
थियेटर करना
एक छोटे क़स्बे में थियेटर करना
सबसे पहले उस क़स्बे के सबसे अमीर और अय्याश आदमी के आगे खड़े होकर चंदा मांगना है
और वो भी एक हक़ तरह
उसे हर साल होने वाली रामलीला, धर्मगुरुओं-साध्वियों आदि की प्रवचन संध्याओं,
बड़े अंग्रेज़ी स्कूलों के सालाना जलसों में अनुस्यूत डी.जे. आदि
और अपने इस होनेवाले नाटक के बीच
एक नितान्त अनुपस्थित साम्य को समझाना है थियेटर करना
सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाना है मदद के वास्ते
घूसखोर अफ़सरों को पहचानना
और पुराने परिचितों को टटोलना है थियेटर करना
एक सही और समझदार आदमी अचानक मिल सकता है
अचानक बिक सकती हैं कुछ टिकटें आपको तैयार रहना है
और उसी बीच लगा आना है एक चक्कर
लाइट और साउंड सिस्टम वाले
और उस घी वाले थलथल लाला के यहाँ भी, जिसने मदद का वायदा किया
और सुनना है उससे
कि ये इमदाद तो हम नुकसान उठाकर आपको दे रहे हैं भाई साहब
आपने भी छात्र राजनीति में रहते
कभी तंग नहीं किया था हमें
ये तो बस उसी का बदला है !
इस तरह
पुरानी भलमनसाहत और अहसानात को खो देना है थियेटर करना
जब रोशनी और आवाज़ और अभिनय के समन्दर में तैर रहे होते हैं किरदार
और दर्शक भी अपना चप्पू चलाते और तालियाँ बजाते हैं
ठीक उसी समय
सभागार के सबसे पीछे के अंधेरे हाहाकार में
अनायास ही बढ़ गए खर्चे का हिसाब लगाना है
थियेटर करना
नाटक के बाद रंगस्थल से मंच की साज-सज्जा का सामान खुलवाना
कुर्सियाँ हटवाना और झाड़ू लगवाना है
थियेटर करना
जिसमें तयशुदा पैसों में किंचित कमी के लिए रंगमंडल के थके-खीझे किंतु समर्पित निर्देशक से
मुआफ़ी माँगना भी शामिल है
देर रात की सूनी सड़क पर बीड़ी के कश लगाते बंद हो चुके अपने घरों के दरवाज़ों को खटखटाने जाना है
थियेटर करना
बूढ़ी होती माँ के अफ़सोस के साथ अवकाशप्राप्त पिता के क्रोध को पचाना
और अगली सुबह तड़के कच्ची नींद से उठकर शहर से जाते रंगमंडल को दुबारा बुलाने के उनींदे विश्वास में
विदाई का हाथ हिलाना है थियेटर करना
कौन कहता है
कौन?
कि महज एक प्रबल भावावेग में
अनुभूत कुशलता के साथ मंच पर जाना भर है
थियेटर करना !
***
एक छोटे क़स्बे में थियेटर करना
सबसे पहले उस क़स्बे के सबसे अमीर और अय्याश आदमी के आगे खड़े होकर चंदा मांगना है
और वो भी एक हक़ तरह
उसे हर साल होने वाली रामलीला, धर्मगुरुओं-साध्वियों आदि की प्रवचन संध्याओं,
बड़े अंग्रेज़ी स्कूलों के सालाना जलसों में अनुस्यूत डी.जे. आदि
और अपने इस होनेवाले नाटक के बीच
एक नितान्त अनुपस्थित साम्य को समझाना है थियेटर करना
सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाना है मदद के वास्ते
घूसखोर अफ़सरों को पहचानना
और पुराने परिचितों को टटोलना है थियेटर करना
एक सही और समझदार आदमी अचानक मिल सकता है
अचानक बिक सकती हैं कुछ टिकटें आपको तैयार रहना है
और उसी बीच लगा आना है एक चक्कर
लाइट और साउंड सिस्टम वाले
और उस घी वाले थलथल लाला के यहाँ भी, जिसने मदद का वायदा किया
और सुनना है उससे
कि ये इमदाद तो हम नुकसान उठाकर आपको दे रहे हैं भाई साहब
आपने भी छात्र राजनीति में रहते
कभी तंग नहीं किया था हमें
ये तो बस उसी का बदला है !
इस तरह
पुरानी भलमनसाहत और अहसानात को खो देना है थियेटर करना
जब रोशनी और आवाज़ और अभिनय के समन्दर में तैर रहे होते हैं किरदार
और दर्शक भी अपना चप्पू चलाते और तालियाँ बजाते हैं
ठीक उसी समय
सभागार के सबसे पीछे के अंधेरे हाहाकार में
अनायास ही बढ़ गए खर्चे का हिसाब लगाना है
थियेटर करना
नाटक के बाद रंगस्थल से मंच की साज-सज्जा का सामान खुलवाना
कुर्सियाँ हटवाना और झाड़ू लगवाना है
थियेटर करना
जिसमें तयशुदा पैसों में किंचित कमी के लिए रंगमंडल के थके-खीझे किंतु समर्पित निर्देशक से
मुआफ़ी माँगना भी शामिल है
देर रात की सूनी सड़क पर बीड़ी के कश लगाते बंद हो चुके अपने घरों के दरवाज़ों को खटखटाने जाना है
थियेटर करना
बूढ़ी होती माँ के अफ़सोस के साथ अवकाशप्राप्त पिता के क्रोध को पचाना
और अगली सुबह तड़के कच्ची नींद से उठकर शहर से जाते रंगमंडल को दुबारा बुलाने के उनींदे विश्वास में
विदाई का हाथ हिलाना है थियेटर करना
कौन कहता है
कौन?
