
बोधिसत्व समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। कविता में अपनी शुरूआत उन्होंने आलोचना में कुछ बेहद प्रभावशाली कविताओं से की थी और उसके कुछ समय बाद उनका पहला संग्रह `सिर्फ़ कवि नहीं´ आया। यहां प्रस्तुत है इसी महत्वपूर्ण संग्रह से उनकी एक कविता, जो उनकी अपनी `बोली-बानी´ में है। अनुनाद पर बोधिसत्व की कविताओं का क्रम जारी रहेगा, जिसमें उनकी महत्वपूर्ण कविता श्रृंखला `कमलादासी की कविताएं´ शामिल होगी। आशा है अनुनाद के पाठक इन कविताओं का स्वागत करेंगे।
दिल्ली
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
का दर दिल्ली कब करइ अन्नोर
सब कहइ, चोर चोर
तब कहां घुसुरबे बताव भाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
दिल्ली हमइ बरबाद केहेसि
दिल्ली हमइ का खाक देहेसि
दिल्ली हमइ का चुसेसि नांहि
दिल्ली हमइ का राज देहेसि
दिल्ली हमइ देहेसि पगलाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
दिल्ली बहुत चमर-चतुर
दिल्ली बहुत चिक्कन
बहुर खुर-दुर,
दिल्ली हमइ कहइ तू.....तू.....आ
दिल्ली हमइ कहइ दुर......दुर
दिल्ली हमइ लपेटेसि भाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
दिल्ली जहां बनत नंहि देर
दिल्ली कहइ बहुत हेर-फेर
दिल्ली गेंहू मटर कइ देइ
दिल्ली धुआं देइ, दिल लेइ
दिल्ली चलइ हमेसा धाइ
दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली
बहुत नमकीन बहुत रसीली
दिल्ली दिन में लूटई
राति में खाई।
दिल्ली बाप ददा के खायेसि
दिल्ली थोड़ हँसायेसि
ढेर रोआयेसि
दिल्ली ग जे लौटा नांहि।
खर कहई संगति नसाई
अब केउ दिल्ली न जाई।
***
दिल्ली
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
का दर दिल्ली कब करइ अन्नोर
सब कहइ, चोर चोर
तब कहां घुसुरबे बताव भाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
दिल्ली हमइ बरबाद केहेसि
दिल्ली हमइ का खाक देहेसि
दिल्ली हमइ का चुसेसि नांहि
दिल्ली हमइ का राज देहेसि
दिल्ली हमइ देहेसि पगलाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
दिल्ली बहुत चमर-चतुर
दिल्ली बहुत चिक्कन
बहुर खुर-दुर,
दिल्ली हमइ कहइ तू.....तू.....आ
दिल्ली हमइ कहइ दुर......दुर
दिल्ली हमइ लपेटेसि भाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
दिल्ली जहां बनत नंहि देर
दिल्ली कहइ बहुत हेर-फेर
दिल्ली गेंहू मटर कइ देइ
दिल्ली धुआं देइ, दिल लेइ
दिल्ली चलइ हमेसा धाइ
दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली
बहुत नमकीन बहुत रसीली
दिल्ली दिन में लूटई
राति में खाई।
दिल्ली बाप ददा के खायेसि
दिल्ली थोड़ हँसायेसि
ढेर रोआयेसि
दिल्ली ग जे लौटा नांहि।
खर कहई संगति नसाई
अब केउ दिल्ली न जाई।
***
रचनावर्ष - १९८७ तथा प्रथम प्रकाशन - १९८८/ आलोचना
बहुत अच्छी बात है ऐसी खरी खोटी और खांटी कविता होनी चाहिए... कम से कम अनुनाद पर तो जरूर
ReplyDeleteदिल्ली बहुत चिक्कन...
अब केऊ दिल्ली ना जाई..
Waah!
