
मैंने जाना उसका लौटना
वह जो हमारे मुहल्ले की सबसे खूबसूरत लड़की थी
अब लौट आयी है हमेशा के लिए
शादी के तीन साल बाद वापस
हमारे ही मुहल्ले में
उसे कहाँ रखे -समझ नहीं पा रहा है उसका लज्जित परिवार
उसके शरीर पर पिटने के स्थाई निशान हैं
और चेहरे पर
उतना ही स्थाई एक भाव जिसे मैं चाहूँ तो भी नाउम्मीदी नहीं कह सकता
जहाँ लौटी है
वह एक क़स्बा है जिसे अपने ही जैसे अनगिन हिन्दुस्तानी क़स्बों की तरह
शहर बनने की तीव्र इच्छा और हड़बड़ी है
हालांकि मालिक से पिटा ठर्रा पीकर घर लौटता एक मज़दूर भी
औरत के नाम पर
पूरा सामन्त हो जाता है यहाँ
तीन बरस दूसरे उपनाम और कुल-गोत्र में रहने की
असफल कोशिश के बाद
वह लौटी है
दुबारा अपने नाम के भीतर खोजती हुई
अपनी वही पुरानी सुन्दर पहचान
महान हिन्दू परम्पराओं के अनुसार कुल-गोत्र में उसकी वापसी सम्भव नहीं
तब भी उसने अपनाया है
दुबारा वही उपनाम
जिसे वह छोड़ गई थी अपने कुछ गुमनाम चाहने वालों की स्मृतियों में कहीं
आज उसे फिर से पाया है उसने
किसी खोये हुए क़ीमती गहने की तरह
जहाँ
डोली में गई औरत के अर्थी पर ही लौटने का विधान हो
वहाँ वो लौटी है
लम्बे-लम्बे डग भरती
मिट चुकने के बाद भी
उसके उन साहसी पदचिन्हों की गवाह रहेगी
ये धरती
हमारे देश में कितनी औरतें लौटती हैं
इस तरह
जैसे वो लौटी है बिना शर्मिन्दा हुए
नज़रें उठाए ?
वो लौटी है
अपने साल भर के बच्चे को छाती से चिपटाए
अपने बचपन के घर में
पहले भी घूमते थे शोहदे
हमारी गली में
लेकिन उनकी हिम्मत इतनी नहीं बढ़ी थी
तब वो महज इस मुहल्ले की नहीं
किसी परीलोक की लड़की थी
पर अब कोई भी उधेड़ सकता है सीवन
उसके जीवन की
कितने ही लालच से भरकर
राह चलते कंधा मार सकता है उसे
प्रतिरोध की कोई ख़ास चिंता किए
बग़ैर
कुछ उसके मृत पिता
और कुछ उसकी वापसी के शोक में निरूपाय-सी
अकसर ही बिलख उठती है उसकी माँ
पता नहीं क्या हुआ
कि अब मुहल्ले में उसके लिए कोई भाई नहीं रहा
कोई चाचा
कोई ताऊ
या फिर ऐसा ही कोई और रिश्ता
एक पुरुष को छोड़ते ही जैसे
कई-कई
पुरुषों से भर गई उसकी दुनिया
खेलती है अकसर
छोटी बहन के साथ बैडमिंटन अपने घर की खुली हुई
बिना मुंडेर वाली खतरनाक छत पर
तो सोचता हूँ मैं
कि यार आख़िर किस चीज़ से बनी होती है औरत !
आग से ?
या पानी से ?
हो सकता है
वह बनी होती हो आग और पानी के मिलने से
जैसे बनती है भाप
और उसे बहुत जल्दी से अपनी ओर खींच लेते हैं
आकाश के खुले हुए हाथ
मैं सोचता हूँ तो वो मुझे
हाथ में रैकेट सम्भाले आकाश की ओर आती सांझ के
रंगीन बादलों सरीखा अपना आँचल फहराती
उड़ती दीखती है
दरअसल
एक अनोखे आत्मसम्मान से भरा
जीवन का कितना असम्भव पाठ है यह
जिसे मेरी कविता
अपने डूबते हुए शिल्प में
इस तरह
वापस घर लौटी एक लड़की से सीखती है !
