देशभक्त साबित करने की
उदारता क्यों दिखाते हो ...

दरअस्ल बाहर से आया हुआ
किसी को बताना
उसे भीतर का न होने देना है
जबकि उनमें-से कोई
महज़ एक दरख़्त की ख़ातिर
1947 में
यहीं रह गया
पाकिस्तान नहीं गया
***

कुछ सवाल
(सईद अख़्तर मिर्ज़ा की फि़ल्म `नसीम´ देखकर)

खुशी के चरम बिन्दु पर
इंसान को
दुख की आशंका क्यों होती है

ताजमहल देखकर
यह क्यों लगता है
उसे किसी की नज़र न लगे

हिन्दू घरों में औरतें
जलायी क्यों जाती हैं
मुसलमान घरों में
तलाक़ का रिवाज क्यों है

क्या तुम जानते हो
कविता को उसके संदर्भ से काटकर
शाइर के अस्ल मानी
बदलना गुनाह है
तहज़ीब और शख़्सीयत
यादों का कारवाँ है
तो तेरी तहज़ीब
मेरी भी क्यों नहीं है

मेरे होने में
तू भी शामिल है
तो यह आपस का
झगड़ा क्यों है
***

Saturday, November 28, 2009

तुम्हारा नाम रेचल कोरी है - फ़ातिमा नावूत की एक कविता


भारतभूषण तिवारी द्वारा लगायी पिछली पोस्ट की एक कविता "दास्ताने -रेचल कोरी" के क्रम में प्रस्तुत एक और महत्त्वपूर्ण कविता......
अनुवाद एवं प्रस्तुति सिद्धेश्वर सिंह
रेचल कोरी : तेइस बरस की एक ऐसी अमरीकी लड़की जिसे लगभग एक आम आम लड़की का - सा ही जीवन जीना था। एक ऐसी लड़की जिसने ग्यारह साल की उम्र में अपनी डायरी में लिखा था कि वह एक वकील, एक नृत्यांगना, एक अभिनेत्री, एक पत्नी, एक माँ, एक बाल लेखिका, लम्बी दूरी की एक धाविका, एक कवयित्री, एक पियानोवादिका, पालतू पशुओं के दुकान की एक मालकिन, एक अंतरिक्ष यात्री, एक पर्यावरणविद, एक मानवतावादी कार्यकर्ता, एक मनोचिकित्सक, एक बैले डांस टीचर, पहली महिला राष्ट्रपति बनना था... किन्तु... आज हम लोग रेचल कोरी को एक ऐसी लड़की के रूप में जानते हैं जिसने एक शान्ति कार्यकर्ता के रूप में फिलीस्तीन की यात्रा की और एक विरोध प्रदर्शन के दौरान राफा में एक फिलीस्तीनी मकान को ढहाने वाला इजरायली बुलडोजर उसके ऊपर चढ़ा दिया गया। इससे रेचल कोरी की केवल देह ही नहीं पिसी उसके सपने भी उसी बुलडोजर के नीचे पिस गए। दुनिया भर के कवियों और कलाकारों ने उसे अपने तरीके से याद किया है। फ़ातिमा नावूत की यह कविता भी उसी की एक कड़ी है।

फ़ातिमा नावूत ( जन्म १९६४ ) अरबी की एक प्रमुख कवयित्री और अनुवादक हैं तथा काहिरा ( मिस्र) में रहती हैं।


तुम्हारा नाम रेचल कोरी है
(फ़ातिमा नावूत की एक कविता)

गणित की कक्षा में
तुम फूलों के चित्र ही उकेर रही थीं कागज पर
निश्चित रूप से ,
और इधर - उधर हिलाए जा रही थीं सिर
जैसे कि ध्यान दे रही हो टीचर की हर बात पर।
***
या हो सकता है कि
पड़ोस के लड़के पर तुम्हें आ रहा था क्रोध
और इस मारे तुमने पूरा नहीं किया था इतिहास का होमवर्क।
क्लास की लड़कियाँ तुम्हारी खिल्ली उड़ा रहीं थीं
कि तुमने अपनी नोटबुक को भर दिया था
दिल और उसमें खुभे तीरों से
और भूल गईं थीं यह लिखना
कि मिस्र पर फ़्रांस के अभियान के प्रमुख कारण कौन - कौन से थे
आशय यह भी कि, वियतनाम को विलोपित करने का
और 'अमेरिका की शताब्दी' कहे जाने का क्या था निहितार्थ ?
***
याद है -
दूध के कप का इंतजार करते न करते
माँ की शुभरात्रि चुम्बन की बाट जोहते - जोहते
एक बार तुम्हें आ गई थी झपकी
और नींद की वजह से बिसर गया था बालों का खोलना।
सुबह - सुबह तुम्हारे सपने में सरक आया था
नीली आँखों वाला एक नौजवान
जिसे बन जाना था तुम्हारे सफेद टेडी बीयर का विकल्प
और , और भी बहुत कुछ...
मसलन -
***
नीले और सफेद रंग की लहरें और बुलबुले
किसी लड़की के कपड़ों के दो प्यारे रंग
तुम्हारी बालकनी में आने वाली चिड़िया के पंखों के दो रंग
स्केच बुक में चित्रित आसमान और बादल के दो रंग
एक फोटो अलबम
छह नुकीले चोंचों वाला एक ऐसा ध्वज
जिस पर लिखा हो किसी फरिश्ते का नाम
और जिसे किसी बच्चे की आंखों में नहीं चुभना था।

