Wednesday, September 30, 2009

एक कविता `माँ` की छवि के विरुद्ध

नवरात्र के अनुष्ठानों के बीच माँ की महिमा के शोरोगुल में स्त्री को घर और बाहर, कदम-कदम पर अपमानित करने का अनुष्ठान भी उत्साह के साथ चलता रहता है। इस दौरान मुझे ध्यान आया कि माँ की महिमा का गुणगान हमारे हिन्दी और उर्दू कवियों का भी प्यारा शगल है। माँ की बेबसी और कुर्बानी का गान मुशायरे में वाहवाही का पक्का फोर्म्युला है। ...और हमारी बौद्धिक हिन्दी कविता भी अक्सर यही काम किया करती है और `बेचारी, त्यागमयी` माँ को याद करते हुए उसकी पुरुषों के लिए इस सुविधाजनक छवि की रक्षा में तत्पर रहा करती है।
लेकिन मनमोहन की यह कविता अपवाद की तरह है-

इतने दिनों बाद पता चलता है
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हल्के उजाले की तरह
अचानक कमरे से गुज़रती थी वह स्त्री

कई बार पानी की तरह हिलती थी देर तक

यह एक पुरानी बात हुई

वह एक छवि थी
जो तुम्हें तुम्हारी छवि दे देती थी
और इस तरह तुमसे ख़ुद को वापिस ले लेती थी

अब इतने दिनों बाद पता चलता है
कि वह माँ का प्यार नहीं
एक स्त्री का सन्ताप था

जिसे वह छवि जो तुम देखते थे
तुम्हें ठीक-ठीक नहीं बताती थी

उसे भी उस वक़्त कहाँ पता चला होगा
कि यह सिर्फ़ उसका शिशु नहीं हैजो देखता है

और इसे एक दिन पता चल जाएगा
कि आखिर किस्सा क्या था

Friday, September 25, 2009

सीरिया से लीना टिब्बी की एक कविता : चयन तथा प्रस्तुति - यादवेन्द्र

लीना टिब्बी १९६३ में सीरिया की राजधानी दमिश्क में जन्मी और अनेक देशों में (कुवैत, लेबनान, यूनाईटेड अरब अमीरात , साइप्रस, ब्रिटेन, फ्रांस, मिस्र इत्यादि) घूमते समय बिताया। आधुनिक अरबी कविता की पहचानी हुई कवियित्री। अनेक संकलन प्रकाशित,१९८९ में पहला कविता संकलन छापा और २००८ में आखिरी। एक साहित्यिक पत्रिका का कई अंकों तक संपादन किया और अख़बारों में कालम भी लिखे। विश्व की अनेक प्रमुख भाषाओं में (स्पेनिश, अंग्रेजी, फ्रेंच, इटालियन, जर्मन और रुसी) में कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुए। हिंदी में संभवतः उनकी कविताओं का यह पहला अनुवाद प्रकाशित हो रहा है।


काश ऐसा होता

काश ऐसा होता
कि ईश्वर मेरे बिस्तर के पास रखे
पानी भरे ग्लास के अन्दर से
बैंगनी प्रकाश पुंज सा अचानक प्रकट हो जाता

काश ऐसा होता
कि ईश्वर शाम की अजान बन कर
हमारे ललाट से दिन भर की थकान पोंछ देता

काश ऐसा होता
कि ईश्वर आंसू की एक बूंद बन जाता
जिसके लुढ़कने का अफ़सोस
हम मनाते रहते पूरे पूरे दिन

काश ऐसा होता
कि ईश्वर रूप धर लेता एक ऐसे पाप का
हम कभी न थकते जिसकी भूरी भूरी प्रशंसा करते

काश ऐसा होता
कि ईश्वर शाम तक मुरझा जाने वाला गुलाब होता
तो हर नयी सुबह हम नया फूल ढूढ़ कर ले आया करते
***

Tuesday, September 22, 2009

न हो संगीत सन्नाटा तो टूटे


बहुत कम ऐसा हुआ है कि अनुनाद पर दस दिनों तक कोई पोस्ट नहीं आई. तो इस सन्नाटे को तोड़ते हुए पेश है यह ग़ज़ल जो बरसों पहले कहीं पढ़ी थी. मैं एकाध शे' भूल रहा हूँ शायद. शायर का नाम भी मुझे याद नहीं; याद दिलाएं तो इनायत होगी.