****
वह जो हमारे मुहल्ले की सबसे खूबसूरत लड़की थी
अब लौट आयी है हमेशा के लिए
शादी के तीन साल बाद वापस
हमारे ही मुहल्ले में
उसे कहाँ रखे -समझ नहीं पा रहा है उसका लज्जित परिवार
उसके शरीर पर पिटने के स्थाई निशान हैं
और चेहरे पर
उतना ही स्थाई एक भाव जिसे मैं चाहूँ तो भी नाउम्मीदी नहीं कह सकता
जहाँ लौटी है
वह एक क़स्बा है जिसे अपने ही जैसे अनगिन हिन्दुस्तानी क़स्बों की तरह
शहर बनने की तीव्र इच्छा और हड़बड़ी है
हालांकि मालिक से पिटा ठर्रा पीकर घर लौटता एक मज़दूर भी
औरत के नाम पर
पूरा सामन्त हो जाता है यहाँ
तीन बरस दूसरे उपनाम और कुल-गोत्र में रहने की
असफल कोशिश के बाद
वह लौटी है
दुबारा अपने नाम के भीतर खोजती हुई
अपनी वही पुरानी सुन्दर पहचान
महान हिन्दू परम्पराओं के अनुसार कुल-गोत्र में उसकी वापसी सम्भव नहीं
तब भी उसने अपनाया है
दुबारा वही उपनाम
जिसे वह छोड़ गई थी अपने कुछ गुमनाम चाहने वालों की स्मृतियों में कहीं
आज उसे फिर से पाया है उसने
किसी खोये हुए क़ीमती गहने की तरह
जहाँ
डोली में गई औरत के अर्थी पर ही लौटने का विधान हो
वहाँ वो लौटी है
लम्बे-लम्बे डग भरती
मिट चुकने के बाद भी
उसके उन साहसी पदचिन्हों की गवाह रहेगी
ये धरती
हमारे देश में कितनी औरतें लौटती हैं
इस तरह
जैसे वो लौटी है बिना शर्मिन्दा हुए
नज़रें उठाए ?
वो लौटी है
अपने साल भर के बच्चे को छाती से चिपटाए
अपने बचपन के घर में
पहले भी घूमते थे शोहदे
हमारी गली में
लेकिन उनकी हिम्मत इतनी नहीं बढ़ी थी
तब वो महज इस मुहल्ले की नहीं
किसी परीलोक की लड़की थी
पर अब कोई भी उधेड़ सकता है सीवन
उसके जीवन की
कितने ही लालच से भरकर
राह चलते कंधा मार सकता है उसे
प्रतिरोध की कोई ख़ास चिंता किए
बग़ैर
कुछ उसके मृत पिता
और कुछ उसकी वापसी के शोक में निरूपाय-सी
अकसर ही बिलख उठती है उसकी माँ
पता नहीं क्या हुआ
कि अब मुहल्ले में उसके लिए कोई भाई नहीं रहा
कोई चाचा
कोई ताऊ
या फिर ऐसा ही कोई और रिश्ता
एक पुरुष को छोड़ते ही जैसे
कई-कई
पुरुषों से भर गई उसकी दुनिया
खेलती है अकसर
छोटी बहन के साथ बैडमिंटन अपने घर की खुली हुई
बिना मुंडेर वाली खतरनाक छत पर
तो सोचता हूँ मैं
कि यार आख़िर किस चीज़ से बनी होती है औरत !
आग से ?
या पानी से ?