***
हर लड़की की तरह
तुमने आने वाले कल के स्वप्न देखे
और वह कल कभी आया ही नहीं...
सुबह- सुबह तुमने अपना पर्स पकड़ा
और दौड़ लगा दिया स्टोर की ओर
वहाँ से लौटते वक्त तुम्हारे हाथ में थी सेलेरी ,मटर
और तुम बिल्कुल नहीं भूलीं ले आना
पीली मकई दाने जो बच्चों को आते हैं बेहद पसन्द।
***
बरतन और चम्मचें...
....जैसे किचन और वाशिंग मशीन के बीच
करतब दिखा रहा हो कोई नट....
चार बजने से पहले साफ हो जाना चाहिए बच्चों का कमरा
- तुम्हारे वे बच्चे जो कभी आयेंगे ही नहीं-
माँ! आज बाहर गए थे हम लोग मेंढ़क पकड़ने
और कल छुरी से काटेंगे उन्हें ।
नहीं मेरे बेटे ! नहीं !!
अरे माँ ! यह जीव विज्ञान की कक्षा है
हमे सीखना है कि पेट के भीतर छिपे होते हैं कैसे - कैसे रहस्य !
***
उठो मेरे बच्ची ,अब उठ भी जाओ
लड़कियाँ बाहर निकल आई हैं
वे डिस्को जा रहीं हैं
लेकिन माँ ! मैं तो सपने देख रही थी
रेचल ! कितनी गहरी है तुम्हारी नींद
उठो , उठ जाओ...
लेकिन मैं पार्टी में नहीं जाऊँगी
मेरा नीला पासपोर्ट कहाँ है माँ ?
मुझे करनी है ईश्वर से बातचीत ।
***
हम सारी बाकी लड़कियों की ही तरह
तुमने भी प्यार किया
आईने से बतियाया
और अपने कपड़ों पर लाल धब्बों के कारण शर्मिन्दा हुईं।
तुमने भी बनाए प्यार के देवता के रेखाचित्र
और दिल के बीचोंबीच धँसाया एक बाण
तुमने भी लिखे प्यार के दो बोल
और इंतजार किया
तेज घोड़े पर सवार होकर आने वाले किसी योद्धा का।
गहरी रंगत वाली हर लड़की तरह
तुमने भी पहनने चाहे ऊँची एड़ी के जूते
पारदर्शी स्टाकिंग्स
और हेयर रिबन्स व परांदे।
और हम जैसियों की तरह, अगर तुम भी जीवित रहतीं
तो तुम्हारे भी बच्चे होते
तुम भी झींकतीं मर्दों की फालतूपन पर
हमारी ही तरह।
लेकिन ऐ लड़की !
हम किसी बुलडोजर के सामने डट नहीं गए
हमने किसी ईश्वर से बातचीत नहीं की !
हमने किसी ऐसी तोप का मुँह बन्द नहीं किया
जो किसी बच्चे से छीन लेना चाहती थी उसकी निश्छल हँसी।

***

Tuesday, November 24, 2009

मेरिलिन ज़ुकरमन की कुछ और कविताएँ

चौरासीवां जन्मदिन


चीज़ें बेहतर हो जायेंगी

इस उम्मीद में बिताये गए इन सब बरसों के बाद

ख़ुशी मनाने का कोई कारण नहीं है

इसलिए यह कविता है गोलियों से भून दिए गए हर बच्चे के लिए

जो उड़ा दिए गए अपने गांवों के रास्तों पर चलते हुए

मेक्सिको में

सूडान में

कांगो में और अमेरिका के शहरों में

भूखे पेट सो जाने वाले हर बच्चे के लिए

अन्य देशों और अमेरिका के बेघरों के लिए

सरहद की लडाइयों के शिकार और माफियाओं व डाकुओं द्वारा अगवा कर लिए गए लोगों के लिए

जिन्हें राज्य ने तक अपने हाल पर छोड़ दिया

उनके लिए जो सरहद पार भेज दिए गए और लौटे क्षत-विक्षत होकर

उन सब पक्षियों, प्राणियों और वनस्पतियों की प्रजातियों के लिए जो नए,महान मरण में लुप्त हो जायेंगी

उन लाखों शरणार्थियों के लिए जो सड़कों पर और कैम्पों में बड़ी तकलीफ में ज़िन्दा रहते है

पिघलते ग्लेशियरों और ख़राब तटबंधों से ऊपर उठते समन्दरों में धीरे धीरे गर्क होते शहरों के लिए

शांत सी शालीन ज़िन्दगी बिताने की कोशिश में लगे बिगडैल राष्ट्रों के बाशिंदों के लिए

धरती की होती हुई मौत और परमाणु आपदा के खतरे के लिए

उनके लिए जो अमन चाहते हैं और खोजते हैं

उनके लिए जो सच बोलते हैं और उसके लिए क़त्ल कर दिए जाते हैं.



एक लड़ाई जिसमें कोई भी मरा नहीं

संवाददाता ने कहा,
पुल पर नहीं
उस रेलगाड़ी में भी नहीं
जो उड़ा दी गई
क्योंकि उसके वहां होने की
उन्हें उम्मीद न थी,
न तो कोसोवो में
वे ग्रामीण ही
ट्रैक्टर पर जो बैठे थे सैनिकों के बीच
न ही इराकी औरतें और बच्चे
जिन्होंने उस जगह पनाह ली थी
जिसे पायलटों ने गुप्त सैनिक अड्डा समझ लिया था-
या फिर उत्तरी वियतनाम के वे हलवाहे
जिन्हें
उन्होंने दहशतगर्द करार दे दिया था.

