वह सैंडविच
वह सैंडविच जो तुमने
विदा होते समय दी थी
ट्रेन में
रात साढ़े नौ बजे
मेरे इसरार के बावजूद
कि घर पर माँ
खाने पर
इन्तिज़ार कर रही होंगी
वह एसएमएस
कि `मैं तुमसे सम्मोहित हूँ´
मैंने भेजा तुम्हें
आधी रात के नशे में
अन्यथा इतना साहस
कहाँ देता है समाज
अरसे बाद मेरा डरते-डरते पूछना
सुखद अचरज तुम्हारा कहना
कि वह संदेश अब भी
सुरक्षित है
वाणी में इतनी सौम्यता
जैसे वह दुख को
बहुत पीछे छोड़कर
आयी हो मेरे पास
सौन्दर्य में इतना संकोच
जैसे वह प्रकट होकर भी
अप्रकट था
काश ! मैं कह सकता तुमसे
संस्कृति अगर रूप धारण करती
तो तुम्हारे जैसी होती
वह जिसमें हम साँस लेते हैं
पर जिसे पा नहीं सकते
दिन हैं या पर्दों का
एक सिलसिला है
रोज़ एक पर्दा हटाता हूँ
पूछता हूँ इस बियाबान में ---
कहाँ हो तुम?
***
एक ही
यहाँ एक स्त्री है
जो किसी और ही
दुनिया में रहती है
यह उसके स्वप्न की
दुनिया नहीं
फि़लहाल उसका सपना टूटता है
उसके बच्चे के
रोने और किलकने से
वह निशानी है प्यार की
जो उस स्त्री और
उसके पति के बीच
हुआ था
और नहीं भी हुआ था
पहले वह दो बच्चे चाहती थी
शायद इसलिए
कि खुशी दोगुनी हो जाय
प्यार दोगुना होकर मिले
या इस अज्ञात भय से
कि एक बच्चा कहीं खो जाय
तो दूसरे से आँसू थम सकें
मगर वह पहले बच्चे के
लालन-पालन की मुश्किलों से
इतनी आहत और पस्त है
कि अब वह कहती है :
`एक ही काफ़ी है´
अगरचे इस एक को वह
दिलोजान से चाहती है
इतनी उत्कंठा और संसक्ति से
गोया यह उस प्यार का विकल्प है
जो वह अब तक नहीं कर पायी
उसे देखकर लगता है ---
गोया सचमुच
`एक ही काफ़ी है´
***
तुम जहाँ मुझे मिली थीं
तुम जहाँ मुझे मिली थीं
वहाँ नदी का किनारा नहीं था
पेड़ों की छाँह भी नहीं
आसमान में चन्द्रमा नहीं था
तारे नहीं
जाड़े की वह धूप भी नहीं
जिसमें तपते हुए तुम्हारे गौर रंग को
देखकर कह सकता :
हाँ, यह वही `श्यामा´ है
`मेघदूत´ से आती हुई
पानी की बूँदें, बादल
उनमें रह-रहकर चमकनेवाली बिजली
कुछ भी तो नहीं था
जो हमारे मिलने को
ख़ुशगवार बना सकता
वह कोई एक बैठकख़ाना था
जिसमें रोज़मर्रा के काम होते थे
कुछ लोग बैठे रहते थे
उनके बीच अचानक मुझे देखकर
तुम परेशान-सी हो गयीं
फिर भी तुमने पूछा :
तुम ठीक तो हो?
तुम्हारा यह जानते हुए पूछना
कि मैं ठीक नहीं हूँ
मेरा यह जानते हुए जवाब देना
कि उसका तुम कुछ नहीं कर सकतीं
सिर्फ़ एक तकलीफ़ थी जिसके बाद
मुझे वहाँ से चले आना था
तुम्हारी आहत दृष्टि को
अपने सीने में सँभाले हुए
वही मेरे प्यार की स्मृति थी
और सब तरफ़ एक दुनिया थी
जो चाहती थी
हम और बात न करें
हम और साथ न रहें
क्योंकि इससे हम
ठीक हो सकते थे
***
( ये तीनों कविताएँ नया ज्ञानोदय के महाविशेषांक में प्रकाशित हुयी हैं....)
