Saturday, October 31, 2009

काव्य-कथा : बोरहेस और हिमालयाः टुनाईट आयम नॉट ए मंक / गिरिराज किराड़ू


(पिछले दिनों मैंने देखा ऑल जस्टीफाईड छपी हुई, ‘गद्य’ ‘दिखती’ हुई कवितायें वेब पर प्रकाशित होने पर कुछ लोगों को लगा यह कोई ‘नयी’ तरह की कविता या उसकी फैशन है। विश्व कविता में तो यह बहुत पुरानी चीज़ है ही, हिन्दी में भी दशकों पुरानी है। खुद मेरा फॉर्म एकदम शुरू से, मुख्यतः, यही रहा है लेकिन अपने लिखे हुए कुछ पाठ ऐसे हैं जिन्हें कविता की जगह ‘काव्य-कथा’ (वर्स नैरेटिव) कहना मुझे अधिक ठीक लगता है। यह नवीनतम काव्य-कथा है, दस दिन पुरानी – कवि।)

काव्य-कथा



रोसा बोराखा जो कभी बुरा नहीं मानती जब अंग्रेजी स्पेलिंग के अनुसार रोसा बोराजा कह कर बुलाता हूँ, वह तब भी बहुत कम बुरा मानती है जब लोग उसे साईकिल पर भटकने वाली अंगरेजण कहते हैं जबकि वो स्पेनिश, माफ़ करें स्पहानी, है और भारत को कुछ यूँ जानने लगी है कि शिवसेना सुनकर कहती है ओह वो जो बीजेपी से भी खराब है, जो हायजीन की ऐसी-तैसी करते हुए हर उस ढाबे पर चाय पीती है जिसके नीचे से मलमूत्र वाली नाली बहती है या उस गंगा में डुबकी लगा लेती है जो खुद बड़ा-सा नाला हो गई है उसके प्यारे बनारस में वही रोसा बोराजा जिसने पाँच बरस अंग्रेजी और दो बरस स्पहानी की पढ़ाई की है और इतने बरस से भारत में स्पहानी पढ़ाकर बोर हो गई है – जो इस बात से नाराज जरूर होती है कि हिन्दी अखबारों में छपने वाले फोन सेक्स के विज्ञापनों में भारतीय अपनी तस्वीरें क्यों नहीं छापते? उसे हिन्दी फिल्मों की कैबरे क्वीन हेलेन की कहानी उतना ही उदास करती है जितनी जनरल फ्रांको की रेज़ीम. उसी, उसी रोसा बोराजा के साथ एक सौ पचास किलोमीटर का सफर टैक्सी में करते हुए, मन ही मन यह प्रार्थना करते हुए उसे भनक न पड़े जिस ड्राईवर को वह बईया कह कर बुला रही है उसके बारे क्या में बक-सोच रहा है ना उसे उन लगभग सौ भारतीयों के सामूहिक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, शारीरिक कष्टों का कोई अनुमान हो जो उसे हमारे साथ कार से उतरते हुए देखेंगे एक हाईवे ढाबे पर जहाँ चाई पीने की उसकी तलब की अवज्ञा करना हमारे लिये लगभग एक गुनाह हो जायेगा, एक क्रिस्तानी ढंग का गुनाह गोकि रोसा को क्रिस्तानी कहना क्या कम गुनाह है....


(दिलचस्प है कि यह उन दिनों का किस्सा है जब हिन्दी के शुद्धतावादी पंडित विदेशी नामों के शुद्ध उच्चारण को लेकर किसी पर मुकदमा तक ठोक सकते थे इज्जत उतारना तो आम बात थी गोकि शुद्धतावाद, और पंडितों से भी, उनकी नाराजगी बहुत मशहूर थी इस जनपद में)

पर असल कथा अब शुरू होती है बोरहेस या बोर्खेस या बोर्खे़ज और मारकेस या मारकेज़ या मार्क्वेज़ के बारे में बात करते करते वह प्रोफेसर दे की बात करती है जिनका हाथ काफी देर पकड़े रहे थे बोरहेस या बोर्खेस या बोर्खे़ज, तब तक वे बूढ़े और अंधे हो चले थे, और अचानक बोले प्रोफेसर दे से

(जो रोसा के मुताबिक जेएनयू में कुछ बिग शॉट रहे, स्पहानी के बहुत अच्छे स्कॉलर रहे, शायद जेएनयू के वीसी भी लेकिन जो रोसा के दोस्त हैं क्योंकि बहुत विनम्र हैं जो अपने वह सब कुछ बन जाने का जो रोसा समझती है कि वे हैं कारण सिर्फ इतना मानते हैं कि कभी कभी आदमी लकी होता है क्योंकि एक बार लाईट चली जाकर फिर से अचानक न आ गई होती तो उन्होंने उन्नीस सौ पचास के दशक की उस गर्म दोपहर कभी न पाया होता अचानक पंखे की हवा में फड़फड़ाते काग़ज़ों के बीच स्पहानी स्कालरशिप का वो काग़ज़, अगर उनके अंग्रेजी के गुरू ने उन्हें ना कहा होता कि डॉन क्विग्जोट, जिसे हिन्दी में डॉन कुओते, डॉन किखोते, डॉन क्विग्जोह वगैरह लिखा देखा है पर रोसा जिसे डॉन केशोटे कहती है, उसे पढ़े बिना तुम अंग्रेजी मे पीएचडी क्या खा के लिखोगे.... वैसे रोसा अगर यह कहती कि प्रोफेसर दे कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी या नालंदा ‘विश्वविद्यालय’के संस्थापक रहे हैं और उनकी उम्र सत्तर पार नहीं कुछ सैकड़ों वर्ष है तो भी बहुत प्यारा ही लगा होता – जादुई यथार्थवाद के सब आशिकों को इतनी छूट तो मिलनी ही चाहिये)

कि “या तो मैंने यह पढ़ा है या कल्पना कर ली है कि हिमालया शीवा के लाफ्टर से निकला है”, प्रोफेसर दे तब से बहुत ढूँढ चुके पर पुष्टि नहीं हुई कि जो बोरहेस या बोर्खेस या बोर्खेज़ ने कहा वह वाकई कहीं लिखा हुआ है कि नहीं और अब ये मानने लगे हैं भले लिखा न गया, यही तो नहीं हुआ था?
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जब भी कोई मुझसे कहता है भारत या बनारस के बारें में लिखो मैं उससे कहना चाहती हूँ भारत के बारे में लिखा नहीं जा सकता – मैं स्पेन के बारे में लिख सकती हूँ या प्रोफेसर दे बारे में, कितने भले आदमी हैं हर बार गुड़गाँव से चलकर कनाट प्लेस आते हैं मिलने के लिये इफ यू वांट मी टू, वी कैन मीट हिम बट आई विल हैव टू टैल हिम इन अडवांस यह लिखकर दिखा पाना कितना मुश्किल है कि कोई स्पहानी अंग्रेजी या हिन्दी कैसे बोलती है मेरे दिमाग में यह सब चल रहा है कि वह अपनी कम्बोडिया ट्रिप के बारे में बताने लगती है, हम गंतव्य के पास हैं, यू नो मेरा एक दोस्त है कम्बोडिया में अ बुद्दिस्ट मंक वहाँ मंक कैन से एनी टाईम नाऊ आयम नॉट ए मंक हाँ ट्रस्ट मी दे से टुनाईट आयम नॉट ए मंक...