हमीं ने काम कुछ ऐसा चुना है
उधेड़ा रात भर दिन भर बुना
है


तुम्हारे साथ गुज़रा एक लम्हा
बकाया उम्र से लाखों गुना है


न हो संगीत सन्नाटा तो टूटे
हमारे हाथ में एक झुनझुना
है

जहाँ पर झील में धोया था चेहरा
वहाँ पानी अभी तक गुनगुना है

*******

(पॉल क्ली की पेंटिंग 'दि एंड ऑफ़ दि लास्ट एक्ट ऑफ़ अ ड्रामा' म्यूज़ियम ऑफ़ माडर्न आर्ट्स, न्यू यॉर्क की वेबसाइट से साभार)

Saturday, September 12, 2009

इस दुर्लभ क्षण में - अल मर्कोवित्ज़

अल मर्कोवित्ज़ एक 'श्रमजीवी' हैं जो बतौर मुद्रक, स्वास्थ्य-कार्यकर्ता, बावर्ची, माली, टैक्सी-ड्राइवर और फैक्ट्री-श्रमिक काम कर चुके हैं. उनका 'एक्टिविस्ट' जहाँ एक ओर रंगभेद, परमाणु ऊर्जा, अमेरिकी साम्राज्यवाद-आतंकवाद और युद्ध विरोधी संघर्षों में सक्रिय रहता है, वहीं दूसरी ओर मज़दूरों को संगठित करने का काम भी करता है. मर्कोवित्ज़ का 'कवि' श्रमजीवी वर्ग के जीवनानुभवों से उपजा यथार्थपरक साहित्य रचता है; इसके द्वारा अमेरिकी समाज में व्याप्त उपभोक्तावाद की मारू संस्कृति का विकल्प प्रस्तुत करता है. ये 'कवि' श्रमजीवी वर्ग के साहित्य को बढ़ावा देने के लिए प्रकाशक बनकर 'पार्टिज़न प्रेस' की नींव रखता है और यही 'कवि' मुख्यधारा की साहित्यिक पत्रिकाओं के 'एलीटिज़्म' के खिलाफ प्रगतिशील राजनैतिक चेतना की आवाज़ बनने के लिए 'ब्लू कॉलर रिव्यू' पत्रिका की स्थापना कर एक सम्पादक भी बन जाता है. पूँजीवाद की शक्तिपीठ में, जहाँ 'बाँयें'चलना महापातक हो और 'मैक्कार्थिज़्म' का दमनचक्र याद्दाश्त से पूरी तरह मिटा न हो, यह कोई आसान काम नहीं है, ज़ाहिर है.

पार्टिज़न प्रेस ने, जिसका स्लोगन है 'पोएट्री दैट टेक्स साइड्स', आर्थिक दिक्कतों से जूझते हुए श्रमजीवी साहित्य की कई पुस्तिकाएँ (चैपबुक्स) प्रकाशित की हैं. 'ब्लू कॉलर रिव्यू' एक पूर्णतः अव्यवसायिक त्रैमासिक पत्रिका है जिसकी प्रसार संख्या 600 के आस पास है. साहित्यिक मुख्यधारा की सतत उपेक्षा और आर्थिक अड़चनों के बावजूद अगर यह पत्रिका पिछले बारह सालों से टिकी है तो इसके पीछे सम्पादक मर्कोवित्ज़ का खुर्राट 'श्रमजीवी' है जो अपने घर के बेसमेंट में स्वयं छापखाना चलाता है.

मर्कोवित्ज़ के यहाँ राजनीति जीवन का ज़रूरी हिस्सा है. उनकी कविता अमेरिकी श्रमजीवी वर्ग के जीवनको प्रभावित करने वाली हर छोटी से छोटी चीज़ के राजनैतिक आशयों की पड़ताल करती है और उन पर वक्तव्य देती है. इस प्रक्रिया में वह कभी मुख्यधारा के आर्थिक संकट पर हाशिये की बेजोड़ कमेंट्री हो जाती है, कभी 'जिंगोइज़्म' के खिलाफ़ लहराता परचम बन जाती है तो कभी उल्लास की घड़ी में 'नयी सुबह' की आहट सुन लेती है.


इस दुर्लभ क्षण में

ख़ूनी वक़्तों की

जर्जर कगार

और आने वाले खौफ़नाक दिनों के

अँधेरे असगुनी तटों के बीच यहाँ


युगान्तर की इस अद्भुत घड़ी

इस दुर्लभ क्षण में

सम्भावना की बारीक नोंक पर

उम्मीद भय से

साझेदारी अलगाव से

और आपदाएँ पुनर्जन्म से जूझ रही हैं.



योद्धा का पंथ


शहीद दिवस पर,
उन सभी वरिष्ठ निवृत्त सिपाहियों के लिए
जो इराकी युद्ध के खिलाफ़ जुलूस में चले और ताने सहते रहे.
भरोसा बनाए रखना!

