अनुनाद

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दहलीज़-७ / रघुवीर सहाय की कविता- “कला क्या है”

चयन तथा प्रस्तुति : पंकज चतुर्वेदी

तस्वीर यहाँ से साभार

‘कला क्या है’

कितना दुःख वह शरीर जज़्ब कर सकता है ?
वह शरीर जिसके भीतर ख़ुद शरीर की टूटन हो
मन की कितनी कचोट कुण्ठा के अर्थ समझ
उनके द्वारा अमीर होता जा सकता है ?

अनुभव से समृद्ध होने की बात तुम मत करो
वह तो सिर्फ़ अद्वितीय जन ही हो सकते हैं
अद्वितीय यानी जो मस्ती में रहते हैं चार पहर
केवल कभी चौंककर
अपने कुएँ में से झाँक लिया करते हैं
वह कुआँ जिसको हम लोग बुर्ज़ कहते हैं

अद्वितीय हर व्यक्ति जन्म से होता है
किन्तु जन्म के पीछे जीवन में जाने कितनों से यह
अद्वितीय होने का अधिकार
छीन लिया जाता है
और अद्वितीय फिर वे ही कहलाते हैं
जो जन के जीवन से अनजाने रहने में ही
रक्षित रहते हैं

अद्वितीय हर एक है मनुष्य
औ’ उसका अधिकार अद्वितीय होने का
छीनकर जो ख़ुद को अद्वितीय कहते हैं
उनकी रचनाएँ हों या उनके हों विचार
पीड़ा के एक रसभीने अवलेह में लपेटकर
परसे जाते हैं तो उसे कला कहते हैं !

कला और क्या है सिवाय इस देह मन आत्मा के
बाक़ी समाज है
जिसको हम जानकर समझकर
बताते हैं औरों को , वे हमें बताते हैं

वे , जो प्रत्येक दिन चक्की में पिसने से करते हैं शुरू
और सोने को जाते हैं
क्योंकि यह व्यवस्था उन्हें मार डालना नहीं चाहती

वे जिन तकलीफ़ों को जानकर
उनका वर्णन नहीं करते हैं
वही है कला उनकी
कम-से-कम कला है वह
और दूसरी जो है बहुत-सी कला है वह

कला बदल सकती है क्या समाज ?
नहीं , जहाँ बहुत कला होगी , परिवर्तन नहीं होगा .
****
विशेष : ‘बहुत कला ‘ या कलावाद की अवधारणा और उसके नेपथ्य में मौजूद विचारधारा को शायद ही हमारे वक्त के किसी और कवि ने इतने गहरे और अकाट्य आत्मविश्वास , इतने तार्किक और मर्मस्पर्शी ढंग से ख़ारिज किया हो . ‘अद्वितीय ‘ होने का कुछ लोगों का आग्रह किस तरह ‘चार पहर मस्ती में डूबे रहने ‘ की उनकी समुन्नत जीवन-स्थितियों से जनमता है और “जन के जीवन से अनजाने रहने में ही जो रक्षित ” हैं ; ऐसे लोगों की रचनाओं और विचारों का “पीड़ा के एक रसभीने अवलेह में लपेटकर ” प्रस्तुत किया जाना ही वह “कला” है , जिसका वे बराबर आत्ममुग्ध दावा और यशगान किया करते हैं . रघुवीर सहाय ने यहाँ बहुत अविस्मर्णीय और उत्कृष्ट संज्ञा प्रदान की है कि यह “बहुत कला ” है और इसका आम जन-समाज की जीवन-स्थितियों से कोई लेना- देना नहीं है . स्वाभाविक है कि समाज -परिवर्तन इसके एजेंडे पर ही नहीं है , न यह उसकी प्रेरणा -भूमि है . इसलिए “जहाँ बहुत कला होगी , परिवर्तन नहीं होगा “—–हमारे समय में लिखी गयी महान काव्य – पंक्तियाँ हैं , जो दरअसल यह भी बताती हैं कि कई बार सच के इज़हार के लिए ऐसी ही ‘categorical’ या बेधक भाषा दरकार होती है . ‘दहलीज़ ‘ के चाहने वालों के लिए , अगर वे हों , इस बार रघुवीर सहाय की यही महान रचना .

0 thoughts on “दहलीज़-७ / रघुवीर सहाय की कविता- “कला क्या है””

  1. ये तल्ख़ जुबान भी यही कहेगी कि "जहाँ कला बहुत होगी परिवर्तन नहीं होगा" – मेरे मन की बात – तल्ख़ बात. शिरीष जी और पंकज जी को शुक्रिया. महान काव्यात्मा रघुवीर सहाय को नमन.

