Thursday, July 30, 2009

थियेटर करना

प्रतिलिपि से साभार

थियेटर करना

एक छोटे क़स्बे में थियेटर करना
सबसे पहले उस क़स्बे के सबसे अमीर और अय्याश आदमी के आगे खड़े होकर चंदा मांगना है
और वो भी एक हक़ तरह

उसे हर साल होने वाली रामलीला, धर्मगुरुओं-साध्वियों आदि की प्रवचन संध्याओं,
बड़े अंग्रेज़ी स्कूलों के सालाना जलसों में अनुस्यूत डी.जे. आदि
और अपने इस होनेवाले नाटक के बीच
एक नितान्त अनुपस्थित साम्य को समझाना है थियेटर करना

सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाना है मदद के वास्ते
घूसखोर अफ़सरों को पहचानना
और पुराने परिचितों को टटोलना है थियेटर करना

एक सही और समझदार आदमी अचानक मिल सकता है
अचानक बिक सकती हैं कुछ टिकटें आपको तैयार रहना है
और उसी बीच लगा आना है एक चक्कर
लाइट और साउंड सिस्टम वाले
और उस घी वाले थलथल लाला के यहाँ भी, जिसने मदद का वायदा किया
और सुनना है उससे
कि ये इमदाद तो हम नुकसान उठाकर आपको दे रहे हैं भाई साहब
आपने भी छात्र राजनीति में रहते
कभी तंग नहीं किया था हमें
ये तो बस उसी का बदला है !

इस तरह
पुरानी भलमनसाहत और अहसानात को खो देना है थियेटर करना

जब रोशनी और आवाज़ और अभिनय के समन्दर में तैर रहे होते हैं किरदार
और दर्शक भी अपना चप्पू चलाते और तालियाँ बजाते हैं
ठीक उसी समय
सभागार के सबसे पीछे के अंधेरे हाहाकार में
अनायास ही बढ़ गए खर्चे का हिसाब लगाना है
थियेटर करना

नाटक के बाद रंगस्थल से मंच की साज-सज्जा का सामान खुलवाना
कुर्सियाँ हटवाना और झाड़ू लगवाना है
थियेटर करना
जिसमें तयशुदा पैसों में किंचित कमी के लिए रंगमंडल के थके-खीझे किंतु समर्पित निर्देशक से
मुआफ़ी माँगना भी शामिल है

देर रात की सूनी सड़क पर बीड़ी के कश लगाते बंद हो चुके अपने घरों के दरवाज़ों को खटखटाने जाना है
थियेटर करना

बूढ़ी होती माँ के अफ़सोस के साथ अवकाशप्राप्त पिता के क्रोध को पचाना
और अगली सुबह तड़के कच्ची नींद से उठकर शहर से जाते रंगमंडल को दुबारा बुलाने के उनींदे विश्वास में
विदाई का हाथ हिलाना है थियेटर करना

कौन कहता है
कौन?
कि महज एक प्रबल भावावेग में
अनुभूत कुशलता के साथ मंच पर जाना भर है
थियेटर करना !
***
इस कविता को "लमही" के नए अंक में भी पढ़ा जा सकता है..........
***

Wednesday, July 29, 2009

दहलीज़ : ४ - गोरख पांडे की कविता

चयन एवं प्रस्तुति : पंकज चतुर्वेदी


कविता , युग की नब्ज़ धरो

कविता , युग की नब्ज़ धरो

अफ़रीका , लातिन अमेरिका
उत्पीड़ित हर अंग एशिया
आदमखोरों की निगाह में
खंजर-सी उतरो !

जन-मन के विशाल सागर में
फैल प्रबल झंझा के स्वर में
चरण-चरण विप्लव की गति दो
लय-लय प्रलय करो !

श्रम की भट्ठी में गल-गलकर
जग के मुक्ति-चित्र में ढलकर
बन स्वच्छंद सर्वहारा के
ध्वज के संग लहरो !

शोषण छल-छंदों के गढ़ पर
टूट पडो नफ़रत सुलगाकर
क्रुद्ध अमन के राग , युद्ध के
पन्नों से गुज़रो !

उलटे अर्थ विधान तोड़ दो
शब्दों से बारूद जोड़ दो
अक्षर-अक्षर पंक्ति-पंक्ति को
छापामार करो !

( 1975 )
***
विशेष : इस कविता से यह सबक़ मिल सकता है कि अपने समय से और उस वक़्त की समूची पीड़ित विश्व-मनुष्यता से कवि की कितनी गहन संसक्ति होनी चाहिए . साथ ही , राजनीतिक दृष्टि कितनी साफ़ , सशक्त और आवेगशील हो . गौरतलब है कि कविता में यशस्वी अग्रज कवि शमशेर बहादुर सिंह की एक सुप्रसिद्ध कविता ' अमन का राग ' की भी एक बड़ी आत्मीय और सार्थक स्मृति विन्यस्त है . सार्थक इसलिए कि अमन भी " युद्ध के पन्नों से गुज़रे " बगैर मुमकिन नहीं है------द्वंद्वात्मकता के इस अनिवार्य आशय को व्यक्त करके गोरख पांडेय ने बड़ी शालीनता से " अमन के राग " को सही परिप्रेक्ष्य में पढ़ने-समझने एवं विश्लेषित करने का आग्रह किया है . आख़िरी बात यह कि " अक्षर-अक्षर पंक्ति-पंक्ति " की " छापामार " भूमिका का इसरार बताता है कि छंद के शिल्प में यह कविता लिखने के बावजूद गोरख ने उसे कितने आधुनिक आशयों से संपन्न किया था और कवि से वह अपने दौर के सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षों में कितनी गहरी और उत्कट हिस्सेदारी की उम्मीद करते थे------दरअसल , उसके बिना वह रचना-कर्म की किसी क़िस्म की सार्थकता की कल्पना नहीं कर सकते थे ।

***

Tuesday, July 28, 2009

अमर : दो कविताएँ - गिरिराज किराडू

वैसे तो ये दोनों कविताएँ अच्छी हैं लेकिन परंपरा के हाथ भी पीठ पर हों और कवि का अंदाज़ नव्यतम हो, इसका एक दुर्लभ उदाहरण है गिरिराज की इन दो कविताओं में से पहली कविता. उस्तादों के असर को पचा पाना और अपनी पहचान बचा पाना ही आज युवा हिन्दी कविता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. गिरिराज ने इसे संभव और पारदर्शी बनाया है.


अमर - दो कविताएँ

तीसरी शाम ये कौंधा कि चौराहे पर

तेज भागती गाडियों में से हरेक को खुद को

कुचल कर मार देने का न्यौता दे रहा

ये बूढ़ा डबडबाई आँखों वाला कुत्ता इतने दिनों से

सड़क के बीच चुपचाप बैठकर कहीं

आत्महत्या करने की कोशिश तो नहीं कर रहा?

कब से ऐसा कर रहा है?
शाम की गहमागहम ग्राहकी में व्यस्त वह बोला बेकूफ है कुत्ते की मौत मरना चाहता हैः
जानते हो एक कवि था हिन्दी का, कविता इसलिये लिखता था कि उसकी संतान कुत्ते की मौत ना मरे, मैंने सोचा कहूँ पर नहीं कहा, कहता तो यह भी कहता वह आत्महत्या के विरुद्ध था
जोर से चीखते हुए
ब्रेक लगाते
गुजर रही
कई क्रूर कारें
हर बार
रहम से निराश होता हुआ
तीखी रौशनी में अपना मरण ढूँढता हुआ
वह बूढ़ा डबडबाई आँखों वाला कुत्ता उस शाम में अमर है जब मैं तीसरी बार पहुँचा था उस चौराहे

****

2
महान लेखकों के लिखी हुई सब चीज़ों की तरह वह कभी प्रकाशित होगी ऐसा सोचते हुए लिखी गई है उनकी हर चिठ्ठी पढ़कर लगता था – मुझे लिखी गई है थोड़ा अमर मैं भी हो जाऊंगा, यह ख़याल करता हुआ पढ़ता था मैं उन्हें, अभी कल की चिठ्ठी में था –
“महान संयोग हुआ! सुबह बाथरूम में फिसल गया मैं
महान संगीतकार जनाब क.ख.
और महानतर अभिनेत्री सुश्री ग. घ.
भी कभी बॉथरूम में फिसल कर गिरे थे
और महानतम कवि श्री अ.अ. की इस तरह फिसलने से ही हुई थी मृत्यु, वह तो जालसाजी है कि तानाशाह ने उन्हें जहर दे दिया”
याद रहे, यह मेरी मृत्यु से चालीस बरस पहले और उनकी मृत्य से पूरे चार सौ बरस पहले हुआ था
****

Monday, July 27, 2009

दहलीज़ ३ : बेर्टोल्ट ब्रेख्त की कविता- "एक चीनी शेर की नक्काशी को देखकर "



तुम्हारे पंजे देखकर
डरते हैं बुरे आदमी

तुम्हारा सौष्ठव देखकर
खुश होते हैं अच्छे आदमी

यही मैं चाहूँगा सुनना
अपनी कविता के बारे में .
( 1941-47 )
( अनुवाद : मोहन थपलियाल )
विशेष : बेर्टोल्ट ब्रेख्त की यह कविता कहन की सादगी और आकार में बहुत छोटी होने के बावुजूद कविता पर लिखी गयी विश्व की महानतम कविताओं में-से है . यहाँ ब्रेख्त जिस तरह की कविता की कामना करते हैं और जैसी उन्होंने लिखी भी हैं ; वैसी कविता लिख पाना शायद प्रत्येक कवि का स्वप्न होता है . इसीलिए ' दहलीज़ ' के अंतर्गत इस बार यही कविता प्रस्तुत की जा रही है .

Saturday, July 25, 2009

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि - निराला

एक गाँधी अध्ययन केन्द्र के सेमिनार का निमंत्रण मिलने पर अचानक निराला की यह कविता याद आने लगी है ...........इसके लगाने के लिए फोटो की खोज की तो इंगलैंड में गाँधी जी के नाम पर खुले इस तंदूरी करी विशेषता वाले रेस्तरां की यह अद्भुत फोटो हाथ लगी !


बापू, तुम मुर्गी खाते यदि............तो इससे ज़्यादा क्या होता !

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि
तो क्या भजते होते तुमको
ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे - ?
सर के बल खड़े हुए होते
हिंदी के इतने लेखक-कवि?

