(ईरान में दमनकारी धार्मिक कट्टरवादियों के खिलाफ़ आंदोलित जनसमूह)

ईरान में उभरे जनआक्रोश और इसका दमन करने के तानाशाही रवैये को ध्यान में रखते हुए यहां प्रसिद्ध ईरानी कवि अहमद शामलू (12 दिसंबर 1925-24 जून 2000) की लोकप्रिय कविता का अनुवाद प्रस्तुत है। शामलू को समकालीन ईरानी कविता का सबसे सशक्त स्वर माना जाता है और उनको ईरान के राष्ट्रकवि के तौर पर सम्मान भी दिया जाता है। लेकिन विडम्बना ये कि पहले शाह के शासन ने और बाद धार्मिक कट्टरवादियों की सरकार ने उन्हें देश से बाहर चले जाने पर मजबूर कर दिया। अमरीका, ब्रिटेन और स्वीडन रहते हुए भी अहमद लगभग आधी शताब्दी तक ईरानी कविता जगत पर छाये रहे। उनके क़रीब बीस संकलन प्रकाशित हैं। उन्हें विश्वसाहित्य के अत्यन्त समर्थ अनुवादक, बालसाहित्य के रचनाकार, पत्रकार, पटकथालेखक और प्रखर दमनविरोधी बुद्धिजीवी तौर पर याद किया जाता है। अठारह साल की उम्र में वे पहली बार जेल गए और फायरिंग दस्ते के सामने तक पहुँचा दिए जाने के बावजूद संयोगवश मुक्त कर दिए गए। बाईस साल की उम्र में पहली कविता संकलन प्रकाशित हुआ। ईरान की वामपंथी पार्टी तुदेह के सक्रिय कार्यकर्ता रहे लेकिन बाद में जैसा कि वामदलों में अकसर होता ही है उन्होंने कुछ मतभेदों के चलते पार्टी की राजनीतिक गतिविधियों से किनारा कर लिया। साहित्य के नोबेल प्राइज़ के लिए नामांकित हुए और ईरानी जनता के बीच अपने प्रभावशाली काव्यपाठ के बहुत सम्मान अर्जित किया।
शाह की राजशाही में ईरान छोड़ने को मजबूर हुए अहमद 1978 में शाह के तख़्तापलट के बाद वापस ईरान आए लेकिन जल्द ही उन्हें नई सरकार के धार्मिक कट्टरवाद का सामना करना पड़ा - उनकी रचनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जो अब भी जारी है।* उन्हें फिर देश छोड़ना पड़ा और अपनी देश की जनता के चहेते होने के बावजूद एक निर्वासित कवि के रूप में उन्होंने अपनी अंतिम सांसें लीं। ईरान के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष आंदोलन में अहमद शामलू की कविताएं आज भी सबसे ज़्यादा प्रासंगिक हैं -वर्तमान जनाक्रोश के जो विवरण बाहर आ रहे हैं, उनसे भी यह बात प्रमाणित होती है।
इस बंद गली में

इस बंद गली में
सूंघ-सूंघ कर वे देखते हैं तुम्हारी सांसे -
कहना नहीं चाहिए था तुम्हें..... `` मैं करती हूं तुमसे प्यार´´
वे सूंघ-सूंघ कर देखते हैं दिल तक
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय ....
वे कोड़े बरसाते हैं
प्यार पर
सड़कों पर सरे-आम खड़ा करके
बेहतर होगा हम छुपा दें प्यार
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ....
इस कुटिल बंद गली के अंदर
अंजर पंजर ढीला कर देने ठंड में
लपटों को और खूंखार बनाने के लिए वे
झोंकते जाते हैं हमारे गीत और कविताएं.....
ऐसे में अपना जीवन सान पर चढ़ाकर
नष्ट न होने दो नाहक ही
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय ...
आधीरात में दरवाज़े पर दस्तक देकर
अंदर घुसने वाले
सबसे पहले तोड़ते हैं तुम्हारा दीपक ही
बेहतर होगा कि हम छुपा दें अपनी रोशनी
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ...
सभी चौराहों पर तैनात हैं क़ातिल
खून से सनी तलवारें और लाठी-डंडे लेकर -
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय..
सूंघ-सूंघ कर वे देखते हैं तुम्हारी सांसे -
कहना नहीं चाहिए था तुम्हें..... `` मैं करती हूं तुमसे प्यार´´
वे सूंघ-सूंघ कर देखते हैं दिल तक
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय ....
वे कोड़े बरसाते हैं
प्यार पर
सड़कों पर सरे-आम खड़ा करके
बेहतर होगा हम छुपा दें प्यार
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ....