  2. 'दहलीज़ ' के चाहने वालों के लिए , अगर वे हों , इस बार रघुवीर सहाय की यही महान रचना .

    यहाँ 'अगर वे हों' बहुत चुभता है……
    दहलीज साहित्य में रूचि रखने वालों और नवलेखकों के लिए एक महान प्रयास है…
    इसे पूरी ऊर्जा से जारी रखें.

  3. रघुवीर सहाय की एक पुस्तक मैंने भी अभी हाल में खरीदी है, पर अफ़सोस शायद मैं अभी उस गहराई को समझने के लायक नहीं हुआ हूँ जिस तरह से आपने विश्लेषण किया है… वो कमाल के कवि थे और संपादक भी एक बानगी यह…

    पढिये गीता,
    बनिए सीता,
    फिर इन सब में लगा पलीता…

    आगे की लाइंस याद नहीं…

  4. दहलीज़ के लिए रघुवीर सहाय की यह रचना बेहद जरूरी रचना की तरह है, मेरे ख्याल से. आखिर यूँ ही सहाय इतने बड़े कवि नहीं थे, अपने वक्त की कलावादी सेलीब्रेटीज़ और ज़मीन की मिट्टी के महान प्रोजेक्टेड कवि के बरक्स. सहाय को शहरी या लोहियावादी कहकर सीमित करने की कोशिश करने वालों में कलावादी भी थे, जनवादी भी और प्रगतिशील भी. पर यह कविता भी बताती है कि क्यों वामपंथी कवियों की प्रतिभाशाली पीढी उन्हें अपने करीब पाती थी. यह संयोग रहा कि आज व्योमेश शुक्ल का अंकुर स्मृति सम्मान ग्रहण करने के मौके पर दिया गया वक्तव्य पढ़ा और सहाय बहुत याद आये. कविता को लेकर ऐसा समृद्ध गद्य सहाय का होता था. असद जैदी की `दस बरस` संग्रह की भूमिका, और मनमोहन की जिल्लत की रोटी की भूमिकाएँ भी याद आईं. बेहद खुशी हुई कि कला-बहुत कला के शोर के बीच सबसे युवा पीढ़ी का सबसे समर्थ कवि वही है जिसके सरोकार इतने खरे हैं. आपकी यह पोस्ट ब्लॉग की दुनिया में बहुतयात में छा रहे सारहीन पर अत्यंत नशीले लेखन को देखने की भी नज़र देती है.

  5. 'आत्महत्या के विरुद्ध' के वक्तव्य में रघुवीर सहाय लिखते हैं – "मोटे , बहुत मोटे तौर पर लोकतंत्र ने हमें इंसान की शानदार जिन्दगी और कुत्ते की मौत के बीच चांप लिया है "
    यही है वो'categorical' या बेधक भाषा !!

  6. अपनी ही लगाई पोस्ट पर टिप्पणी करने से बच रहा था पर अब लग रहा है कि धीरेश भाई ने मेरे शब्दों को जुबान दे दी है ! मैंने खुद कई बार व्योमेश को युवा पीढी का सबसे समर्थ कवि कहा है, अनुनाद पर व्योमेश को लेकर लगाई पिछली पोस्ट्स देखी जा सकती हैं.

  7. और हाँ ! एक बार धीरेश भाई की पोस्ट पर ही एक परंपरा बनाई थी, इसे मेरा भावुक होना ना मानें पर धीरेश भाई की बात पर आज एक और परंपरा बनाने को दिल कर रहा है – रघुवीर सहाय, चंद्रकांत देवताले, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, मनमोहन, असद ज़ैदी, शुभा और व्योमेश…..