वह उतरती है टैक्सी के भाड़े का एक तिहाई मुझे देती है – सामने उसका गेस्ट हाऊस है, “माय वीकएंड फैमिली”

हम हाथ हिलाते हैं दीवाली की छुट्टियाँ हैं हम अपनी फोरएवर फैमिलीज़ की तरफ बढ़ते हैं –

हम दोनों के फोन पर रात को एसएमएस आयेगा – Trust Borges, Himalaya came out of Shiva’s laughter*
_________________________________
* वैसे तथ्य यह है कि यह बात (=हिमालय शिव की हँसी से निकला है) कालिदास ने मेघदूतम में लिखी है। (59वाँ पद)

Thursday, October 29, 2009

अनूप सेठी की कविता - रोना

मेरी कविता " मेरे समय में रोना" को पढ़ कर बड़े भाई अनूप सेठी जी ने अपनी यह कविता मेल से भेजी, जिसे मैं कवि के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अनुनाद के पाठकों के साथ शेयर कर रहा हूँ।

रोना

रोना आंसू बहाने की क्रिया भर नहीं है
खुद को उलीच कर निचोड़ देने की मर्मांतक प्रक्रिया भी नहीं
आत्मा के वस्त्रों को धोने का दीया बाती जैसा कोई अनुष्ठान कहना भी
रोने के साथ न्याय करना नहीं होगा

बादलों का घुमड़ना और बरस पड़ना जैसा
सदियों पुराना जुमला भी रोने के मर्म को छू नहीं पाता
पर्वत का रोना इस तरह कि
बरसात में जैसे नसें उसके गले की फूल जाएं
कहना भी रोने को ठीक से बता नहीं पाता

रोना तो रोना
रोने के बाद का हाल तो और भी अजब है
कोई ईश्वर जैसे जन्म ले रहा हो
बारिश के बाद भी धुंधले सलेटी से बचे रह गए
आकाश से झांकने को आतुर कोई चिलकार
अरबी के धुले हुए से चौड़े पत्ते पर ठिठकी रह गई
ओस की अंतिम बूंद में चमकती किसी अरुणोदयी किरण सी
हवा के बेमालूम टहोके से डोलती पारे सी
बरसात के बाद की महकती
खामोशी में टिटिहरी के बोल फूटने से पहले की सी
किसी कर्णप्रिय आवाज के आमंत्रण की सी
जैसे अल्ली मिट्टी में बीज का अंखुआ फूट रहा हो
या बीज के फूट रहे अंखुए से मिट्टी नम हो रही हो

फिर भी रह रह कर यही लगता है
कि रोना और रोने के बाद का होना कुछ और ही है
बहुत हल्का बहुत खाली
बहुत भारी बहुत भरा हुआ
पास भी अपने बहुत और दूर भी खुद से पता नहीं कितने.
***

Sunday, October 25, 2009

मेरे समय में रोना



एक बच्चा सड़क पर रोता-रोता जाता था
पीछे मुड़कर न देखता हुआ

उसकी माँ पहनावे से ग़रीब
उसके थोड़ा पीछे-पीछे आती थी
न बच्चे को रोकती थी
न ख़ुद रुकती थी

वो क्यों रोता था कोई नहीं जानता
वह क्यों उसे बिना चुप कराए
बिना ढाढ़स बँधाए उसके पीछे जाती थी
कोई नहीं जानता

मेरे लिए हर कहीं उठता था रूदन विकल
मानव-समूह में
हर तरफ़ से आती थी ऐसी ही आवाज़

मैं भी कहीं रोता हुआ जाता था
पर मेरे पीछे कोई नहीं आता था !
***

Friday, October 23, 2009

आओ,पर्चे बांटें - लाल्टू की एक कविता

आओ, पर्चे बांटें
आओ, पर्चे बांटें
उन कविताओं के
जिन्हें जाने कब से हमने नहीं लिखा
उन सभी ख़तरनाक कविताओं के
पर्चे बांटें
जिनमें हैं सभी प्रतिबंधित शब्द
हैं जिनमें कोलाहल
है प्यार
(
संकलन 'डायरी में तेईस अक्तूबर' से)

Thursday, October 22, 2009

अगन बिंब जल भीतर निपजै!


यह कविता पिछले दिनों प्रतिलिपि में यहाँ छपी है।

एक क़स्बे में
बिग बाज़ार की भव्यतम उपस्थिति के बावजूद वह अब तक बची आटे की एक चक्की चलाता है
बारह सौ रुपए तनख़्वाह पर

लगातार उड़ते हुए आटे से ढँकी उसकी शक़्ल पहचान में नहीं आती
इस तरह
बिना किसी विशिष्ट शक़्लो-सूरत के वह चक्की चलाता है अपने फेफड़ों में ग़र्म आटे की गंध लिए
उसे बीच-बीच में खांसी आती है
छाती में जमा बलगम थूकने वह बाहर जाता है साफ़ हवा में

वहां उसके लायक कुछ भी नहीं है
कुछ लफंगे बीड़ी पीते और ससुराल से पहले प्रसव के लिए घर आयी उसकी बेटी के बारे में पूछते हैं
कुछ न कहता हुआ वह वापस
अपनी धड़धड़ाती हुई दुनिया में लौट जाता है

उसे जागते-सोते सपने आते हैं – वो पुरखों की बेची दो बीघा ज़मीन ख़रीद रहा होता है वापस
गेंहू की फसलें उगाता है उन असम्भव छोटे-छोटे खेतों में
गल्लामंडी में बोली लगाता गुटके से काले पड़े होंटों से मुस्कुराता है
तो बुरा मान जाती है
गेंहू पिसाने आयी काछेंदार धोती पहनी साँवली औरतें

उन्हें पता ही नही चलता कि वह दरअसल दूसरी दुनिया में मुस्कुराता और रहता है
सिर्फ़ बलगम थूकने आता है इस दुनिया में थूकते ही वापस चला जाता है
वह दबी आवाज़ में गाली देती है उसे –
“तेरी ठठरी बंधे…”