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि
तो लोकमान्य से क्या तुमने
लोहा भी कभी लिया होता?
दक्खिन में हिंदी चलवाकर
लखते हिंदुस्तानी की छवि,
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि
तो क्या अवतार हुए होते
कुल के कुल कायथ बनियों के?
दुनिया के सबसे बड़े पुरुष
आदम, भेड़ों के होते भी!
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि
तो क्या पटेल, राजन, टंडन,
गोपालाचारी भी भजते- ?

भजता होता तुमको मैं औ´
मेरी प्यारी अल्लारक्खी !

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि !
***

Friday, July 24, 2009

बाली (इन्डोनेशिया) की कविता ........ सोक सवित्री

सोकार्दा इस्त्री सावित्री, जिन्हें आमतौर पर सोक सावित्री के नाम से जाना जाता है, 1968 में मुस्लिम बहुल इंडोनेशिया के हिन्दू बहुल बाली प्रांत में जन्मी सोक ने "बाली पोस्ट" में पत्रकार के तौर पर अपने लेखकीय जीवन का श्रीगणेश किया। बाद में उपन्यास और कविताएँ भी लिखीं पर उनका मन सबसे ज्यादा थियेटर में रमता है। उनका अपना थियेटर ग्रुप भी है जो पारम्परिक लोक जीवन से उठाए गए स्त्री पात्रों की वर्तमान राजनैतिक सामाजिक शक्ति संदर्भों में पुनर्व्याख्या करता है। लम्बे समय तक सत्ता में रहे राष्ट्रपति सुहार्तो के आखिरी दिनों में वे स्त्रीवादी विमर्श की मुखर प्रवक्ता के तौर पर उभरीं और कई बार तो ऐसा लगने लगा कि अपने विचारों के कारण उन्हें अपनी सरकारी नौकरी गँवानी पड़ सकती है। हाल के वर्षों में प्रस्तावित पोर्नोग्राफी कानून के कड़े प्रावधानों का विरोध करने के कारण वे विवादों में रहीं - बाली की सांस्कृतिक उन्मुक्तता (जैसे वहाँ की स्त्रियों के ब्रा न पहनने की परिपाटी) पर कट्टरवादी इस्लामी शिंकजा कसने का उन्होंने जोर शोर से विरोध किया। बाली द्वीप की लुप्तप्राय भाषाओँ को बचाने के लिए भी वे प्रयासरत हैं। यहाँ प्रस्तुत कविता आस्ट्रेलिया से प्रकाशित "साल्ट मैगजीन" से उद्धृत है - अंग्रेजी अनुवाद हैरी एवेलिंग ने किया है।

तुम्हारे साथ प्यार की बातें

जब तुम मुझसे करोगे
प्यार की बातें
चाहे कितनी भी अनगढ़ हो तुम्हारी भाषा
मैं थोड़ा अचकचाकर
ठहाके लगाकर हँसूँगी ही
और हो जाऊँगी खुद से बेखबर बावली सी ......

चाहे कितनी भी अनगढ़ हो तुम्हारी भाषा
प्यार उमड़ घुमड़कर इस तरह घेर लेगा मुझे
कि आधी रात जाग पडूँगी मैं हड़बड़ाकर
जैसे एकाकी छूट जाऊँ मैं भरी भीड़ में
मेरे अंदर जुनून में हहराने लगेंगे
तुम्हारी स्मृतियों के ज्वार..........

तुम्हें खूब मालूम है..... हतप्रभ हो जाऊंगी मैं
दुनिया के दागे बस मामूली से ही किसी सवाल पर
फिर प्यार इस तरह ले लेगा आगोश में अपनी
कि दुनिया को रख लूँगी मैं जूते की नोंक पर
बस एक बार करो तो
मुझसे तुम प्यार की बातें...........

चाहे कितनी भी अनगढ़ हो तुम्हारी भाषा
मैं दुत्कार दूँगी दुनिया को
तुम्हारे सामने ही
अब रात में भी कहाँ मुँदेंगी मेरी आँखें
और भला कैसे हो पायेगा दिन में भी मुझसे कोई काम
मेरा मन हुआ करेगा एकदम व्यस्त
खींचने में रंग बिरंगे चित्र मनोभावों के
आँखें होने लगेंगी भारी
रोशनी से महरूम
ये दुनिया लगने लगेगी मुझे
जैसे हो ही न कहीं कुछ.....
मैं प्यार की वेदी पर
चढ़ा दूँगी ये दुनिया
जब तुम मुझसे करोगे प्यार की बातें

चाहे कितनी भी अनगढ़ हो तुम्हारी भाषा ....

देखो तो, मैं वो अब रही ही कहाँ
थी जो थेाड़ी देर पहले तक...........
****
यादवेन्द्र
ए-24, शाति नगर,
रूड़की
फोन न. 9411100294

Thursday, July 23, 2009

दहलीज़ 2 : काव्य-कला - खोर्खे लुइस बोर्खेस / मूल स्पानी से अनुवाद : प्रभाती नौटियाल

हमारे सहलेखक पंकज चतुर्वेदी अनुनाद पर एक स्तम्भ शुरू कर रहे हैं। यह विशेष रूप से नए लेखकों के लिए है। इसके लिए रचनाओं के चयन लिए पंकज जी ने दो मानक बनाये हैं - पहला, विश्व कविता से १९२० के बाद की ही कवितायें ली जाएँगी और दूसरा, हिन्दी कविता १९४७ के बाद की ली जायेगी। तीसरा मानक मैं बना रहा हूँ और वो ये कि इस स्तम्भ की पूरी जिम्मेदारी पंकज चतुर्वेदी ही संभालेंगे। अनुनाद के मुझ समेत अन्य लेखक चाहें तो उन्हें अपनी पसंद मेल कर दें पर चयन उन्हीं का होगा। पाठक भी अपनी पसंद अनुनाद पर दिए मेरे मेल पर भेज सकते हैं, उनका सदैव स्वागत है।



मित्रो , ' अनुनाद ' पर हम यह एक नया स्तंभ शुरू कर रहे हैं -----"दहलीज़ ". इसमें सिर्फ़ वही रचनाएँ मुहैया की जायेंगी ; जो कविता लिखना प्रारंभ करनेवाले बिलकुल नये कवियों , कविता मात्र से प्यार करनेवाले पाठकों और कविता में ख़ास अभिरुचि रखनेवाले कवियों के लिए बेहद अहम होंगी . कॉलम का यह नाम मेरे विशेष अनुरोध पर मशहूर कवि श्री असद ज़ैदी ने रखा है . यों इस स्तंभ की शुरूआत दिनांक 6 जुलाई , 2009 की पोस्ट में मेरे द्वारा प्रस्तुत की गयी बेर्टोल्ट ब्रेख्त की कविता ' निर्णय के बारे में ' ( अनुवाद : नीलाभ अश्क ) से हो चुकी है . मगर इसका औपचारिक एलान अब मुमकिन हो पा रहा है , जब इसे कार्य-रूप देने का मन मैंने आखिरकार बना लिया है. इस विशेष सन्दर्भ में उपर्युक्त कॉलम के अंतर्गत कृपया इसे दूसरी पोस्ट मानते हुए पढ़िएगा !

काव्य-कला - खोर्खे लुइस बोर्खेस

समय और पानी से बनी नदी को निहारना
और याद करना कि समय ही दूसरी नदी है
यह जानना कि नदी की तरह हम खो जाते हैं
और कि चेहरे पानी की तरह गुज़र जाते हैं .

यह महसूस करना कि जगे रहना दूसरा सपना है
जो सपने न देखने का सपना है और कि मृत्यु
जिससे डरती है हमारी देह , है मृत्यु भी वही
हरेक रात की और नींद है कहलाती .

दिन या साल में एक प्रतीक देखना
आदमी के दिनों और सालों का ,
सालों के तिरस्कार को बदलना
एक संगीत , एक अफ़वाह , एक प्रतीक में .

मृत्यु में नदी को देखना , सूर्यास्त में
एक खिन्न सोना , ऐसी ही है कविता
जो अमर और ग़रीब है . कविता
ऐसे लौटती है जैसे भोर और सूर्यास्त .

कभी-कभी शाम को एक चेहरा
हमें निहारता है एक आईने की गहराई से ,
कला होनी चाहिए जैसा वह आईना
जो दिखाता है हमें हमारा ही चेहरा .

कहते हैं कि युलीसिस , चमत्कारों से अघाया ,
प्रेम के आँसू रोया था अपनी इथाका पहचानकर
हरी-भरी और साधारण . कला है वही इथाका
हरी-भरी चिरंतनता की , चमत्कारों की नहीं .

यह भी है अंतहीन नदी की तरह
जो बहती है और आईना है एक
उसी चंचल हेराक्लिटस का , जो बिलकुल वही है
और दूसरा है, अंतहीन नदी की तरह .
****

( ' लोर्का ', वर्ष 1, अंक 1 से साभार )

Wednesday, July 22, 2009

पारदर्शी दिन बदल रहे हैं शाम में - जार्ज हेइम

अनुनाद पर मेरी पहली पोस्ट के रूप में प्रस्तुत है जर्मन अभिव्यंजनावादी कवि जार्ज हेइम (३० अक्तूबर १८८७ - १६ जनवरी १९१२) की एक कविता........अनुवाद मेरा किया हुआ है और अब इस पर आप सबकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है।



"पारदर्शी दिन बदल रहे हैं शाम में"

पारदर्शी दिन बदल रहे हैं शाम में
सूर्यास्त अब मृदुल और सुकुमार लगता है
वह चारदीवारी दिखनी कम होती जा रही है
जिसके पीछे रेल-पेल है
गोल मीनारों के बीच झाँकती रंग-बिरंगी छतों की

चमकदार बादल के पीछे

वह गोल सफ़ेद सिरवाला
चांद सो गया है आकाश में
और घरों-पार्कों के बीच से गुज़रती

धुंधली पड़ती जा रही हैं गलियाँ

सिर्फ़ फाँसी के फंदे झूल रहे हैं ख़ुशी से
वहाँ ऊँचाई पर टिकटी की नाच रहे हैं
और उनकी काली आवाज़ के नीचे
लेटे हुए जल्लाद सो रहे हैं
ताज़ा रक्त चिपका हुआ है फरसे पर

****

- अनुवाद : अनिल जनविजय
http://www.kavitakosh.org/
www.gadyakosh.org

Tuesday, July 21, 2009

बाबा नागार्जुन की कविता .....