दास्तान--रेचल कोरी
जिस बुलडोजर से रेचल कोरी की मौत हुई उसे चला रहे अनजान इस्राइली सैनिक के प्रति

तुम्हारे साथी

सिर्फ़ दो सिपाही
करते हुए अपना काम
घरों को ढहाते हुए
हंसते-ठिठोली करते

तुम चारों जने

हैवान के पेट में बैठे हुए सही-सलामत

मानों जुरासिक पार्क से चलकर आया हो
विशालकाय हाथियों का जोड़ा
दूसरों की ज़िंदगियों के
मलबे के बीच
आग और धूल उगलते ड्रैगन हों जैसे
वे घर जो एक कुनबे के इर्द गिर्द थे

पीढियों तक
बिस्तरे, तस्वीरें, खिलौने, बर्तन
सब कुछ कूड़े के ढेर में बदलता हुआ
युद्ध में बर्बाद हुए मुल्क की तरह जहाँ
अब खंडहरों के सिवा कुछ नहीं

तुम्हारे पीछे है वह दीवार
जो इन लोगों को भीतर क़ैद रखने के लिए बनाई गयी थी
और दीवार के उस पार
अमन के मुगालते में जीते हैं तुम्हारे लोग
उनके बागान बहुत उपजाऊ
लदे-फदे जैतून के पेड़ उनके

मैदान में बिखरे
निहत्थे नौजवानों को जब तुमने देखा

तब क्या सोच रहे थे तुम
उनमें से एक लड़की

भोंपू लेकर चिल्लाती हुई
अब और विनाश नहीं!!!
उसकी आँखें कहती हुईं
कि वह जानती है तुम रुकोगे
तुम नहीं रुकते.

राक्षसी उदर

धूल का एक गुबार उठाता है,

गिराता है

वह लड़खड़ा जाती है
तुम फिर भी आगे बढ़ते रहते हो

जब तक वह धराशायी नहीं हो जाती
(बाद में तुम कहते हो लाल जैकेट पहने उस ढाँचे को

तुमने देखा ही नहीं).

जब तुम्हारा बुलडोजर रौंद रहा था

उस मुड़े-तुड़े ढाँचे को

उस वक़्त इंसानी हड्डियों की चरमराहट सुनकर
तुम्हें कैसा महसूस हुआ?

मैं अभी अभी किसी चीज़ के ऊपर से गुज़रा हूँ
तुमने रेडियो पर इत्तला दी
तुमने जब बुलडोजर पीछे लेकर फिर आगे बढाया
तब तुम क्या सोच रहे थे?
किस क्रूर नफरत ने तुम्हारे ह्रदय को पत्थर बना दिया था?
किन प्राचीन नरसंहारों ने चुरा ली थी तुम्हारी करुणा
तुम जो रोज़ ही रहते हो उन लोगों के बीच जो तुमसे नफरत करते हैं

जैसे तुम्हें नफरत होनी चाहिए अपने आप से
वहां बैठे बैठे बच्चों को मरते देखते हुए
सड़क पार करने में मारे जाते जानवरों की तरह फिंकाते
मुझे आगे न बढ़ने का कोई आदेश नहीं मिला था
किसी ने मुझे रुकने के लिए नहीं कहा था.

तुम देखते रहे
धूल-मिट्टी समाती हुई
उसके मुंह में
नाक में, सांस की नली में
तुम देखते रहे
उसे घुट कर मरते हुए

तुमसे वादा है मेरा

जब किसी दिन तुम्हारी बेटी
या तुम्हारी प्रेमिका
या चमकीले बालों वाली कोई और जवान लड़की
मैदान के दूसरी तरफ से तुम्हारी ओर आ रही होगी-
तुम वहां खड़े होकर
रेचल कोरी को याद करोगे


**************

(रेचल कोरी के बारे में जानकारी विकिपीडिया पर इस जगह उपलब्ध है)

Sunday, November 22, 2009

स्याह कपड़ों वाली औरतें: मेरिलिन ज़ुकरमन की एक कविता


स्याह कपड़ों वाली औरतें

स्याह कपडे पहने कुछ यहूदी और फिलिस्तीनी औरतें हर जुमे की शाम
पश्चिमी तट और गाज़ा पर हुए कब्ज़े की मुखालफत में एक मूक प्रदर्शन में खड़ी होती हैं.


उजली धूप के इस देश में
हम कहानी का अंधियारा पक्ष हैं,
बाज़ार के गलियारों में
बमुश्किल नज़र आती परछाइयाँ हम.
हम खाना बनाती और परोसती हैं
पर कभी बैठती नहीं खाने की मेज पर.
नियुक्त कर दी गईं रुदालियाँ हम-
घंटियों के टुनटुने की भाँति हमारी जीभें-
हमने ओढ़े हैं स्याह कपड़े
और एक हिजाब
जो घना है निरी दीवारों से.