उसका इलाज चल रहा है बताती है उसकी घरवाली
उसके सपनों और उम्मीदों को दिमाग़ी बीमारी करार दे चुका है नागपुर के बड़े अस्पताल का एक डॉक्टर और इसी क्रम में
उसे काम से निकाल देना भी तय कर चुका है चक्की का मालिक

पीसते-पीसते वह आटा जला देता है
आटाचक्की के काम में उसकी लापता ज़मीनों और खेतों के हस्तक्षेप से ऐसा होना सम्भव है
पर आटे का जलना और पाटों का ख़राब होना
अक्षम्य अपराध है

बेटा इंटर में है अभी और उसके आगे बढ़ने की अच्छी सम्भावनाएं हैं
पर अपने पिता की इज़्ज़त नहीं करता वह उन्हें अधपगला ही समझता है दूसरे दुनियादारों की जगह
अकसर डाँट और झिड़क देता है बात बेबात ही
और उसकी आँसू भरी आंखों से विमुख याद करता है एक पुरानी और अमूमन उपेक्षा से पढ़ी जाने वाली किताब में
अपना सबसे ऊबाऊ सबक
किंचित लापरवाही से
- “अगन बिम्ब जल भीतर निपजै”

अपनी तरह का अकेला आदमी नहीं है वह दुनिया में और भी हैं कई लाख उस जैसे अपनी अधूरी इच्छाओं से लड़ते
गहरी हरी उम्मीदों में भूरे पत्तों से झरते
सात सौ साल पुरानी आवाज़ में पुकारती होंगी उन सबकी भी सुलगती – गीली आँखें

और मैं
हिंदी का एक अध्यापक
सोचता हूँ कवि का नाम तक पढ़ना नहीं आता जिन्हें
उन्हीं में क्यों समाता है कवि?
इस तरह अपने होने को बार-बार क्यों समझाता है कवि?
***

Tuesday, October 20, 2009

उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच एक छोटा-सा "या" (शैलेय का कविकर्म) - शिरीष कुमार मौर्य

(यह समीक्षानुमा छोटा लेख अनुनाद पर लगाए जाने से पहले एक-दो पत्रिकाओं में छप चुका है)

शैलेय के कविता संकलन पर लिखना मेरे लिये समीक्षा से ज्यादा संस्मरण लिखना होगा। यह कवि और इसकी कवितायें लगभग 18 साल से मेरी जिन्दगी में हैं। यह आँकड़ा मेरी मौजूदा उम्र का आधा है और पाठक समझ सकते हैं कि मेरे लिये यह मसला कितना निजी हो सकता है।


इस संकलन का नाम किसी को चौंकाऊ लग सकता है, पर संकलन में इसी नाम की एक छोटी लेकिन वृहद अर्थच्छाया वाली कविता के कारण यह तुरंत ही सहज लगने लगता है। जहाँ तक मुझे मालूम हुआ है कि संकलन का यह विचित्र किंतु अत्यंत सार्थक नामकरण भूमिका लेखक कवि वीरेन डंगवाल ने किया है। `या´ जो दुनिया की हर नकारात्मक-सकारात्मक, संगत-विसंगत, मृत-जीवित, सुप्त-जागृत और ऐसी कई अनगिन वस्तुओं के बीच आकर अंतत: नाउम्मीदी और उम्मीद के बीच का `या´ बन जाता है। ये दो जीवनधुरियों के बीच के उस अनोखे संतुलन के बारे में बताता है, जिससे शैलेय की कविता लगातार संवाद करती है। इस तरह शैलेय उन विरल कवियों में स्थान पाते हैं, जिनके यहाँ जीवन और कविता के बीच का नकली कलावादी रिश्ता सिरे से गायब है। उनके लिये जीवन और कविता में कोई फर्क नहीं। मेरी निगाह में शैलेय के यहाँ यह दोनों ही एक जैसे विचित्र और सच्चे हैं। सबूत के तौर पर संकलन का अत्यन्त भावुक लेकिन वास्तविक और ठोस काव्यात्मक समर्पण ही देख लीजिये- `बाबू जी को, जिन्हें मेरा बिखराव लील गया।´ शैलेय को मैंने उनके सजग लेकिन उग्र वामपंथी तेवरों से अब तक की हिंदी मास्टरी तक आते-आते देखा है। मैंने उस बिखराव को देखा है, जिसने उनके बाबू जी को लील लिया और यह भी देखा है कि यह उनका अकेले का बिखराव नहीं है- इससे सिर्फ उनका नहीं, बल्कि उनके समानधर्मा हजारों-हजारों युवाओं के जीवन का सबसे दारुण समर्पण बनता है।


मैं 17 साल का था जब मैंने शैलेय को पहली बार `जनसत्ता´ में पढ़ा। वहाँ उनकी तीन कवितायें थीं पर `गुहार´ मुझे हमेशा याद रही, जिसमें हिंदुओं-मुसलमानों-सिखों आदि की अकबकायी हिंसक दुनिया में एक बेदाग कोमल बच्चा जन्मा है और उसकी माँ गुहार लगा रही है कि कोई बचा ले उसके इस बच्चे को हिंदू, सिख या मुसलमान होने से। मैंने बहुत कम उम्र में सन् 84 का दंगा देखा था और उसमें घायल भी हुआ था और 92 में जब ये कविता छपी, बाबरी मिस्जद पर चढ़ाई का अभियान अपने चरम पर था। मैं तुरंत उस गुहार लगाती माँ के साथ हो लिया। आज जब मैं खुद कवि कहलाता हूँ तो लगता है कि कविता शायद ऐसे ही प्रवेश करती है।

मैं कोशिश करता हूँ कि शैलेय के जीवन की निजता से बाहर जा सकूँ, लेकिन पाता हूँ कि यह तो दरअसल हमारे समूचे सामाजिक जीवन की वास्तविकता है, जिसके तथाकथित कर्णधार वे अच्छे लोग हैं, जिनसे शैलेय की कविता कुछ यूँ संबोधित होती है :-

तुमने कहा - मैं नहीं बोलता हूँ झूठ
नहीं करता हूं चोरी
नहीं की है मैंने किसी की हत्या
तुमने दिलाया विश्वास
कि दुनिया
निश्चिंत रहे तुम्हारी तरफ से
किंतु
इतिहास के अट्ठास में
सर्वाधिक उपहास भी तुम्हारा ही होगा
तुम जो
झूठों, चोरों और हत्यारों से
बचाव की जुगत में ही लगे हुए हो
झूठों, चोरों और हत्यारों को
कोई शिकायत नहीं है तुमसे
निरापद हैं वे और
आश्वस्त