युवा आलोचक प्रियम अंकित अनुनाद के सहलेखक हैं पर इंटरनेट की कुछ बुनियादी परेशानियों के कारण अपनी पहली पोस्ट नहीं लगा पा रहे थे - अपना संकोच तोड़ कर अब उन्होंने अपनी यह पोस्ट मेल से भेजी है जिसे मैं ज़्यादा कुछ न कहते हुए नीचे चस्पां कर रहा हूँ...........अनुनाद पर बतौर ब्लोगर आपका स्वागत है प्रियम जी।


साथियों , अनुनाद पर आपसे मुखातिब होना सुखद है। बतौर पहली पोस्ट बाबा नागार्जुन की कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ । यह कविता बंजरपन की सामाजिकता के विरुद्ध प्रेम के निजी संवेगों की उर्वरता को उदघाटित करती
- प्रियम अंकित


कर गयी चाक
तिमिर का सीना
जोत की फाँक
यह तुम थीं

सिकुड़ गयी रग-रग
झुलस गया अंग-अंग
बनाकर ठूंठ छोड़ गया पतझार
उलंग इसगुन-सा खड़ा रहा कचनार
अचानक उमगी गालों की सन्धि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं

झुका रहा डाल फैलाकर
कगार पर खड़ा कोढ़ी गूलर
ऊपर उठ आयी भादों की तलइया
जुड़ा गया बोने की छाल का रेशा-रेशा
यह तुम थीं !
****

Monday, July 20, 2009

एक गड़बड़ कविता ........

दोस्तो / पाठको !

ये एक पुरानी कविता है, जिसे अपनी उलझनों के कारण एक पत्रिका में मैंने छपते छपते रोक लिया था। कविता कई जगह पर टूटी बिखरी है - विचार के स्तर पर भी उलझी हुई है लेकिन इन संकटों के बावजूद ये है कि बस है ! आज सोचा आप सबके साथ इसे साझा किया जाए और आपकी प्रतिक्रियाएं जानी जाएं।


एक विकल वानर-दल........
(निराला को समर्पित, जिनकी पंक्तियों से इतने बरस बाद भी एक युवा कवि को इतनी मदद और दिशा मिली)


घरों के ऊपर टीन-छतों पर
छज्जों पर
पेड़ों पर
बिजली के ठण्डे खंभों पर
दिनभर
विचरता रहता है
एक विकल वानर-दल

दुनिया को
घरों में घुसेड़ती केबल के सहारे
चलती चली जाती है
वानर मां

सड़क के इस पार से उस पार
अपने ललछौंहे नवजात को
छाती से चिपटाए

मुहल्ले की तमाम औरतों की तरह ही
जाड़ों की सुखद धूप में
बच्चों के साथ सबसे ऊंची छतों पर
अलसाने में विशेष रुचि रखता है
वानर-मांओं का समूह

वहां रोज ही
मैंने देखा है उसको
सबसे तंदुरुस्त
वह शायद दलपति की प्रमुख प्रेयसी है
गर्वीली और शानदार
हर वक़्त घुड़कती
बच्चे के निकट आते नौउम्र किशोर
वानरों को
जिन्हें सिर्फ उसके बालों से
जूं निकालने की
इजाज़त है

दलपति
कड़ी निगाह रखता है उन पर
जो बहुत पूंछ उठाकर चलते हैं
और कभी-कभार तो
एक अक्षम्य उद्दण्डता के साथ
जा बैठते हैं
उसके बैठने की जगह से भी ऊपर
किसी जगह पर

उसका कठोर अनुशासन
अकसर
ऐसे वानर के घायल पांवों या उधड़ी चमड़ी में
दिखता है

नीचे सड़कों पर मानव चलते हैं
आदमी
औरतें

और बच्चे
अपने ऊपर कायम इस दुनिया से
लगभग बेपरवाह
जबकि जीवन के कठिन समर में
उनके इनके बीच
कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है

हां, इतना है कि नीचे सड़कों पर
भीड़-भाड़
या झगड़ा हो जाने पर रुकने-थमने-सा लगता है
मानव-जीवन-प्रवाह
लेकिन ऊपर
बिजली के तारों तक पर वानर-दल का आना-जाना
अनथक
जारी रहता है

हालांकि उसमें भी झगड़े होते हैं
लेकिन बिना किसी दुर्भावना के
बिलकुल द्वेषहीन
ज़्यादा से ज़्यादा खाने को या फिर दल में अपने लिए
एक सम्मानजनक जगह बनाने को
आपस में
थोड़ी लूटपाट भी होती है

रहा कड़क अधिनायकवाद ऐंठी दुम वाले
दलपति का
तो वह अलग बात है-
कहां
उसके संजीदा चेहरे पर दिखती दुर्धर्ष इच्छा
और क्षमता भी
अपने समूह में जीवन को सुगम बनाने की
और कहाँ
मनुष्य की वह विनम्र शातिर
कायरता

दलपति वाकई बहुत साहसी है
उसे किसी का भय नहीं
हमेशा ही
झपट लाता है दुकानों और ठेलों से खाने की चीज़ें
जिन्हें
वह सिर्फ अपनी प्रमुख प्रेयसी के साथ बांटना पसन्द करता है
ललचाई आवाज़ में
गुहार लगाती थक जाती हैं
उसके हरम की दूसरी
मादाएं
लगातार उनमें अपना वंश-बीज बोते भी शायद
उसके मन में
बस एक ही का प्रेम पलता है

नीचे
सड़कों पर लोलुप नज़रों से
पकी उम्र वाले गंभीर पुरूष भी
कालेज से लौटती लड़कियों और साथी का हाथ पकड़कर
बिन्दास घूमती सैलानी स्त्रियों को
ताकते गुज़रते हैं

एक पागल है
जो लगातार बकता है गालियां
एक और है जो अचानक कहीं से नंगा होकर आ जाता है
शर्मिन्दा करता हुआ सबको

ऊपर बैठे वानर इस सबमें कोई दिलचस्पी नहीं रखते
बिना संक्रमित हुए वे पागल भी नहीं होते
उनकी निगाह तो
हर वक़्त बाज़ार और छतों पर बिखरे सामान पर रहती है
जिसमें वे
सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना खाना तलाशते हैं

देखता हूं आज
नीचे सड़क अब भी गुलज़ार है
बीती रात दुकान से वापस जाते एक बूढ़े और
अशक्त मुनीम को
चाकू मार गया कोई
शायद पैसों के फितूर में
लेकिन रोज़ की ही तरह खुला बाज़ार
उतने ही रहे बेशर्मी के आसार
अपनी प्राथमिक जांच रिपोर्ट में पुलिस ने कहा-
एक ही सधे हुए वार में फेंफड़ो तक चाकू उतार देने वाला
वह ज़रूर कोई शातिर हत्यारा था

याद आया कुछ रोज पहले ही
दिल्ली से आयी किसी धनपशु की भव्य कार के नीचे
कुचलकर मारा गया था
एक वानर किशोर
दल में उसकी जगह बहुत मामूली थी
पर अकस्मात
सड़क पर उतर आया पूरा वानर-समूह
ज्यों राक्षस-विरुद्ध प्रत्यूह, क्रुद्ध-कपि-विषम-हूह
आने-जाने वालों पर झपटकर
उसने
बीस मिनट तक रास्ता रोके रखा था

एक ही साथ
बेहद करुण और क्रुद्ध स्वर में पुकारते
उन विकल वानरों का-सा स्वर
क्या मानव के भीतर नहीं उपजता?

सचमुच ऊपर-ऊपर चलता है
संसार हमारा
भीतर-भीतर रीता जाता है
यों जब अपने पर बीते तो हम भी रो सकते हैं
हमको भी गुस्सा आता है

वे वानर
ज़्यादातर बाहर के जीवन को जीते हैं
भीतर कुछ उठता भी है
तो उसको फौरन बाहर ले आते हैं
हममें संवेदन उनसे ज़्यादा है
पर खुद से बाहर
अकसर ही
हम असफल हो जाते हैं

यों दो अलग-अलग
प्राणी समुदाय
एक ही जगह बसर करते हैं
दो अलग धरातल हैं शायद
जीवन के
कि वे भरते हैं पेट फक़त
हम जेबें भी भरते हैं।

देखता हूं मैं नज़र भरकर
झुटपुटे में शाम के
एक भारी पेड़ की ऊँची डगालों पर
शयन करने को गया
वानर-दल

नींद की इस सरल दुनिया से तनिक नीचे
अभी तक
रोशनी में जगमगाती है
सड़क
और उसकी लपलपाती बांह में
बाज़ार अब भी सज रहा है

लेकिन भीतर हमारे
फिर अमानिशा
फिर उगलता गगन घन अंधकार
हम खो रहे
फिर से दिशा का ज्ञान

अप्रतिहत गरजती गाड़ियां अब भी
विशाल
बहुत ऊपर डाल पर बैठा हुआ दलपति -

भूधर ज्यों ध्यान-मग्न
उसकी आँखों में कहीं
जलती मशाल!
  