  8. प्रिय संजय व्यास जी ,
    दरअसल शमशेर के गद्य को प्रस्तुत करती हुई पोस्ट पर इतना अजीब, सुदीर्घ और भटका हुआ हमला हुआ कि मुझे यह अवसाद और बेचैनी हुई कि कहीं मैं बेकार में ही तो यह मेहनत नहीं कर रहा हूँ . इसलिए मेरे जिन शब्दों से आप को कष्ट हुआ , उनके निशाने पर कोई और नहीं , बल्कि मैं स्वयं ही था . उनमें दूसरों पर व्यंग्य की बजाए आत्मालोचना और आत्म-भर्त्सना का भाव था . लेकिन इस पोस्ट पर आपके
    और अन्य मित्रों के कमेंट्स से राहत और ख़ुशी मिली कि मैं आखिरकार ग़लत राह पर तो नहीं ही हूँ . यों इस सराहना से सबसे ज़्यादा रघुवीर सहाय की लोकप्रियता और महानता का पता चलता है . इस बीच मुझे एक कवि-मित्र ने बताया है कि किसी अन्य ब्लॉग पर किसी कवि ने इसी दौरान यह कमेंट किया है कि कविता लिखना सिखाया नहीं जा सकता . मुमकिन है कि यह कमेंट हमारे प्रयत्न से पूरी तौर पर स्वायत्त हो , लेकिन अगर हमसे इसका कोई लेना-देना है ; तो मैं हमेशा की तरह एक बार फिर यह साफ़ करना चाहता हूँ कि हमारी भी ऐसी कोई सोच क़तई नहीं है कि कविता सिखाये जाने का मामला है . हम तो सिर्फ़ कविता-प्रेमी पाठक-समाज और कवियों , ख़ास तौर पर नए कवियों के अध्यवसाय , अंतरात्मा और संवेदना की ज़मीन को कुछ और व्यापक , उदात्त और समृद्ध बनाने के लिए संघर्षरत हैं . अगर इस बुनियादी मक़सद से ही लोगों को एतिराज़ है , तो समझा जा सकता है कि हमारे समय में , अन्य विडंबनाओं के अलावा एक विडम्बना यह भी है कि नए लोगों में सीखने-जानने के प्रति न सिर्फ़ यह कि उदासीनता है , बल्कि एक अजब क़िस्म का RESENTMENT भी है .

  9. आदरणीय पंकज जी
    आत्मीय सी टिप्पणी के लिए आभार.
    पश्चिम के प्रत्ययवादी और अनुभववादी विचारकों की सालों पुरानी बहस का विषय रहा है कि आदमी जन्म के साथ ही प्रत्ययों और भावों की छाप लेकर आता है या उसे सब कुछ इसी दुनिया में सीखना शुरू करना होता है. जो लोग कविता कर्म को एक चरवाहे के काम से ज्यादा महिमविहित काम मानते हैं जिसमे प्रखर मेधा और प्रतिभा अनिवार्य है और जो हरेक को कर्ण के कवच और कुंडल की तरह देव-प्रदत्त नहीं होती उनके लिए शायद ये सही हो कि कविता करना किसी किसी को ही' बस आ जाता है' और इसे सीखा नहीं जा सकता. और शायद ये बात यहाँ तक सच हो कि जैसे चरवाहा भी हर कोई नहीं बन सकता इसके लिए वैसी भूमि अनिवार्य है वैसे ही कवि के लिए भी कोई विचार-भूमि अनिवार्य है.
    यहाँ मेरी अपनी समझ ये कहती है कि भले ही कविता सिखाई नहीं जा सकती पर कवि भी कविता अनेकानेक उपकरणों -कारकों की मदद से सीखता ज़रूर है.
    इसे आप एक अकवि और अनियमित पाठक की टिप्पणी मान कर खारिज भी कर सकते हैं.

  10. दहलीज के बहाने कविता और सरोकारों को लेकर सार्थक बहस चल रही है। शिरीष और पंकज को बधाई। रघुवीर सहाय की इस कविता को पढ़ते हुए मुझे अचानक उनकी एक और कविता की याद आ गई, जिसका शीर्षक है अशोक वाजपेयी की याद। 'एक समय था' नामक संकलन में संकलित यह कविता इस तरह है:

    सब कुछ नष्ट नहीं होगा
    कुछ तो बच ही जाएगा
    सब कुछ यहीं पास ही था
    तुम्हारे पास अगर समय कुछ होता
    समय को पोटली में लपेटकर
    मनचाहे मोड़ पर बैठा रह सकता था
    चुस्कियां लेते और गप्प लगाते हुए
    अगर तुम मिल जाते
    अगर बच सका तो वही बचेगा
    हम सब में थोड़ा सा आदमी

    (28 दिसंबर 1986)