सचमुच तुम कितने अच्छे हो
कितने चालाक....कायर...और कितने खतरनाक।

शैलेय की कविता बहुत सीधे और सरल ढंग से अपनी बात कहना शुरू करती है, जो बहुत जल्द ही आखिर तक आते वक्रोक्ति में बदल जाती है। या, पाँव, गुलाबी जल के सोते वाले बादल, पेड़, इतिहास, अपशकुन, मजदूर दिवस, जिन्दगी, सूरज आदि अनेकानेक ऐसी कवितायें हैं, जहाँ हमारी निगाह बार-बार ठहरती है और हम इस कवि की अंतर्दृष्टि से बँधने लगते हैं। कई रूपकों में व्यक्त होने के साथ ही शैलेय की कविता में व्यंग्य की ताकत भी उसके सही अनुपात में इस्तेमाल हुई है और भाषा को एक अलग रंग देती है। इन कविताओं का गद्य खूबसूरत है, लेकिन अधिकांश कवितायें आकार में छोटी हैं और दो पेज से ज्यादा की तो कोई भी नहीं। जाहिर सी बात है कि शैलेय मितकथन में यकीन रखते हैं और इस जोखिम भरे मोड़ पर सचेत रहना चाहिये कि उनकी यह सावधानी कहीं किसी रूढ़ि में न बदल जाये।


मैं कहना चाहता हूँ कि हमारे मौजूदा समय का अंधेरा अपने बारे में कुछ लम्बे आख्यानों की उम्मीद कर रहा है और हर समर्थ कवि को इस तरफ कदम बढ़ाने चाहिये। छोटी कविताओं में अक्सर एक बड़ी बात कहने की हिकमत छुपी होती है, इससे मुझे इनकार नहीं। लेकिन हर दौर में ऐसे क्षण आते हैं जब हमें हर चीज का काव्यात्मक सरलीकरण करना छोड़, उसकी जटिलताओं को समझने की ओर चलना पड़ता है। निराला ने ये किया। मुक्तिबोधीय जटिल काव्य संस्कार से कौन परिचित नहीं......नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, चन्द्रकांत देवताले, विष्णु खरे, आलोकधन्वा, लीलाधर जगूड़ी, वीरेन डंगवाल आदि तक सबने अपने समय को विस्तार में समझने और समझाने के जटिल और विस्तृत प्रयास किये हैं।


शैलेय अपनी उम्र के पाँचवे दशक में हैं, जब उनका अनुभव संसार भी अपने पूरे विस्तार पर है। मैंने कुछ पत्रिकाओं में देखा है कि अपने इस अनुभव संसार को वे कहानी के स्तर पर व्यक्त करने लगे हैं- यहाँ मैं कहूँगा कि उन्हें कविता में भी ऐसी धरती पर कदम अब रख लेने चाहिये। शैलेय को नहीं भूलना चाहिए कि शुरूआत में उनके हमसफ़र रहे देवीप्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्तव, कुमारअम्बुज, बोधिसत्व, नीलेश रघुवंशी, कात्यायनी, अनामिका, मोहन डहेरिया आदि कवि काफी आगे चले गए हैं और अब उन्हें हर हाल में उन तक पहुंचना ही है।


हमारे इस भीषण बाजारू समय में भी शैलेय ने अपने इस संकलन से कुछ विशिष्ट जीवन तथा काव्यमूल्यों में आस्था दिखाई है। उनके कविता संकलन का हिंदी संसार में स्वागत है और आने वाले कवि कर्म के प्रति उत्सुकता भी।

या (काव्य संकलन)
लेखक : शैलेय
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, सी-56
यू.जी.एफ.-4, शालीमार गार्डन, गाजियाबाद(उ0प्र0)।
***

(कवि के संकलन की ढाई -तीन पृष्ठ की लाजवाब भूमिका अग्रज वीरेन डंगवाल ने लिखी है, जिसे खोज कर पढ़ा जाना चाहिए। आगे अवसर मिला तो अनुनाद पर उसे लगाऊंगा। यह भूमिका शैलेय के कवि सामर्थ्य को तो जगमगाती ही है, लेकिन उससे बढ़ कर वह दो पीढियों के बीच का निहायत निजी, आत्मीय और गुनगुना संवाद भी बन जाती है, जिसकी आज के समय में सबसे ज़्यादा कमी है और जिसे सार्वजनिक करना आज सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।)

कवि को प्राप्त सम्मान -

1. परम्परा सम्मान - 2009, निर्णायक - नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, नित्यानंद तिवारी एवं अन्य/ नामवर सिंह के हाथों।
2. शब्दसाधक सम्मान- २००९, संजीव के हाथों।
3. आचार्य निरंजननाथ सम्मान - २००९, विष्णु खरे की अध्यक्षता में।
***

Sunday, October 18, 2009

व्योमेश शुक्ल की एक कविता

दीपावली के अगले दिन और हिंदी में मचे समकालीन हाहाकार के बीच मैं आपको हमारे समय के एक समर्थ युवा कवि व्योमेश शुक्ल की यह कविता पढ़वाना चाहता हूं। व्योमेश ने पिछले चार साल में अपने आगमन के साथ ही हिंदी समाज के बीच वह सम्मान और स्नेह अर्जित किया है, जिससे किसी नवतुरिया ही नहीं, बल्कि पुराने गाछ को भी ईर्ष्या हो सकती है। मेरे लिए व्योमेश की कविता का एक विशिष्ट सामाजिक मूल्य है, जिसे आप यहां दी जा रही कविता में आसानी से पहचानेंगे। कवि का पहला कविता संकलन भी कुछ समय पूर्व राजकमल प्रकाशन से आया है। आज की कविता की इस अनिवार्य किताब का मुखपृष्ठ नीचे दिया जा रहा है। व्योमेश को आगे होने वाली अत्यन्त उर्वर रचनायात्राओं के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।


पक्षधरता

हम बारह राक्षस
कृतसंकल्प यज्ञ ध्यान और प्रार्थनाओं के ध्वंस के लिए
अपने समय के ऋषियों को भयभीत करेंगे हम
हमीं बनेंगे प्रतिनिधि सभी आसुरी प्रवृत्तियों के
`पुरुष सिंह दोउ वीर´ जब भी आएं, आएं ज़रूर
हम उनसे लड़ेंगे हार जाने के लिए, इस बात के विरोध में
कि असुर अब हारते नहीं
कूदेंगे उछलेंगे फिर फिर एकनिष्ठ लय में
जीतने के लिए नहीं, जीतने की आशंका-भर पैदा करने के लिए
सत्य के तीर आएं हमारे सीने प्रस्तुत हैं
जानते हैं हम विद्वान कहेंगे यह ठीक नहीं
`सुरों-असुरों का विभाजन
अब जटिल सवाल है´


नहीं सुनेंगे ऐसी बातें
ख़ुद मरकर न्याय के पक्ष में
हम ज़बरदस्त सरलीकरण करेंगे।
***

