Saturday, August 29, 2009

उसका लौटना


मैंने जाना उसका लौटना
वह जो हमारे मुहल्ले की सबसे खूबसूरत लड़की थी
अब लौट आयी है हमेशा के लिए
शादी के तीन साल बाद वापस
हमारे ही मुहल्ले में
उसे कहाँ रखे -समझ नहीं पा रहा है उसका लज्जित परिवार

उसके शरीर पर पिटने के स्थाई निशान हैं
और चेहरे पर
उतना ही स्थाई एक भाव जिसे मैं चाहूँ तो भी नाउम्मीदी नहीं कह सकता

जहाँ लौटी है
वह एक क़स्बा है जिसे अपने ही जैसे अनगिन हिन्दुस्तानी क़स्बों की तरह
शहर बनने की तीव्र इच्छा और हड़बड़ी है
हालांकि मालिक से पिटा ठर्रा पीकर घर लौटता एक मज़दूर भी
औरत के नाम पर
पूरा सामन्त हो जाता है यहाँ

तीन बरस दूसरे उपनाम और कुल-गोत्र में रहने की
असफल कोशिश के बाद
वह लौटी है
दुबारा अपने नाम के भीतर खोजती हुई
अपनी वही पुरानी सुन्दर पहचान

महान हिन्दू परम्पराओं के अनुसार कुल-गोत्र में उसकी वापसी सम्भव नहीं
तब भी उसने अपनाया है
दुबारा वही उपनाम
जिसे वह छोड़ गई थी अपने कुछ गुमनाम चाहने वालों की स्मृतियों में कहीं
आज उसे फिर से पाया है उसने
किसी खोये हुए क़ीमती गहने की तरह

जहाँ
डोली में गई औरत के अर्थी पर ही लौटने का विधान हो
वहाँ वो लौटी है
लम्बे-लम्बे डग भरती
मिट चुकने के बाद भी
उसके उन साहसी पदचिन्हों की गवाह रहेगी
ये धरती

हमारे देश में कितनी औरतें लौटती हैं
इस तरह
जैसे वो लौटी है बिना शर्मिन्दा हुए
नज़रें उठाए ?

वो लौटी है
अपने साल भर के बच्चे को छाती से चिपटाए
अपने बचपन के घर में

पहले भी घूमते थे शोहदे
हमारी गली में
लेकिन उनकी हिम्मत इतनी नहीं बढ़ी थी
तब वो महज इस मुहल्ले की नहीं
किसी परीलोक की लड़की थी

पर अब कोई भी उधेड़ सकता है सीवन
उसके जीवन की
कितने ही लालच से भरकर
राह चलते कंधा मार सकता है उसे
प्रतिरोध की कोई ख़ास चिंता किए
बग़ैर

कुछ उसके मृत पिता
और कुछ उसकी वापसी के शोक में निरूपाय-सी
अकसर ही बिलख उठती है उसकी माँ

पता नहीं क्या हुआ
कि अब मुहल्ले में उसके लिए कोई भाई नहीं रहा
कोई चाचा
कोई ताऊ
या फिर ऐसा ही कोई और रिश्ता

एक पुरुष को छोड़ते ही जैसे
कई-कई
पुरुषों से भर गई उसकी दुनिया

खेलती है अकसर
छोटी बहन के साथ बैडमिंटन अपने घर की खुली हुई
बिना मुंडेर वाली खतरनाक छत पर
तो सोचता हूँ मैं
कि यार आख़िर किस चीज़ से बनी होती है औरत !
आग से ?
या पानी से ?

हो सकता है
वह बनी होती हो आग और पानी के मिलने से
जैसे बनती है भाप
और उसे बहुत जल्दी से अपनी ओर खींच लेते हैं
आकाश के खुले हुए हाथ

मैं सोचता हूँ तो वो मुझे
हाथ में रैकेट सम्भाले आकाश की ओर आती सांझ के
रंगीन बादलों सरीखा अपना आँचल फहराती
उड़ती दीखती है
दरअसल
एक अनोखे आत्मसम्मान से भरा
जीवन का कितना असम्भव पाठ है यह
जिसे मेरी कविता
अपने डूबते हुए शिल्प में
इस तरह
वापस घर लौटी एक लड़की से सीखती है !
****

Friday, August 28, 2009

मुसलमान - देवीप्रसाद मिश्र

कल एक युवतर कवि से देवीप्रसाद मिश्र का ज़िक्र चला तो मुझे ये पोस्ट याद आई। रमज़ान के पवित्र महीने में ये भारतीय आत्मावलोकन एक बार फिर आपके लिए.............


वे मुसलमान थे - मेरे मन में इस कविता की गहरी स्मृति है। 89 के आखिर में जब ये छपी, तब मैं ग्यारहवीं में पढ़ने वाला छोकरा ही था। मैंने इसे छपने के दो बरस बाद अठारह की उम्र में पढ़ा, जब बाबरी मस्जिद विवाद पूरे भारत को झकझोर रहा था। हालांकि मुझे अठारह की उम्र छोकरा ही रहना था पर मैं कविताएं पढ़ने लगा था और रामनगर में हमारे घर गर्मियों के कुछ दिन गुज़ारने आए बाबा नागार्जुन की संगत करता था - आप समझ सकते हैं यह संगत कितनी संक्रामक हो सकती थी। मैं अचानक विचारवान हो चला था या कहें कि विचार की एक आभासी दुनिया में रहने लगा था। समाज का सही-ग़लत मैं जानता था और आइसा की छात्र राजनीति मेरे जीवन में प्रवेश कर चुकी थी। कविता लिखना भी शुरू हो गया था। उन उमस भरे उर्वर दिनों में मुझे वाचस्पति जी (तब काशीपुरनिवासी) के घर में आलोचना के पुराने अंक खंगालते ये कविता मिली।


ग़ौरतलब है कि इस कविता ने मेरे उस काव्य संस्कार पर हमला किया, जो केदारनाथ सिंह की कविता के बेहद प्रभावी किशोर सम्मोहन के चलते मेरे भीतर घर बनाने लगा था। इस कविता में बेहद ठोस प्रतीक थे, केदार जी की तरह के झीने-झीने बिम्ब नहीं। विचार के स्तर मुझे पहली बार लगा कि पांवों के नीचे ज़मीन और सर के ऊपर आसमान होना क्या होता है! बाद के वर्षों में पढ़ाई और रोज़गार की खोज सम्बन्धी व्यस्तताएं बढ़ीं और जीवन की दूसरी कई उलझन भरी राहें खुलने लगीं। मेरे रहने के स्थानों में लगातार परिवर्तन हुए इस दौरान दूसरी कई चीज़ों के साथ-साथ ये कविता मुझसे खो गई। पिछले कुछ समय में छपी देवी भाई की लम्बी कविताओं ने दुबारा मुझे इस कविता की याद दिलाई और बहुत खोजने पर एक बार फिर वाचस्पति जी (अब स्थायी रूप से काशीनिवासी) का निजी पुस्तकालय ही मेरे काम आया। उन्होंने मेरे अनुरोध पर अत्यन्त प्रीतिपूर्वक आलोचना के उन्नीस बरस पुराने उस अंक को खोजा और यह कविता मुझ तक पहुंचाई। मेरा उन पर अधिकार है, इसलिए उनके लिए आभारनुमा कुछ नहीं लिखूंगा।