27 अक्टूबर 2005

Sunday, July 19, 2009

वो कई दूसरे जो मैं हुआ करते थेः मेरिटोक्रेसी पर एक विलाप - गिरिराज किराडू


1
साहित्य की जिस एक चीज़ ने मुझे मेरे लड़कपन में सबसे ज्यादा आकर्षित किया था, जिस एक चीज़ से सबसे ज्यादा राहत मिलती थी वो यह नहीं थी इसके ज़रिये दुनिया को या खुद को बदला जा सकता था। जिन दिनों मैंने लिखना शुरू किया मैं अपने आपसे इतनी बुरी तरह प्रेम करता था कि अपने को बदलने का खयाल तक नहीं आता था और दुनिया के मेरे अनुभव थोड़े ख़राब तो थे पर उतने नहीं कि मैं उसे बदलने के षड्यंत्रों में शामिल हो जाता. दुनिया में मेरे लिए सबसे ख़राब चीज़ थी मेरिटोक्रेसी - यह शब्द मैं तब नहीं जानता था और मुझे लगता था साहित्य में सबके लिये जगह होती है, सिर्फ मेरिट वालों के लिये नहीं. यह मेरे लिये साहित्य की ‘पहचान’ थी। मैं एक 'टैलेन्टेड' टाईप विद्यार्थी ही था और जूनियर हायर सेकिंडरी में बायोलोजी लेने के बाद सीधे डॉक्टर बनने की ओर बढ़ रहा था - बावजूद डिसेक्शन बॉक्स सबसे अच्छा होने के (यह हमारी आर्थिक स्थिति का नहीं मेरी जिद और पापा के स्नेह का सबूत था; कभी बंगाल में राशन की दुकानों पर लम्बी लाईनों में खड़े रहने की बजाय दादागिरी से लाईन तोड़ने वाले और अपने लिये किसी लोकल दादा से बेहतर भविष्य की उम्मीद न कर सकने वाले पापा नौकरी के पहले 11 साल बीकानेर में बैंक क्लर्क रहे सिर्फ इसलिये कि उन पर चार लोगों के ‘अपने’ परिवार के अलावा तीन भाईयों की जिम्मेवारी भी थी और वे उन्हें छोडकर अफसर बनकर किसी और शहर नहीं जाना चाहते थे – अफसर बनने पर ट्रांसफर अनिवार्य था) और किसी तरह एक कॉक्रोच की हत्या सफलतापूर्वक कर लेने के यह पता उसी साल चलने लग गया था कि मेरा मन कहीं और है – उन्हीं दिनों मैं पाखाने में रोटी खाने की इंतहा तक गया था (यह उत्तर-मंडल कमीशन युग था और हाईजीन तो तब एक ‘एलीट’ चीज़ थी ही मेरे लिये)। मेरे रिश्तेदारों में जिस एक मात्र व्यक्ति ने मेरे साथ कामरेड श्योपत को बीकानेर से सांसद बनाने की ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल करने के लिए अपना तन मन दांव (धन की अनुपस्थिति पर गौर करें) पर लगाया था वही भैया यह सिद्ध करना चाह रहा था कि वर्णाश्रम/अस्पृश्यता जन्म-आधारित नहीं, कर्म-आधारित होते हैं जब पाखाने से आते हो तब क्या खुद तुम्हें ही कोई हाथ लगाता है? बात इतनी बढ़ी कि मैंने एक कौर वहीं जाके तोड़ा. अब आप अंदाजा लगा सकते हैं मैं क्या कर रहा था। उधर ब्राह्मणों का गुरुकुल/गढ़ माने जाने वाले एक सरकारी हिन्दी मीडियम स्कूल में वर्षांत का भाषण (अंग्रेजी में) देते हुए मैं दो घटनाओं को सार्वकालिक महत्व की पहले ही बता चुका था - बर्लिन दीवार का ढहना और भारत जैसे हतभागे देश का वी.पी.सिंह जैसे संत प्रधानमंत्री को खो देना. मेरिटोक्रेसी से आस्तित्विक चिढ़ के कारण ही मैं आरक्षण का बहुत वोकल समर्थक हुआ और दो तीन बार पिटते पिटते बचा।


सीनियर हायर सेकिंडरी का नतीजा आने तक मैं काफी बदनाम हो चुका था - आने वाले कई साल बहुत प्लेन अकेलेपन और प्लेन यातना में बीतने वाले थे। मुझे दो साहित्य लेकर बी. ए. करना था - फिर अंग्रेजी साहित्य में पीजी ; यह पता चलना था कि १९८९ के चुनाव में कामरेड श्योपत का कामरेड होना नहीं, जाट और गैर-कांग्रेसी होना ज्यादा महत्त्वपूर्ण था (कांग्रेस सारी २५ सीटों पर हारी थी राजस्थान में पर कामरेडों को चुनाव के बाद बीजेपी के साथ मिलके वी.पी.की सरकार बनवाना था), कि कामरेड श्योपत कामरेड कहने भर के ही थे; मैं आर्ट्स में भी अपनी 'स्कोरिंग कैपेसिटी' खो देने वाला था. घर में ज्यादा उम्मीदें नहीं थी यह बहुत राहत वाली बात थी। पापा खुद कभी एम्बीशियस नहीं रहे, हाँ माँ को यह ख़राब लगता था कि पहली पर तो कभी कभार ही आता था, अब दूसरी तीसरी पोजिशन पर भी नहीं आता (यह कहते ही मुझे छठी से दसवीं तक दूसरे तीसरे स्थान पर बनाये रखने वाले विलेन प्रदीप चौधरी, हेमंत भारद्वाज, धीरेन्द्र श्रीवास्तव, प्रीति समथिंग याद आने लगते हैं - सलामत रहो दोस्तो जहाँ भी हो अब मैं दौड़ से बाहर हूँ, और तुम सब को प्यार करता हूँ क्या तुम्हें नहीं पता हिंदी लेखक होते ही मनुष्य समूचे चराचर जगत से प्रेम करने लग जाता है, बस दूसरे हिन्दी लेखकों को छोड़कर). इन प्लेन यातना और प्लेन अकेलेपन के दिनों में जो लोग हमारे जैसे टीनएजर थे १९८९ में, वे बहुत भौंचक थे - १९९२ तक आते आते वे अजनबी हो गए थे, घर में बाहर सब जगह।


इन्ही सालों में मुझे एक रात मेरी एक चाची अपने दादा के घर ले गयीं - वे अत्यंत वृद्ध और बीमार थे और उसी रात उनका देहांत हुआ. उसके कुछ दिनों बाद मैंने कुछ लिखा जिसे कविता कहने वाले एक दो लोग जल्दी ही मिल गए. यह पहली ‘कविता’ ही ‘अंतिम सत्य’ के बारें में थी यह जुमला कई दिन अच्छा लगता रहा था।

2
इस नयी दुनिया में मेरिट का आतंक कई सालों तक मुझे नहीं दिखा - वो यकसापन (होमोजिनिटी) जो बहुत ख़राब लगता था यहाँ कहीं नहीं था। मेरे ऐसे इम्प्रेशन शायद इसलिए भी थे कि मेरे सबसे छोटे, थियेटर करने वाले चाचा की लाइब्रेरी बहुत अगड़म बगड़म थी। मेरी शुरुआती रीडिंग ज्यादातर नाटकों की थी - मोहन राकेश, बादल सरकार, तेंदुलकर, कर्नाड की अनिवार्य खुराक, अंकल और दोस्तों ने बीकानेर में एंड गेम, वेटिंग फॉर गोडो, एवम् इन्द्रजीत आदि करके जो “सांस्कृतिक अत्याचार” किया था उसका कुछ गवाह मुझे भी होना था. यह कैसा ‘डिवाईन’ प्रतिशोध है कि यह अत्याचार करने वाले अंकल आजकल रामानंद सागर के बेटों के साथ सागर आर्टस में हैं। लेकिन मेरिट का आतंक और होमोजिनिटी यहां नहीं है, यह दिल को खुश रखने वाला अच्छा खयाल ही साबित हुआ। हिन्दी की साहित्यिक दुनिया में श्रेष्ठता का संवेग बहुत गहरे तक है, बाजदफ़ा श्रेष्ठता ग्रंथि भी। मेरिटिक्रेसी यहाँ भी है और यह अहसास जब तक नहीं हुआ मैं इस खेल में शामिल भी रहा – चाहे जितनी दूर दूर से और हार्मलेस तरीके से ही सही। होमोजिनिटी भी बहुत है बल्कि ऐसा तंत्र है जो सबसे एक जैसी अपेक्षाएँ करता है, सबके लिये एक जैसे कार्यभार और परियोजनायें तय करता है और इसकी बहुत परवाह नहीं करता कि यह होमोजिनिटी बहुत कृत्रिम हो जायेगी (अतीत के लेखकों के एप्रोप्रियेशन के संदर्भ में हालांकि नामवर सिंह इस संभावित कृत्रिमता की पहचान अस्सी के शुरू में ही कर चुके थे), बल्कि हो गयी है और जब यह शिकायत की जाती है कि बहुत ज़्यादा कवि हैं या एक जैसी कविता लिख रहे हैं तो अजीब लगता है क्योंकि यह तो हमने खुद ही आमंत्रित किया था, होना ही था!


3
मैं जहाँ से आया वह हिन्दी का रोज़मर्रा नहीं था ना मैं दिल्ली-पटना-लखनऊ-इलाहाबाद-बनारस-भोपाल जैसे भूगोल से आया था, ना हिन्दी अध्ययन-अध्यापन-प्रकाशन-पत्रकारिता जैसे ‘वातावरण’ से और बद्रीनारायण की तरह कहा जा सकता है कि ना नामवरजी से रिश्तेदारी थी ना वाजपेयीजी से परिचय। लेखक होने का कोई अभ्यास नहीं था – खुद को नैतिक रूप से सदैव सही मानने और देश-दुनिया में हो रही सब गड़बड़ी के कारण और समाधान जानने का आत्मविश्वास भी नहीं था हालांकि वैसा होना बहुत कारगर रहता (बावजूद देवी प्रसाद मिश्र जैसे ब्लसफेमस लोगों के जो कहते हैं कि इस कारगरता ने हिन्दी लेखन को बहुत पाखंडपूर्ण बनाया है)।


4
यह सब वो बैकड्रॉप है जिसमें मैं धीरे धीरे हिन्दी लेखक हुआ; हुआ कि नहीं इस पर संदेह उतना ही बना हुआ है वैसे। समूची सृष्टि से एकात्म हो सकना तो जाने कैसे होता होगा, किसी दूसरे के दुख-सुख आदि को महसूस कर सकने, उसे अपना बना सकने की बुनियादी संवेदना/क्षमता भी है कि नहीं कुछ ठीक से दावा नहीं कर सकता। ये मोज़जा भी कविता/साहित्य ही कभी दिखाये शायद मुझे (कि संग तुझ पे गिरे और जख़्म आये मुझे)।