हमारे कपड़ों के नीचे
हैं दाग.
गंजा सिर,
शयतिल के भीतर.
चादर के नीचे,
एक तिरस्कृत औरत.
हमारे मर्दों की नज़रों में नापाक हम-
वे हमारी तरफ देखते नहीं
न ही इजाज़त देते हैं इबादत की
पश्चिमी दीवार पर या सिनागाग के भीतर.
इससे पहले कि वे हमें छुएँ,
हमें अपने आप को शुद्ध करना होता है.
अगर कहीं वे टकरा जाते हैं इत्तेफ़ाक़न
तो ऐसा मुंह बनाते हैं
जैसे पड़ गई हो कोई बुरी नज़र,
और थूकते हैं ज़मीन पर तीन मर्तबा.

जाओ थूको तुम
दोनों ज़बानों में हमें वेश्या कहकर बुलाओ.
हम खड़ी रहेंगी यहीं शहर के बीचो-बीच
जब तक हमारे स्याह कपडे
तुम्हारी अंतरात्मा को मैला न कर दें
जब तक तुम्हारी समझ में न आ जाए
कि तुम कितना मिलते हो एक दूसरे से,
हडीली नाकें तुम्हारी,
गिद्ध सी आँखें,
रेगिस्तानी यादें,
दुखों का पुराना इतिहास एक सा,
और अपनी औरतों के प्रति एक जैसा ही तिरस्कार.

*********

पश्चिमी दीवार: यहूदियों द्वारा अत्यंत पवित्र माने जाने वाले और यरूशलम में स्थित एक प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष
शयतिल: धार्मिक यहूदी महिलाओं द्वारा गंजे सिर को ढंकने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला विग

(पिछले दिनों प्रतिलिपि में प्रकाशित मेरिलिन ज़ुकरमन की एक और कविता और उस पर कुछ बेतरतीब बातें यहाँ देखी जा सकती है; कवियित्री का परिचय यहाँ मौजूद है).

Friday, November 20, 2009

आज बाज़ार में पा-ब-जोलाँ चलो


गुज़री सदी में उर्दू शाइरी का नाज़ो-अंदाज़ बदलने वालों में फैज़ का नाम प्रमुख है. उनकी शाइरी 'घटाटोप बेअंत रातों' में सुबह के तारे को ताकती तो है ही, 'कू-ए-यार' से 'सू-ए-दार' भी निकल पड़ती है. आज उन्हें इस दुनिया से रुखसत हुए पच्चीस बरस हो गए पर उनके कलाम की शगुफ्तगी वैसी की वैसी है. महबूब शायर और उसके कमाल-ए-सुखन को सलाम!




आज बाज़ार में पा-ब-जोलाँ चलो

चश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफ़ी नहीं
तोहमत-ए-इश्क़-ए-पोशीदा काफ़ी नहीं
आज बाज़ार में पा-ब-जोलाँ चलो

दस्त-अफ़्शां चलो, मस्त-ओ-रक़्सां चलो
ख़ाक-बर-सर चलो, खूँ-ब-दामाँ चलो
राह तकता है सब शहर-ए-जानाँ चलो

हाकिम-ए-शहर भी, मजमा-ए-आम भी
सुबह-ए-नाशाद भी, रोज़-ए-नाकाम भी
तीर-ए-इल्ज़ाम भी, संग-ए-दुश्नाम भी

इनका दमसाज़ अपने सिवा कौन है
शहर-ए-जानाँ मे अब बा-सिफा कौन है
दस्त-ए-क़ातिल के शायां रहा कौन है

रख्त-ए-दिल बाँध लो दिलफिगारों चलो
फिर हमीं क़त्ल हो आयें यारों चलो

आज बाज़ार में पा-ब-जोलाँ चलो

******

(पा-ब-जोलाँ : ज़ंजीरों में बंधे पाँव, जान-ए-शोरीदा: व्यथित मन, दस्त-अफ़्शां: हाथ फैलाये हुए, मस्त-ओ-रक़्सां: नृत्य में मग्न, ख़ाक-बर-सर: सर पर धूल लिए, खूँ-ब-दामाँ: दामन पर खून लिए, दमसाज़: मित्र, शायां -योग्य/काबिल , बा-सिफा - निष्कपट,संग-ए-दुश्नाम: धिक्कार में फेंके जाने वाले पत्थर)

Monday, November 16, 2009

ईरान से पर्तोव नूरीला की कविता - चयन, अनुवाद तथा प्रस्तुति : यादवेन्द्र

पर्तोव नूरी़ला इरान की प्रखर कवियित्री हैं। १९४६ में तेहरान में जनमी, वहीँ पलीं बढीं और पढीं। बाद में तेहरान यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगीं। १९७२ में पहला काव्य संकलन छपा, पर तत्कालीन शाह शासन ने उसपर प्रतिबन्ध लगा दिया। १९७९ में इस्लामी क्रांति के समय उसपर से प्रतिबन्ध तो उठा लिया गया पर उनके स्त्री होने के कारण पढाने से रोक दिया गया। अपनी कुछ लिखने पढ़नेवाली मित्रों के साथ मिल कर उन्होंने एक प्रकाशन शुरू किया,पर उसमे भी इतने अड़ंगे लगाये गए कि तीन साल बाद उसको भी बंद करने कि नौबत आ गयी। इन सब से परेशाँ होकर पर्तोव ने अमेरिका कि शरण ली। उन्होंने कविता के साथ साथ कहानी,नाटक और आलोचनात्मक पुस्तकें भी लिखी हैं और उनके फारसी कविता के अनेक संकलन प्रकाशित हैं।

