पिछले साल लिखी और अभी लमही में छपी ये कविता आज के दिन आप सबके लिए
कहा प्रधानमंत्री ने एक अबूझ हिंदी और अत्यन्त कोमल स्वर में लाल क़िले के प्राचीर से -
आज़ादी मुबारक़ हो !
प्रधानमंत्री ने कहा सारे देश से और सब जगह दर्ज़ हो गया उनका यह कहना
मैं भी कहना चाहता था अपने हिस्से के भारत में - आज़ादी मुबारक़ हो
पर समझ नहीं पा रहा था कहूँ किससे
आज़ादी मुबारक़ हो कहा मैंने
सड़कों पर पाँवों तले रौंदे जा रहे प्लास्टिक के झंडों से
और
कहा नगर के मुख्य चौराहे पर झंडा फहरा कर लौट रहे एक अभूतपूर्व जनप्रतिनिधि से
जिनकी कल पेशी थी
खून और बलात्कार के मुक़दमे में
कहा खुश्क होंठ अंग्रेज़ी स्कूल से लौट रहे बच्चों के एक झुंड से
जिन्हें उनके प्रिंसिपल द्वारा दिए गए भाषण में समझाया गया था
कि पाकिस्तान को मार भगाना ही
दरअसल
भारतमाता की जय है!
आज़ादी मुबारक़ हो कहा मैंने घर में फ़ालतू पड़े सामान से
उसे पिछवाड़े फेंकते हुए
कहा सुबह से काम में खटी पत्नी से
आज़ादी मुबारक़ हो !
प्रधानमंत्री ने कहा सारे देश से और सब जगह दर्ज़ हो गया उनका यह कहना
मैं भी कहना चाहता था अपने हिस्से के भारत में - आज़ादी मुबारक़ हो
पर समझ नहीं पा रहा था कहूँ किससे
आज़ादी मुबारक़ हो कहा मैंने
सड़कों पर पाँवों तले रौंदे जा रहे प्लास्टिक के झंडों से
और
कहा नगर के मुख्य चौराहे पर झंडा फहरा कर लौट रहे एक अभूतपूर्व जनप्रतिनिधि से
जिनकी कल पेशी थी
खून और बलात्कार के मुक़दमे में
कहा खुश्क होंठ अंग्रेज़ी स्कूल से लौट रहे बच्चों के एक झुंड से
जिन्हें उनके प्रिंसिपल द्वारा दिए गए भाषण में समझाया गया था
कि पाकिस्तान को मार भगाना ही
दरअसल
भारतमाता की जय है!
आज़ादी मुबारक़ हो कहा मैंने घर में फ़ालतू पड़े सामान से
उसे पिछवाड़े फेंकते हुए
कहा सुबह से काम में खटी पत्नी से
थोड़ा झेंपते हुए
रोज़ की तरह कबाड़ तलाश रहे
कबाड़ियों से कहा मैंने बताते हुए उन्हें अपने घर के पीछे का रस्ता
कुछ भिखारियों से कहा मैंने उनके कटोरे में सिक्के डालते हुए
कहा एक पागल से उसकी पीठ झाड़ते हुए
कहा अपने नीचे धरती और ऊपर के आकाश से
शाम होते-होते
आज़ादी मुबारक़ हो - खुद से भी कहा मैंने और उस रात सो नहीं पाया !
प्रधानमंत्री सोए कि नहीं?
...कोई पूछे अब उनसे !
रोज़ की तरह कबाड़ तलाश रहे
कबाड़ियों से कहा मैंने बताते हुए उन्हें अपने घर के पीछे का रस्ता
कुछ भिखारियों से कहा मैंने उनके कटोरे में सिक्के डालते हुए
कहा एक पागल से उसकी पीठ झाड़ते हुए
कहा अपने नीचे धरती और ऊपर के आकाश से
शाम होते-होते
आज़ादी मुबारक़ हो - खुद से भी कहा मैंने और उस रात सो नहीं पाया !
प्रधानमंत्री सोए कि नहीं?
...कोई पूछे अब उनसे !
***
अभी चिराग़-ए-सर-ए-रह को कुछ ख़बर ही नहीं
ReplyDeleteअभी गरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
नजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई = faiz
aur isase jyada kya kahe...
यही उलझन मुझे भी है की आजादी की मुबारकबाद कहूँ तो किससे कहूँ .......भ्रष्टाचार में डूबे नेताओं या अधिकारियों से ,आत्महत्या
ReplyDeleteकरते किसान से ,बलात्कार की शिकार हुई स्त्री से ,भीख मांगते बच्चों से या उस मजदूर से जिससे नरेगा के नाम पर अंगूठा लगवा लिया गया है और वह काम की तलाश में है.
शानदार रचना । स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteभाई शिरीष जी कवितायें अच्छी लिख लेते हैं आप!
ReplyDeleteचूँकि उनमें समाज और ज़िंदगी की तल्खी छुपी होती है इसलिए इस तल्ख़ ज़ुबान को भी पसंद आ जाती है.
शिरीष भाई
ReplyDeleteकविता लमही में पढ ली थी…तब भी कई सवाल जगे थे मन में…
सिर्फ़ सूचना के लिये- उसी पत्रिका में मेरा एक कालम अर्थात जाता है। अगर उस पर अपनी राय देंगे तो आभारी हूंगा।
ashokk34@gmail.com
अचछा है शिरीष भाई
ReplyDeleteअब कहाँ तक खोखली आज़ादी की मुबारक बाद स्वीकार करें?