Wednesday, October 14, 2009

काला राक्षस- तुषार धवल की लम्बी कविता और उस पर वीरेन डंगवाल की टिप्पणी

"तुषार धवल की कविता 'काला राक्षस ' को पढ़ते हुए मुझे कई बार मुक्तिबोध-- खासकर उनकी 'अँधेरे में' की याद आई -- और कभी बंगला के समादृत समकालीन कवि नाबरुण भट्टाचार्य की प्रख्यात कविता 'यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश ' की. वैसी ही साफ़, वर्त्तमान से भविष्य तक को बेधने वाली दृष्टि, विवेक संपन्न चेतना, हर मोड़ पर मनुष्यता के शत्रुओं की पहचान, फुफकारता हुआ प्रतिरोध और आवेग त्वरित संवेदन सघन भाषा.मौजूदा तथाकथित वैश्वीकृत सभ्यता की समीक्षा करती हुई इस कविता में उत्कट बेचैनी, एक उद्विग्नता है जो सन्निपात के खतरनाक सीमांतों तक जा पहुँचती है. अलबत्ता लौट भी आती है उस तर्कशीलता के सहारे, जिसका दामन कवि ने एक पल को भी नहीं छोडा है. आवेग और संयम के इन आवर्तनों ने 'काला राक्षस' को एक ज़बरदस्त गत्यात्मकता दे दी है.'काला राक्षस' यह भी इशारा करती है कि युवतर हिंदी कविता का एक बड़ा और समर्थ तबका फिर अपने मूल एजेंडे की तरफ लौटने को प्रयत्नशील है. तुषार के अलावा अकेले मुंबई से ही कुमार वीरेन्द्र और हरि मृदुल जैसे जवानों की रचनाएँ यह गवाही देती हैं. ठीक भी है. अपने ज़माने में मानवता की पुकारों को कलाएँ क्यों कर और कब तक अनसुनी कर सकती हैं ?"
-वीरेन डंगवाल
(१)

समुद्र एक
शून्य अंधकार सा पसरा है।
काले राक्षस के खुले जबड़ों से
झाग उगल-उचक आती है
दबे पाँव घेरता है काल
इस रात में काली पॉलीथिन में बंद आकाश

संशय की स्थितियों में सब हैं
वह चाँद भी
जो जा घुसा है काले राक्षस के मुंह में

काले राक्षस का
काला सम्मोहन
नीम बेहोशी में चल रहे हैं करोड़ों लोग
सम्मोहित मूर्छा में
एक जुलूस चला जा रहा है
किसी शून्य में

कहाँ है आदमी ?

असमय ही जिन्हें मार दिया गया
सड़कों पर
खेतों में
जगमगाती रोशनी के अंधेरों में
हवा में गोलबंद हो
हमारी ओर देखते हैं गर्दन घुमा कर
चिताओं ने समवेत स्वर में क्या कहा था ?

पीडाएं अपना लोक खुद रचती हैं
आस्थाएँ अपने हन्ता खुद चुनती हैं
अँधेरा अँधेरे को आकार देता है

घर्र घर्र घूमता है पहिया

(२)

काला राक्षस

वह खड़ा है जमीन से आकाश के उस पार तक
उसकी देह हवा में घुलती हुई
फेफड़ों में धंसती धूसर उसकी जीभ
नचाता है अंगुलियाँ आकाश की सुराख़ में

वह संसद में है मल्टीप्लेक्स मॉल में है
बोकारो मुंगेर में है
मेरे टीवी अखबार वोटिंग मशीन में है
वह मेरी भाषा
तुम्हारी आंखों में है
हमारे सहवास में घुलता काला सम्मोहन

काला सम्मोहन काला जादू
केमिकल धुआं उगलता नदी पीता जंगल उजाड़ता
वह खड़ा है जमीन से आकाश उस पार तक अंगुलियाँ नचाता
उसकी काली अंगुली से सबकी डोर बंधी है
देश सरकार विश्व संगठन
सत्ताओं को नचाता
उसका अट्टहास।

काली पालीथिन में बंद आकाश।

(३)

अट्टहास
फ़िर सन्नाटा।

सम्मोहित मूर्छा में
एक जुलूस चला जा रहा है
किसी शून्य में --
काल में
वह
हमारे मन की खोह में छुप कर बैठा है
जाने कब से

हमारे तलों से रोम छिद्रों से
हमरे डीएनए से उगता है
काला राक्षस
हुंकारता हुआ
नाजी सोवियत व्हाइट हाउस माइक्रोसॉफ्ट पेप्सी दलाल स्ट्रीट
सियाचीन जनपथ आईएसआई ओजोन एसपीएम एसिड रेन
स्किटज़ोफ्रेनिया सुइसाइड रेप क्राइम सनसनी न्यूज़ चैनल

बम विस्फोट !!!

तमाशा तमाशबीन ध्वंस
मानव मानव मानव
गोश्त गोश्त गोश्त

घर्र घर्र घूमता है पहिया

(४)

घर्र घर्र घूमता है पहिया

गुबार
उठ रही है अंधकार में
पीली-आसमानी
उठ रही है पीड़ा-आस्था भी
गड्डमड्ड आवाजों के बुलबुलों में
फटता फूटता फोड़ा
काल की देह पर
अँधेरा है
और काले सम्मोहन में मूर्छित विश्व

फिर एक फूँक में
सब व्यापार ...
देह जीवन प्यार
आक्रामक हिंसक
जंगलों में चौपालों में
शहर में बाज़ारों में
मेरी सांसों में
लिप्सित भोग का
काला राक्षस

(५)

एक छाया सा चलता है मेरे साथ
धीरे धीरे और सघन फिर वाचाल
बुदबुदाता है कान में
हड़प कर मेरी देह
जीवित सच सा
प्रति सृष्टि कर मुझे
निकल जाता है
अब मैं अपनी छाया हूँ। वह नहीं जो था।
पुकारता भटकता हूँ
मुझे कोई नहीं पहचानता
मैं किसी को नज़र नहीं आता

उसके हाथों में जादू है
जिसे भी छूता है बदल देता है
बना रहा है प्रति मानव
सबके साथ छाया सा चला है वह

अब कोई किसी को नहीं पहचानता
अब कोई किसी को नज़र नहीं आता

प्रति मानव !
कोई किसी को नज़र नहीं आता

(६)

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
इच्छाएं अनंत असंतोष हिंसक

कहाँ है आदमी ?