यहाँ प्रस्तुत कविता उनकी बेहद लोकप्रिय कविता है, जिसको इरान में स्त्रियों के लोकतान्त्रिक संघर्ष का घोषणापत्र भी कहा जाता है. इसका फारसी से अंग्रेजी अनुवाद जारा हौशमंद ने किया है.
_ _ _


मैं इंसान हूँ

सर झुका कर चलो
जैसे निकालो घर से बाहर पैर

पड़े तुम्हारे चेहरे पर
प्रकाश सूर्य का
और न ही रौशनी चंद्रमा की
क्योंकि तुम एक स्त्री हो.
शरीर पर उभर आए बौर को
काल के तहखाने में गुडुप कर दो
माथे की कुलबुलाती लटों को हवाले कर दो
बुरादे वाले चूल्हे की राख के
और
हाथों की उत्तप्त सामर्थ्य को
झोंक दो घर के अन्दर झाडू पोंछे और बर्तन बासन में...
क्योंकि
तुम एक स्त्री हो.
दफ़ना डालो सदा के लिए अपने बोल
चुप्पी के उजाड़ बियाबान में
अपनी अकुलाती चाहतों पर शर्म से डूब मरो
और
सम्मोहन के रस में डूबे अंतर्मन को पहनाओ जामा
मंद मंद बयार के निस्सीम धीरज का...
क्योंकि
तुम एक स्त्री हो.
ईर्ष्या के गंदले दर्पण में
जड़ होकर चस्पां हो जाओ
और पहन लो लिजलिजी जाहिली का ताना बाना..
क्योंकि
तुम एक स्त्री हो.
तन मन कस कर बाँध कर रखो
जाने
कब आ धमके तुम्हारा मालिक
और करने को उतावला हो जाये
करने को तुम्हारी पीठ पर मन मर्जी सवारी...
क्योंकि
तुम एक स्त्री हो.
**************
मैं फूट पड़ती हूँ
रोने लगती हूँ
यहाँ
तो
नादानी से भरी
हुई करुणा
भारी
पड़ती जा रही है
ज्ञान की बर्बरता से
मैं संताप करती हूँ
स्त्री बन कर अपने जन्म लेने का
मैं संघर्ष करती हूँ
लड़ती हूँ
जहा मर्दानगी का गुरुर
सर चढ़ कर बोलता रहता है खेतों में
घरों में और क़ब्र के अन्दर भी
मैं लड़ती हूँ
लड़की बन कर अपने जन्म लेने के खिलाफ़.
मैं रखती हूँ अपनी ऑंखें खूब खुली
जिस से डूब न जाऊँ
ऐसे
स्वप्न के
भार तले
जो मेरे लिए देखा था और कई कई लोगों ने
और
जोर लगा कर फाड़ देती हूँ यह भुतहा परिधान
जिस से बाँध दिया गया था मुझे
मेरे नग्न ख़यालों को ढांपने के नाम पर...
क्योंकि
मैं एक स्त्री हूँ.
मैं युद्ध के देवता से करने लगी हूँ प्यार
जिस से धरती की अतल गहराईयों में
दफ़ना सकूँ उसके कोप की तलवार
मैं अंधियारे के देवता से भिड जाती हूँ आमने सामने
जिस
से क्षितिज पर चमक सकें मेरे नाम लिखे सितारे...
क्योंकि
मैं एक स्त्री हूँ.
प्रेम को एक हाथ से थामती हूँ
पकड़ती हूँ श्रम को दूसरे हाथ से कस कर
इस तरह मैं अपनी
गौरवशाली प्रखरता के बलबूते
सिरजने लगती हूँ अपनी दुनिया
इसी धरती पर
और बादलों का बिछौना बना कर
रोप देती हू उसमे
अपनी
मुस्कान की सुगंध
कि जब बरसे पानी तो
सुगन्धित बूंदों से
कलियाँ फूट पड़ें दुनिया भर की वनस्पतियों में...
क्योंकि
मैं एक स्त्री हूँ.
मैं जनूंगी जो बच्चे
वो
रौशनी का सैलाब ले कर आएंगे
मेरे आदमियों के साथ साथ आयेगी
ज्ञान विज्ञान की अद्वितीय आतिशबाजी...
क्योंकि
मैं एक स्त्री हूँ.
मैं ही हूँ इस धरती की अखंडित शुचिता
और काल की कभी न फीकी पड़नेवाली शान...
क्योंकि मैं एक इंसान हूँ ....


****
यादवेन्द्र जी
संपर्क - 9411100294

Saturday, November 14, 2009

निज़ार क़ब्बानी की कविता - चयन, अनुवाद तथा प्रस्तुति : सिद्धेश्वर सिंह



इस अनुवाद और प्रस्तुति के लिए अनुनाद सिद्धेश्वर सिंह यानी जवाहिर चा का आभारी है।

निज़ार क़ब्बानी (1923-1998) की गणना न केवल सीरिया और अरब जगत के उन महत्वपूर्ण कवियों में होती है जिन्होंने न केवल कविता के परम्परागत ढाँचे को तोड़ा है और उसे एक नया मुहावरा और नई जमीन बख्शी है बल्कि ऐसे समय और समाज में जहाँ कविता में प्रेम को वायवी और रूमानी नजरिए देखने की एक लगभग आम सहमति और सुविधा हो वहाँ वह इसे हाड़ - मांस के स्त्री - पुरुष की निगाह से इसी पृथ्वी पर देखे जाने के हामी रहे हैं। इस क्रम में एक दैनन्दिन साधारणता है और देह से विलग होकर देह की बात किए जाने की चतुराई भी नहीं है। अपने विद्यार्थी जीवन में जब उन्होंने कवितायें लिखना शुरु किया तो नई पीढ़ी के बीच अपार यश प्राप्त किया किन्तु उन पर दैहिकता और इरोटिसिज्म को बढ़ावा देने का आरोप भी लगाया गया. खैर वे लगाता लिखते रहे - मुख्यत: कविता और गद्य भी.उनकी कविता और संगीत की जुगलबन्दी की एक ऐसी सफल - सराहनीय कथा है जो रीझने को मजबूर तो करती ही है , रश्क भी कम पैदा नहीं करती।