मैं कविता पर भी सीधे कोई टिप्पणी नहीं करूंगा और थोड़ा विषयान्तर करते हुए बताना चाहूंगा कि मैंने डी0फिल0 के लिए कथाकार शानी पर शोधकार्य 1997 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रो0 सत्यप्रकाश मिश्र के निर्देशन में शुरू किया और अपनी काहिली के चलते 2006 में उसे नैनीताल में निबटाया। सम्बन्धित बात यह है कि इस शोध के दौरान देवी भाई अचानक एक बार फिर मेरी ज़िन्दगी में चले आए। सभी काग़ज़ात अब मेरे पास सुरक्षित नहीं है पर जहां तक मुझे याद है शानी ने समकालीन भारतीय साहित्य के एक अंक में नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और खुद के बीच हुई एक परिचर्चा लगातार दो अंकों में छापी, जिसमें हमारे समाज और साहित्य से सम्बंधित कई तल्ख सवाल हावी थे। मुझे हैरानी हुई जब मैंने देखा कि नामवर सिंह से बहस करते हुए वे अचानक देवीप्रसाद मिश्र की उसी समय आयी इस कविता की घोर निन्दा करने लगे। बाद की बातचीत में तो लगा कि वे इस कविता की धज्जियां उड़ा देने पर उतारू हैं। मेरे लिए हैरानी यह थी कि शानी ने खुद उसी विचार और भावभूमि पर अपनी युद्ध सरीखी कहानियां लिखी हैं। उनकी इस कविता से असहमति मेरी समझ में कतई नहीं आयी, हो सकता है इसके पीछे उनके यानी सम्पादक समकालीन भारतीय साहित्य और नामवर सिंह यानी सम्पादक आलोचना के बीच की कोई कटुता रही हो, जिसका शिकार इस कविता और कवि को बनना पड़ा, लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं हुई - शानी ने इस कविता के खिलाफ़ नवभारत टाइम्स के अपने स्तम्भ में भी लिखा, जो नेशनल पब्लिशिंग हाउस से आयी उनकी एक किताब में संकलित भी है। उन्होंने इस कविता को भारतीय मुसलमानों की गरिमा और अस्तित्व पर हमला बताया और जैसा कि मैंने पहले भी कहा - मुझे तो इस असहमति का कोई तर्कसंगत कारण कभी नहीं मिला।


फिलहाल इस साहित्यिक उठापटक से बाहर आते हुए मैं आप सबसे कहूंगा कि कई रूपों में सामने आ रहे हमारे आज के भयावह साम्प्रदायिक अंधरे में यही समय है - आप कृपया इस कविता को ध्यान से पढ़िए और अपनी राय भी जाहिर कीजिए !


***


कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे

ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे

वे मुसलमान थे

उन्होंने अपने घोड़े सिंधु में उतारे
और पुकारते रहे हिंदू ! हिंदू!! हिंदू!!!

बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
नदी का नाम दिया

वे हर गहरी और अविरल नदी को
पार करना चाहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
हिंदुओं की तरह पैदा होते थे

उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियां थीं
चलने की
ठहरने की
पिटने की
और मृत्यु की

प्रतिपक्षी के खून में घुटनों तक
और अपने खून में कंधों तक
वे डूबे होते थे
उनकी मुटि्ठयों में घोड़ों की लगामें
और म्यानों में सभ्यता के
नक्शे होते थे

न! मृत्यु के लिए नहीं
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे

वे मुसलमान थे

वे फ़ारस से आए
तूरान से आए
समरकंद, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
तुर्किस्तान से आए

वे बहुत दूर से आए
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे कि या खुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू

वे महत्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियां थीं

वे घोड़ों के साथ सोते थे
और चट्टानों पर वीर्य बिखेर देते थे
निर्माण के लिए वे बेचैन थे

वे मुसलमान थे

यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए

कि वे प्राय: इस तरह होते थे
कि प्राय: पता ही नहीं लगता था
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे

वे मुसलमान थे

वे न होते तो लखनऊ न होता
आधा इलाहाबाद न होता
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
आदाब न होता

मीर मक़दूम मोमिन न होते
शबाना न होती

वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला खुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के ग़ुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता

मुसलमान न होते तो अठारह सौ सत्तावन न होता

वे थे तो चचा हसन थे
वे थे तो पंतगों से रंगीन होते आसमान थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे

वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
वे सोचते थे और सोचकर डरते थे

इमरान खान को देखकर वे खुश होते थे
वे खुश होते थे और खुश होकर डरते थे

वे जितना पीएसी के सिपाही से डरते थे
उतना ही राम से
वे मुरादाबाद से डरते थे
वे मेरठ से डरते थे
वे भागलपुर से डरते थे
वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे

वे पवित्र रंगों से डरते थे
वे अपने मुसलमान होने से डरते थे

वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे लेकिन वे अपने घर को लेकर घर में
देश को लेकर देश में
खुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे

वे उखड़ा-उखड़ा राग देश थे
वे मुसलमान थे

वे कपड़े बुनते थे
वे कपड़े सिलते थे
वे ताले बनाते थे
वे बक्से बनाते थे
उनके श्रम की आवाज़ें
पूरे शहर में गूंजती रहती थीं

वे शहर के बाहर रहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
वे मुसलमान थे अरब का पेट्रोल उनका नहीं था
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
देश के ज्यादातर अखबार यह कहते थे
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
कर्फ़्यूलगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
खबरें आती थीं

उनकी औरतें
बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे

वे अगर पांच बार नमाज़ पढ़ते थे
तो उससे कई गुना ज्यादा बार
सिर पटकते थे
वे मुसलमान थे

वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
हम क्या करें इस मिस्जद का जिसका नाम
कुव्वत-उल-इस्लाम है
इस्लाम की ताक़त है

अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
वे मुसलमान थे

वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएं
लेकिन नहीं जा सकते थे
वे सोचते थे यहीं रह जाएं
तो नहीं रह सकते थे
वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे

वे मुसलमान थे इसलिए
तूफान में फंसे जहाज के मुसािफ़रों की तरह
एक दूसरे को भींचे रहते थे

कुछ लोग यह बहस चलाए थे कि
उन्हें फेंका जाए तो
किस समुद्र में फेंका जाए
बहस यह थी
कि उन्हें धकेला जाए
तो किस पहाड़ से धकेला जाए

वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियां नहीं थे
वे मुसलमान थे वे चूज़े नहीं थे

सावधान!
सिंधु के दक्षिण में
सैकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
मिट्टी के ढेले नहीं थे

वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
वे सिंधु और हिंदुकुश की तरह सच थे
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
उस तरह वे सच थे
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे

वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
***

Tuesday, August 25, 2009

हाय सरदार पटेल!

भगवा पार्टी के जसवंत सिंह प्रकरण को लेकर पिछले कई दिनों से खासा हो-हल्ला मचा हुआ है. समझ नहीं आ रहा है कि पटेल भगवा गिरोह के `हीरो` हैं या सत्ताधारी गिरोह के. न जाने क्यूँ मुझे मनमोहन की यह कविता याद आ रही है -


हाय सरदार पटेल!
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सरदार पटेल होते तो ये सब न होता
कश्मीर की समस्या का तो सवाल ही नहीं था
ये आतंकवाद वातंकवाद कुछ न होता
अब तक मिसाइल दाग चुके होते
साले सब के सब हरामज़ादे एक ही वार में ध्वस्त हो जाते

सरदार पटेल होते तो हमारे ही देश में
हमारा इस तरह अपमान होता

ये साले हुसैन वुसैन
और ये सूडो सेकुलरिस्ट
और ये कम्युनिस्ट वमुनिस्ट
इतनी हाय तौबा मचाते!

हर कोई ऐरे गैरे साले नत्थू खैरे
हमारे सर पर चढ़कर नाचते!
आबादी इस कदर बढ़ती!
मुट्ठी भर पढ़ी लिखी शहरी औरतें
इस तरह बक-बक करतीं!

सच कहें, सरदार पटेल होते
तो हम दस बरस पहले प्रोफ़सर बन चुके होते!
****

Saturday, August 22, 2009

आठ हज़ार प्रतिमाह पाने वाला एक आदमी किराने की दुकान पर उधारखाते में सामान लिखा रहा है

ये अनुनाद की तीन सौवीं पोस्ट है और मुझे समझ में नहीं आ रहा कि क्या लगाऊं? सौवीं और दो सौवीं पोस्ट की तरह संगीत अपलोड करने का समय नहीं है इस बार मेरे पास, इसलिए ये सूखी सूखी कविता ही...........
आठ हज़ार प्रतिमाह पाने वाला एक आदमी किराने की दुकान पर उधारखाते में सामान लिखा रहा है

इस इतने लम्बे वाक्य का मुझे नहीं मालूम मैं क्या करूंगा

पता नहीं किस तरह इसे इतना छोटा करूं
कि यह शीर्षक लगे किसी कविता का
जबकि मेरे समय में आदमी के दुख और तकलीफ़ें अछोर है और एक जीवन ही है
जो उतना लम्बा नहीं
तब क्यों मैं अपने लिखे एक वाक्य को इतना छोटा करूं?