उत्तेजित शोर यह
छूट छिटक कर उड़ी इच्छाओं का
गाता है
हारी हुई नस्लों के पराभूत विजय गीत
खारिज है कवि की आवाज़
यातना की आदमखोर रातों में
एक गीत की उम्मीद लिए फिर भी खड़ा हूँ
ढेव गिनता
पूरब को ताकता

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
खोल दिया सदियों से जकड़े
मेरे पशु को उन्मुक्त भोग की लम्बी रातों की हिंसा में

(७)

बिकता है बिकता है बिकता है
ले लो ले लो ले लो
सस्ता सुंदर और टिकाऊ ईश्वर
जीन डीएनए डिज़ाइनर कलेक्शन से पीढियां ले लो
ले लो ले लो ले लो
बीपीओ में भुस्स रातें
स्कर्ट्स पैंटीज़ कॉन्डोम सब नया है
नशे पर नशा फ्री
सोचना मना है क्योंकि
हमने सब सोच डाला है
ले लो ले लो ले लो
स्मृतियाँ लोक कथाएँ पुराना माल
बदलो नए हैपनिंग इवेंट्स से
तुम्हारी कथाओं को री-सायकल करके लाएंगे
नए हीरो आल्हा-ऊदल नए माइक्रोचिप से भरेंगे
मेड टू आर्डर नया इंसान
ले लो ले लो ले लो
मेरे अदंर बाहर बेचता खरीदता उजाड़ता है
काला राक्षस
प्यास
और प्यास

(८)

इस धमन भट्ठी में
एक सन्नाटे से दूसरे में दाखिल होता हुआ
बुझाता हूँ
देह
अजनबी रातों में परदे का चलन
नोंचता हूँ
गंध के बदन को

यातना की आदमखोर रातों में
लिपटता हूँ तुम्हारी देह से
नाखून से गडा कर तुम्हारे
मांस पर
लिखता हूँ
प्यास
और प्यास...

एड़ियों के बोझ सर पर
और मन दस फाड़
खून पसीना मॉल वीर्य सन रहे हैं
मिट्टी से उग रहे ताबूत

ठौर नहीं छांह नहीं
बस मांगता हूँ
प्यास
और प्यास...

(९)

प्यास
यह अंतहीन सड़कों का अंतर्जाल
खुले पशु के नथुने फड़कते हैं
यह वो जंगल नहीं जिसे हमारे पूर्वज जानते थे
अराजक भोग का दर्शनशास्त्र
और जनश्रुतियों में सब कुछ
एक पर एक फ्री

हँसता है प्यारा गड़रिया
नए पशुओं को हांकता हुआ

(१०)

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
निर्बंध पशु मैं भोग का
नाखून से गडा कर तुम्हारी देह पर
लिखता हूँ
प्यास
और प्यास...

भोग का अतृप्त पशु
हिंसक ही होगा
बुद्धि के छल से ओढ़ लेगा विचार
बकेगा आस्था
और अपने तेज पंजे धंसा इस
दिमाग की गुद्दियों में --
रक्त पीता नई आज़ादी का दर्शन !

लूट का षड़यंत्र
महीन हिंसा का
दुकानों की पर्चियों में, शिशुओं के खिलौनों में
धर्म और युद्ध की परिभाषा में भात-दाल प्रेम में
हवा में हर तरफ
तेल के कुएं से निकल कर नदी की तरफ बढ़ता हुआ
हवस का अश्वमेध
नर बलि से सिद्ध होता हुआ।

बम विस्फोट !!!

(११)

सबके बिस्तर बंधे हुए
सभी पेड़ जड़ से उखडे हुए
सड़क किनारे कहीं जाने को खड़े हैं
यह इंतज़ार ख़त्म नहीं होता
भीड़ यह इतनी बिखरी हुई कभी नहीं थी

काला सम्मोहन काला जादू
सत्ताओं को नचाता
उसका अट्टहास।
काली पॉलीथिन में बंद आकाश।

(१२)

वो जो नया ईश्वर है वह इतना निर्मम क्यों है ?
उसकी गीतों में हवास क्यों है ?
किस तेजाब से बना है उसका सिक्का ?

उसके हैं बम के कारखाने ढेर सारे
जिसे वह बच्चों की देह में लगाता है
वह जिन्नातों का मालिक है
वह हँसते चेहरों का नाश्ता करता है

हँसता है काला राक्षस मेरे ईश्वर पर
कल जिसे बनाया था
आज फिर बदल गया
उसकी शव यात्रा में लोग नहीं
सिर्फ़ झंडे निकलते हैं

(1३)

सत्ताएं रंगरेज़
वाद सिद्धांत पूँजी आतंक
सारे सियार नीले

उस किनारे अब उपेक्षित देखता है मोहनदास
और लौटने को है
उसके लौटते निशानों पर कुछ दूब सी उग आती है।

(१४)

पीड़ाओं का भूगोल अलग है
लोक अलग
जहाँ पिघल कर फिर मानव ही उगता है
लिए अपनी आस्था।

काला सम्मोहन --

चेर्नोबिल। भोपाल।
कालाहांडी। सोमालिया। विधर्व।
इराक। हिरोशिमा। गुजरात।
नर्मदा। टिहरी।
कितने खेत-किसान
अब पीड़ाओं के मानचित्र पर ये ग़लत पते हैं

पीड़ाओं का रंग भगवा
पीड़ाओं का रंग हरा
अपने अपने झंडे अपनी अपनी पीड़ा।

(१५)

कहाँ है आदमी ?

यह नरमुंडों का देश है
डार्विन की अगली सीढ़ी --
प्रति मानव
सबके चेहरे सपाट
चिंतन की क्षमताएं क्षीण
आखें सम्मोहित मूर्छा में तनी हुई
दौड़ते दौड़ते पैरों में खुर निकल आया है
कहाँ है आदमी ?
प्रति मानव !

(१६)

मैं स्तंभ स्तंभ गिरता हूँ
मैं खंड खंड उठता हूँ

ये दीवारें अदृश्य कारावासों की
आज़ादी ! आज़ादी !! आज़ादी !!!

बम विस्फोट !!!

कहाँ है आदमी ?
प्रति मानव सब चले जा रहे किसी इशारे पर
सम्मोहित मूर्छा में

मैं पहचानता हूँ इन चेहरों को
मुझे याद है इनकी भाषा
मुझे याद है इनकी हँसी इनके माटी सने सपने

कहाँ है आदमी ?

सुनहरे बाइस्कोप में
सेंसेक्स की आत्मरति
सम्भोग के आंकड़े
आंकड़ों का सम्भोग
आंकडों की पीढ़ियों में
कहाँ है आदमी ?

