(पिछले दिनों मैंने देखा ऑल जस्टीफाईड छपी हुई, ‘गद्य’ ‘दिखती’ हुई कवितायें वेब पर प्रकाशित होने पर कुछ लोगों को लगा यह कोई ‘नयी’ तरह की कविता या उसकी फैशन है। विश्व कविता में तो यह बहुत पुरानी चीज़ है ही, हिन्दी में भी दशकों पुरानी है। खुद मेरा फॉर्म एकदम शुरू से, मुख्यतः, यही रहा है लेकिन अपने लिखे हुए कुछ पाठ ऐसे हैं जिन्हें कविता की जगह ‘काव्य-कथा’ (वर्स नैरेटिव) कहना मुझे अधिक ठीक लगता है। यह नवीनतम काव्य-कथा है, दस दिन पुरानी – कवि।)
काव्य-कथा
रोसा बोराखा जो कभी बुरा नहीं मानती जब अंग्रेजी स्पेलिंग के अनुसार रोसा बोराजा कह कर बुलाता हूँ, वह तब भी बहुत कम बुरा मानती है जब लोग उसे साईकिल पर भटकने वाली अंगरेजण कहते हैं जबकि वो स्पेनिश, माफ़ करें स्पहानी, है और भारत को कुछ यूँ जानने लगी है कि शिवसेना सुनकर कहती है ओह वो जो बीजेपी से भी खराब है, जो हायजीन की ऐसी-तैसी करते हुए हर उस ढाबे पर चाय पीती है जिसके नीचे से मलमूत्र वाली नाली बहती है या उस गंगा में डुबकी लगा लेती है जो खुद बड़ा-सा नाला हो गई है उसके प्यारे बनारस में वही रोसा बोराजा जिसने पाँच बरस अंग्रेजी और दो बरस स्पहानी की पढ़ाई की है और इतने बरस से भारत में स्पहानी पढ़ाकर बोर हो गई है – जो इस बात से नाराज जरूर होती है कि हिन्दी अखबारों में छपने वाले फोन सेक्स के विज्ञापनों में भारतीय अपनी तस्वीरें क्यों नहीं छापते? उसे हिन्दी फिल्मों की कैबरे क्वीन हेलेन की कहानी उतना ही उदास करती है जितनी जनरल फ्रांको की रेज़ीम. उसी, उसी रोसा बोराजा के साथ एक सौ पचास किलोमीटर का सफर टैक्सी में करते हुए, मन ही मन यह प्रार्थना करते हुए उसे भनक न पड़े जिस ड्राईवर को वह बईया कह कर बुला रही है उसके बारे क्या में बक-सोच रहा है ना उसे उन लगभग सौ भारतीयों के सामूहिक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, शारीरिक कष्टों का कोई अनुमान हो जो उसे हमारे साथ कार से उतरते हुए देखेंगे एक हाईवे ढाबे पर जहाँ चाई पीने की उसकी तलब की अवज्ञा करना हमारे लिये लगभग एक गुनाह हो जायेगा, एक क्रिस्तानी ढंग का गुनाह गोकि रोसा को क्रिस्तानी कहना क्या कम गुनाह है....
(दिलचस्प है कि यह उन दिनों का किस्सा है जब हिन्दी के शुद्धतावादी पंडित विदेशी नामों के शुद्ध उच्चारण को लेकर किसी पर मुकदमा तक ठोक सकते थे इज्जत उतारना तो आम बात थी गोकि शुद्धतावाद, और पंडितों से भी, उनकी नाराजगी बहुत मशहूर थी इस जनपद में)
पर असल कथा अब शुरू होती है बोरहेस या बोर्खेस या बोर्खे़ज और मारकेस या मारकेज़ या मार्क्वेज़ के बारे में बात करते करते वह प्रोफेसर दे की बात करती है जिनका हाथ काफी देर पकड़े रहे थे बोरहेस या बोर्खेस या बोर्खे़ज, तब तक वे बूढ़े और अंधे हो चले थे, और अचानक बोले प्रोफेसर दे से