मैं भाषा से खेलना नहीं चाहता
सिर्फ उसे बरतना चाहता हूँ

जो आदमी सामान लिखा रहा है
मैं जानता हूँ कि उसके जीवन में पांच बरस पहले किसी दुर्घटना की तरह घटा प्रेम
वह परेशान हुआ
भाग जाना चाहा उसने
अपनी प्रेयसी से विवाह कर लेने से पहले वह
सिर्फ़ उसे ही प्यार करने के उसके झूट और रस्म अदायगी पर रोया
फूट-फूटकर
आज वह किराने की दुकान पर उधार की उम्मीद में खड़ा एक आदमी है
टूटी टहनियों वाले पत्रहीन पेड़ जैसा आदमी जो हवा चलने पर
समूचा ही चरर-मरर हिलता है

मुझे पता लगा वह पिता है तीन बरस की बेटी का
और उसकी अपनी भी कुछ ज़रूरतें हैं

वह महीने में एक दिन शराब पीना चाहता है माँस खाना चाहता है
एक मोटरसाइकिल भी लेना चाहता है ताकि काम पर जाते हुए टेढ़े-मेढ़े पहाड़ी रास्तों पर
बस में धक्के न खाने पड़ें
अपनी असफल प्रेयसी पत्नी को भी वह प्रेम करता है और उसके लिए उपहार में सोने का कोई ज़ेवर लाना चाहता है
अपनी नन्हीं बेटी को बड़े स्कूल में पढ़ाना और परी बनाना चाहता है
इस तरह वह हमारे समय के बाज़ार में जाना चाहता है
आठ हज़ार प्रतिमाह में महज कुछ ही दुकानें हैं जो उसे अपने आगे खड़ा होने देती हैं
और ऐसी दुकानें बाज़ार में नहीं मुहल्ले की तंग गलियों में हैं
उन्हीं में से एक के आगे वह खड़ा है और सामान लिखा रहा है

अपने सामने पड़े कोरे पन्ने पर अब मैं भले कविता न लिख पाऊँ
पर यह एक वाक्य ज़रूर लिखूंगा कि आठ हज़ार प्रतिमाह पानेवाला एक आदमी किराने की दुकान पर
उधारखाते में सामान लिखा रहा है !

2009 के इस मध्यकाल में चाहें तो आप देश के प्रधानमंत्री से पूछ सकते हैं
पर मेरा निवेदन है कि इस तरह की शुष्क भाषा के लिए मुझसे कुछ न पूछें !

कभी कविता का निष्फल या असफल हो जाना भी जीवन में मनुष्यता का आभास देता है।
*****

Monday, August 17, 2009

लेकिन यानी इसलिए - व्योमेश शुक्ल की एक कविता


दहलीज़-७ के 'फॉलो-थ्रू' में व्योमेश शुक्ल की कविता का ज़िक्र हुआ था. यह पोस्ट उसी 'फॉलो-थ्रू' का 'फॉलो-थ्रू' है.


लेकिन यानी इसलिए

(क्योंकि यह एक पुराने शहर में हो रहा है या सभी शहरों में, लेकिन हो रहा है)
या
(क्योंकि यह सभी शहरों में हो रहा है इसलिए इस शहर में भी हो रहा है यानी हो रहा है)

बाएँ से चलने के नियम से ऊबे लोग दाहिने चलने की मुक्ति चाहते हैं बाएँ से काफ़ी शिकायत है सबको इस पुराने नियम से होकर वहाँ नहीं पहुँचा जा सकता जहाँ पहुँचना अब ज़रूरी है लोग लगातार एक दूसरे के दाहिने जाते हुए आगे निकलते जा रहे हैं और इस तरह लगातार और दाहिने जा रहे हैं इस तरह सामने से आने वालों के लिए भी अपने बाएँ से आना नामुमकिन होता जा रहा है इस दृश्य को देखकर आसानी से यह राय बनायी जा सकती है कि इस देश में दाएँ से चलने का नियम है. हो सकता है कि बाएँ चलने का नियम कब का ख़तम कर दिया हो और कुछ लोग अपने ग़लतफ़हमी अकेलेपन और बदगुमानी में यह मानकर चल रहे हों कि बहुसंख्यक जनता आत्मघाती ग़लती करती हुई दाएँ चलती जा रही है ऐसे विचित्र ऊहापोह भरे माहौल का लाभ उठाने के मक़सद से ही शायद एकल दिशा मार्ग बनवा दिये गए हैं जिन पर चलते हुए कोई इस गफ़लत में भी रास्ता तय कर सकता है कि वह अपने बाएँ से चल रहा है जबकि वह बिल्कुल दाहिने से चल रहा है और ग़ौर करें तो पाएंगे कि ट्रैफिक पुलिस भी आपको दाहिने भेजने के इशारे करती रहती है और जिन चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस नहीं है वहाँ वह दाहिने चलने की स्वच्छंदता उपलब्ध कराने के लिए नहीं है.

शायद एक सर्वग्रासी दाहिनापन आदतों लक्ष्यों पर्यावरणों अमीरों ग़रीबों में रोग बनकर फैला हुआ है जिसकी वजह से मेरी पृथ्वी साढे तेईस डिग्री दाहिने झुक गई है और सड़क पर रिक्शा खींच रहा बिहार टैक्सी चला रहा उत्तर प्रदेश और मुम्बई - जो जितना धूप हो उतना चमचमाने वाली कार है - सब, दाहिने की ढलान पर लुढ़कते जा रहे हैं नदियों का जल दाहिने बहता हुआ बाढ़ ला रहा है और बाएँ अकाल पड़ा हुआ है सबसे कमज़ोर आदमी को लगता है सबसे दाहिने ही शरण है ट्रैफिक जाम की मुश्किल पर ठण्डे शरीर ठण्डे दिमाग से विचार करने वाले दाहिनेपन की विकरालता और फैलाव को समझ नहीं पा रहे हैं कन्नी काटकर निकल जाने वाली धोखेबाज़ अवधारणा भी मुख्यधारा हो चुके दाहिनेपन से कतराने की कोशिश में उसी की गोद में गिर जा रही है.

Saturday, August 15, 2009

आज़ादी मुबारक़ हो !

पिछले साल लिखी और अभी लमही में छपी ये कविता आज के दिन आप सबके लिए


कहा प्रधानमंत्री ने एक अबूझ हिंदी और अत्यन्त कोमल स्वर में लाल क़िले के प्राचीर से -
आज़ादी मुबारक़ हो !

प्रधानमंत्री ने कहा सारे देश से और सब जगह दर्ज़ हो गया उनका यह कहना

मैं भी कहना चाहता था अपने हिस्से के भारत में - आज़ादी मुबारक़ हो
पर समझ नहीं पा रहा था कहूँ किससे

आज़ादी मुबारक़ हो कहा मैंने
सड़कों पर पाँवों तले रौंदे जा रहे प्लास्टिक के झंडों से
और
कहा नगर के मुख्य चौराहे पर झंडा फहरा कर लौट रहे एक अभूतपूर्व जनप्रतिनिधि से
जिनकी कल पेशी थी
खून और बलात्कार के मुक़दमे में

कहा खुश्क होंठ अंग्रेज़ी स्कूल से लौट रहे बच्चों के एक झुंड से
जिन्हें उनके प्रिंसिपल द्वारा दिए गए भाषण में समझाया गया था
कि पाकिस्तान को मार भगाना ही
दरअसल
भारतमाता की जय है!

आज़ादी मुबारक़ हो कहा मैंने घर में फ़ालतू पड़े सामान से
उसे पिछवाड़े फेंकते हुए

कहा सुबह से काम में खटी पत्नी से
थोड़ा झेंपते हुए

रोज़ की तरह कबाड़ तलाश रहे
कबाड़ियों से कहा मैंने बताते हुए उन्हें अपने घर के पीछे का रस्ता

कुछ भिखारियों से कहा मैंने उनके कटोरे में सिक्के डालते हुए
कहा एक पागल से उसकी पीठ झाड़ते हुए

कहा अपने नीचे धरती और ऊपर के आकाश से

शाम होते-होते
आज़ादी मुबारक़ हो - खुद से भी कहा मैंने और उस रात सो नहीं पाया !