निज़ार क़ब्बानी को को केवल प्रेम , दैहिकता और इहलौकिकता का कवि भर मान लिया जाना उनके साथ अन्याय होगा. वे अपनी कविताओं में धीरे - धीरे बदलते , अपने आसपास के परिवेश व विषम परिस्थितियों से प्रभावित होते, उन पर सटीक व चुभती हुई टिप्पणी करते, प्रतिरोध के स्वर में अपना स्वर मिलाते भी देखे जाते हैं । इस प्रकार की कविताओं में 'पत्थर थामे बच्चे', 'दमिश्क , तुमने क्या किया मेरे वास्ते', 'जेरुशलम' , ' बलक़ीस' आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

निज़ार क़ब्बानी ने एक राजनयिक के रूप में दुनिया के कई इलाकों में अपना वक्त बिताया और अपने अनुभव जगत को विस्तार दिया.पचास वर्षों के लम्बे साहित्यिक जीवन में तीस से उनकी किताबें प्रकाशित हुई हैं तथा विश्व की की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। जहाँ तक अपनी जानकारी है हिन्दी में निज़ार की कविताओं की उपस्थिति अत्यन्त विरल है। आजकल मैं उनकी कविताओं का आस्वादन तो कर ही रहा हूँ , अनुवाद का काम भी जारी है। हिन्दी में विश्व कविता के प्रेमियों के बीच यदि मेरा किसी कण के हजारवें हिस्से भर का यह काम एक महत्वपूर्ण कवि के कविता कर्म के प्रति किंचित रुचि पैदा कर सके तो ....

तो लीजिए प्रस्तुत है निज़ार क़ब्बानी की दो कवितायें -

* प्रेम तुला पर

कुछ भी नहीं है समतुल्य
न ही
तुम्हारे अन्य किसी प्रेमी से
संभव है मेरा कोई सादृश्य
फिर भी :

यदि वह तुम्हें दे सकता है मेघ
तो मैं ला दूँगा बारिश
यदि वह तुम्हें दे सकता है दीपक
तो मैं हाजिर हो जाऊँगा साथ लिए चाँद।

यदि वह तुम्हें दे सकता है कोई टहनी
तो मैं ले आऊँगा पूरा का पूरा एक वृक्ष
और....
यदि वह तुम्हें दे सकता है जलयान
तो मैं
तुम्हारे साथ चल पड़ूँगा लेकर अनंत यात्रायें ।
_ _ _

** समुद्र संतरण

अंतत:
प्रेम को ऐसे ही घटित होना था
जल की त्वचा पर
एक मछली की भाँति फिसलते हुए
हम दाखिल हुए
देवताओं के स्वर्ग में ।

हम अचम्भित हुए
जब सागर तल में दिखी
बेशकीमती मोतियों अविरल पाँत।
प्रेम को ऐसे ही घटित होना था
संतुलित
प्रतिसाम्य से परिपूर्ण
मानो 'स्व' और 'पर' का विलोपन
हो गया - सा हो मूर्तिमान ।

कुछ भी नहीं नि:शेष
बस एक न्यायोचित दान - प्रतिदान
ऐसा ही होना था किसी आरोह का अवरोह
ऐसा ही होना था किसी उत्थान का अवसान
जैसे जैस्मिन के जल से लिखी जा रही हो कोई इबारत
जैसे धरा को फोड़कर
सहसा उदित हो गया हो कोई जलप्रपात ।
_ _ _
( ब्बानी की कुछ कवितायें यहाँ और यहाँ भी देखी जा सकती हैं )
सिद्धेश्वर सिंह
विभागाध्यक्ष हिन्दी, हेमवती नंदन बहुगुणा राजकीय स्तात्कोत्तर महाविद्यालय, खटीमा, जिला- ऊधम सिंह नगर (उत्तराखंड)
फोन - 9412905632

Wednesday, November 11, 2009

राजनीतिक कविता: डेवोरा मेजर की एक कविता


इस कविता का अनुवाद भी 'दहलीज़' के लिए ही किया गया था. अब शिरीष का अनुसरण करते हुए- बिना 'दहलीज़' का लेबल लगाये- इसे प्रकाशित किया जा रहा है. ऐसा करते हुए पंकज जी के अनुनाद पर लौट आने के लिए की गई दुआ में अपनी आवाज़ भी शामिल कर रहा हूँ. आमीन!