इस कुटिल बंद गली के अंदर
अंजर पंजर ढीला कर देने ठंड में
लपटों को और खूंखार बनाने के लिए वे
झोंकते जाते हैं हमारे गीत और कविताएं.....
ऐसे में अपना जीवन सान पर चढ़ाकर
नष्ट न होने दो नाहक ही
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय ...
आधीरात में दरवाज़े पर दस्तक देकर
अंदर घुसने वाले
सबसे पहले तोड़ते हैं तुम्हारा दीपक ही
बेहतर होगा कि हम छुपा दें अपनी रोशनी
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ...
सभी चौराहों पर तैनात हैं क़ातिल
खून से सनी तलवारें और लाठी-डंडे लेकर -
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय..
उनके निशाने पर हैं सब ओर
होंटो की मुस्कुराहटें
और गीतों की गुनगुनाहटें
बेहतर होगा कि हम छुपा दें अपनी खुशियां...
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ....
रंग-बिरंगे फूलों की आग जलाकर
उसकी आंच में भून रहे हैं वे सुकुमार परिन्दों को
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय..
विजयोन्माद के नशे में धुत्त शैतान
पसरकर बैठ जाता है
हमारी अंत्येष्टि के भोज में
बेहतर होगा कि हम छुपा दें ईश्वर
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ....
*यह कविता इसी प्रकरण से प्रेरित है !
http://shamlu.com से साभार - एम0 सी0 हिलमैन के अँग्रेज़ी अनुवाद से रूपांतरित।
इतनी बड़ी पोस्ट पर अब तक एक भी टिप्पणी का ना होना हैरान करता है. लोग बुद्धिविमर्श में लगे रहते हैं और संसार के जुल्मो-सितम से आँख फेर लेते हैं. यादवेंद्र जी आपने अहमद शामलू की कविता यहाँ लगाकर एक सार्थक हस्तक्षेप किया है. मेरी ओर से शुक्रिया.
ReplyDeleteकभी कभी किसी पोस्ट पर टिप्पणी करने का मन नही भी करता . रागिनी जी आप की टिप्पणी पढ़ कर कविता का पुनर्पाठ किया . अभी भी कुछ कहने का मन नही है. पता नहीं क्यों?
ReplyDeleteअजय जी मेरी शिकायत पर आपने प्रतिक्रिया दी और बताया कि आपका भाव और विचार संसार कैसा है - इसके लिए शुक्रिया!
ReplyDeleteरागिनी जी,
ReplyDeleteआप इस बात से तो सहमत लगती हैं कि किसी पोस्ट की सफलता या गुणवत्ता को टिप्पणी की संख्या से नहीं आँका जा सकता. कभी कभी कोई पोस्ट इतनी अच्छी होती है कि टिप्पणी की ज़रूरत ही नहीं महसूस होती. इसे ही 'लाजवाब कर देना' कहते होंगे शायद. अरब जगत और मध्य-पूर्व के अनसुने, अनचीन्हे कवियों से परिचित कराने का काम जिस नियमितता से यादवेन्द्र जी कर रहे हैं, वह 'हस्तक्षेप' से कहीं ज्यादा है. इसके लिए समूचा अनुनाद परिवार (लेखक और पाठक दोनों) उनका अहसानमंद है. रही बुद्धि-विमर्श की बात, तो अनुनाद पर वह भी ज़ुल्मो-सितम के खिलाफ़ ही किया गया है.
एक ही परिवार के सदस्य होने के नाते इतनी बातें कह गया. उम्मीद है आप अन्यथा न लेंगी.
भारत जी आपने मेरी बात समझी! आपने जो लिखा मैं उससे सहमत हूँ. आपकी बात भी मेरी समझ आई. अजय जी का अंदाज़ थोड़ा आक्रामक लगा मुझे.
ReplyDeleteऔर शिरीष जी कमेंट बॉक्स सबके लिए खोलने का एक लाभ - अब मुझे टिप्पणी करने के लिए हर बार गूगल आई डी साइन नहीं करनी पड़ेगी, जैसे की अभी भी नहीं किया और टिप्पणी भी लग गई ! इसके लिए अलग से शुक्रिया.
ReplyDeleteआक्रमण नही किया जी.....
ReplyDeleteमन की बात केह दी थी. कहने की तमीज़ नही है. अब इसे मेरा अन्दाज़ ही मान लीजिये. फर्क़ इत्ना सा है कि समझदार लोग चुप रहे, मुझ से रहा न गया . भारत भूषण जी ने सही कहा . लाजवाब .
हर रचना प्रतिक्रिया नही मांगती शायद.
लेकिन इस्का मत्लब ये क़दापि नही कि वो अनिवार्य रूप से खराब रचनअ थी.
हिंसक होने के लिये स्सॉरी.