प्रधानमंत्री सोए कि नहीं?
...कोई पूछे अब उनसे !
***

Wednesday, August 12, 2009

दहलीज़-७ / रघुवीर सहाय की कविता- "कला क्या है"

चयन तथा प्रस्तुति : पंकज चतुर्वेदी

तस्वीर यहाँ से साभार


'कला क्या है'

कितना दुःख वह शरीर जज़्ब कर सकता है ?
वह शरीर जिसके भीतर ख़ुद शरीर की टूटन हो
मन की कितनी कचोट कुण्ठा के अर्थ समझ
उनके द्वारा अमीर होता जा सकता है ?

अनुभव से समृद्ध होने की बात तुम मत करो
वह तो सिर्फ़ अद्वितीय जन ही हो सकते हैं
अद्वितीय यानी जो मस्ती में रहते हैं चार पहर
केवल कभी चौंककर
अपने कुएँ में से झाँक लिया करते हैं
वह कुआँ जिसको हम लोग बुर्ज़ कहते हैं

अद्वितीय हर व्यक्ति जन्म से होता है
किन्तु जन्म के पीछे जीवन में जाने कितनों से यह
अद्वितीय होने का अधिकार
छीन लिया जाता है
और अद्वितीय फिर वे ही कहलाते हैं
जो जन के जीवन से अनजाने रहने में ही
रक्षित रहते हैं

अद्वितीय हर एक है मनुष्य
औ' उसका अधिकार अद्वितीय होने का
छीनकर जो ख़ुद को अद्वितीय कहते हैं
उनकी रचनाएँ हों या उनके हों विचार
पीड़ा के एक रसभीने अवलेह में लपेटकर
परसे जाते हैं तो उसे कला कहते हैं !

कला और क्या है सिवाय इस देह मन आत्मा के
बाक़ी समाज है
जिसको हम जानकर समझकर
बताते हैं औरों को , वे हमें बताते हैं

वे , जो प्रत्येक दिन चक्की में पिसने से करते हैं शुरू
और सोने को जाते हैं
क्योंकि यह व्यवस्था उन्हें मार डालना नहीं चाहती

वे जिन तकलीफ़ों को जानकर
उनका वर्णन नहीं करते हैं
वही है कला उनकी
कम-से-कम कला है वह
और दूसरी जो है बहुत-सी कला है वह

कला बदल सकती है क्या समाज ?
नहीं , जहाँ बहुत कला होगी , परिवर्तन नहीं होगा .
****
विशेष : 'बहुत कला ' या कलावाद की अवधारणा और उसके नेपथ्य में मौजूद विचारधारा को शायद ही हमारे वक्त के किसी और कवि ने इतने गहरे और अकाट्य आत्मविश्वास , इतने तार्किक और मर्मस्पर्शी ढंग से ख़ारिज किया हो . 'अद्वितीय ' होने का कुछ लोगों का आग्रह किस तरह 'चार पहर मस्ती में डूबे रहने ' की उनकी समुन्नत जीवन-स्थितियों से जनमता है और "जन के जीवन से अनजाने रहने में ही जो रक्षित " हैं ; ऐसे लोगों की रचनाओं और विचारों का "पीड़ा के एक रसभीने अवलेह में लपेटकर " प्रस्तुत किया जाना ही वह "कला" है , जिसका वे बराबर आत्ममुग्ध दावा और यशगान किया करते हैं . रघुवीर सहाय ने यहाँ बहुत अविस्मर्णीय और उत्कृष्ट संज्ञा प्रदान की है कि यह "बहुत कला " है और इसका आम जन-समाज की जीवन-स्थितियों से कोई लेना- देना नहीं है . स्वाभाविक है कि समाज -परिवर्तन इसके एजेंडे पर ही नहीं है , न यह उसकी प्रेरणा -भूमि है . इसलिए "जहाँ बहुत कला होगी , परिवर्तन नहीं होगा "-----हमारे समय में लिखी गयी महान काव्य - पंक्तियाँ हैं , जो दरअसल यह भी बताती हैं कि कई बार सच के इज़हार के लिए ऐसी ही 'categorical' या बेधक भाषा दरकार होती है . 'दहलीज़ ' के चाहने वालों के लिए , अगर वे हों , इस बार रघुवीर सहाय की यही महान रचना .

Sunday, August 9, 2009

एक स्यापा करती हुई जगह - जॉन बर्जर

आज महमूद दरवेश की पहली बरसी पर उन्हें याद करते हुए प्रस्तुत है प्रसिद्ध ब्रिटिश कला समीक्षक-लेखक जॉन बर्जर का यह आलेख. मूल अंग्रेज़ी आलेख अमेरिकी साहित्यिक पत्रिका 'दि थ्रीपेनी रिव्यू' के ग्रीष्म अंक में प्रकाशित हुआ था.











एक स्यापा करती हुई जगह

जिसे अभी-अभी तक भावी फिलिस्तीनी राज्य समझा जाता था वहाँ अब दुनिया की सबसे बड़ी जेल (गाज़ा) है और दुनिया का सबसे बड़ा मुसाफ़िरखाना (पश्चिमी तट) है. वहाँ से लौटने के कुछ दिनों बाद मैंने एक ख़्वाब देखा.
पथरीले रेगिस्तान में कमर तक उघाड़े बदन, मैं अकेला खड़ा था. आखिर किन्हीं दूसरे हाथों ने धूल-मिट्टी उठाकर मेरे सीने पर उछाल दी. यह आक्रामक नहीं बल्कि मुरव्वत भरा काम था. मुझे छूने से पहले ही मिट्टी या कंकड़ उन चीथड़ों में बदल गए जो शायद सूती थे. और वे चीथड़े मेरे बदन के इर्द-गिर्द लिपट गए. उसके बाद ये चीथड़े एक बार फिर बदले और शब्द, वाक्य बन गए. ऐसे शब्द और वाक्य जो मेरे द्वारा नहीं बल्कि जगह द्वारा लिखे गए थे.
उस ख़्वाब को याद करते हुए ईजाद किया हुआ शब्द 'थलबुहारा' मेरे ज़हन में आया. बार बार. थलबुहारा उस जगह या उन जगहों को कहा जाता है जहाँ सब कुछ, भौतिक और अभौतिक दोनों, झाड़ दिया गया हो, हड़प लिया गया हो, मिटा दिया गया हो, निचोड़ लिया गया हो, उड़ा दिया गया हो. स्पृश्य धरती के सिवाय सब कुछ.
रामल्ला के पश्चिम की ओर के बाहरी इलाके में अल रब्वे नाम की एक छोटी सी पहाड़ी है; यह पहाड़ी टोकियो स्ट्रीट के मुहाने पर स्थित है. पहाड़ी के ऊपरी हिस्से में कवि महमूद दरवेश दफ़न हैं. यह कोई कब्रस्तान नहीं है.
सड़क शहर के कल्चरल सेण्टर की ओर जाती है जो पहाड़ी की तलहटी में बना है. सड़क का नाम टोकियो पर रखा गया है क्योंकि यह सेण्टर जापान की वित्तीय मदद से बना है.
इसी सेण्टर में दरवेश ने आखिरी बार अपनी कवितायें पढ़ी थीं. यद्यपि उस समय किसी ने कल्पना नहीं की थी कि यह आखिरी मौका होगा. वीरानी के लम्हों में 'आखिरी' लफ्ज़ के क्या मानी होते हैं?
हम लोग कब्र पर गए. वहाँ एक शिलालेख लगा है. खोदी गयी ज़मीन अभी तक उघाड़ी है, स्यापा करने वालों ने कब्र पर कच्चे गेहूं की कुछ छोटी बालियाँ छोड़ी हुई हैं- जैसा उन्होंने अपनी किसी कविता में कहा था. वहां कुछ लाल फूल, कागज़ के टुकड़े और तस्वीरें भी हैं.
वे गलीली में दफनाया जाना चाहते थे, जहाँ वे पैदा हुए थे और उनकी माँ अब भी वहीं रहती हैं. लेकिन इस्राइलियों ने रोक लगा दी.
जनाज़े में अल रब्वे पर लाखों लोग जमा हुए थे. छियानबे वर्षीय उनकी माँ ने उन लोगों को संबोधित किया. "वह आप सभी का बेटा था", वे बोलीं.
अभी-अभी मरे या मारे गए प्रियजनों के बारे में बोलते वक़्त हम वाकई किस रंगमहल में बोल रहे होते हैं? हमारे शब्द हमें ऐसे मौजूदा लम्हे में गूंजते हुए से लगते हैं जो उस लम्हे से भी नया है जिसमें हम आम तौर पर जीते हैं. प्रणय के, आसन्न संकट के, बदले न जा सकने वाले फैसले के, टैंगो नृत्य के लम्हों की मानिंद. ऐसा नहीं है कि विलाप के हमारे शब्द अनश्वरता के रंगमहल में गूंजते हैं, मगर संभव है कि वे उस रंगमहल की छोटी सी दीर्घा में हों.
अब परित्यक्त उस पहाड़ी पर मैंने दरवेश की आवाज़ को याद करने की कोशिश की. वे मधुपालक सी पुरसुकून आवाज़ के मालिक थे.

