Thursday, October 22, 2009
अगन बिंब जल भीतर निपजै!
यह कविता पिछले दिनों प्रतिलिपि में यहाँ छपी है।
एक क़स्बे में
बिग बाज़ार की भव्यतम उपस्थिति के बावजूद वह अब तक बची आटे की एक चक्की चलाता है
बारह सौ रुपए तनख़्वाह पर
लगातार उड़ते हुए आटे से ढँकी उसकी शक़्ल पहचान में नहीं आती
इस तरह
बिना किसी विशिष्ट शक़्लो-सूरत के वह चक्की चलाता है अपने फेफड़ों में ग़र्म आटे की गंध लिए
उसे बीच-बीच में खांसी आती है
छाती में जमा बलगम थूकने वह बाहर जाता है साफ़ हवा में
वहां उसके लायक कुछ भी नहीं है
कुछ लफंगे बीड़ी पीते और ससुराल से पहले प्रसव के लिए घर आयी उसकी बेटी के बारे में पूछते हैं
कुछ न कहता हुआ वह वापस
अपनी धड़धड़ाती हुई दुनिया में लौट जाता है
उसे जागते-सोते सपने आते हैं – वो पुरखों की बेची दो बीघा ज़मीन ख़रीद रहा होता है वापस
गेंहू की फसलें उगाता है उन असम्भव छोटे-छोटे खेतों में
गल्लामंडी में बोली लगाता गुटके से काले पड़े होंटों से मुस्कुराता है
तो बुरा मान जाती है
गेंहू पिसाने आयी काछेंदार धोती पहनी साँवली औरतें
उन्हें पता ही नही चलता कि वह दरअसल दूसरी दुनिया में मुस्कुराता और रहता है
सिर्फ़ बलगम थूकने आता है इस दुनिया में थूकते ही वापस चला जाता है
वह दबी आवाज़ में गाली देती है उसे –
“तेरी ठठरी बंधे…”
उसका इलाज चल रहा है बताती है उसकी घरवाली
उसके सपनों और उम्मीदों को दिमाग़ी बीमारी करार दे चुका है नागपुर के बड़े अस्पताल का एक डॉक्टर और इसी क्रम में
उसे काम से निकाल देना भी तय कर चुका है चक्की का मालिक
पीसते-पीसते वह आटा जला देता है
आटाचक्की के काम में उसकी लापता ज़मीनों और खेतों के हस्तक्षेप से ऐसा होना सम्भव है
पर आटे का जलना और पाटों का ख़राब होना
अक्षम्य अपराध है
बेटा इंटर में है अभी और उसके आगे बढ़ने की अच्छी सम्भावनाएं हैं
पर अपने पिता की इज़्ज़त नहीं करता वह उन्हें अधपगला ही समझता है दूसरे दुनियादारों की जगह
अकसर डाँट और झिड़क देता है बात बेबात ही
और उसकी आँसू भरी आंखों से विमुख याद करता है एक पुरानी और अमूमन उपेक्षा से पढ़ी जाने वाली किताब में
अपना सबसे ऊबाऊ सबक
किंचित लापरवाही से
- “अगन बिम्ब जल भीतर निपजै”
अपनी तरह का अकेला आदमी नहीं है वह दुनिया में और भी हैं कई लाख उस जैसे अपनी अधूरी इच्छाओं से लड़ते
गहरी हरी उम्मीदों में भूरे पत्तों से झरते
सात सौ साल पुरानी आवाज़ में पुकारती होंगी उन सबकी भी सुलगती – गीली आँखें
और मैं
हिंदी का एक अध्यापक
सोचता हूँ कवि का नाम तक पढ़ना नहीं आता जिन्हें
उन्हीं में क्यों समाता है कवि?
इस तरह अपने होने को बार-बार क्यों समझाता है कवि?
***
9 comments:
यहां तक आए हैं तो कृपया इस पृष्ठ पर अपनी राय से अवश्य अवगत करायें !
जो जी को लगती हो कहें, बस भाषा के न्यूनतम आदर्श का ख़याल रखें। अनुनाद की बेहतरी के लिए सुझाव भी दें और कुछ ग़लत लग रहा हो तो टिप्पणी के स्थान को शिकायत-पेटिका के रूप में इस्तेमाल करने से कभी न हिचकें। हमने टिप्पणी के लिए सभी विकल्प खुले रखे हैं, कोई एकाउंट न होने की स्थिति में अनाम में नीचे अपना नाम और स्थान अवश्य अंकित कर दें।
आपकी प्रतिक्रियाएं हमेशा ही अनुनाद को प्रेरित करती हैं, हम उनके लिए आभारी रहेगे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बड़ी, लम्बी और बरगद के झुरमुट जैसी कविता...
ReplyDeleteकिन्तु मुद्दे में बांधे रखती है... हर पैरे में ऐसी बात है...
वो भी क्या दिन थे जब हर चीज़ से
ReplyDeleteबिना बात ही प्यार हो जाया करता था
घूम घूम कर लौटते थे और
और लौट कर फिर घूम आया करता था
कुछ कविताएं रुला देतीं हैं मुझे. ये वाली भी उन में से एक है. इसे बार बार पढ़्ने का मन है, ताकि बार बार रोऊँ और गाँठें जो भीतर बनी हुई हैं, खुलें, बहें, मैं निवृत्त हो कुछ रचने लग जाऊँ... फिर से !
ReplyDeleteआभार इस पोस्ट के लिए.
अजेय तुम्हारी प्रतिक्रिया एक बड़ी प्रतिक्रिया है, भरोसा जगाती है - शुक्रिया.
ReplyDeleteशायद टूटते सपने के बीच कुछ जुडता जाता है और वह है अट्टालिकाओ और माल्स और बिगबाजारो के बीच उसकी आटे की चक्की का चलते जाना. पर कब तक ---
ReplyDeleteकवि उनके बीच समाये या न समाये पर कविता का जन्म उन्ही के बीच से होता है और कवि अपनी कविता वही तलाशता है.
न जाने कितने सामाजिक जख्म कुरेदे है इस रचना ने. आँसू न बहे पर सूख ज़रूर गये.
आटा चक्की से शुरू होकर बहुत सारा समेटती हुई फिर भी निरंतर विस्तार में जाती एक बड़ी कविता.
ReplyDeleteअजेय जी की टिप्पणी के मुताबिक ही कहता हूँ-तेज़ प्रभाव होता है इसका पढ़ते पढ़ते.
'उन्ही में क्यूँ समाता है कवि ?' हाशिये पर जीते लोगों की यह कविता उनकी त्रासदी की पूरी गाथा है ....पूरे जीवन का चलचित्र
ReplyDeleteआँखों के सामने घूम जाता है और बरबस आँखें गीली हो जाती हैं .....सचमुच ''वह'' अकेला है.....इतनी सघन संवेदना के प्रति
हार्दिक आभार .
आज एक महीना हो गया होगा लगभग...पर उधार खाते में सामान लिखाता वो आदमी दिमाग से नहीं जा रहा शिरीष जी...
ReplyDelete.शिरीष जी ... बिग बाज़ार से जो वितृष्णा पैदा होती है उसके कारण को आपने शब्दों से उतार दिया .. और उनलोगों की बात कही जो आटे की धूल को अपने फेफडों में भरने भर के हक़दार हैं ...आखिरी पंक्तियाँ कि जिन्हें कवि लिखना भी नहीं आता उन्हीं में क्यों ..समाता है कवि .. .. तो रोने के लिए मजबूर कर गयीं ... ममता से भर कर छटपटाता है ..कवि इतनी गहरी संवेदना के लिए बधाई
ReplyDelete