राजनीतिक कविता

कविता कैसे बनती है क्रान्तिकारी
क्या वह करती है पृष्ठ का घनघोर तिरस्कार
क्या रचती है व्याकरण की ऐसी अराजकता
जो उपमाओं को नकार दे या छन्दों को कर दे पराजित
क्या होती है वह सशस्त्र और तैयार लम्बी लड़ाई के लिए
भरी हुई बारूद और छर्रों से
क्या होती है ऊँचे स्वर वाली और आग्रही
जो धावा बोल दे आपकी इन्द्रियों पर
वक़्त से पहले आई शहीदाना मौत के बावजूद
क्या नहीं होती उपलब्ध
मसीहा घोषित कर दिए जाने के लिए
या फिर पा लेती है
ज़िन्दा रहने का छापामार तरीका
छुपी
भूमिगत रहकर
और फट पड़ कर अप्रत्याशित जगहों पर
दोबारा दिखाई देती ठीक तभी
जब आपने उसे मरा मान लिया हो

*****

डेवोरा मेजर अफ्रीकी-अमेरिकी कविता में एक सुपरिचित नाम हैं. उनकी कविताओं में मौजूद 'ब्लॅक एक्सपीरियेन्स' का अंदाज़ अलहदा है. सॅन फ्रांसिस्को की पोएट लॉरिएट रह चुकीं मेजर के तीन उपन्यास भी प्रकाशित हो चुके हैं. वे एक कुशल अभिनेत्री और निष्णात नृत्यांगना तो हैं ही, इस नाते कलाकारों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाली आर्ट-एक्टिविस्ट भी हैं.


Monday, November 9, 2009

धूमिल की याद - उनकी अन्तिम कविता



शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।

लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।
***

Sunday, November 8, 2009

" युवा कवियो " के प्रति निकानोर पारा की एक कविता

अनुनाद के सहलेखक पंकज चतुर्वेदी नए कवियों और पाठकों के मार्गदर्शन के लिए "दहलीज़" नामक एक स्तम्भ चला रहे हैं लेकिन इधर कुछ दीगर व्यस्तताओं के चलते उन्होंने इस स्तम्भ का काम फिलहाल स्थगित कर दिया है। इस कविता का अनुवाद मैंने उनके इसी स्तम्भ के लिए किया था। स्तम्भ उनका है इसलिए मैं ख़ुद-ब-ख़ुद इस कविता को "दहलीज़" के लेबल से नहीं छाप सकता। इसे स्तम्भ से बाहर यहाँ छाप रहा हूँ तो बस इस नीयत और शुभकामना के साथ कि पंकज भाई दुबारा अपनी उस दहलीज़ तक लौट आयें !
आइये मेरे साथ आप भी बोलिए आमीन और पढ़िये निकानोर पारा की यह अद्भुत छोटी कविता !

लिखो जैसा तुम चाहो
चाहे जिस भी तरह तुम लिखो !

बहुत -सा ख़ून बह चुका है पुल के नीचे से
इस बात पर यक़ीन करने में
कि बस एक ही राह है, जो सही है !

कविता में तुम्हें हर चीज़ का अख़्तियार है

लेकिन शर्त बस इतनी है
कि तुम्हें एक कोरे कागज़ को बेहतर बनाना है !
****

वह कहीं भी हो सकती है - आलोक श्रीवास्तव

आलोक श्रीवास्तव की इस कविता को दरअसल स्त्रियों पर लिखी गई आधुनिक कविता और स्त्री विमर्श का संक्षिप्त आलोचनात्मक काव्येतिहास भर माना जाए या इसके अलावा कविता का अपना एक अलग और प्रभावशाली अस्तित्व भी है, इस निर्णय को मैं पाठकों के विवेक पर छोड़ता हूं। कभी प्रकाशित कविता के बारे में प्रस्तोता का ज़रूरत से ज़्यादा दिया गया वक्तव्य उसके मूल आस्वाद या धार को बेमानी भी बना देता है, इसलिए आइये बिना वक्त बर्बाद किए पढ़े आलोक की यह कविता।


वह कहीं भी हो सकती है!

यह कहानी शुरू होती है
गुज़री सदी के आखिरी हिस्से से
जब निराला की प्रिया
किसी अतीत की वासिनी हो गई थी
और प्रसाद की नायिकाएं
अपनी उदात्तता, भव्यता, करुणा और विडंबना में
किसी सुदूर विगत और
किसी बहुत दूर के भविष्य का स्वप्न बन गई थीं

अब यहां थी
एक लड़की जिसके बारे में लिखा था रघुवीर सहाय ने
जीन्स पहनकर भी वह अपने ही वर्ग का लड़का बनेगी
या वह स्त्री जो अपनी गोद के बच्चे को संभालती
दिल्ली की बस में चढ़ने का संघर्ष कर रही थी
और सहाय जी के मन में
दूर तक कुछ घिसटता जाता था
वहां स्त्रियां थीं, जिनको किसी ने कभी
प्रेम में सहलाया न था
जिनके चेहरों में समाज की असली शक्ल दिखती थी...

उदास, धूसर कमरों में
अपने करुण वर्तमान में जीती
उत्तर भारत के निम्न मध्यवर्ग की वे स्त्रियां
कभी हमारी bahanein बन जातीं, कभी मॉंएं
कभी पड़ोस की जवान होती किशोरी
कभी कस्बे की वह लड़की
जो अपनी उम्र की तमाम लड़कियों से
कुछ अलग नज़र आती
इतनी अलग कि
किताबों में पढ़ी नायिकाओं की तरह
उसके साथ मनोजगत में ही कोई
भव्य, उदात्त, कोमल, पवित्र प्रेम घटित हो जाता...