5
हिन्दी समाज की तरह हिन्दी साहित्य में भी व्यक्ति का, व्यक्तिमत्ता का वास्तविक सम्मान बहुत कम है कुछ इस हद तक कि कभी कभी लगता है यहाँ व्यक्ति है नहीं जबकि बिना व्यक्ति के (उसी पारिभाषिक अर्थ में जिसमें समाज विज्ञानों में यह पद काम मे लाया जाता है) ना तो ‘लोकतंत्र’ (ये शै भी हिन्दी में वैसे किसे चाहिये?) संभव है ना ‘सभ्यता-समीक्षा’ जैसा कोई उपक्रम। यह तब बहुत विडंबनात्मक भी लगता है जब हम किसी लेखक की प्रशंसा ‘अपना मुहावरा पा लेने’, ‘अपना वैशिष्ट्य अर्जित कर लेने’ आदि के आधार पर करते हैं। यूँ भी किसी लेखक के महत्व प्रतिपादन के लिये जो विशेषण हिन्दी में लगातार, लगभग आदतन काम में लिये जाते हैं - “महत्वपूर्ण” कवि, “सबसे महत्वपूर्ण” कहानी संग्रह, “बड़ा” कवि, हिन्दी के “शीर्ष-स्थानीय” लेखक, “शीर्षस्थ” उपन्यासकार आदि – वे श्रेष्ठता के साथ साथ ‘विशिष्टता’ और "सत्ता" के संवेग से भी नियमित हैं। एक तरफ होमोजिनिटी उत्पन्न करने वाला तंत्र और दूसरी तरफ विशिष्टता, श्रेष्ठता की प्रत्याशा। व्यक्तिमत्ता के नकार और उसके रहैट्रिकल स्वीकार के बीच उसका सहज अर्थ कि वह ‘विशिष्ट’ नहीं ‘भिन्न’ है, कि अगर 700 करोड़ मनुष्य हैं तो 700 करोड़ व्यक्तिमत्ताएँ हैं कहीं ओझल हो गया है।


हिन्दी साहित्य मेरी कल्पना में कोसल है जो कुछ ‘मेरिटोरियस’ लेखकों का, अमरता के उद्यमियों का उपनिवेश नहीं, हजारों-लाखों का गणराज्य है।


6
नाईन्टीज के मध्य में पहली बार लिखने और उसके औपचारिक समापन के दिनों में पहली बार प्रकाशित होने वाले अपने पुराने चेहरों से मेरा परिचय अब कुछ धुंधला पड़ गया है, शायद मैं बदल गया हूँ और इस खुशफहम खयाल को हो सके तो कुछ दिन थाम के रखना चाहता हूँ कि बदल कर अगर बेहतर नहीं बदतर हुआ हूँ तो भी इस ‘परिवर्तन’ में सबसे बड़ा, निर्णायक रोल साहित्य का रहा है, गो कि पूरी तरह हिन्दी साहित्य का नहीं।

Friday, July 17, 2009

पाब्लो नेरुदा की दो अद्भुत कविताएँ - अनुवाद : मंगलेश डबराल


सीधी-सी बात

शक्ति होती है मौन ( पेड़ कहते हैं मुझसे )
और गहराई भी ( कहती हैं जड़ें )
और पवित्रता भी ( कहता है अन्न )

पेड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं सबसे ऊँचा हूँ !'

जड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं बेहद गहराई से आयी हूँ !'

और रोटी कभी नहीं बोली :
'दुनिया में क्या है मुझसे अच्छा !'
****

भौतिकी

प्रेम हमारे रक्त के पेड़ को
सराबोर कर देता है वनस्पति -रस की तरह
और हमारे चरम भौतिक आनंद के बीज से
अर्क की तरह खींचता है अपनी विलक्षण गंध
समुद्र पूरी तरह चला आता है हमारे भीतर
और भूख से व्याकुल रात
आत्मा अपनी सीध से बाहर जाती हुई , और
दो घंटियाँ तुम्हारे भीतर हड्डियों में बजती हैं
और कुछ शेष नहीं रहता सिर्फ़ मेरी देह पर
तुम्हारी देह का भार , रिक्त हुआ दूसरा समय .
****
विशेष : ये कविताएँ मुझे , हमारे समय की एक अनिवार्य पत्रिका 'समयांतर' के एक पुराने अंक - जून ,२००४ से मिली हैं . कविताएँ और इनके अनुवाद इतने उत्कृष्ट, संवेद्य और पारदर्शी हैं कि 'कमेन्ट ' की कोई ज़रूरत नहीं।
****

Wednesday, July 15, 2009

सीमा यारी की कुछ और कवितायें ...अनुवाद एवं प्रस्तुति: यादवेन्द्र

सीमा यारी की एक प्रेमकविता यादवेन्द्र जी पहले अनुनाद पर लगा चुके हैं। आज प्रस्तुत हैं कुछ और कविताएं। अनुवाद यादवेन्द्र जी का ही है। उम्मीद हैं ये कवितायें भी आपको पसन्द आयेंगी।

पाती

कोई देख नहीं रहा है
यहां आओ
यहां, दीवार से और सटकर
झांको इसकी दरार के अंदर
जो बनी हुई है ईंटों के बीचो-बीच :
एक खत !



इरादा

इतने सारे हैं
तुम्हारे नाम
जितने हैं दाँत
बार बार तुम्हें पुकारते मेरे मुंह में -

हर बार हर गीत में
उनको मिल जाते हैं
इन्हीं स्वरों के आरोह-अवरोह

जैसे मैं ख़ुद को ही पुकारूं
सब के बीच
तुम्हारे ही कई नामों से



उड़ान

परिंदा है
हवा का
और हवा है
परिंदे की

हवा ने
नहीं चाहा कभी
कि कब्ज़ा कर ले परिंदे पर
परिंदे ने नहीं चाहा कभी
कि बांध ले हवा को किसी खूंटे से

परिंदा है
हवा का
हवा है
परिंदे की -

और इन दोनों के साझे में है
उड़ान का निस्सीम विस्तार
अक्षत अखंड



प्रेम

अपनी लालिमा का शबाब ओढ़े
वो गुलाब
खिल रहा है डाल पर
क्या मजाल कि माली दे दे
ये ललछौंही
सौगात गुलाब को ...

और चाहे कितना भी जोर लगा ले अंधड़
छीन नहीं सकता
चिटके हुए गुलाब से
उसकी अरुणाभ लज्जा

सबसे बेख़बर खिल रहा है गुलाब
लाल लाल !



तुम और मैं

तुम रात की मानिंद हो -
जैसे बिलकुल यही रात
घुप्प काले लिबास में
लपेटे हुए अपना सारा बदन

छुपाने हैं तुम्हें अपने सूरज
छुपाने हैं तुम्हें अपने इंद्रधनुष
और बड़ा-सा रस से भरा सेब भी

मैं वक़्त की मानिंद हूं -
जैसे बिलकुल यही वक़्त
प्यार से फिरती हुई अंगुलियां रात के बदन पर
धीरे धीरे हटाते हुए
उसके लिबास की परतें
पहले एक
इसके बाद दूसरी
फिर एक और...



आहट

धरती डोल जाती है नींद में
पर अपनी जगह से खिसकता नहीं एक भी सामान
यहां तक कि एक पिद्दी-सर पंख भी ...

धधक उठती है ज्वाला नींद में
पर जलती नहीं कहीं एक भी चीज़
यहां तक कि मरियल-सी तीली माचिस की भी...

मैं मूंद लूंगी अपनी आंखें
और सोती रहूंगी बेख़बर गहरी नींद में
जब तक कि सुनाई न दे
तुम्हारे पैरों की आहट
बढ़ती हुई मेरी ओर
धीरे धीरे..
***

Tuesday, July 14, 2009

जहां की ३२% आबादी आदिवासी है...........

११-१२ जुलाई को नई दिल्ली मे सम्पन्न हुई जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जनांदोलनों और मानवाधिकारों पर क्रूर दमन ढानेवाली छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा १० व ११ जुलाई को प्रायोजित 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान" कार्यक्रम में बहुतेरे वाम, प्रगतिशील और जनवादी लेखकों, संस्कृतिकर्मियों की शिरकत को शर्मनाक बताते हुए खेद व्यक्त किया गया। स्व. प्रमोद वर्मा की स्मृति को जीवित रखने के लिए किए जाने वाले किसी भी आयोजन या पुरस्कार से शायद ही किसी कि ऎतराज़ हो, लेकिन जिस तरह छ्त्तीसगढ के पुलिस महानिदेशक के नेतृत्व में इस कार्यक्रम को प्रायोजित किया गया, जिस तरह छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इसला उदघाटन किया, शिक्षा और संस्कृतिमंत्री बृजमॊहन अग्रवाल भी अतिथि रहे और राज्यपाल के हाथों पुरस्कार बंटवाया गया, वह साफ़ बतलाता है कि यह कार्यक्रम एक साज़िशाना तरीके से एक खास समय में वाम, प्रगतिशील और लोकतांत्रिक संस्कृतिकर्मियों के अपने पक्ष में इस्तेमाल के लिए आयोजित था। यह संभव है कि इस कार्यक्रम में शरीक कई लोग ऎसे भी हों जिन्हें इस कार्यक्रम के स्वरूप के बारे में ठीक जानकारी न रही हो। लेकिन जिस राज्य में तमाम लोकतांत्रिक आंदोलन, मानवाधिकार संगठन, बिनायक सेन जैसे मानवाधिकारवादी चिकित्सक, अजय टी.जी. जैसे फ़िल्मकार, हिमांशु जैसे गांधीवादी को माओवादी बताकर राज्य दमन का शिकार बनाया जाता हो, जहां 'सलवा जुडुम' जैसी सरकार प्रायोजित हथियारबंद सेनाएं आदिवासियों की हत्या, लूट, बलात्कार के लिए कुख्यात हों और ३ लाख से ज़्यादा आदिवासियों को उनके घर-गांव से खदेड़ चुकी हों, जहां 'छ्त्तीसगढ़ पब्लिक सिक्योरिट ऎक्ट' जैसे काले कानून मीडिया से लेकर तमाम लोकतांत्रिक आंदोलनों का गला घोंटने के काम आते हों, वहां के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन (जिनके नेतृत्व में यह दमन अभियान चल रहा हो), के द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम के स्वरूप की कल्पना मुश्किल नहीं थी। वहां जाकर मुख्यमंत्री रमन सिंह के मुख से विचारधारा से मुक्त रहने का उपदेश और लोकतंत्र की व्याख्या सुनने की ज़िल्लत बर्दाश्त करने से बचा जा सकता था। बहरहाल, यह घटना वामपंथी, प्रगतिशील, जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन के लिए चिंताजनक और शर्मसार होने वाली घटना ज़रूर है। हम यह उम्मीद ज़रूर करते हैं कि जो साथी वहां नाजानकारी या नादानी में शरीक हुए, वे सत्ता द्वारा धोखे से अपना उपयोग किए जाने की सार्वजनिक निंदा करेंगे और जो जानबूझकर शरीक हुए थे, वे आत्मालोचन कर खुद को पतित होने से भविष्य में बचाने की कोशिश करेंगे और किसी भी जनविरोधी, फ़ासिस्ट सत्ता को वैधता प्रदान करने का औजार नहीं बनेंगे।