    संपादक सुरेश शर्मा के फुटनोट के मुताबिक, 'इस कविता में रघुवीर सहाय की लिखी हुई अपनी कोई पंक्ति नहीं है। ये सारी पंक्तियां अशोक वाजपेयी को याद करते हुए उनकी चार अलग-अलग कविताओं से उद्धृत की गई हैं। शुरू की दो पंक्तियां 'कुछ हो' कविता से हैं, उसके बाद की दो पंक्तियां 'अगर समय होता' कविता से। फिर चार पंक्तियां 'अगर तुम' कविता से हैं तथा अंतिम दो पंक्तियां 'थोड़ा-सा' शीर्षक कविता से ली गई हैं। इस तरह अशोक वाजपेयी की चुनी हुई पंक्तियों से सहाय जी ने एक नई कविता बना दी है।'
    रघुवीर जी की इन दोनों कविताओं 'कला क्या है' और 'अशोक वाजपेयी की याद' को एक साथ रखकर भी क्या कोई पाठ किया जा सकता है? अशोक वाजपेयी के कला-आग्रह स्पष्ट हैं, लेकिन कलावाद को इतनी स्पष्टता से खारिज करने वाले रघुवीर सहाय को अशोक की काव्य पंक्तियां इतना हांट करती हैं कि वे उन्हें मिलाकर एक नई कविता ही रच देते हैं। क्या अशोक वाजपेयी भी रघुवीर सहाय की परंपरा में कहीं हैं? इन सवालों पर भी कुछ रोशनी पड़े तो बहस और व्यापक हो सकती है।

  11. kavita ka reader to nahin hun par kishor ya navyuva umr tak sangh shakhaon ke asar aur phir Bhagat Singh ke dastavjo ke jariye jis jagh pahuncha hun, vo vampanth men gahree astha hai. Raghuveer sahay ki bat janvad ki hi baat hai ki bhai kala-kala ke shor men mudde kyun chhopate ho. janvadi sahity ka halka-halka asar mujh par bhi hota hai.

  12. मैं भी रघुवीर सहाय की कविता अत्यधिक पसंद करता हूँ। किसी पोस्ट पर टिप्पणी करते वक्त विज्ञ लोग अपनी विज्ञता बघारने से बाज नहीं आते।
    पुराने लोग हैं इसलिए इसका लिहाज भी तो करना ही होता है।

    खैर मुझे पुरानी कहावत याद आई।
    बात अंग्रजों के जमाने की है, एक बड़े प्रतापी राजा थे। उनके महल में उनकी तूती बोलती थी। उनको एक बार उन्हें अदालत में हाजिर होना पड़ गया। राजा ने रानी से कहा कि वो जाकर मुसंफ की ऐसी की तैसी कर देंगे कि उनको सम्मन करने की उसकी हिम्मत कैसे हुई ? जब वो शहर से लौट तो रानी ने उनसे पूछा

    का राजा कचहरिया में का कइला ह ?

    राजा बोले,

    ना रानी भीतरवां त छोड़ देनी है,लेकिन बहरे आ के
    — अपने प्यादन के बीच वोके खूब गरियवनी हं !!

    व्योमेश शुक्ल को मेरी तरफ से भी अभिनन्दन। सुना हैं वो शहर बनारस के हैं। युवा कवि अब तुम्हारे ही हाथ में बनारस की परंपरा की डोर है। जरा संभालना।
    वैसे व्योमेश की ज्यादा कविता तो मैंने नहीं पढ़ी है फिर भी कहुँगा कि,
    ….तुम हो कि मुकदमा लिखा देती हो मुझे बहुत पसंद है।….

  13. क्या आज के पावन दिन रघुवीर सहाय की वह कविता ब्लॉग पर नहीं लगनी चाहिये? "राष्ट्रगीत में भला कौन वह / भारत-भाग्य-विधाता है? / फटा सुथन्ना पहने जिसके / गुण हरचरना गाता है."

  14. `क्या अशोक वाजपेयी भी रघुवीर सहाय की परंपरा में कहीं हैं? इन सवालों पर भी कुछ रोशनी पड़े तो बहस और व्यापक हो सकती है।` – रघुवीर सहाय की रचनावली हमारे सामने है और अरुण आदित्य तो साहित्य की दुनिया से हैं, उसे अच्छी तरह पढ़ चुके होंगे. वे ही बताएं कि उनका कुल लेखन किस दिशा में जाता है. मुझे नहीं लगता कि कुछ पंक्तियों का यह लुकमा उनका कृतित्व को अशोक वाजपेयी की परम्परा से जोड़ता है. ऐसे कारन स्पष्ट हैं जो रघुवीर सहाय को न केवल अपने दफ्तरी बॉस अज्ञेय और साहित्य अफसर अशोक वाजपेयी से बल्कि केदारनाथ सिंह जैसे बहु विज्ञापित कवियों से बेहद अलग करते हैं. वैसे प्रस्तुत कविता पर और ज्यादा बात की जां सकती है.

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