सन्नाटे ध्वनियों के
ध्वनियाँ सन्नाटों की
गूंजती है खुले जबड़ों में

यह सन्नाटा हमारी अपनी ध्वनियों के नहीं होने का
बहरे इस समय में

बहरे इस समय में
मैं ध्वनियों के बीज रोप आया हूँ।

(१७)

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
उगती है पीड़ा
उगती है आस्था भी
जुड़वां बहनों सी
तुम्हारे चाहे बगैर भी

घर्र घर्र घूमता है पहिया

कितना भी कुछ कर लो
आकांक्षाओं में बचा हुआ रह ही जाता है
आदमी।
उसी की आँखों में मैंने देखा है सपना।
तुम्हारी प्रति सृष्टि को रोक रही आस्था
साँसों की
हमने भी जीवन के बेताल पाल रखे हैं

काले राक्षस

सब बदला ज़रूर है
तुम्हारे नक्शे से लेकिन हम फितरतन भटक ही जाते हैं
तुम्हारी सोच में हमने मिला दिया
अपना अपना डार्विन
हमने थोड़ा सुकरात थोड़ा बुद्ध थोड़ा मार्क्स फ्रायड न्यूटन आइन्स्टीन
और ढेर सारा मोहनदास बचा रखा था
तुम्हारी आँखों से चूक गया सब
जीवन का नया दर्शनशास्त्र
तुम नहीं
मेरी पीढियां तय करेंगी
अपनी नज़र से

यह द्वंद्व ध्वंस और सृजन का।

(१८)

काले राक्षस

देखो तुम्हारे मुंह पर जो मक्खियों से भिनभिनाते हैं
हमारे सपने हैं
वो जो पिटा हुआ आदमी अभी गिरा पड़ा है
वही खडा होकर पुकारेगा बिखरी हुई भीड़ को
आस्था के जंगल उजड़ते नहीं हैं

काले राक्षस

देखो तुमने बम फोड़ा और
लाश तौलने बैठ गए तुम
कबाड़ी !
जहाँ जहाँ तुम मारते हो हमें
हम वहीं वहीं फिर उग आते हैं

देखो
मौत का तांडव कैसे थम जाता है
जब छटपटाए हाथों को


हाथ पुकार लेते हैं

तुम्हारे बावजूद
कहीं न कहीं है एक आदमी
जो ढूंढ ही लेता है आदमी !

काले राक्षस !
घर्र घर्र घूमता है पहिया
****

Saturday, October 10, 2009

बोधिसत्व की कविता


बोधिसत्व समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। कविता में अपनी शुरूआत उन्होंने आलोचना में कुछ बेहद प्रभावशाली कविताओं से की थी और उसके कुछ समय बाद उनका पहला संग्रह `सिर्फ़ कवि नहीं´ आया। यहां प्रस्तुत है इसी महत्वपूर्ण संग्रह से उनकी एक कविता, जो उनकी अपनी `बोली-बानी´ में है। अनुनाद पर बोधिसत्व की कविताओं का क्रम जारी रहेगा, जिसमें उनकी महत्वपूर्ण कविता श्रृंखला `कमलादासी की कविताएं´ शामिल होगी। आशा है अनुनाद के पाठक इन कविताओं का स्वागत करेंगे।

दिल्ली

खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ

का दर दिल्ली कब करइ अन्नोर
सब कहइ, चोर चोर
तब कहां घुसुरबे बताव भाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ

दिल्ली हमइ बरबाद केहेसि
दिल्ली हमइ का खाक देहेसि
दिल्ली हमइ का चुसेसि नांहि
दिल्ली हमइ का राज देहेसि
दिल्ली हमइ देहेसि पगलाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ

दिल्ली बहुत चमर-चतुर
दिल्ली बहुत चिक्कन
बहुर खुर-दुर,
दिल्ली हमइ कहइ तू.....तू.....आ
दिल्ली हमइ कहइ दुर......दुर
दिल्ली हमइ लपेटेसि भाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ

दिल्ली जहां बनत नंहि देर
दिल्ली कहइ बहुत हेर-फेर
दिल्ली गेंहू मटर कइ देइ
दिल्ली धुआं देइ, दिल लेइ
दिल्ली चलइ हमेसा धाइ

दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली
बहुत नमकीन बहुत रसीली
दिल्ली दिन में लूटई
राति में खाई।

दिल्ली बाप ददा के खायेसि
दिल्ली थोड़ हँसायेसि
ढेर रोआयेसि
दिल्ली ग जे लौटा नांहि।
खर कहई संगति नसाई
अब केउ दिल्ली न जाई।
***

रचनावर्ष - १९८७ तथा प्रथम प्रकाशन - १९८८/ आलोचना

Tuesday, October 6, 2009

माँ के लिए अपवित्र पंक्तियाँ - किम्फाम सिंह नॉन्गकिनरिः खासी कविता

यह कविता प्रतिलिपि से - गिरिराज किराडू के प्रति आभार के साथ।
अनुवादक - तरुण भारतीय


आर के नारायन मर गए

आज की रात, उदास मन अपनी बेंत की कुर्सी पर बैठ
‘एक दुर्लभ आत्मा’ की बात कर रहे हैं

अचानक मुझमें जगती है इच्छा
अपने ही ‘दुर्लभ आत्मा’ की करूं चीड़ फाड़
शुरू से अंत तक
पहले मैं बता दूं कि मेरी माँ, नारायन की माँ से कहीं ज्यादा
‘खांटी’ और ‘मुंहफट’ है

मेरी माँ रिटायर्ड, थोथी, मधुमेह से पीड़ित, सरदर्द और
मोतियाबिंद से ग्रस्तहै यानि कि संक्षेप में कहें तो
वो चिड़चिड़ी बुढिया है
मुझे वह समय भी याद है कि जब वह चिड़चिड़ी
युवती थी दुपहरिए की नींद के समय तो
पूरी बाघिन ‘साले चूतिए’, वो
गुर्राती, ‘आराम भी नहीं करने दोगे
साले शैतान के बेटों, इधर आओ साले जानवर के बेटे पकड़ में
आए तो टांगें तोड़ दूंगी। मुंह नोच लूंगी …चीलड़
की औलाद साले जनम देने वाली के ही देह का मांस खाते हो
अब अगर हल्ला किया तो ऐसे पीटूंगी कि
कुत्ते कि तरह चिल्लाओगे साले वाहियात बेवकूफ
अगर बढ़िया सपना नहीं देखूंगी, तो
दांव के लिए नम्बर कैसे पाऊंगी? कैसे खिलाउंगी तुम्हे साले सस्ती नस्ल के बेटों?
और ये अग्नि बान उड़ते आएंगे
मेज, चिमटे और कांसे के
धुकनी के साथ, और हम जान बचा कर भागते और वह
बेंत और जलावन उठाए हमारा पीछा करती,
बाल लहराते, आँखें अगियाते
और जीभ अगिया बेताल।
और हम क्योंकि केवल बच्चे थे, हमने
कुछ नहीं सीखा केवल उसके गैरपरम्परागत हथियारों
से बचने में पारंगत हो गए