पत्थर का बक्सा जिसमें
लोटपोट होते हैं सूखी मिट्टी में जीवित और मृत
छत्ते में क़ैद मधुमक्खियों की तरह
और हर बार जब कसता है घेरा
मधुमक्खियाँ चली जाती हैं फूलों के अनशन पर
और समंदर से आपात द्वार की दिशा बताने को कहती हैं

उनकी आवाज़ को याद करते हुए मुझे उस स्पृश्य भूमि पर, उस हरी घास पर बैठने की ज़रूरत महसूस हुई. मैं बैठ गया.
अरबी में अल रब्वे का मतलब होता है 'हरी घास वाली पहाड़ी'. उनकी आवाज़ वहीं लौट आई है जहाँ से निकली थी. और कुछ भी नहीं. चालीस लाख लोगों का साझा 'कुछ नहीं'.
दूसरी पहाड़ी, जो पांच सौ मीटर दूर होगी, एक घूरा है. ऊपर कौए चक्कर काट रहे हैं. कुछ बच्चे कूड़ा बीन रहे हैं.
उनकी ताजा खुदी कब्र के किनारे जब मैं घास पर बैठा तो कुछ अप्रत्याशित सा हुआ. उसका वर्णन करने के लिए मुझे दूसरा वाकया बयान करना पड़ेगा.
यह कुछ दिनों पहले की बात है. हम फ्रेंच आल्प्स के स्थानीय कस्बे क्लूज़ेस की राह पर थे, मेरा बेटा ईव गाड़ी चला रहा था. कुछ समय से बर्फ़ पड़ रही थी. पहाडियां, खेत और पेड़ सफ़ेद हो चुके थे. पहली बर्फ़बारी की सफेदी से अक्सर पंछियों का दिशा और दूरी का बोध गड़बड़ हो जाता है और वे भ्रमित होने लगते हैं.
एकाएक एक पंछी विंडस्क्रीन से टकराया. ईव ने गाड़ी के शीशे में उस पंछी को सड़क पर गिरते हुए देखा. उसने ब्रेक लगाकर गाड़ी पीछे ली. वह एक छोटा रॉबिन पंछी था. वह सुन्न था मगर जीवित; आँखें झपक रहा था. मैंने उसे बर्फ से उठाया. मेरे हाथों में वह गर्म था, बहुत गर्म- पंछियों के रक्त का तापमान हम मनुष्यों से ज्यादा होता है- हम आगे बढ़े.
मैं बीच बीच में उसे जांच लेता. आधे घंटे के अन्दर वह निष्प्राण हो गया. गाड़ी की पीछे की सीट पर रखने के लिए मैंने उसे उठाया. जिस बात से मुझे अचम्भा हुआ वह था उसका भार. जब मैंने उसे बर्फ से उठाया था तब के मुकाबले अब उसका भार कम था. मानो जीवित रहने पर उसकी ऊर्जा, जिजीविषा उसके वज़न में शामिल थी. अब वह लगभग भारहीन था.
अल रब्वे पहाड़ी की घास पर बैठने के बाद कुछ ऐसा ही हुआ. महमूद की मौत ने अपना वज़न खो दिया था. अब जो बचा था वह उनके शब्द थे.
महीने बीत गए हैं; हर एक महीना अनिष्ट आशंकाओं और खामोशी से भरा हुआ बीता. और अब इस डेल्टा में आपदाएं एक साथ आ रही हैं. इस डेल्टा का कोई नाम नहीं है, नाम तो भूगोलवेत्ताओं द्वारा ही दिया जाएगा जो बाद में आयेंगे, बहुत बाद में. आज करने के लिए कुछ नहीं है सिवाय इसके कि इस अनाम डेल्टा के कड़वे पानियों पर चलने की कोशिश की जाए.
दुनिया की सबसे बड़ी जेल गाज़ा को बूचड़खाने में बदला जा रहा है. 'पट्टी' शब्द (गाज़ा पट्टी से) को खून से भिगोया जा रहा है, उसी तरह जैसे पैंसठ सालों पहले जैसा 'घेटो' शब्द के साथ किया गया था.
पंद्रह लाख की नागरी आबादी के खिलाफ इस्राइली सुरक्षा बलों द्वारा रात दिन बम, हथगोले, जीबीयू39 रेडियोधर्मी हथियार, और मशीनगनों से गोलियां बरसाई जा रही हैं. इस्राइल ने अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों को पट्टी में प्रवेश करने से रोक रखा है. उन पत्रकारों की हर रिपोर्ट में मृतकों और घायलों की अनुमानित संख्या बढ़ती जाती है. फिर भी सबसे महत्त्वपूर्ण आँकड़ा यह है कि हर एक इस्राइली मौत के मुकाबले सौ फिलिस्तीनी मौतें हैं. एक इस्राइली ज़िन्दगी सौ फिलिस्तीनी जिंदगियों के बराबर है. इस धारणा के आशय इस्राइली प्रवक्ताओं द्वारा बार बार दुहराए जाते हैं जिस से कि वे आशय स्वीकृत और आम हो जाएँ. इस नरसंहार के तुंरत बाद महामारी आएगी, रहने के ज़्यादातर ठिकानों में न बिजली है न पानी. अस्पतालों में डाक्टरों, दवाइयों, जनरेटरों का अभाव है. नरसंहार के बाद नाकेबंदियाँ और घेरेबंदियाँ होती हैं.
दुनिया भर में विरोध की आवाजें बढ़ती जाती हैं. मगर अमीरों की सरकारें अपने वैश्विक मीडिया और आण्विक हथियारों के जखीरे की मगरूरियत के साथ, इस्राइल को भरोसा दिलाती हैं कि उसके सुरक्षा बलों की करतूतों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा.
"एक स्यापा करती हुई जगह हमारी नींद में दाखिल होती है," कुर्द कवि बेजन मतुर ने लिखा था, " एक स्यापा करती हुई जगह हमारी नींद में दाखिल होती है और कभी रुखसत नहीं होती."
थलबुहारी ज़मीन के अलावा कुछ नहीं.
कुछ महीनों पहले की बात है. रामल्ला में एक परित्यक्त अंडरग्राउंड पार्किंग की जगह में मैं वापिस आया हूँ. इस जगह पर अब फिलिस्तीनी कलाकारों के छोटे से ग्रुप ने कब्ज़ा जमाकर इसे अपना कार्य-स्थल बना लिया है. उसी ग्रुप में एक नक्काश युवती है जिसका नाम है रान्दा मदा. उसी के द्वारा कल्पित और तैयार किये गए एक इंस्टालेशन को मैं देख रहा हूँ जिसका शीर्षक है पपेट थिएटर.
इस इंस्टालेशन में दीवार की तरह सीधे खड़ा तीन मीटर गुना दो मीटर आकार का एक बा-रिलीफ़# है. उसके सामने फर्श पर पूर्णतः तराशी गई तीन आकृतियाँ हैं.
कन्धों, चेहरों और हाथों का बा-रिलीफ़ तारों, पॉलीएस्टर , फाइबर-ग्लास और मिटटी के आर्मेचर पर बनाया गया है. उसका बाहरी हिस्सा रंग दिया गया है: गहरे हरे, कत्थई, लाल रंगों से. इस रिलीफ़ की गहराई लगभग उतनी ही है जितनी नवजागरण दौर के इतालवी कलाकार लोरेंजो गिबेर्ती द्वारा फ्लोरेंस, इटली के गिरजे के लिए बनाये गए कांस्य द्वारों की. अन्य विजुअल इफेक्ट्स जैसे आकृतियों को उनकी वास्तविक ऊँचाई से कम दर्शाना और दृश्य की ऐंठन लगभग वैसी ही दक्षता के साथ प्रयोग में लाये गए हैं (मैं कभी अंदाज़ा नहीं लगा पाता कि कलाकार इतनी कम उम्र का है. उस लड़की की उम्र सिर्फ उन्तीस साल है). मंच से देखे जाने पर थिएटर के दर्शक जिस बाड़ की तरह प्रतीत होते हैं, बा-रिलीफ़ की दीवार उसी बाड़ की तरह है.
मंच की फर्श पर सामने की ओर आदमकद आकृतियाँ हैं, दो स्त्रियों की और एक पुरुष की. ये आकृतियाँ भी उसी मटेरिअल से बनाई गयीं हैं, सिर्फ थोड़े धुंधले रंगों में.
एक आकृति इतने अंतर पर है कि दर्शक उसे छू सकें, दूसरी दो मीटर दूर और तीसरी इस से लगभग दुगुने अंतर पर. उन्होंने रोज़मर्रा के कपड़े पहन रखे हैं, जैसे आज सुबह जो उन्होंने पहनने के लिए उठा लिए हों.
तीन डंडियाँ छत से आड़े लटक रही हैं, इन डंडियों से लटकती डोरियों से उन आकृतियों के शरीर जुड़े हैं. वे कठपुतलियाँ हैं; वे डंडियाँ अनुपस्थित और अदृश्य कलाकारों द्वारा उन्हें नियंत्रित किये जाने के लिए हैं.
बा-रिलीफ़ की अनेकों आकृतियाँ वह देख रही हैं जो उनकी आँखों के सामने है और अपने हाथ मरोड़ रही हैं. उनके हाथ मुर्गियों के झुंड की तरह हैं. वे बेबस हैं. वे अपने हाथ मरोड़ रही हैं क्योंकि वे दखल नहीं दे सकतीं. वे बा-रिलीफ़ हैं, त्रिआयामी नहीं, इसलिए ठोस वास्तविक दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकतीं, दखल नहीं दे सकतीं. वे मौन का प्रतिनिधित्व करती हैं.
अदृश्य कलाकारों की डोरियों से जुड़ीं तीन ठोस, धड़कती आकृतियाँ ज़मीन पर गिराई जा रही हैं. पहले सर गिरते हैं, अब पैर हवा में हैं. वे गिराई जा रही हैं बार बार- जब तक उनके सर फट न जाएँ. उनके हाथ, धड़, चेहरे वेदना से ऐंठे हुए हैं. ऐसी वेदना जो कभी ख़त्म नहीं होती. उस वेदना की ऐंठन आप उनके पैरों में देखते हैं. बार बार.
बा-रिलीफ़ के दुर्बल दर्शकों और ज़मीन पर पसरे हुए आहतों के बीच मैं चल सकता हूँ. पर मैं ऐसा नहीं करता. इस कलाकृति में वह सामर्थ्य है जो मैंने किसी और में नहीं देखा. इस कलाकृति ने उस ज़मीन को जीत लिया है जिस पर वह खड़ी है. भौंचक दर्शकों और तड़पते आहतों के बीच के ख़ूनी मैदान को उसने पाक बना दिया है. उसने इस पार्किंग के फर्श को कुछ कुछ थलबुहारे जैसा बना दिया है.
इस कलाकृति ने जैसे गाज़ा का भविष्य बता दिया था.
फिलिस्तीनी प्राधिकरण के फैसलों के बाद अल रब्वे पहाड़ी पर स्थित महमूद दरवेश की कब्र के चारों ओर अब बाड़ लगा दी गयी है और उसके ऊपर कांच का पिरामिड बना दिया गया है. उनकी बगल में पालथी मारकर बैठना अब मुमकिन नहीं. हालाँकि उनके शब्द अब भी हमारे कानों में सुनाई देते हैं और हम उन्हें दुहरा सकते हैं और दुहराते रह सकते हैं.