महसूस की जा सकती है
यह श्रद्धा की चुप्पी
जहाँ "सिपाही" पूजनीय नायक का पर्याय है
लड़ाई में शिरकत पाक है
और रहस्यमय काले विदेशी खतरनाक माने जाते हैं

हमेशा दूर की सीमाओं पर अपने सिपाहियों की मौजूदगी को हम पूजते हैं
और श्रद्धा से विनत माथों से
पने सांकेतिक जन समर्थन को दर्शाने की कोशिश करते हैं-
बशर्ते वे चुप रहें और मरें.


उल्लास की घड़ी

04/11/20081

यह घड़ी है आतिशबाज़ी की

भोंपुओं के चिल्लाने की

कविता की.

एक नयी सुबह की पहली किरण से
उन चेहरों को दमकने दो-भले
ज़रा सा

जो यहाँ नहीं आ पाए

इस लम्बी रात के गुज़रते हुए.

आगे जाना है बहुत

मगर काफी दूर तोही चुके हैं.

टूटने दो

पैट्रिअट कानूनों2 और

'समर्पण' और युद्ध के यातना-गृहों
का
दुःस्वप्न
बहने दो
इन्साफ़ को
उस पानी के रेले की तरह

जो रोका न जा सके

धोकर निर्मल कर दे हमें

हत्यारों और झूठों,
संशयी साम्राज्यवादियों

और लम्पटों से.

और छोड़ जाए अपने पीछे

एक नयी सरज़मीं जिस पर बने

हमारे सपनों का कल.


******
1- गत वर्ष अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनाव की तारीख़
2- 11 सितम्बर 2001 के आतंकी हमलों के बाद पारित हुआ अमेरिका का विवादास्पद आतंकवाद-विरोधी कानून.

Wednesday, September 9, 2009

आज की इराकी कविता- लतीफ़ हेलमेट : चयन तथा प्रस्तुति - यादवेन्द्र




(सोहेल नज़्म के अंग्रेज़ी अनुवाद से रूपान्तरित)

स्त्री का दिल

स्त्री का दिल इकलौता ऐसा मुल्क है
जहां मैं दाखिल हो सकता हूं बग़ैर किसी पासपोर्ट के
कोई पुलिसवाला नहीं मांगता
मेरी पहचान का कार्ड
न ही लेता है तलाशी
उलटपुलट कर मेरे सूटकेस की
इसमें ठूंस ठूंसकर भरी गई हैं
ग़ैरक़ानूनी खुशियां
प्रतिबंधित कविताएं
और रसीली तकलीफ़ें

स्त्री का दिल इकलौता ऐसा मुल्क है
जो ज़खीरे नहीं बनाता मारक हथियारों के
न ही झोंकता है अपने लोगों को
लड़ने के लिए
ख़ुद की छेड़ी लड़ाइयां !


चित्र

टीचर ने छात्रों से कहा -
बनाएं कोई भी चित्र जो मन करे

प्रिंसपल के बेटे ने रच-रचकर बनाया
नई शेवरलेट का चित्र

बिल्डर के बेटे ने उकेरा
मॉल और होटल का रंगबिरंगा काम्प्लेक्स

पार्टी मेंबर के बेटे ने खींचा
बख़्तरबंद कार का चित्र

और स्कूल के चपरासी की बेटी
निश्चिंत भाव से बनाने लगी रोटी का चित्र !
****
(फ्लावर्स ऑफ फ्लेम: दि अनहर्ड वाइसेज़ ऑफ ईराक से साभार)

Sunday, September 6, 2009

नन्हीं रूथ - येहूदा आमीखाई की कविता

तस्वीर यहाँ से साभार

कभी-कभी मैं तुम्हें याद करता हूं
नन्हीं रूथ
हम अलग हो गए थे अपने सुदूर बचपन में कहीं
और उन्होंने तुम्हें शिविरों में जला दिया