मुझे याद है, क्योंकि बेटी नहीं थी उसकी, वो मुझसे ही
धुलबाती थी अपने खून सने चीथड़े मना
करने का तो सवाल ही नहीं। इसीलिए मैं चीथड़ों को
लकड़ी से उठा कर, एक पुराने लोहे की बाल्टी में तब तक
गूंथता जब तक कि पानी साफ ना हो जाए लेकिन समझ लीजिए यह सब
उसकी आंखों से दूर क्योंकि अगर उसने यह देख लिया होता
कि मैं अपने हाथ इस्तेमाल नहीं कर रहा तो ये प्राणघातक मसला था
उन दिनों चेरा में हमें संडास के बारे में कुछ पता
नहीं था हमारे घर में ना तो सेप्टिक टैंक था ना ही
लैट्रिन हम अपना काम अपने पावन वन में
कर आते थे लेकिन कभी कभी मेरी माँ कूड़े के टिन में ही
फारिग हो लेती थी। तब यह मेरी जिम्मेदारी थी कि पावन वन तक माल
मैं ले जाऊँ मना तो मैं कर नहीं सकता था इसीलिए हरदम मैं उस पर
छिड़कता राख, उस के ऊपर सुपारी के छिलके और मेरी कोशिश रहती
कि बच जाऊँ दोस्तों और जिज्ञासू पड़ोसियों से जिन्होंने
पुष्पक फिल्म में कमल हसन को देखा है वे मेरी रणनीति समझ सकतें हैं

मैं हजारों चीजें गिना सकता हूँ यह दिखाने के लिए कि मेरी माँ कितनी चिड़चिड़ी और दुर्लभ है मैं उसके बारे में कुछ भी अच्छा बताने से इंकार करता हूँ यह बताने से कि उसने कितना कष्ट झेला जब मेरे देहाती पिता जिन्दा थे; या उसका कष्ट जब वो मरे; या अपने दो बेटो और अपनी बहन के दूध पीते बच्चे को किन कष्टों से उसने बड़ा किया मैं केवल एक बात मानने के लिए तैयार हूँ:
अगर उसने दुबारा व्याहा होता और वह इतनी चिड़चिड़ी ना होती जो कि वो है, मैं शायद आज सामने खड़ा यह कविता पढ़ता नजर नहीं आता
***

Saturday, October 3, 2009

तीन प्रेम कविताएँ - पंकज चतुर्वेदी

वह सैंडविच

वह सैंडविच जो तुमने
विदा होते समय दी थी
ट्रेन में
रात साढ़े नौ बजे
मेरे इसरार के बावजूद
कि घर पर माँ
खाने पर
इन्तिज़ार कर रही होंगी

वह एसएमएस
कि `मैं तुमसे सम्मोहित हूँ´
मैंने भेजा तुम्हें
आधी रात के नशे में
अन्यथा इतना साहस
कहाँ देता है समाज

अरसे बाद मेरा डरते-डरते पूछना
सुखद अचरज तुम्हारा कहना
कि वह संदेश अब भी
सुरक्षित है

वाणी में इतनी सौम्यता
जैसे वह दुख को
बहुत पीछे छोड़कर
आयी हो मेरे पास
सौन्दर्य में इतना संकोच
जैसे वह प्रकट होकर भी
अप्रकट था

काश ! मैं कह सकता तुमसे
संस्कृति अगर रूप धारण करती
तो तुम्हारे जैसी होती
वह जिसमें हम साँस लेते हैं
पर जिसे पा नहीं सकते

दिन हैं या पर्दों का
एक सिलसिला है
रोज़ एक पर्दा हटाता हूँ
पूछता हूँ इस बियाबान में ---
कहाँ हो तुम?
***

एक ही

यहाँ एक स्त्री है
जो किसी और ही
दुनिया में रहती है
यह उसके स्वप्न की
दुनिया नहीं

फि़लहाल उसका सपना टूटता है
उसके बच्चे के
रोने और किलकने से
वह निशानी है प्यार की
जो उस स्त्री और
उसके पति के बीच
हुआ था
और नहीं भी हुआ था

पहले वह दो बच्चे चाहती थी
शायद इसलिए
कि खुशी दोगुनी हो जाय
प्यार दोगुना होकर मिले
या इस अज्ञात भय से
कि एक बच्चा कहीं खो जाय
तो दूसरे से आँसू थम सकें
मगर वह पहले बच्चे के
लालन-पालन की मुश्किलों से
इतनी आहत और पस्त है
कि अब वह कहती है :
`एक ही काफ़ी है´

अगरचे इस एक को वह
दिलोजान से चाहती है
इतनी उत्कंठा और संसक्ति से
गोया यह उस प्यार का विकल्प है
जो वह अब तक नहीं कर पायी

उसे देखकर लगता है ---
गोया सचमुच
`एक ही काफ़ी है´
***

तुम जहाँ मुझे मिली थीं

तुम जहाँ मुझे मिली थीं
वहाँ नदी का किनारा नहीं था
पेड़ों की छाँह भी नहीं
आसमान में चन्द्रमा नहीं था
तारे नहीं

जाड़े की वह धूप भी नहीं
जिसमें तपते हुए तुम्हारे गौर रंग को
देखकर कह सकता :
हाँ, यह वही `श्यामा´ है
`मेघदूत´ से आती हुई

पानी की बूँदें, बादल
उनमें रह-रहकर चमकनेवाली बिजली
कुछ भी तो नहीं था
जो हमारे मिलने को
ख़ुशगवार बना सकता

वह कोई एक बैठकख़ाना था
जिसमें रोज़मर्रा के काम होते थे
कुछ लोग बैठे रहते थे
उनके बीच अचानक मुझे देखकर
तुम परेशान-सी हो गयीं
फिर भी तुमने पूछा :
तुम ठीक तो हो?

तुम्हारा यह जानते हुए पूछना
कि मैं ठीक नहीं हूँ
मेरा यह जानते हुए जवाब देना
कि उसका तुम कुछ नहीं कर सकतीं

सिर्फ़ एक तकलीफ़ थी जिसके बाद
मुझे वहाँ से चले आना था
तुम्हारी आहत दृष्टि को
अपने सीने में सँभाले हुए

वही मेरे प्यार की स्मृति थी
और सब तरफ़ एक दुनिया थी
जो चाहती थी
हम और बात न करें
हम और साथ न रहें
क्योंकि इससे हम
ठीक हो सकते थे
***
( ये तीनों कविताएँ नया ज्ञानोदय के महाविशेषांक में प्रकाशित हुयी हैं....)
कवि का पता - 203, उत्सव अपार्टमेण्ट, 379, लखनपुर, कानपुर(उत्तर प्रदेश)

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