मुझे ज्वालामुखियों के भूगोल पर काम करना है
वीरानी से बर्बादी तलक
लोट के वक़्त से हिरोशिमा के वक़्त तलक
जैसे मैं जिया ही नहीं अब तलक
जिया नहीं उस हवस के साथ जिसे अब तक न जाना
शायद वर्तमान बहुत दूर चला गया है
और बीता हुआ कल आ गया है करीब
तो इतिहास की परिधि पर चलने के लिए
और बार बार लौट कर आने वाले वक़्त से बचने के लिए
मैं वर्तमान का हाथ पकड़ता हूँ
मेरा आने वाला कल कैसे बचाया जायेगा
उसकी जंगली बकरियों के गड़बड़झाले में?
समय के तीव्रतम वेग से
या सहरा के कारवां जैसी मेरी सुस्ती से?
मुझे अपने आखिरी वक़्त तक काम करना है
जैसे मैं आने वाला कल देखूँगा ही नहीं
और मुझे काम करना है आज के लिए जो अभी यहाँ है ही नहीं
इसलिए मैं सुनता हूँ
हौले हौले
अपने दिल की चींटों जैसी चाल को

# नक्काशी की एक पद्धति जिसमें आकृतियाँ और अन्य डिजाइनें समतल पृष्ठभूमि पर ज़रा सी उभरी हुई होती हैं.

Saturday, August 8, 2009

दहलीज़ : ६ / भवानीप्रसाद मिश्र की कविता- 'कवि'


'कवि'

क़लम अपनी साध ,
और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध .

यह कि तेरी-भर न हो तो कह ,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह .
जिस तरह हम बोलते हैं , उस तरह तू लिख ,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख .
चीज़ ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए
बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए .
फल लगें ऐसे कि सुख-रस , सार और समर्थ
प्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ .

टेढ़ मत पैदा करे गति तीर की अपना ,
पाप को कर लक्ष्य कर दे झूठ को सपना .
विन्ध्य , रेवा , फूल , फल , बरसात या गरमी ,
प्यार प्रिय का , कष्ट-कारा , क्रोध या नरमी ,
देश या कि विदेश , मेरा हो कि तेरा हो
हो विशद विस्तार , चाहे एक घेरा हो ,
तू जिसे छू दे दिशा कल्याण हो उसकी ,
तू जिसे गा दे सदा वरदान हो उसकी .
***
( 'मन एक मैली कमीज़ है ' से साभार )
***

विशेष : भवानीप्रसाद मिश्र की यह कविता बहुत मशहूर हुई थी . ख़ास तौर पर "जिस तरह हम बोलते हैं , उस तरह तू लिख / और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख !"-----ये दो पंक्तियाँ तो बहुत सारे कवियों के बीच 'मार्ग-दर्शक सिद्धांत ' (guiding principle ) के समान लोकप्रिय हुईं और आज भी हैं . इसीलिए 'दहलीज़ ' में इस बार यही कविता . प्रसंगवश , मुक्तिबोध का यह कथन स्मरणीय है-----"जो कवि अपने भाव-विचारों के लिए स्वयं की शैली पा लेता है , वह सिद्ध कवि है . ऐसे ही कवियों में श्री भवानीप्रसाद मिश्र भी हैं "।
***

डायरी : ०५.०६.२००६ - कुछ ख़राब कविताएँ




इस रात
असंख्य है दुख
यहाँ

एक अछोर शरण्य है जीवन

हलचलों से भरा
ऊपर-ऊपर रोशन
लेकिन
नीचे
गहरे अंधेरे में
जड़ों से
धँसा
***
तारों में टिमकता
यह जो दीखता है वैभव
झूटा है
***
बहुत धीर गम्भीर मंद्र स्वरों में फूटती है
नींद
उतरती हुई
किसी पैराशूट की तरह
दुस्वप्नों के
सबसे ऊँचे पठारों पर
***
वहाँ
कच्चे रास्तों का एक स्वप्न है
और कुछ
अधूरी कविताओं का भी