यदि तुम ज़िन्दा होतीं
तो एक औरत होतीं पैंसठ साल की खड़ी बुढ़ापे की कगार पर
लेकिन बीस साल की उम्र में ही उन्होंने तुम्हें जला दिया
और मैं नहीं जानता कि और क्या क्या हुआ तुम्हारे साथ
तुम्हारे उस छोटे-से जीवन में
जब से हम अलग हुए - तुमने क्या क्या पाया
कौन कौन-से अधिकार चिह्म उन्होंने लगाए
तुम्हारे कंधों पर
तुम्हारी आस्तीनों पर
तुम्हारी बहादुर आत्मा पर
कौन कौन-सी सजावटें साहस के लिए
कौन कौन-से तमग़े प्रेम के लिए लटकाए गए तुम्हारे गले में
कैसी और कौन-सी शांति वे तुम तक लाए
और क्या तुम्हारे जीवन के अप्रयुक्त सालों का
क्या अब भी वे बंधे हैं सुंदर पुलिंदों में
क्या उन्हें जोड़ दिया गया मेरे जीवन में
क्या तुम मुझे लौटा ले गईं
स्विट्ज़रलैंड के बैंकों जैसे सुरक्षित अपने उस प्रेम-कोष में
जहां संभाली जाती है संपत्तियां उनके मालिकों की मौत के बाद भी
क्या यह सब मैं छोड़ जाऊंगा अपने बच्चों के लिए
- जिन्हें तुमने कभी नहीं देखा
तुमने तो दे दिया अपना जीवन मुझे
उस संयमी शराबविक्रेता की तरह जो शराब सिर्फ़ औरों को दे देता है
ख़ुद रहता है निर्विकार और निर्लिप्त हमेशा
तुम भी निर्लिप्त हो अपनी मृत्यु में
और मेरे लिए पीना इस जीवन को जैसे लोटते रहना
अपनी ही स्मृतियों के कीचड़ में
अब और तब
मैं तुम्हें याद करता हूं अविश्वसनीय समयों में
और ऐसी जगहों में जो याद रखने के लिए नहीं,
बस कुछ पल के लिए बनी हैं
बस गुज़र भर जाने के लिए
एक हवाई अड्डे की तरह जहां आने वाले यात्री थके और निढाल
खड़े रहते हैं कन्वेयर बेल्ट के पास
जो लाती है उनके सूटकेस और दूसरा सामान
और वे पहचान जाते हैं उन्हें चीखते हुए-से ख़ुशी से
मानो फिर से जी उठने और चल देने वापस अपने जीवन में
और वहां.... वहां एक सूटकेस है
जो लौटता है और फिर ओझल हो जाता है
और फिर से लौटता है
हमेशा बहुत धीमे खाली हो चुकी उस जगह में
यह फिर-फिर आता है - जाता है
ऐसे ही... तुम्हारी ख़ामोश आकृति गुज़रती है मेरे आगे से
ऐसे मैं तुम्हें याद करता हूं
कन्वेयर बेल्ट के थमकर शांत खड़े हो जाने तक

और वहाँ वे खड़े थे स्थिर शांत
आमीन....
****
अनुवाद : शिरीष कुमार मौर्य ("धरती जानती है" संवाद प्रकाशन से)
****

Friday, September 4, 2009

वाक़या - अमीरी बराका की एक कविता


वह लौट कर आया और गोली मार दी. उसने उसे गोली मार दी. जब वह लौटा,
उसने गोली मारी, और वह गिरा, लड़खड़ाते हुए, शैडो वुड के पीछे,
नीचे, गोली लगी हुई, मरता हुआ, मृत, एकदम निश्चल.

ज़मीन पर, लथ-पथ, गोली से मारा गया. फिर वह मरा,
वहाँ गिरने के बाद, सनसनाती हुई गोली ने, फाड़ दिया उसके चेहरे को
और क़ातिल पर खून की खासी बौछार पड़ी और पड़ी धुंधली रौशनी.
मरने वाले की तस्वीरें हर तरफ हैं. और उसकी आत्मा
चूस लेती है उजाले को. मगर वह ऐसे अँधेरे में मरा जो उसकी आत्मा से भी काला था.
और जब वह मर रहा था हर चीज़ गिर पड़ी अंधाधुंध

सीढ़ियों से नीचे

कोई खबर नहीं है हमारे पास

क़ातिल के बारे में, सिवाय इसके कि वह आया, कहीं से वह करने
जो उसने किया. और ताकते हुए शिकार को सिर्फ एक गोली मारी,
और जैसे ही खून बहना बंद हुआ उसे छोड़ कर चला गया.हमें पता है कि

क़ातिल शातिर था, तेज़ और खामोश, और यह भी कि मरने वाला
शायद उसे जानता था. इसके अलावा, मरने वाले के भावों के लिथड़े खट्टेपन, और उसके हाथों और उँगलियों में
जकडे ठंडे आश्चर्य के सिवाय, हम कुछ नहीं जानते.

******

(ब्लैक आर्ट्स मूवमेंट के प्रवर्तक अमीरी बराका दूसरे विश्व-युद्ध के बाद वाले दौर के संभवतः सबसे अधिक विवादास्पद अमेरिकी साहित्य-संस्कृतिकर्मी हैं. नाइन-इलेवन के बाद लिखी गई उनकी कविता 'समबडी ब्लू अप अमेरिका', जिसमें वे इस हादसे को अमेरिकी और इज़राइली सरकारों का साझा षड्यंत्र बताते हैं, काफी विवादग्रस्त हुई थी).

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