कि महज एक प्रबल भावावेग में
अनुभूत कुशलता के साथ मंच पर जाना भर है
थियेटर करना !
***
इस कविता को "लमही" के नए अंक में भी पढ़ा जा सकता है..........
***
maine kbi theater nhi kiya lekin aapki is kavita ne samuche natya-karm ko gahri armikta se udghatit kiya h
ReplyDeleteना पूछीये कितना मुश्किल है छोटे शहर /कस्बे में लोगों को समझाना / रूची जगाना .....बहुत बढिया कविता !
ReplyDeleteसंगत होती जा रही विसंगतियों की कसैली उल्टियों की गंध को सार्वजनिक करती हुई कविता. जीवन के क्षय के बावजूद भरोसे के पठारी आँगन पर लड़खडाते कदमों की आहट भी है यहाँ. आवश्यक है समाज की नब्ज को टटोलते रहना.
ReplyDeleteI can identify myself with this poem as i also did such theater in such a town as described in your poem ,but i was always awre of the limitations of small town theater and i never did it for changing society . I did it for myself and i have no regrets at all.
ReplyDeleteबढिया कविता शिरीष जी। अचानक युगमंच की मंडलियों के साथ मालरोड की दुकानों में चंदा मांगने जाने की कवायद याद आ गई।
ReplyDeleteमित्रों,पहली तीन लाइनों का बैलेंस देखें - दूसरी लाइन बहुत हद तक अप्रत्याशित है पहली के बाद,और तीसरी दूसरी के बाद.
ReplyDeleteअनुनाद पर मेरी पिछली पोस्ट में "सांस्कृतिक अत्याचार" करने वाली अंकल एंड कंपनी का यह बड़ा अहसान रहा कि लिखने प्रकाशित होने से बहुत पहले ही ये सब 'जलवे'(उनका प्रिय शब्द -जिसे वे नसीर की मेनस्ट्रीम में जाने की मारू कोशिश 'जलवा' के बाद दुधारा बरतते थे)दिखा दिए और बाबू साहब को समझा दिया कि हिंदुस्तान में कला वला करने का मतलब किस बला से होता है।
प्रिय शिरीष जी,
ReplyDeleteयह बहुत अच्छी कविता है . ऐसी कविता हमारे वक़्त के सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षों में कवि की गहरी , सक्रिय और संवेदनशील हिस्सेदारी के बगैर लिखी नहीं जा सकती .
आप मौजूदा दौर में हिन्दी के उन बहुत थोड़े-से कवियों में हैं, जो यह मानते हैं कि कविता को अपने जीवन में जीना ज़रूरी है. तभी उसमें वह कशिश, सौन्दर्य और मार्मिकता पैदा होती है , जो आपकी कविता में है . जिन लोगों ने कविता को कोरे बौद्धिक व्यसन में बदल दिया है और इस तरह उसे या तो वाग्जाल का ज़रिया बना रहे हैं या कोरी बौद्धिक क़वायद के 'सामान ' में रिड्यूस कर रहे हैं , उन्हें आखिरकार नाकामी ही हाथ लगेगी . मगर आप कामयाब होंगे ! हमारी बधाई मंज़ूर करें भाई !
-------पंकज चतुर्वेदी
कानपुर
jeevan roopi theatre ko puri maarmikataa mein ukerati utkrsht kavitaa. shireesh bhai, aapaki yah kavita jeevan ki anek parton ko udghatit kartee hai
ReplyDeletepriyam ankit
ये कविता -
ReplyDeleteमात्र 'थियेटर करना ' को ही नहीं बल्कि उस पूरी बेचैनी को शब्द दे रही है जो किसी भी साहित्यकार, कवी , लेखक को अपनी स्वीकृत्ति को लेकर झेलनी पड़ती है . निराला की "सरोजस्मृति " याद आ गयी -आपको बधाई
मेल चेक करने आज बहुत दिन बाद नेट पर आई और कितने ठीक समय पर आई. थियेटर करना वाकई एक समूचे जीवन को जीना है और अपने सामान्य जीवन में भी हम कितनी कितनी बार सिर्फ़ अभिनय ही तो करते हैं. आपने थियेटर के आंतरिक पर्दे को उठाया है जिसमें छुपा अंधेरा भी जैसे चमक उठता है. मेरे पास शब्द नहीं हैं तारीफ़ के लिए......
ReplyDeleteकविता तो बेशक बहुत अच्छी है पर एक सवाल है कि आपके क़स्बे में थियेटर सिर्फ़ लड़के ही करते हैं क्या शिरीष जी?
ReplyDeleteतल्ख़ ज़ुबान जी !
ReplyDeleteआपने सवाल सही उठाया.
श्री विष्णु खरे जी ने भी 2 दिन पहले ही फ़ोन पर प्रशंसा के साथ साथ यह भी सवाल उठाया था और मेरे थियेटर ग्रुप की लड़कियों ने भी मुझे इस बारे कहा है.
जल्द ही पूरी भावात्मक और वैचारिक तैयारी के साथ एक पैरा कविता में जोड़ूँगा.
आपका शुक्रिया
kavita ne us samay ko aankho ke samne la khada kiya jab main theater karti thi,allahabad me.dekhne,adne ka shauk ab bhi hai shayad karne ka bhi magar...........apki kavita sach kahti hai.
ReplyDeleteIse padhte huye Zahur Da kii yaad aayii.., unhe meri taraf se yaad karna...
ReplyDeleteaddbhut aur jiwant kavita kai liyae badhai
ReplyDeleteअनुभवों से बनी और बुनी गई ऐसी कविताएँ अलग ही प्रभाव छोड़ती हैं -सक्रियता की कविता है
ReplyDeleteएक्टिविस्ट पोएट्री