हम सब जानते हैं कि भारत की ८०% खनिज संपदा और ७०% जंगल आदिवासी इलाकों में हैं। छत्तीसगढ एक ऎसा राज्य है जहां की ३२% आबादी आदिवासी है। लोहा, स्टील,अल्युमिनियम और अन्य धातुऒं, कोयला, हीरा और दूसरे खनिजों के अंधाधुंध दोहन के लिए; टेक्नालाजी पार्क, बड़ी बड़ी सम्पन्न टाउनशिप और गोल्फ़ कोर्स बनाने के लिए तमाम देशी विदेशी कारपोरेट घरानों ने छ्त्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों पर जैसे हमला ही बोल दिया है। उनकी ज़मीनों और जंगलों की कारपोरेट लूट और पर्यावरण के विनाश पर आधारित इस तथाकथित विकास का फ़ायदा सम्पन्न तबकों को है जबकि उजाड़े जाते आदिवासी और गरीब इस विकास की कीमत अदा कर रहे हैं। वर्ष २००० में स्थापित छ्त्तीसगढ राज्य की सरकारों ने इस प्रदेश के संसाधनों के दोहन के लिए देशी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ पचासों समझौतों पर दस्तखत किए हैं। १०००० हेक्टेयर से भी ज़्यादा ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में है। आदिवासी अपनी ज़मीन, आजीविका और जंगल बचाने का संघर्ष चलाते रहे हैं। लेकिन वर्षों से उनके तमाम लोकतांत्रिक आंदोलनों का गला घोटा जाता रहा है। कारपोरेट घरानों के मुनाफ़े की हिफ़ाज़त में केंद्र की राजग और संप्रग सरकारों ने, छ्त्तीसगढ़ में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा कर दी है। कांग्रेस और भाजपा ने मिलकर सलवा जुडुम का फ़ासिस्ट प्रयोग चला रखा है। आज देशभर में हर व्यवस्था विरोधी आंदोलन या उस पर असुविधाजनक सवाल उठाने वाले व्यक्तियों को माओवादी करार देकर दमन करना सत्ताधारियों का शगल बन चुका है। दमनकारी कानूनों और देश भर के अधिकाधिक इलाकों को सुरक्षाबलों और अत्याधुनिक हथियारों के बल पर शासित रखने की बढ़ती प्रवृत्ति से माओवादियों पर कितना असर पड़ता है, कहना मुश्किल है, लेकिन इस बहाने तमाम मेहनतकश तबकों, अकलियतों, किसानों, आदिवासियों, मज़दूरॊं और संस्कृतिकर्मियों के आंदोलनों को कुचलने में सत्ता को सहूलियत ज़रूर हो जाती है।

प्रणय कृष्ण

कपिल देव की एक कविता


कपिल देव हिन्दी के सुपरिचित आलोचक-समीक्षक हैं। उन्होंने हमें ये कविता भेजी है, जिसके बारे में उनका कहना है कि ये कहीं भी छपने वाली उनकी पहली कविता है. अनुनाद पर स्वागत है कपिल जी !

यानी मैं


मुनाफाखोर रक्तपाती इतिहासों के
सदियों पुराने
जर्जर पृष्ठों से छिटक कर
इक्कीसवीं सदी की बिलासी वैचारिकता की गर्दन पर
नख-दंत की तरह धंसा हुआ
मैं एक अनवरत इनकार हूं-
सृष्टि का आदि अव्यय !
जिसे
नष्ट करने के अभियानों का इतिहास ही दरअसल
सभ्यताओं का इतिहास है

मैं एक औजार हूं
पिछली सदी से बंद पड़े
कारखानों के
कबाड़ में से झांकता हुआ
साबुत

तोरण-द्वार की तरह सजने वाली कविता के खिलाफ
उबलता हुआ एक प्रतिवाद हूं मैं
जो
समझौतापरस्त
चालाक और दुनियादार हाथों का रूमाल बनने से
इनकार करता है।

मैं अपने समय की सुचिक्कणता पर थूकता हूं
व्यक्तिवादी अस्मिताओं की चोंच में
दाना डाल रहे ‘थिंक-टैंकों’ की आंखो का कांइयापन
मेरे रक्तचाप को बढ़ा देता है
मैं अपने ही ‘पन’ के साथ जीना चाहता हूं।

मुझे जन्म देने वाली सदी को लेकर बहस छेड़ दी गई है
अफवाह है कि मैं
मनुष्यता की कोख में अनादि काल से छिपा
एक अदृश्य विकार हूं

मैं इतिहास का अपवाद हूं
जिसे
अवांछित घोषित करने के लिए
संविधान में संशोधन की घोषणा की जा चुकी है

गुस्सा और असहमति और प्रश्नाकुलता और असंतोष का
उबलता हुआ ज्वार हूं मैं
एक अचरज!
एक कलछौंह-
शीत-ताप नियंत्रित इक्कीसवीं सदी के समृद्ध गालों पर

मेरे बध का दिन मुकर्रर किया जा रहा है
प्रचारित कर दिया गया है कि
मेरी खदबदाहट
आधुनिकता की ड्रेनेज से गिरता हुआ बदबूदार झाग है

बुद्धिजीवियों के बीच मैं एक तकलीफदेह एजेंडा हूं
एक असुविधा
.....संस्कृति के जननायकों की पीठ पर
मची खुजली

मैं
बीसवीं सदी के अधबने सपनों को
बहुराष्ट्रीय राजमार्गों पर
फेंक कर भागती हुई
इक्कीसवीं सदी की
भविष्य-भीत पीढ़ी के अपराधी-इरादों का
चश्मदीद गवाह हूं

साक्षी हूं मैं
इस सदी के रक्तिम सूर्योदय
और
उधारी सम्पन्नताओं के मंच पर आयोजित
वसन्तोत्सव का
जहां भविष्य का स्वामी
वृहस्पति
सुविधाओं की चैपड़ पर हमारी निष्ठाओं का
दांव लगा रहा है
और लाल सलाम की गद्दी पर बैठा हुआ
बिना चेहरे वाला कामरेड
इक्कीसवीं सदी के नराधमों की रहनुमाई में
हंसने और
खामोंश रहने का प्राणायाम सीख रहा है

मैं एक ‘विटनेस बाक्स’ हूं,
गूंगा और अशक्त
जिसमें खड़ी हो कर
यह सदी
अपनी सफाई में
झूठ की प्रौद्योगिकी का हलफनामा दायर कर रही है

मैं एक मुश्किल हूं- विचित्र
पता किया जा रहा है
मेरे बारे में
पूछा जा रहा है दिगन्तों से कि
मेरा गुस्सा,मेरी खदबदाहट और मेरा
सतत इनकार
‘ग्लात्सनोत्स’ के किस अध्याय के किस पृष्ठ पर रह गई
प्रूफ की अशुद्धि का खामियाजा है

जेड श्रेणी की सुरक्षा से ‘फूलप्रूफ
बख्तरबंद टैंकों पर बैठा
इक्कीसवीं सदी का महा नायक
पूछ रहा है
अपने खुफिया एजेंटों से कि
इस चक्रवाती सांस्कृतिक
रमहल्ले मे कब,
कैसे
और
कहां से आ गया
मैं
यानी
दनदनाता हुआ
अवांछित
सुच्चा
इनकार!
***

Sunday, July 12, 2009

बाग़ीचे के सिपाही - मार्टिन एस्पादा की एक कविता


आज पाब्लो नेरुदा का जन्म-दिन है. मैं इसे कभी नहीं भूलता क्योंकि इसी दिन मेरी पत्नी का भी जन्म-दिन होता है. आज नेरुदा को याद करते हुए प्रस्तुत है मार्टिन एस्पादा की यह कविता.









बाग़ीचे के सिपाही
इएला नेग्रा, चीले, सितम्बर 1973

तख़्ता-पलट के बाद,
नेरुदा के बागीचे में एक रात
सिपाही नमूदार हुए,
पेड़ों से पूछ-ताछ करने के लिए लालटेनें उठाते,
ठोकरें खाकर पत्थरों को कोसते.
बेडरूम की खिड़की से देखे जाने पर वे
किनारों पर लूट मचाने के लिए
समंदर से लौटे,
डूब चुके जहाजों वाले मध्य-युगीन आक्रान्ताओं की तरह
लग सकते थे.

कवि मर रहा था;
कैंसर उनके शरीर के अन्दर से कौंध गया था
और शोलों से लड़ने के लिए
उन्हें छोड़ गया था बिस्तर पर.
इतने पर भी, जब लेफ्टिनेंट ने ऊपरी मंजिल पर धावा बोला,
नेरुदा ने उसका सामना किया और कहा:
यहाँ तुम्हें सिर्फ एक ही चीज़ से ख़तरा है: कविता से.
लेफ्टिनेंट ने अदब के साथ टोपी उतारकर
श्रीमान नेरुदा से माफ़ी माँगी
और सीढ़ियाँ उतरने लगा.
पेड़ों पर के लालटेन एक एक करके बुझते चले गए.

तीस सालों से
हम तलाश रहे हैं
कोई दूसरा मंतर
जो बागीचे से
सिपाहियों को ओझल कर दे.

*****

प्वेर्टो-रिकन मूल के अमेरिकी कवि मार्टिन एस्पादा 'उत्तरी अमेरिका के पाब्लो नेरुदा' कहे जाते हैं. स्पॅनिश में 'एस्पादा' का अर्थ होता है 'तलवार'. अपने नाम को सार्थक करते हुए एस्पादा एक 'फाइटर' हैं. उनका कवि नस्ली भेद-भाव के खिलाफ़, उत्पीड़न के खिलाफ़, साम्राज्यवाद के खिलाफ़ लगातार संघर्षरत है; और अमेरिकी समाज में हाशिये पर पड़े समुदायों के लिए सामाजिक न्याय की लड़ाई में उसकी पक्षधरता एकदम साफ़ है.
यह कविता इएला नेग्रा,चीले में स्थित पाब्लो नेरुदा के घर को 1973 में दी गई भेंट के दौरान लिखी गई थी और 2006 में प्रकाशित 'रिपब्लिक ऑफ़ पोएट्री' में संकलित है.