एक काँपती हुई उम्मीद

जोश
सिर उठाता हुआ

सहमती आती एक खुशी

एक डर
महफूज़ होने के हमारे बन्दोबस्त को
आजमाता हुआ

बीड़ी सुलगाता-बुझाता
नज़र आता
एक कवि
हड़ीली कनपटियों वाला

राह के किनारे
लटकते बयाओं के घोसले
बियाबान में भी जीवन को
आकार देते-से

खंडहरों में छुपे हुए
घुग्घू भी
मकड़ी के चिपकदार जालों के पीछे से
घूरते

पत्थरों के नीचे
बिच्छू
थरथराते डंक वाले

तालाबों का रुका-थमा
सड़ता हुआ पानी
रात की काली परछाई-सा

इतनी सारी अनर्गल बातों का

इस रात एक साथ याद आने का
कोई मतलब है भला ......
***
रात हुई
अब रात

बहुत बड़े सिर और
बहुत बड़े आकार वाली रात
उसका जबड़ा भी बड़ा
बड़े दाँत

होंठ लटके हुए उसके
और उनसे भी
टपकता
रक्त
स्वप्न में हुए एक क़त्ल का

घुटे गले से आती हुई
एक चीख़

भोर में निकलती
एक शवयात्रा

नींद से बाहर सुनाई देता एक विलाप
प्रेमगीत-सा !
***

Friday, August 7, 2009

दहलीज़ : ५ / कवि-कर्म : प्रतिभा और अभिव्यक्ति-१ /शमशेर बहादुर सिंह

इस पोस्ट पर आ रही टिप्पणियों को देखते हुए इसकी तारीख आगे बढ़ा दी गई है। सबसे यही प्रार्थना है कि तनिक संयमित रहते हुए पोस्ट की विषयवस्तु तक ही अपने को सीमित रखें। स्वस्थ बहस से स्वस्थ राह निकलती है, ऐसा मेरा मानना है।

-शिरीष

नए कवियों के लिए शमशेर का गद्य

मेरी यह मान्यता है कि हिन्दी का कोई भी नया कवि अधिक-से-अधिक ऊपर उठने का महत्त्वाकांक्षी होगा, उसे और सबों से अधिक तीन विषयों में अपना विकास एक साथ करना होगा.
1
उसे आज की कम-से-कम अपने देश की सारी सामाजिक , राजनीतिक और दार्शनिक गतिविधियों को समझना होगा. अर्थात् वह जीवन के आधुनिक विकास का अध्येता होगा. साथ ही विज्ञान में गहरी और जीवंत रुचि होगी। हो सकता है इसका असर ये हो कि वो कविताएँ कम लिखे , मगर जो भी वह लिखेगा व्यर्थ न होगा।
2
संस्कृत , उर्दू , फ़ारसी , अरबी , बँगला , अँग्रेज़ी और फ्रेंच भाषाएँ और उनके साहित्य से गहरा परिचय उसके लिए अनिवार्य है। ( हो सकता है कि उसका असर ये हो कि बहुत वर्षों तक वह केवल अनुवाद करे और कविताएँ बहुत ही कम लिखे या बहुत अधिक लिखे जो नक़ल-सी होगी , व्यर्थ सिवाय मश्क के लिए लिखने के ; या कविताएँ लिखना वो बेकार समझे ) । इस दिशा में अगर वह गद्य भी कुछ लिखेगा तो वह भी मूल्यवान हो सकता है।
3
तुलसी, सूर, कबीर, जायसी, मतिराम, देव, रत्नाकर और विद्यापति को, साथ ही नज़ीर और मीर, ग़ालिब, दाग़, इक़बाल, ज़ौक और फैज़ के चुने हुए कलाम और उर्दू के क्लासिकी गद्य को अपने साहित्यगत और भाषागत संस्कारों में पूरी-पूरी तरह बसा लेना इसके लिए आवश्यक होगा। कला के विभिन्न अंगों के बारे में उसकी जानकारी उतनी ही गहरी होनी होगी, जितनी छंद के बारे में, स्टाइल के बारे में। सबसे बड़ी चीज़ ये कि वह विनम्र होना सीखेगा, उसका व्यापक और गहरा अध्ययन स्वयं उसको सिखायेगा, अपनी भाषा, संस्कृति और विशेषकर अपने को लेकर। ये बातें मैंने आज नहीं, कल के होनेवाले महाकवि के लिए ज़रूरी समझी हैं। साधारण रूप से केवल अच्छे और केवल बहुत अच्छे होनेवाले कवियों को इन लाइंस पर, इन चीज़ों पर सोचने की बहुत आवश्यकता नहीं। इनको ये चीज़ें भटका भी सकती हैं और अभी 10-20 साल तक इन चीज़ों का ज़िक्र करना भी एक फ़िज़ूल-सी बात है। हर दृष्टिकोण के लिए एक पृष्ठभूमि और वातावरण होता है, वो अभी चौथाई सदी बाद आयेगा। बल्कि मुझे अणुमात्र भी संदेह नहीं की वो अगर हम अणुबमों के युद्ध में ख़त्म न हो गये, तो वह आकर रहेगा। तब तक भाषा-साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा-पद्धतियाँ बदल चुकी होंगी। और उनके उसूल क्रांतिकारी परिवर्तन के बिना नया महाकवि और महान कलाकार सहज ही जन्म न ले सकेगा . अस्तु-----

असल में महान प्रतिभा अनुभूतियों के गहरे स्तरों तक पहुँचने में स्वयं सक्षम हो जाती है। जो कार्य औरों के लिए असंभव और अत्यंत दुरूह होते हैं, वह उसके लिए सहज ही द्रुततम विकास का आनंद देनेवाले हैं। कुछ----के सामान हैं, इसीलिए यह प्रत्यक्ष है। उपर्युक्त दिशाओं में विकास का प्रयत्न आज हमारे लिए उचित ही नहीं, बल्कि उपहासास्पद भी लग सकता है, कवि के दृष्टिकोण से। अभी तो हम पंजाब में हिन्दी रक्षा आन्दोलन जैसे तंग दौर से गुज़र रहे हैं, जो काशी की तंग गलियों से भी कहीं अधिक तंग और सँकरा है, अभी तो अराजकता ( मोटे तौर से जिसे प्रयोगवाद कहा जा सकता है ; इसमें अपवाद भी है काफ़ी ) ने हमें गहरे धुंधलके में डाल रखा है।

भाषा की अवहेलना किसी भी रचना को सहज ही साहित्य के क्षेत्र से बाहर फेंक देती है और शिल्प की अवहेलना कलात्मकता के क्षेत्र से। अब तक शिल्प व भाषा की साधना में जो कुछ प्राप्त हो चुका है, उससे अज्ञान अक्षम्य है। उसी को दोहराकर प्रस्तुत करना कोई माने नहीं रखता। उससे आगे जाने का संघर्ष ही सजीव साहित्य-----और सफल कविता कहलाई जा सकती है, जो बहुत दिनों याद रखी जा सके। मुक्त छंद और गद्य में कविता लिखनेवाले को छंद और गद्य के सौन्दर्य से अच्छी तरह परिचित होना चाहिए। मुहावरे की ग़लती मैं अक्षम्य मानता हूँ।

