
इस रात
असंख्य है दुख
यहाँ
असंख्य है दुख
यहाँ
एक अछोर शरण्य है जीवन
हलचलों से भरा
ऊपर-ऊपर रोशन
लेकिन
नीचे
गहरे अंधेरे में
जड़ों से
धँसा
***
तारों में टिमकता
यह जो दीखता है वैभव
झूटा है
***
बहुत धीर गम्भीर मंद्र स्वरों में फूटती है
नींद
उतरती हुई
किसी पैराशूट की तरह
दुस्वप्नों के
सबसे ऊँचे पठारों पर
***
वहाँ
कच्चे रास्तों का एक स्वप्न है
और कुछ
अधूरी कविताओं का भी
एक काँपती हुई उम्मीद
जोश
सिर उठाता हुआ
सहमती आती एक खुशी
एक डर
महफूज़ होने के हमारे बन्दोबस्त को
आजमाता हुआ
बीड़ी सुलगाता-बुझाता
नज़र आता
एक कवि
हड़ीली कनपटियों वाला
राह के किनारे
लटकते बयाओं के घोसले
बियाबान में भी जीवन को
आकार देते-से
खंडहरों में छुपे हुए
घुग्घू भी
मकड़ी के चिपकदार जालों के पीछे से
घूरते
पत्थरों के नीचे
बिच्छू
थरथराते डंक वाले
तालाबों का रुका-थमा
सड़ता हुआ पानी
रात की काली परछाई-सा
इतनी सारी अनर्गल बातों का
बहुत धीर गम्भीर मंद्र स्वरों में फूटती है
नींद
उतरती हुई
किसी पैराशूट की तरह
दुस्वप्नों के
सबसे ऊँचे पठारों पर
***
वहाँ
कच्चे रास्तों का एक स्वप्न है
और कुछ
अधूरी कविताओं का भी
एक काँपती हुई उम्मीद
जोश
सिर उठाता हुआ
सहमती आती एक खुशी
एक डर
महफूज़ होने के हमारे बन्दोबस्त को
आजमाता हुआ
बीड़ी सुलगाता-बुझाता
नज़र आता
एक कवि
हड़ीली कनपटियों वाला
राह के किनारे
लटकते बयाओं के घोसले
बियाबान में भी जीवन को
आकार देते-से
खंडहरों में छुपे हुए
घुग्घू भी
मकड़ी के चिपकदार जालों के पीछे से
घूरते
पत्थरों के नीचे
बिच्छू
थरथराते डंक वाले
तालाबों का रुका-थमा
सड़ता हुआ पानी
रात की काली परछाई-सा
इतनी सारी अनर्गल बातों का
इस रात एक साथ याद आने का
कोई मतलब है भला ......
***
रात हुई
अब रात
बहुत बड़े सिर और
बहुत बड़े आकार वाली रात
उसका जबड़ा भी बड़ा
बड़े दाँत
होंठ लटके हुए उसके
और उनसे भी
टपकता
रक्त
स्वप्न में हुए एक क़त्ल का
घुटे गले से आती हुई
एक चीख़
भोर में निकलती
एक शवयात्रा
नींद से बाहर सुनाई देता एक विलाप
प्रेमगीत-सा !
***
कोई मतलब है भला ......
***
रात हुई
अब रात
बहुत बड़े सिर और
बहुत बड़े आकार वाली रात
उसका जबड़ा भी बड़ा
बड़े दाँत
होंठ लटके हुए उसके
और उनसे भी
टपकता
रक्त
स्वप्न में हुए एक क़त्ल का
घुटे गले से आती हुई
एक चीख़
भोर में निकलती
एक शवयात्रा
नींद से बाहर सुनाई देता एक विलाप
प्रेमगीत-सा !
***
इतना दुःख आपकी ज़िन्दगी में है या फिर "सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है" - बुरा मत मानियेगा पर मैं इन कविताओं से डर गई फिर अचानक महसूस हुआ कि हमारा समय यहाँ अंकित है जो इससे भी डरावना है. मुक्तिबोध की स्मृति भी कौंधती दिखी.
ReplyDeleteआपका शीर्षक कुछ ज्यादा ही निर्णायक लगता है. मैं इन्हें एक कविता की तरह ही पढ़ पा रहा हूँ.एक अन्तर्निहित सूत्र है इन सब में...
ReplyDeleteये खराब लगने और कुछ खराब होने की आशंकाओं की बेहतर कविता है. यहाँ जीवन सिर्फ टिमटिमाता है, रौशनी बहुत दूर से, कई प्रकाशवर्ष दूर से आती लगती है. अँधेरा बहुत गाढा, घना और चारों ओर है.
भय को अतिरंजना से उभारा गया है. मुझे ऐसा लगा, पढ़कर.