हो सकता है
वह बनी होती हो आग और पानी के मिलने से
जैसे बनती है भाप
और उसे बहुत जल्दी से अपनी ओर खींच लेते हैं
आकाश के खुले हुए हाथ
मैं सोचता हूँ तो वो मुझे
हाथ में रैकेट सम्भाले आकाश की ओर आती सांझ के
रंगीन बादलों सरीखा अपना आँचल फहराती
उड़ती दीखती है
दरअसल
एक अनोखे आत्मसम्मान से भरा
जीवन का कितना असम्भव पाठ है यह
जिसे मेरी कविता
अपने डूबते हुए शिल्प में
इस तरह
वापस घर लौटी एक लड़की से सीखती है !
****
अद्भुत है भाई. मुझे ज्यादा लिखना यूं भी नहीं आता .... और ये पढ़ कर तो और भी खामोश हो गया हूँ.
ReplyDeleteमुझे तो लगता है अपनी शुरूआती छह पंक्तियों में ही उन सभी आयामों के साथ सम्पूर्ण हो गई है यह कविता जिन्हें आपने आगे उभारा है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कविता। बधाई शिरीष जी।
बहुत सुंदर कविता है। वे जानी पहचानी स्थितियां, अपने आस-पास जो हर किसी को दिख रही होती हैं, एक संवेदनशील व्यक्ति की लेखनी से कब रचना में आ जाती हैं- उसका एक नमूना है।
ReplyDeleteरचनाकार की बेचैनी, स्थितियों से असहमति और प्रतिकार, एवं खूबसूरत भविष्य की कामनाएं, जो बिना मुंडेर वाली खतरनाक छत पर चढ रही हैं, एक सचेत रचनाकार का अपने समय से साक्षात्कार ही है।
आपकी एक पंक्ति ....सोचता हूँ मैं
ReplyDeleteकि यार किस चीज़ की बनी होती है औरत ....न जाने क्यों आँखें नम कर गयी .....बनी तो मोम की होती है पर लोग उसे पत्थर बना देते हैं
शिषिर जी ....!!
बनी तो मोम की होती है पर लोग उसे पत्थर बना देते हैं ...harkeerat ki baat se mujhe bhi ittefaq...sacchhi kavita...
ReplyDeleteखुबसूरत कविता के लिए हार्दिक बधाई .........
ReplyDelete''एक पुरुष को छोड़ते ही जैसे
कई कई
पुरुषों से भर गई उसकी दुनिया ''
कितनी कटु सच्चाई आपने बड़े सरल ढंग से कह दिया .
कैसे बनती है औरत आग से या पानी से या दोनों के मिलने से जैसे भाप ... दिल की गहराई में
ReplyDeleteछू दिया है .. सच भाप ही होती है औरत न हो तो जिए कैसे . गोद के बच्चे का क्या करें
साधारण से असाधारण तक पहुँच गयी यह कविता... कुछ पंग्तियाँ बोझिल जरूर हैं(मेरे समझ से) ... पर दर्द मुखर हो आया है...
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteaapki kavitavo me pastith samvedana tatkal prabhavit karti h...
ReplyDeleteachhi kavita ke liye badhayi...
रंगनाथ भाई सही ही कह रहे हैं.
ReplyDeleteबेहद मार्मिक और अद्भुत कविता है शिरीष भाई. मैं कभी-कभी ब्लागिंग की दुनिया में आता हूं, इसलिए मुझे दुख है कि अच्छी चीजों से महरूम रह जाता हूं.
ReplyDeleteसमकालीन हिंदी कविता में जिस तरह की कविताओं को महत्वपूर्ण और महान बताने की हड़बड़ी दिखाई देती है, उन गड़बड़ियों के बरक्स चुपचाप आपकी कविता हिंदी आलोचना के सामने नए मेयार की जरूरत पेश कर देती है।
Kavitaa se bhi achchchhi hai, aur tumhaaree ye nazar usase bhee achchhee.
ReplyDeleteYes well!
ReplyDeleteअद्वितीय ....
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