Tuesday, July 7, 2009

ईरानी कवि सीमा यारी की प्रेमकविता


अनुनाद पर चल रहे प्रेम कविताओं के सन्दर्भ में मैं एक साहसी और अनूठी ईरानी कवि सीमा यारी की एक कविता अनुनाद के पाठकों के साथ साझा करना चाहूंगा। मुझे ये कविता बहुत प्रिय है...या यूं कहूं कि पिछले कुछ सालों में मैंने इस कविता से बेहतर कोई प्रेम कविता नहीं पढ़ी...यदि आप इसे इसके भौगोलिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों से जोड़कर देखेंगे तो आपकी आंखें चौंधिया जायेंगी।

1959 में तेहरान में जन्मी सीमा यारी बेहद प्रतिभावान और प्रखर विद्यार्थी रहीं। गणित की पढ़ाई पूरी करके उन्होंने ईरान की नेशनल यूनीवर्सिटी में अर्थशास्त्र पढ़ने के लिए दाखिला लिया ही था कि शाहविरोधी और धार्मिक रूप से कट्टरवादी क्रांति शुरू हो गई। क्रांति के नाम पर जब यूनीवर्सिटी को बंद कर दिया गया उसके विरोध में आवाज़ उठाने वालों में सीमा अग्रिम पंक्ति में थीं...बस इसी के साथ उन पर शासन का शिंकजा कसता गया। ईरान की किसी भी यूनीवर्सिटी में उनका प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया। उनकी कविताएं भी इस प्रतिबंध के घेरे मे आयीं और उनकी किताबें तैयार पड़ी रहीं पर उन्हें छापने को कोई प्रकाशक नहीं मिला। बरसों बाद जब ये बंदिश थोड़ी शिथिल पड़ी तो 1998 में उनका पहला संकलन आया जिसे 2000 में साल की सबसे अच्छी किताबों में शुमार किया गया। उनके चार संकलन छपे हैं। उन्होंने अपने कवितापाठ के आडियो कैसेट भी तैयार किए जिनके वितरण और प्रचार-प्रसार पर ईरान की कट्टरपंथी सरकार ने यह कह कर प्रतिबंध लगा दिया कि स्त्री स्वर को जनता के बीच सार्वजनिक रूप से जारी करने से ईरानी नैतिकता और परम्पराओं को आघात लगेगा।
इस पसमंज़र के बीच आप पढ़िए सीमा यारी की ये प्रेमकविता

अंदाज़े-बयां

यहां एकदम मुमकिन नहीं था कि मैं कह पाती ...
मैं करती हूं तुमसे प्यार !
हालांकि मैंने टूट कर किया तुमसे प्यार...

मैंने ये ही कहा -
चौकस रहना, तुम्हारी चाबियां कहीं कमरे में अंदर ही न रह जाएं
सीढ़ियों पर संभलकर उतरना, वहां बहुत फिसलन है
अपना ख़ूब-ख़ूब ध्यान रखना

और सुनो, लालबत्ती पर तब तक धीरज से ठहरे रहना
जब तक ये हरी न हो जाए....
***

Monday, July 6, 2009

दहलीज़ १: 'बेर्टोल्ट ब्रेख्त की एक कविता-'निर्णय के बारे में': अनुवाद - नीलाभ अश्क


( कलात्मक सृजन को किस तरह उत्कृष्ट, सार्थक और प्रासंगिक बनाया जा सकता है ; इस सन्दर्भ में यह एक बेमिसाल कविता है. इसके अलावा इसमें ब्रेख्त ने अपने वक़्त का जो मार्मिक और विचलित कर देनेवाला आख्यान किया है ; उसमें हम अपने समय की छायाएँ देख और महसूस कर सकते हैं. कुल मिलकर एक महान कवि की महान कविता, हिन्दी में जिसकी विलक्षण अनुरचना को मुमकिन किया है मशहूर कवि -विचारक नीलाभ अश्क ने। )

निर्णय के बारे में

तुम जो कलाकार हो
और प्रशंसा या निन्दा के लिए
हाज़िर होते हो दर्शकों के निर्णय के लिए
भविष्य में हाज़िर करो वह दुनिया भी
दर्शकों के निर्णय के लिए
जिसे तुमने अपनी कृतियों में चित्रित किया है

जो कुछ है वह तो तुम्हें दिखाना ही चाहिए
लेकिन यह दिखाते हुए तुम्हें यह भी संकेत देना चाहिए
कि क्या हो सकता था और नहीं है
इस तरह तुम मददगार साबित हो सकते हो
क्योंकि तुम्हारे चित्रण से
दर्शकों को सीखना चाहिए
कि जो कुछ चित्रित किया गया है
उससे वे कैसा रिश्ता क़ायम करें
यह शिक्षा मनोरंजक होनी चाहिए
शिक्षा कला की तरह दी जानी चाहिए
और तुम्हें कला की तरह सिखाना चाहिए
कि चीज़ों और लोगों के साथ
कैसे रिश्ता क़ायम किया जाय
कला भी मनोरंजक होनी चाहिए

वाक़ई तुम अँधेरे युग में रह रहे हो
तुम देखते हो बुरी ताक़तें आदमी को
गेंद की तरह इधर से उधर फेंकती हैं
सिर्फ़ मूर्ख चिन्ता किये बिना जी सकते हैं
और जिन्हें ख़तरे का कोई अंदेशा नहीं है
उनका नष्ट होना पहले ही तय हो चुका है
प्रागैतिहास के धुंधलके में जो भूकम्प आये
उनकी क्या वक़अत है उन तकलीफ़ों के सामने
जो हम शहरों में भुगतते हैं ? क्या वक़अत है
बुरी फ़सलों की उस अभाव के सामने
जो नष्ट करता है हमें
विपुलता के बीच
***
विशेष : कवि -विचारक नीलाभ अश्क को हाल ही में अरुन्धति रॉय के उपन्यास ' the god of small things ' के हिन्दी अनुवाद 'मामूली चीज़ों का देवता ' के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा की गयी थी. मगर उन्होंने साहित्य-संस्कृति के प्रति भेदभाव और उपेक्षा से भरे हुए सरकारी रवैये और हिन्दी संसार में अंतर्व्याप्त 'पुरस्कारों की विद्वेषपूर्ण राजनीति ' के प्रति अपने वाजिब रचनात्मक आक्रोश का इज़हार करते हुए इस सम्मान को अस्वीकार कर दिया है . सबसे बड़ी बात उन्होंने यह कही है कि "लेखक का वास्तविक सम्मान उसके पाठक हैं, न कि पुरस्कार." बदनसीबी से यहीं वह बात है, जिसे हिन्दी की आत्ममुग्ध दुनिया ने बिसरा रखा है. इस बाबत उनके विस्तृत साक्षात्कार के लिए देखिये---------'हिन्दुस्तान ', दैनिक, 5 जुलाई, रविवार, 2009, पृ. 12. हमारे समय में यह दुर्लभ आदर्श सामने रखने के लिए श्री नीलाभ अश्क को हमारी हार्दिक बधाई !

एक निवेदन

पंकज भाई की इस विचारोत्तेजक पोस्ट के सन्दर्भ में अनुनाद के पाठकों और सहलेखकों से निवेदन है कि पुरस्कारों की और उन्हें स्वीकारने अथवा ठुकरा दिए जाने की सार्थकता पर कृपया अपने विचार पूरी स्वतंत्रता से अपनी टिप्पणियों में व्यक्त करें। मुझे अनुनाद पर दिए मेल एड्रेस पर यूनिकोड में मेल भी कर सकते हैं। इस पोस्ट का एक विस्तार मैं आप लोगों की ओर से चाहता हूँ।

सादर शिरीष

***

Sunday, July 5, 2009

हिब्रू कवि येहूदा आमीखाई की लम्बी कविता - यरूशलम से समुद्र तक और वापसी


मेरा किया हुआ यह अनुवाद अशोक पांडे और उससे दोस्ती के उन विरल दिनों के लिए, जब उसने मुझे येहूदा आमीखाई जैसे कवि से परिचित कराया और उसे अनुवाद करने के लिए उकसाया। ऐसे दिनों का संस्मरण हमेशा बाक़ी रहता है। आमीखाई की इन कविताओं के बीहड़ में भटकना मुझे आज भी बहुत अच्छा लगता है और हमेशा लगता रहेगा।

यरूशलम से समुद्र तक और वापसी
1. बंद यरूशलम से

मैं गया
बंद यरूशलम से खुले समुद्र की तरफ़
मानो किसी वसीयत के खुलने की तरफ़
मैं गया पुरानी सड़क पर
रामल्ला से कुछ पहले
सड़क के किनारे अभी तक खड़े हैं
ऊंचे-ऊंचे अजीब-से विमानघर
विश्वयुद्ध में आधे तबाह
वहां वे विमानों के इंजनों की जांच किया करते थे
जिनका शोर चुप करा देता था सारी दुनिया को

महज उड़ने भर को उड़ना कोई छुपा ख़ज़ाना हो गया था तब
मेरे पूरे जीवन के लिए!

2. आत्मा

मैं यात्रा करता हूं
यात्राएं दुनिया की आत्मा हैं
वे बची रहती हैं हमेशा

यह बहुत आसान है -
बढ़ते हुए पेड़ों और घास से भरा ण्क पहाड़ी ढलान
और दूसरी तरफ़
एक सूखा पहाड़ी ढलान ग़र्म हवाओं से झुलसा हुआ
- मैं इनके बीच यात्रा करता हूं

धूप और बरसात का आसान-सा तर्क
वरदान और अभिशाप
न्याय और अन्याय
- मैं इनके बीच यात्रा करता हूं

आकाश की हवा और धरती की हवा
मेरे खिलाफ़ की और मेरे साथ की हवा
ग़र्म और ठंडा प्रेम
पक्षियों के प्रवास की तरह

- करो,
यात्रा करो, मेरी कार !

3. मृत्यु से बहुत दूर नहीं


लाटरून में
पहाड़ पर की मृत्यु और इमारतों की ख़ामोशी से बहुत दूर नहीं -
एक औरत खड़ी होती है
सड़क के किनारे

उसके ठीक बाद
एक नई चमचमाती कार
किसी सुरक्षित स्थान तक खींच लिए जाने की प्रतीक्षा में

औरत बहुत सुंदर है
उसका चेहरा, उसका आत्मविश्वास और उन्माद
उसकी पोशाक एक प्रेम-पताका है

एक बहुत कामुक औरत
जिसके भीतर खड़े रहते हैं उसके मृत पिता
एक ख़ामोश आत्मा की तरह

मैं उन्हें जानता था जब वे जीवित थे
जब उनसे आगे निकला
मैंने उन्हें अपनी शुभकामनाएं दीं !