फिर वह सदी भी गुज़र गई
निराला और प्रसाद तो दूर
लोग रघुवीर सहाय को भी भूल गए
और उन लड़कियों को भी जो
अभी-अभी गली-मुहल्ले के मकानों से कविता में आई थीं
फिर वे लड़कियां भी खुद को भूल गईं
और जैसे-तैसे चली आईं
महानगरों में....

एक संसार बदल रहा था
ठस नई बनती दुनिया में लड़कियों के हाथों में मोबाइल फोन थे
ब्हुराष्ट्रीय पूंजी की कृपा से ही क्यों न हो
आंखों में कुछ सपने भी थे
ये दो भारतों के बीच के तीसरे भारत की लड़कियां
ठस दुनिया को बेहतर जानती थीं

साहित्य-संस्कृति, कविता, विश्व-सिनेमा
फिर मॉल और मल्टीप्लैक्स की यह दुनिया
गद्गद् भावुकता और आत्मविभोर बौद्धिकता
और हिंदी की इस पिछड़ी पट्टी से आए
स्त्री-विमर्श रत खाए-अघाए कुछ कलावंत, कवि, साहित्यकार...

दो भारतों के बीच के इस तीसरे भारत की
इन लड़कियों के अलावा एक और दुनिया थी लड़कियों की
जो आलोकधन्वा की भागी हुई लड़कियों की तरह
न तो साम्राज्यवादी अर्थ-व्यवस्था की सुविधा से
अपने सामंती घरों से भाग पाईं
न ही टैंक जैसे बंद और मजबूत घरों के बाहर बहुत बदल पाईं

कवि का यूटोपिया पराजित हुआ.

यह तीन भारतों का संघर्ष है
स्त्रियां ही कैसे बचतीं इससे
वे तसलीमा का नाम लें या सिमोन द बोउवा का
उनकी आकांक्षाएं, उनके स्वप्न, उनका जीवन
उन्हें किसी ओर तो ले ही जाएगा
ठीक वैसे ही जैसे
माक्र्सवाद, क्रांति, परिवर्तन का रूपक रचते-रचते
पुरुषों का यह बौद्धिक समाज
व्यवस्था से संतुलन और तालमेल बिठा कर
बड़े कौशल से
अपनी मध्यवर्गीय क्षुद्रताओं का जीवन जीता है....

बेशक ये तफ़़सीलें हमारे समय की हैं
समय हमेशा ही कवियों के स्वप्न लोक को परास्त कर देता है
पर यदि हम अपने ही समय को निकष न मानें तो
कवियों के पराजित स्वप्न भी
अपनी राख से उठते हैं
और पंख फड़फड़ाते हुए
दूर के आसमानों की ओर निकल जाते हैं
फिर लौटने के लिए...

हो सकता है वनलता सेन अब भी नाटौर में हो....
या चेतना पारीक किसी ट्रॉम से चढ़ती-उतरती दिख जाए....

या फिर वह झारखंड से विदर्भ तक कहीं भी हो सकती है
कोई स्वप्न तलाशती
और खुद किसी का स्वप्न बनी!
***
01 नवंबर, 2009
___________________________________

आलोक श्रीवास्तव, ए-4, ईडन रोज, वृंदावन काम्पलेक्स, एवरशाइन सिटी, वसई रोड, पूर्व, पिन- 401 208 (जिला-ठाणे, वाया-मुंबई) फोन - 0250-2462469

Thursday, November 5, 2009

कुफ़्र-मार्टिन एस्पादा की एक कविता

बक ही दिया जाए कुफ़्र: कविता हमें बचा सकती है,
उस तरह नहीं जैसे कोई मछुआरा डूबते हुए तैराक को खींच लेता है
अपनी कश्ती में, उस तरह नहीं जैसे ईसा ने, चीखों-चिल्लाहटों के बीच,
पहाड़ी पर अपनी बगल में सलीब पर लटकाए गए चोर से
अमरत्व का वायदा किया था, फिर भी मुक्ति तो है ही.

जेल की लाइब्रेरी से ली गई कविता की पुस्तक पढ़ते हुए
कोई कैदी सुबकता है कहीं, और मैं जानता हूँ क्यों उसके हाथ
एहतियात बरतते हैं कि पुस्तक के जर्जर पन्ने टूट न जाएँ.
*****
(मार्टिन एस्पादा का परिचय और एक कविता अनुनाद की इस पुरानी पोस्ट पर मौजूद है)

Tuesday, November 3, 2009

रोना - हरि मृदुल की एक कविता

हेमंत स्मृति सम्मान तथा महाराष्ट्र साहित्य अकादमी के संत नामदेव पुरस्कार से सम्मानित युवा कवि हरि मृदुल की यह कविता संवाद प्रकाशन वाले भाई श्री आलोक श्रीवास्तव ने उपलब्ध कराई है। उनके प्रति आभार। इस श्रृंखला की पिछली दो कविताएँ यहाँ और यहाँ पढ़ी जा सकती हैं।


आखिर ऐसी बात कौन सी
भर आए आंखों में डबडब आंसू

पोंछते ही इनके फिर भर आने में संदेह
इसलिए पोंछने की होती नहीं इच्छा

सूख रहे आंखों में ही अब
बस कोरों पर ही थोड़े बचे हुए हैं

शीशे के सम्मुख खड़े हो लिए
ऐसे दृश्य देखने के भी हम उत्सुक।
***
(यह कविता `सफेदी में छुपा काला´ संग्रह में मौजूद है, जिसे, 2007 में उद्भावना ने प्रकाशित किया।)

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