भगवा पार्टी के जसवंत सिंह प्रकरण को लेकर पिछले कई दिनों से खासा हो-हल्ला मचा हुआ है. समझ नहीं आ रहा है कि पटेल भगवा गिरोह के `हीरो` हैं या सत्ताधारी गिरोह के. न जाने क्यूँ मुझे मनमोहन की यह कविता याद आ रही है -

हाय सरदार पटेल!
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सरदार पटेल होते तो ये सब न होता
कश्मीर की समस्या का तो सवाल ही नहीं था
ये आतंकवाद वातंकवाद कुछ न होता
अब तक मिसाइल दाग चुके होते
साले सब के सब हरामज़ादे एक ही वार में ध्वस्त हो जाते
सरदार पटेल होते तो हमारे ही देश में
हमारा इस तरह अपमान होता
ये साले हुसैन वुसैन
और ये सूडो सेकुलरिस्ट
और ये कम्युनिस्ट वमुनिस्ट
इतनी हाय तौबा मचाते!
हर कोई ऐरे गैरे साले नत्थू खैरे
हमारे सर पर चढ़कर नाचते!
आबादी इस कदर बढ़ती!
मुट्ठी भर पढ़ी लिखी शहरी औरतें
इस तरह बक-बक करतीं!
सच कहें, सरदार पटेल होते
तो हम दस बरस पहले प्रोफ़सर बन चुके होते!
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रंग में भंग करने वाली कविता!
ReplyDeleteवाह! लगा अमिताभ की लावारिश देख रहा हूँ... गली गलोज से भरपूर... बातें दबी जुबान से सच हैं... पर ऐसी कविताओं पर नाक-मुह निकालेंगे.... गाली कविता को मुखर बनती है साथ की मनमोहन का आक्रोश भी दीखता है... एकदम अंग्री यंगमैन जैसा...
ReplyDeleteaapki kavita men aapke vicharon sekuchh had tak sahmat hun per muthtthii bhar auraton ko bhi kya padha likha nahin hona chahiye aapka aashaynahin samajh men aayaa...kripaya zaroor spasht karen ..
ReplyDeleteप्रज्ञा जी !
ReplyDeleteयह कविता वरिष्ठ कवि मनमोहन की है और धीरेश भाई ने इसे लगाया है, वे आपके प्रश्न का उत्तर धीरेश अवश्य देंगे. मैं इतना कहूँगा की कविता में निहित व्यंग्य को समझिए - पुनर्पाठ कीजिए. औरतों के मामले जो आपने समझा है उससे बिल्कुल उलट कहा जा रहा है.
शिरीष
अद्भुत कविता है यह, कवि और ब्लोग्गर दोनो को बधाई.
ReplyDeleteसही समय पर सही पोस्ट. धीरेश का 'सेंस ऑफ़ टाइमिंग' गजब का है.
ReplyDelete'हाय सरदार पटेल' कविता में बड़ी कुशलता और निर्ममता से संघ-परिवार की मानसिकता वाले बुद्धिजीवियों की तर्क-पद्धति, इतिहास-चेतना और सामाजिक प्रतिक्रियावाद पर चोट की गयी है. पर लगता है कवि का टारगेट केवल भाजपाई बौद्धिक नहीं हैं, बल्कि ऐसे 'सॉफ्ट' हिन्दू उदारवादी भी हैं जो हर खेमे में पाए जाते हैं, और सरदार पटेल को हीरो मानकर पूजते हैं.
मनमोहन अपने शांत स्वभाव और संतुलित दृष्टि के रहते हुए ऐसी आक्रामक और ज़रूरी कविता लिख गए यह सुखद आश्चर्य है. बधाई. हिन्दी की यह शायद पहली कविता है जिसमें "लौहपुरुष" की प्रत्यक्ष/अ-प्रत्यक्ष आलोचना है.
अरुण सिन्हा
मनमोहन की यह कविता कई कई परतें खोलती है।
ReplyDeleteतिलंगाना में उनकी भूमिका से सब परिचित हैं।
और उनके दक्षिणपंथी झुकाव से भी जो उन दिनों नेहरु के अलावा ज़्यादातर कांग्रेसियों में पाया जाता था। पर न तो वह संघ के करीब थे ना ही उन अर्थों में दक्षिणपंथी।
लेकिन अपनी बांझ परंपरा से परेशान हिन्दुत्ववादियों के लिये वे आसान आईकन बन जाते हैं। कभी मोदी तो कभी आडवाणी में उनका परकाया प्रवेश कराने की कोशिश की जाती है… और जो कैरीकेचर सामने आते हैं उनसे तो सब परिचित हैं …
हालांकि, सरदार पटेल खुद संघ को सांप्रदायिकता छोड़ने की नसीहतें दे चुके थे, संघ गिरोह उनको अपना आइकन घोषित करने से बाज नहीं आता। खैर, करारी चोट है यह कविता।
ReplyDeletebehtareen kavita, itni poorani hone par aj bhi prsanggik hai
ReplyDeletekavita ke liye dheeresh bhai ka tahe dil se ''thanks''
मित्रों, मैं जरा देर से इस कविता को पढ़ पाया। भाई धीरेश के सौजन्य से मनमोहन जी की कई कविताएं पढ़ी हैं। लेकिन यह कविता नहीं पढ़ सका था। धीरेश और आप को भी यह विचारोत्तेजक कविता पढ़वाने के लिए कोटि-कोटि बधाई।
ReplyDeleteआपको अलग से भी बधाई कि आपका ब्लॉग जरा धारदार है। अच्छा लगता है यहां आकर।
padh kar achha laga, patel ji par aisi cheej kabhi padhi bhi nahi thi. akhiri vakya to majedar hai.
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