कवि का पता - 203, उत्सव अपार्टमेण्ट, 379, लखनपुर, कानपुर(उत्तर प्रदेश)
वह सैंडविच जो तुमने
विदा होते समय दी थी
ट्रेन में
रात साढ़े नौ बजे
मेरे इसरार के बावजूद
कि घर पर माँ
खाने पर
इन्तिज़ार कर रही होंगी
वह एसएमएस
कि `मैं तुमसे सम्मोहित हूँ´
मैंने भेजा तुम्हें
आधी रात के नशे में
अन्यथा इतना साहस
कहाँ देता है समाज
अरसे बाद मेरा डरते-डरते पूछना
सुखद अचरज तुम्हारा कहना
कि वह संदेश अब भी
सुरक्षित है
वाणी में इतनी सौम्यता
जैसे वह दुख को
बहुत पीछे छोड़कर
आयी हो मेरे पास
सौन्दर्य में इतना संकोच
जैसे वह प्रकट होकर भी
अप्रकट था
काश ! मैं कह सकता तुमसे
संस्कृति अगर रूप धारण करती
तो तुम्हारे जैसी होती
वह जिसमें हम साँस लेते हैं
पर जिसे पा नहीं सकते
दिन हैं या पर्दों का
एक सिलसिला है
रोज़ एक पर्दा हटाता हूँ
पूछता हूँ इस बियाबान में ---
कहाँ हो तुम?
***
एक ही
यहाँ एक स्त्री है
जो किसी और ही
दुनिया में रहती है
यह उसके स्वप्न की
दुनिया नहीं
फि़लहाल उसका सपना टूटता है
उसके बच्चे के
रोने और किलकने से
वह निशानी है प्यार की
जो उस स्त्री और
उसके पति के बीच
हुआ था
और नहीं भी हुआ था
पहले वह दो बच्चे चाहती थी
शायद इसलिए
कि खुशी दोगुनी हो जाय
प्यार दोगुना होकर मिले
या इस अज्ञात भय से
कि एक बच्चा कहीं खो जाय
तो दूसरे से आँसू थम सकें
मगर वह पहले बच्चे के
लालन-पालन की मुश्किलों से
इतनी आहत और पस्त है
कि अब वह कहती है :
`एक ही काफ़ी है´
अगरचे इस एक को वह
दिलोजान से चाहती है
इतनी उत्कंठा और संसक्ति से
गोया यह उस प्यार का विकल्प है
जो वह अब तक नहीं कर पायी
उसे देखकर लगता है ---
गोया सचमुच
`एक ही काफ़ी है´
***
तुम जहाँ मुझे मिली थीं
तुम जहाँ मुझे मिली थीं
वहाँ नदी का किनारा नहीं था
पेड़ों की छाँह भी नहीं
आसमान में चन्द्रमा नहीं था
तारे नहीं
जाड़े की वह धूप भी नहीं
जिसमें तपते हुए तुम्हारे गौर रंग को
देखकर कह सकता :
हाँ, यह वही `श्यामा´ है
`मेघदूत´ से आती हुई
पानी की बूँदें, बादल
उनमें रह-रहकर चमकनेवाली बिजली
कुछ भी तो नहीं था
जो हमारे मिलने को
ख़ुशगवार बना सकता
वह कोई एक बैठकख़ाना था
जिसमें रोज़मर्रा के काम होते थे
कुछ लोग बैठे रहते थे
उनके बीच अचानक मुझे देखकर
तुम परेशान-सी हो गयीं
फिर भी तुमने पूछा :
तुम ठीक तो हो?
तुम्हारा यह जानते हुए पूछना
कि मैं ठीक नहीं हूँ
मेरा यह जानते हुए जवाब देना
कि उसका तुम कुछ नहीं कर सकतीं
सिर्फ़ एक तकलीफ़ थी जिसके बाद
मुझे वहाँ से चले आना था
तुम्हारी आहत दृष्टि को
अपने सीने में सँभाले हुए
वही मेरे प्यार की स्मृति थी
और सब तरफ़ एक दुनिया थी
जो चाहती थी
हम और बात न करें
हम और साथ न रहें
क्योंकि इससे हम
ठीक हो सकते थे
***
( ये तीनों कविताएँ नया ज्ञानोदय के महाविशेषांक में प्रकाशित हुयी हैं....)
कवि का पता - 203, उत्सव अपार्टमेण्ट, 379, लखनपुर, कानपुर(उत्तर प्रदेश)
bahut sundar kavitaaen hain....maine gyaanday me padhee....prem mahavisheshaank kee saree kavitaaen ek se badhkar ek hain .....