(जो रोसा के मुताबिक जेएनयू में कुछ बिग शॉट रहे, स्पहानी के बहुत अच्छे स्कॉलर रहे, शायद जेएनयू के वीसी भी लेकिन जो रोसा के दोस्त हैं क्योंकि बहुत विनम्र हैं जो अपने वह सब कुछ बन जाने का जो रोसा समझती है कि वे हैं कारण सिर्फ इतना मानते हैं कि कभी कभी आदमी लकी होता है क्योंकि एक बार लाईट चली जाकर फिर से अचानक न आ गई होती तो उन्होंने उन्नीस सौ पचास के दशक की उस गर्म दोपहर कभी न पाया होता अचानक पंखे की हवा में फड़फड़ाते काग़ज़ों के बीच स्पहानी स्कालरशिप का वो काग़ज़, अगर उनके अंग्रेजी के गुरू ने उन्हें ना कहा होता कि डॉन क्विग्जोट, जिसे हिन्दी में डॉन कुओते, डॉन किखोते, डॉन क्विग्जोह वगैरह लिखा देखा है पर रोसा जिसे डॉन केशोटे कहती है, उसे पढ़े बिना तुम अंग्रेजी मे पीएचडी क्या खा के लिखोगे.... वैसे रोसा अगर यह कहती कि प्रोफेसर दे कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी या नालंदा ‘विश्वविद्यालय’के संस्थापक रहे हैं और उनकी उम्र सत्तर पार नहीं कुछ सैकड़ों वर्ष है तो भी बहुत प्यारा ही लगा होता – जादुई यथार्थवाद के सब आशिकों को इतनी छूट तो मिलनी ही चाहिये)
कि “या तो मैंने यह पढ़ा है या कल्पना कर ली है कि हिमालया शीवा के लाफ्टर से निकला है”, प्रोफेसर दे तब से बहुत ढूँढ चुके पर पुष्टि नहीं हुई कि जो बोरहेस या बोर्खेस या बोर्खेज़ ने कहा वह वाकई कहीं लिखा हुआ है कि नहीं और अब ये मानने लगे हैं भले लिखा न गया, यही तो नहीं हुआ था?
2
जब भी कोई मुझसे कहता है भारत या बनारस के बारें में लिखो मैं उससे कहना चाहती हूँ भारत के बारे में लिखा नहीं जा सकता – मैं स्पेन के बारे में लिख सकती हूँ या प्रोफेसर दे बारे में, कितने भले आदमी हैं हर बार गुड़गाँव से चलकर कनाट प्लेस आते हैं मिलने के लिये इफ यू वांट मी टू, वी कैन मीट हिम बट आई विल हैव टू टैल हिम इन अडवांस यह लिखकर दिखा पाना कितना मुश्किल है कि कोई स्पहानी अंग्रेजी या हिन्दी कैसे बोलती है मेरे दिमाग में यह सब चल रहा है कि वह अपनी कम्बोडिया ट्रिप के बारे में बताने लगती है, हम गंतव्य के पास हैं, यू नो मेरा एक दोस्त है कम्बोडिया में अ बुद्दिस्ट मंक वहाँ मंक कैन से एनी टाईम नाऊ आयम नॉट ए मंक हाँ ट्रस्ट मी दे से टुनाईट आयम नॉट ए मंक...
जब भी कोई मुझसे कहता है भारत या बनारस के बारें में लिखो मैं उससे कहना चाहती हूँ भारत के बारे में लिखा नहीं जा सकता – मैं स्पेन के बारे में लिख सकती हूँ या प्रोफेसर दे बारे में, कितने भले आदमी हैं हर बार गुड़गाँव से चलकर कनाट प्लेस आते हैं मिलने के लिये इफ यू वांट मी टू, वी कैन मीट हिम बट आई विल हैव टू टैल हिम इन अडवांस यह लिखकर दिखा पाना कितना मुश्किल है कि कोई स्पहानी अंग्रेजी या हिन्दी कैसे बोलती है मेरे दिमाग में यह सब चल रहा है कि वह अपनी कम्बोडिया ट्रिप के बारे में बताने लगती है, हम गंतव्य के पास हैं, यू नो मेरा एक दोस्त है कम्बोडिया में अ बुद्दिस्ट मंक वहाँ मंक कैन से एनी टाईम नाऊ आयम नॉट ए मंक हाँ ट्रस्ट मी दे से टुनाईट आयम नॉट ए मंक...
वह उतरती है टैक्सी के भाड़े का एक तिहाई मुझे देती है – सामने उसका गेस्ट हाऊस है, “माय वीकएंड फैमिली”
हम हाथ हिलाते हैं दीवाली की छुट्टियाँ हैं हम अपनी फोरएवर फैमिलीज़ की तरफ बढ़ते हैं –
हम दोनों के फोन पर रात को एसएमएस आयेगा – Trust Borges, Himalaya came out of Shiva’s laughter*
_________________________________
* वैसे तथ्य यह है कि यह बात (=हिमालय शिव की हँसी से निकला है) कालिदास ने मेघदूतम में लिखी है। (59वाँ पद)