दिलचस्प ...हमने तो भगवत साहब की एक लम्बी सी कविता पढ़ी थी दिल्ली पे .....पर ये ज्यादा जंची !
ReplyDeleteभाई शिरीष
ReplyDeleteकविता का आखिरी हिस्सा एकदम से गलत और अधूरा है, ठीक कर दें। अंत शायद कुछ ऐसे है-
दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली
बहुत नमकीन बहुत रसीली
दिल्ली दिन में लूटई
राति में खाई।
दिल्ली बाप ददा के खायेसि
दिल्ली थोड़ हँसायेसि
ढेर रोआयेसि
दिल्ली ग जे लौटा नाहिं।
खर कहई संगति नसाई
अब केउ दिल्ली न जाई।
भाई एक बार मिलान करके ठीक कर दें।
आपका
बोधिसत्व
बोधि भाई कविता का छूटा हिस्सा जोड़ दिया है। ध्यान दिलाने का शुक्रिया। भूल- गलती के लिए खेद है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया-रोचक रहा पढ़ना.
ReplyDeleteभाषा का प्रयोग सुन्दर है .........कटाक्ष भी .
ReplyDeleteबोधिसत्व जी की बेमिसाल कविता पढ़वाने के लिये आभार..यह दर्द चाहे दिल्ली का डसा बिहारी हो, अयोध्या के पागलदास, या भदोही का बांग्लादेशी सबका एक है..और यह इस मेट्रोयुगीन विकासवाद की अंधी रोडरोलर दौड़ मे एक छोटे/आम आदमी का दफ़्न होते जाना...पिसते जाना..कच्चे माल की तरह..कहीं पर विष्णु खरे जी ने भी इसी आदमी की बात की है साबरमती एक्स्प्रेस मे शायद.
ReplyDeleteआभार
wah!Bodhi bhai ab hamnara kaam kar dijiye varna main ise 'personal' le loonga. Wonderful!
ReplyDeleteबोधिजी की कविता बांचकर आनन्दित हुये।
ReplyDeleteदिल्ली क हम चक्करै न पाले भैया इहींंखातिर !मुला कविता उम्दा बा !
ReplyDeleteबोधिसत्त्व की कविता में आम आदमी के मन में दिल्ली के प्रति पैठे भय का बहुत संवेदनपूर्ण चित्रण है.. दिल्ली के चमक में जो धोखा है उसके अनुभव से गुजरने की अनुभूत पीडा सहज ही व्यक्त है . दिल्ली गेहूं मटर कई देई ..बहुत संवेदनशील कवि ही ऐसी रचना दे सकता है . बधाई
ReplyDeleteits a great poem!!!!!!
ReplyDeleteyehi sacchai hai dilli ki.....go to dilli and lose your soul either to decievers or u also becum 1 of them!!
बहुत ही तीखी समकालीन व्यंग्य रचना !
ReplyDeleteदिल्ली इतनी बेदिल क्यों हो गई है ! ये
सवाल अक्सर साहित्यकारों को मथता है !
bodhi bhai ne `dilli ki khilli` jis deshaj andaj mai udaai hai, bemishal hai. iska hindi anuvaad bhi unse karne ko kahen.anuvaad mai bhi is kavita ki rangat anoothi hogi. shirish apko badhai aur bodhi ko bhi bhi.
ReplyDeletehari mridul.
हम तो दिल्ली को बोधि भाई की आँख से ही देखते हैं ।
ReplyDeleteइसे उस हिन्दी में कहें, जो मैं ने किताबों से सीखी है. ये वाली समझ मे नही आती.
ReplyDeleteSHIRIISH ji SHUKRIYA IS KAVITA KO PADHAVAANE KE LIYE.
ReplyDeleteBODHI BHAI AB MADHYANTAR ME BOMBAY (ya MUMBAI) par Kuch ho jaaye!!!
आज इसे हिंदी में कर देता हूँ। दीपावाली में उलझा हूँ
ReplyDelete