ReplyDeleteपहली शायद नया ज्ञानोदय में पढ़ी है ....
ReplyDeleteअंतिम कविता बहुत अच्छी है.
ReplyDeleteबढ़िया कवितायें हैं पंकज । एक बार और पढ़कर अच्छा लगा -शरद कोकास
ReplyDeleteइन कविताओं में प्रेम की गहन अनुभूति, प्यार की सुच्ची सुन्दरता है और एक गहरी तकलीफ़ है जो अनिवार्य है. आख़िरी कविता तो कहती ही है- `सिर्फ एक तकलीफ़ थी...`
ReplyDeleteinhe padhate hii vaah nikalaa thaa.
ReplyDeleteaapne blog par lagaayii to kavi se kahane ka maukaa mil gayaa.
sach kahoon to kai dino baad pankaj jii kii aisii sahaj aur ravanii se bharapoor kavitaayen padhane ko milii hain jo man aur buddhi ko jhakjhoratii hain...vah bhii ahista se...
पहली और तीसरी आपस मे घुली मिली…तीनो अच्छी लगी
ReplyDeletebahot khoob!
ReplyDeletenarm-nazuk-bareek ahsasonwali ye teen 'naazneene'. Pankaj ji mubarak ho zor-e-kalam!
आपकी तीनों कवितायेँ 'ज्ञानोदय ' में पढ़ चुकी हूँ ....फिर भी फिर से पढ़कर सुखद लगा ......हरेक का प्रेम अलग और अनोखा होता
ReplyDeleteहै .........प्रेम की व्यापक अवधारणा में ही जीवन का सार है, सांसे हैं. बहुत बहुत बधाई .
i liked these poems , but vandana says that these r the best ones among new love poems in the mahaavisheshank.
ReplyDeleteआप सभी हमारे वक़्त के सर्वश्रेष्ठ नाम हैं , जिनसे मेरी इन कविताओं ने इतना बेशकीमती प्यार, हौसला और
ReplyDeleteरौशनी हासिल की है. दरअसल यह इन रचनाओं की ही खुशनसीबी है , क्योंकि आखिरकार हम सभी कविता से ही प्यार करते हैं , कवि से नहीं . गौर से देखें , तो ज़िन्दगी में कविता ही साथ देती है , कवि नहीं . कवि तो
समय और जगह के परे छूट जाता है , मगर उसकी कविता नहीं . मैं कविताओं की ओर से आप सबके प्रति बेहद शुक्रगुजार हूँ . प्रेम-कविता की बाबत मशहूर युवा आलोचक प्रियम अंकित ने अभी 'नया ज्ञानोदय ' के प्रेम-महाविशेषांक ---३ में ही प्रकाशित अपने आलेख में शमशेर की एक कविता के हवाले से यह महत्त्वपूर्ण स्थापना की है कि 'आज की प्रेम-कविता साबुत प्रेम की साबुत कविता नहीं है . वह दरअसल प्यार पर 'टूटी हुई , बिखरी हुई ' एक नज़र है .' प्यार के अनुभव और अभिव्यक्ति दोनों में मैंने अपने तईं , अपने स्तर पर हमेशा इसी टूटन और बिखराव का सामना किया है . मीर के शब्दों में कहूँ -----जैसे मैं कभी नहीं कह पाऊँगा----- तो -----
"हिना से यार का पंजः नहीं है गुल के रंग
हमारे उनने कलेजे में हाथ डाला है ."
-----पंकज चतुर्वेदी
कानपुर
तीनो कवितायेँ बेमिसाल हैं... तीसरी तो उपन्यास सी लगी... आप हमारे लिए इतनी अच्छी कवितायेँ खोज कर लाते है आपका बहुत बहुत आभार...
ReplyDeletePankaj jii
ReplyDeletehamara naam to khair kya hai...
sach me is tootan ko kavitaa me dhalnaa behad mushkil kaam hai. apne kiya to ummeed jagii ki ab yah baar baar hoga ... har baar pahle se behatr
AMIN
kya kahoon! bas yahi ki sunder hain!
ReplyDeleteDuniyadari ki taqat taley muhabbaton ka raundajana qubool kar chuke hum log yahan baar baar ayengey, apni mohabbat ke mazar par sajda karne...!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete