सीधी-सी बात
शक्ति होती है मौन ( पेड़ कहते हैं मुझसे )
और गहराई भी ( कहती हैं जड़ें )
और पवित्रता भी ( कहता है अन्न )
पेड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं सबसे ऊँचा हूँ !'
जड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं बेहद गहराई से आयी हूँ !'
और रोटी कभी नहीं बोली :
'दुनिया में क्या है मुझसे अच्छा !'
****
भौतिकी
प्रेम हमारे रक्त के पेड़ को
सराबोर कर देता है वनस्पति -रस की तरह
और हमारे चरम भौतिक आनंद के बीज से
अर्क की तरह खींचता है अपनी विलक्षण गंध
समुद्र पूरी तरह चला आता है हमारे भीतर
और भूख से व्याकुल रात
आत्मा अपनी सीध से बाहर जाती हुई , और
दो घंटियाँ तुम्हारे भीतर हड्डियों में बजती हैं
और कुछ शेष नहीं रहता सिर्फ़ मेरी देह पर
तुम्हारी देह का भार , रिक्त हुआ दूसरा समय .
****
विशेष : ये कविताएँ मुझे , हमारे समय की एक अनिवार्य पत्रिका 'समयांतर' के एक पुराने अंक - जून ,२००४ से मिली हैं . कविताएँ और इनके अनुवाद इतने उत्कृष्ट, संवेद्य और पारदर्शी हैं कि 'कमेन्ट ' की कोई ज़रूरत नहीं।
शक्ति होती है मौन ( पेड़ कहते हैं मुझसे )
और गहराई भी ( कहती हैं जड़ें )
और पवित्रता भी ( कहता है अन्न )
पेड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं सबसे ऊँचा हूँ !'
जड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं बेहद गहराई से आयी हूँ !'
और रोटी कभी नहीं बोली :
'दुनिया में क्या है मुझसे अच्छा !'
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भौतिकी
प्रेम हमारे रक्त के पेड़ को
सराबोर कर देता है वनस्पति -रस की तरह
और हमारे चरम भौतिक आनंद के बीज से
अर्क की तरह खींचता है अपनी विलक्षण गंध
समुद्र पूरी तरह चला आता है हमारे भीतर
और भूख से व्याकुल रात
आत्मा अपनी सीध से बाहर जाती हुई , और
दो घंटियाँ तुम्हारे भीतर हड्डियों में बजती हैं
और कुछ शेष नहीं रहता सिर्फ़ मेरी देह पर
तुम्हारी देह का भार , रिक्त हुआ दूसरा समय .
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विशेष : ये कविताएँ मुझे , हमारे समय की एक अनिवार्य पत्रिका 'समयांतर' के एक पुराने अंक - जून ,२००४ से मिली हैं . कविताएँ और इनके अनुवाद इतने उत्कृष्ट, संवेद्य और पारदर्शी हैं कि 'कमेन्ट ' की कोई ज़रूरत नहीं।
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आपने बिल्कुल सही कहा है कवितायें बेजोड़ हैं और इन्हें कोई क्या कमेन्ट करेगा
ReplyDeleteमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
ye seedhi see baat hi samjhne ko tayyar nahi hai koi
ReplyDeleteअद्भुत.....आज ही अचानक २००६ का नया ज्ञानोदय का कोई अंक हाथ आया ....उनकी कविता पढ़ी..फिर यहाँ
ReplyDeleteसीधी सी बात लाजवाब कविता है. मॅंगलेश डबराल जी को इस अनुवाद और पंकज जी को इस पोस्ट के लिए बधाई.
ReplyDeleteअद्भुत कवितायेँ और उतना ही अद्भुत अनुवाद.
ReplyDeleteमंगलेश जी साल भर पहले जोधपुर आये थे..उनकी कविताओं को उन्ही से सुनने का दुर्लभ अवसर था वो.
अद्भुत...मगर सच्चाई को बयान करती कविताएँ ....वाकाई , पेड़, जड़ और अन्न को किसी कोमेंट की ज़रूरत नहीं
ReplyDeleteबहुत पहले ये कविता पहली बार पढ़ी थी। तब से जब भी पढता हूँ , मन पहले से थोड़ा साफ़ हो जाता है।
ReplyDeleteजब भी इस सीधी बात को पढता हूँ, मन पे जमी मैल थोड़ी कम हो जाती है।
ReplyDeleteलाज़वाब!
ReplyDeleteadbhut
ReplyDeleteकहीं गहरे तक पैठती कविता ....अद्भुत.....
ReplyDeleteनेरुदा की हर कविता महाकाव्य के सृजन का उपक्रम-सा लगती है।
ReplyDeleteमंगलेश डबराल जी को प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई, साधुवाद