मेरा ख़याल है की अब तक के रचे साहित्य में बहुत कम ऐसा है, जो क़ायम रहनेवाला है, इसका महत्त्व ऐतिहासिक ही रहेगा, जीवंत नहीं। जीवंत साहित्य में निराला, कुछ पन्त, नरेंद्र और थोड़ा-सा बच्चन, कहीं-कहीं से थोड़ा-सा मैथिलीशरण, फुटकर चीज़ें औरों की; बचा यही रहेगा, बाक़ी लोकगीत के श्रेष्ठ पद होंगे। जिनके अध्ययन और प्रचार की तरफ़ विशेष ध्यान देना होगा और साथ ही उर्दू का ख़ासा हिस्सा उस समय ज़िंदा होगा और पिछ्ला रीतिकाल का भी, इसके अलावा महाकवि नवरत्नों के उर्दू और हिन्दी का साहित्य एक हो जायेगा, गद्य उर्दू के अधिक निकट होगा, बहुत कुछ बदलेगा, अँग्रेज़ी, फ्रेंच, रूसी, चीनी, फ़ारसी, अरबी, बंगाली, जर्मन हमारे लिए अत्यंत आवश्यक भाषाएँ हो जायेंगी और इनके सीखनेवालों के लिए ये विषय सबसे आसान होंगे। भाषाशास्त्र एक अनिवार्य विषय होगा, जिसकी शिक्षा-प्रणाली कल्पनातीत रूप से आज से भिन्न होगी। यह सब जभी संभव होगा ------ले सकेगी और अपना भविष्य अपने आदर्शों के अनुरूप बना सकेगी।
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('कुछ और गद्य रचनाएँ ' से साभार )
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विशेष : यशस्वी कवि शमशेर बहादुर सिंह ने अपने समय में आनेवाले कवियों के लिए-----एक बड़ी रचनात्मकता की ख़ातिर----- अपने ख़ास शाइस्ता , संजीदा , संवेदनशील , वैज्ञानिक और सौन्दर्यात्मक अंदाज़ में कुछ बेहद अहम दिशा-निर्देश किये थे . आज यह सब हमारे लिए एक अमूल्य दस्तावेज़ की मानिंद है . इसलिए और भी की आज ऐसी कोशिशें करता कोई नज़र नहीं आता . 'दहलीज़ ' के पाठकों के लिए इस बार प्रस्तुत है , शमशेर के इस व्यवस्थित , लिखित और समावेशी प्रयत्न का एक हिस्सा .

सर्वर के कारण इस पोस्ट पर पंकज चतुर्वेदी की टिपण्णी बाक्स में नहीं जा पा रही इसलिए इसे यहाँ पोस्ट किया जा रहा - शिरीष

प्रिय दोस्तों , इस पूरी बहस में शिरीष भाई दो बार आये हैं और दोनों बार उन्होंने बीच-बचाव की भूमिका का वरण किया है ; जो व्यक्तिशः मेरे लिए एक दुखद मामला है. पहली बार उन्होंने लिखा था कि गिरिराज जिस विडम्बना की बात कर रहे हैं , वह भी सही है और धीरेश जिस विडम्बना की बात कर रहे हैं , वह भी सही है . इस बार उन्होंने हमें यह याद दिलाया है कि किराडू जी हमें 'प्रतिलिपि' में छाप चुके हैं . हाँ , अगर सिर्फ़ अपनी बात करूँ , तो वह मुझे एकाधिक बार छाप चुके हैं और क्या इस बात का इज़हार ज़रूरी है कि मैं उनके प्रति कृतग्य हूँ ? ठीक उसी तरह , जैसे कि शिरीष जी ने मुझे 'अनुनाद' का सह-लेखक बनाया , तो मैं उनके प्रति भी कृतग्य हूँ . और मेरी ये क्रितग्य्तायेन जीवन-भर चलनेवाली क्रितग्य्तायेन हैं , सम्बन्धों में आनेवाले उतार-चढ़ाव से क्षरित होनेवाली नहीं हैं . लेकिन इन बातों को बहस , आलोचना या मूल्यांकन के आड़े क्यों आना चाहिए ? शिरीष ने धीरेश को भी 'अनुनाद' का सह-लेखक बनाया है , मगर उनका ताज़ा कमेन्ट गवाह है कि उनके पास धीरेश के latest कमेन्ट को पढ़ने का समय ही नहीं था ! वह कमेन्ट , जिसमें धीरेश ने , अगर उनसे कोई ग़लती हुई है , तो उसको realize करते हुए दुःख भी व्यक्त किया है . मगर फिर उन्होंने यह सवाल किया है कि किराडू जी कृपया साफ़-साफ़ बताएँ कि शमशेर को आखिर अपने समय में किन साहित्यिक-राजनीतिक शक्ति-केन्द्रों का दबाव सहना पड़ रहा था , जिसके मद्देनज़र उन्होंने 'कवि एक तोता है ' लिखा ? किराडू जी का हाल यह है कि 'तोता' तो वह बहुत उत्साह और ख़ुशी से पकड़कर हमें दिखाने लाये थे और उन्होंने दिखा भी दिया ; मगर उसकी पृष्ठभूमि बताने में , न जाने क्यों , उन्हें भारी हिचकिचाहट है . अगर इतना संकोच या अनिश्चय था , तो वह उत्साह क्यों था ? अब अमूर्तन से उबरने और स्पष्ट बात करने के हमारे आमंत्रण पर वह और भी अमूर्त और अस्पष्ट हो गये हैं ! उन्होंने पूरी बहस से कन्नी काटते हुए लिखा है कि 'शमशेर का इशारा शीत-युद्धरत विश्व के दोनों ही पक्षों की ओर हो सकता है .' क्या यही "वाम के कोमल विरोध और आधुनिकता के मिश्रण से पैदा हो रहा वह अनूठा विचार" (---शिरीष भाई के शब्द ) है , जिसे किराडू जी , 'वात्स्यायन जी की परम्परा में "पका" ' (बक़ौल शिरीष भाई ) रहे हैं ? और वात्स्यायन जी का ज़िक्र आप ले ही आये , तो आपको यह याद दिलाना शायद अनुचित न हो कि अपने अंतिम दिनों में दिये गये एक वक्तव्य में उन्होंने कहा था कि 'भारत को दो ही चीज़ों से ख़तरा है ---या तो विदेशी विचारधाराओं से या अपने देश में आ गये अन्य धर्मावलम्बियों से !' यह तो प्रसंगवश मैंने स्मरण कराया , हालाँकि किराडू जी से इस वक्तव्य का कोई लेना-देना नहीं है . यह साफ़ करना भी ज़रूरी था , अन्यथा मेरा भी वही हाल होता , जो धीरेश भाई का हो रहा है . उन्होंने अपने latest कमेन्ट में "तमाम भगवा चुप्पियों पर एक संतुष्ट चुप्पी साधे हुए होने " की बात लिखी है , मगर शिरीष जी ने उन्हें समझाया है कि 'भगवा होने का ' आरोप किराडू जी पर न लगाइये ! शायद यह बताना ज़रूरी है कि चुप्पी साधने के लिए भगवा हो जाने की क़तई ज़रूरत नहीं है . उस स्थिति में तो 'युद्धरत विश्व के दोनों ही पक्षों की ओर ' रहने का 'पारलौकिक ' सुख हासिल होता है . दिलचस्प है कि जब भी बहस छिड़ती है , शिरीष भाई एक द्वंद्व से घिर जाते हैं----"धरम-सनेह उभय मति घेरी ."------एक ओर धर्म है , दूसरी ओर प्यार के कर्तव्य ; मैं किधर जाऊं ? किराडू जी का द्वंद्व भी-----अगर ध्यान से देखें तो -----यही है . इन दोनों युवा कवियों की इस मनोदशा से क्या हमारे समय की युवा कविता के वृहत्तर परिदृश्य के मिज़ाज के बारे में अहम सूचनाएँ हासिल नहीं होतीं ? एक और बात -----हम बहुत-से 'लाल' लोग 'प्रतिलिपि' में छपे हैं , शिरीष भाई ने याद दिलाया है . मगर मेरा कहना है कि आप लाल हैं या नहीं , इसका फ़ैसला औरों पर छोड़िये , ख़ुद अपने काम और पहचान को लेकर इस हद तक आश्वस्त रहना सुखद संकेत नहीं . यही सलाह मैं किराडू जी को भी दूँगा , हालाँकि मेरी 'एक' सलाह मानकर वह मेरी दूसरी सलाहों को "नज़रअंदाज़" करने की ख़ुशी से आप्लावित हैं और जाने -अनजाने इस गर्व से भी कि पहली बात तो यह कि वह किसी के इशारों पर चल नहीं रहे और दूसरी यह कि चल भी रहे हैं , तो दूसरे भी तो दूसरी 'वाटिकाओं , वृक्षों और कुंजों ' के इशारे पर चल रहे हैं ! क्या 'नैतिक समतुल्यता ' है ! विडम्बना ही विडम्बना है ! इसीलिए शमशेर ने कवि को तोता कहा ! ढूँढिये , इस सभ्यता में उस इंसान को , जो तोता न हो ! -----उस आशिक़ को , जो तोता होने की विडम्बना से जूझ न रहा हो ! बक़ौल मीर----- "हम हुए , तुम हुए कि मीर हुए उसकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए !"
-----पंकज चतुर्वेदी कानपुर

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