4. एक पुराना बस-स्टॉप

मैं गुज़रा एक पुराने बस-स्टॉप से
जहां मैं खड़ा होता था कई बरस पहले
किसी दूसरी जगह जाने के लिए
बस के इंतज़ार में

वहां मैं खड़ा होता था
संभलता हुआ नुक़सान से पहले
और ठीक होता हुआ दर्द से पहले
मृत्यु से पहले ही पुनर्जीवित
और
प्रेम से भरा अलगाव से पहले

यहां मैं खड़ा होता था
नारंगी के झुरमुटों में फूलों के खिलने की सुगंध
इस एक ही दिन
आने वाले तमाम दिनों के लिए मदहोश कर देती थी मुझे

बस-स्टॉप अब भी वहां है
ईश्वर को अब भी पुकारा जाता है `जगह´
और मैं कभी -कभी उसे कहता हूं `समय´

5. सूरजमुखी के खेत

सूरजमुखी के खेत
पकते और सूखते हुए भूरे और तरतीब वाले
अब सूरज को नहीं
मीठी छांव को तलाशते हैं
एक आंतरिक मृत्यु
एक दराज़ का भीतरी भाग
एक थैला गहरा जैसे आकाश
उनका आने वाला संसार
एक घर का अंधेरा
एक आदमी का अंतर्तम !

6. मैं समुद्र-तट पर

मैं समुद्र पर
कई-कई रंगों वाली पालदार नावें
तैरती हैं पानी पर
उनके ठीक बाद मैं -
एक छोटे डेक वाली भद्दी-बेढंगी
तेल ढोने वाली नाव !
मेरा शरीर भारी और सिर छोटा है
सोचता या न सोचता हुआ

रेत पर मैंने देखा एक लड़की को
एक बड़े तौलिए के नीचे लोगों के बीच कपड़े बदलना सीखते हुए
क्या ही अद्भुत उसके शरीर का वह नाच
कैसी वह छुपी हुई सर्पीली तत्परता
कैसा वह संघर्ष पहनने और उतारने के बीच
जैकब और उसके फ़रिश्ते के बीच
प्रेमी और प्रेमिका के बीच

किसी मूर्ति के अनावरण की तरह
उसके बदन से तौलिया गिर जाता है
लड़की जीत जाती है
वह हंसती है
वह इंतज़ार करती है
और शायद वे इंतज़ार करते हैं उसका
किसी आंसुओं भरी जगह पर
वह मुझसे ज़्यादा ख़ूबसूरत और जवान है
पर उससे अधिक भविष्य जानता हूं मैं !

7. और मैं लौटता हूं

और मैं यरूशलम लौटता हूं
मैं बैठता हूं अपनी सीट पर
लेकिन मेरी आत्मा खड़ी रहती है मेरे भीतर
जैसे कि किसी सामूहिक प्रार्थना-सभा में
करो, यात्रा करो, मेरी कार !

एक छोटे पहाड़ पर सड़क के किनारे
जो टैंक खड़े रहते थे
वे अब नहीं हैं
अब वहां कारोब* के पेड़ हैं
सूरज ढलते वक़्त एक नर कारोब और एक मादा कारोब
उस दूसरे संसार में
जो और कुछ नहीं बस निरा प्यार है
हवा में उनकी पत्तियों की झंकार है
मानो पवित्र वाद्ययंत्रों की झंकार तोलती हुई अतुलता को

और वह छाया
जो अभी नमूदार होगी और कहलाएगी रात
और हम
जो पुकारे जायेंगे हमारे पूरे नामों से
जिनसे पुकारा जाता है सिर्फ़ मृत्यु के समय
`दोबारा कभी नहीं´ वाली रात फिर आयेगी

मैं लौटता हूं
यरूशलम में अपने घर की तरफ़

और हमारे नाम !
- वे तो खो जायेंगे इन्हीं पहाड़ों में
खोजियों के मुख से निकली
पुकारों की तरह !
***
* इज़रायल में पाया जाने वाला एक पेड़.

Saturday, July 4, 2009

थॉमस मैक्ग्रा की एक प्रेम कविता


थॉमस मैक्ग्रा अमेरिकी साहित्य के सर्वाधिक उपेक्षित कवियों में हैं. साहित्यिक मठाधीशों ने रैडिकल वामपंथी विचारों वाले इस कवि को कभी वह अहमियत नहीं दी जिसके वे हकदार थे. छठे दशक में कार्यरत रही कम्युनिस्ट-विरोधी जांच समिति 'हाउस कमिटी ऑन अन-अमेरिकन एक्टीविटीज़' के समक्ष दिया गया उनका वक्तव्य बेमिसाल है. अवसर मिलने पर उस वक्तव्य को अनुनाद पर लगाने का मन है. इस बात के लिए उन्हें ब्लैक-लिस्ट कर दिया गया और लॉस एंजेलेस स्टेट यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक की अपनी नौकरी भी गंवानी पड़ी.
थॉमस मैक्ग्रा सर्वाधिक जाने जाते हैं अपनी लम्बी कविता 'लैटर टू अन इमॅजिनरी फ्रेंड' के लिए. इस आत्म-कथ्यात्मक काव्य में वे व्यक्तिगत अनुभवों को राजनैतिक सरोकारों से जोड़ते हैं. लगभग तीन दशकों के लम्बे रचनाकाल में लिखी गई इस कृति में बनते-बिगड़ते अमेरिकी इतिहास और उसके अन्दर आकार लेते कवि के निजत्व के दर्शन होते हैं.
प्रेम कविताओं के सिलसिले में फिलहाल प्रस्तुत है थॉमस मैक्ग्रा की एक कविता।

कविता

कैसे आ सकता था मैं इतनी दूर
(और ऐसी अंधियारी राहों पर हरदम ? )
मैंने सफ़र किया होगा रौशनी से ज़रूर
जो दमकती थी उन सबके चेहरों में जिन्हें
मैंने प्यार किया

****

Friday, July 3, 2009

गोरख पांडे


दोस्तो !
मैं उतना हताश भी नहीं पर कहना चाहता हूं कि वो ज़माना और था, जब का यह गीत है और इसे लिखने-गाने वाले गोरख पांडे और महेश्वर भी !
फिलहाल आप सुनिये गोरख के इस गीत को महेश्वर और साथियों की आवाज़ में...




(इस गीत को 2 जुलाई 2007 की निस्तब्ध रात में वीरेन डंगवाल के साथ कोरस मिलाकर मैंने, अशोक पांडे और जवाहिर चा ने नैनीताल की सुशीतल झील के किनारे गाया था। हालांकि हमने गाया और अपने सबसे बुरे समयों में हमेशा गाते रहेंगे... लेकिन तब भी कहूंगा कि वो ज़माना और था!)
000
इस पोस्ट के लिए मैं जन संस्कृति मंच का आभारी हूं !
न होता आभारी, अगर ये मंच मेरा हुआ होता......

Thursday, July 2, 2009

ईरानी कवि अहमद शामलू

(ईरान में दमनकारी धार्मिक कट्टरवादियों के खिलाफ़ आंदोलित जनसमूह)


ईरान में उभरे जनआक्रोश और इसका दमन करने के तानाशाही रवैये को ध्यान में रखते हुए यहां प्रसिद्ध ईरानी कवि अहमद शामलू (12 दिसंबर 1925-24 जून 2000) की लोकप्रिय कविता का अनुवाद प्रस्तुत है। शामलू को समकालीन ईरानी कविता का सबसे सशक्त स्वर माना जाता है और उनको ईरान के राष्ट्रकवि के तौर पर सम्मान भी दिया जाता है। लेकिन विडम्बना ये कि पहले शाह के शासन ने और बाद धार्मिक कट्टरवादियों की सरकार ने उन्हें देश से बाहर चले जाने पर मजबूर कर दिया। अमरीका, ब्रिटेन और स्वीडन रहते हुए भी अहमद लगभग आधी शताब्दी तक ईरानी कविता जगत पर छाये रहे। उनके क़रीब बीस संकलन प्रकाशित हैं। उन्हें विश्वसाहित्य के अत्यन्त समर्थ अनुवादक, बालसाहित्य के रचनाकार, पत्रकार, पटकथालेखक और प्रखर दमनविरोधी बुद्धिजीवी तौर पर याद किया जाता है। अठारह साल की उम्र में वे पहली बार जेल गए और फायरिंग दस्ते के सामने तक पहुँचा दिए जाने के बावजूद संयोगवश मुक्त कर दिए गए। बाईस साल की उम्र में पहली कविता संकलन प्रकाशित हुआ। ईरान की वामपंथी पार्टी तुदेह के सक्रिय कार्यकर्ता रहे लेकिन बाद में जैसा कि वामदलों में अकसर होता ही है उन्होंने कुछ मतभेदों के चलते पार्टी की राजनीतिक गतिविधियों से किनारा कर लिया। साहित्य के नोबेल प्राइज़ के लिए नामांकित हुए और ईरानी जनता के बीच अपने प्रभावशाली काव्यपाठ के बहुत सम्मान अर्जित किया।

शाह की राजशाही में ईरान छोड़ने को मजबूर हुए अहमद 1978 में शाह के तख़्तापलट के बाद वापस ईरान आए लेकिन जल्द ही उन्हें नई सरकार के धार्मिक कट्टरवाद का सामना करना पड़ा - उनकी रचनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जो अब भी जारी है।* उन्हें फिर देश छोड़ना पड़ा और अपनी देश की जनता के चहेते होने के बावजूद एक निर्वासित कवि के रूप में उन्होंने अपनी अंतिम सांसें लीं। ईरान के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष आंदोलन में अहमद शामलू की कविताएं आज भी सबसे ज़्यादा प्रासंगिक हैं -वर्तमान जनाक्रोश के जो विवरण बाहर आ रहे हैं, उनसे भी यह बात प्रमाणित होती है।

इस बंद गली में

इस बंद गली में
सूंघ-सूंघ कर वे देखते हैं तुम्हारी सांसे -
कहना नहीं चाहिए था तुम्हें..... `` मैं करती हूं तुमसे प्यार´´
वे सूंघ-सूंघ कर देखते हैं दिल तक

अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय ....
वे कोड़े बरसाते हैं
प्यार पर
सड़कों पर सरे-आम खड़ा करके
बेहतर होगा हम छुपा दें प्यार
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ....

इस कुटिल बंद गली के अंदर
अंजर पंजर ढीला कर देने ठंड में
लपटों को और खूंखार बनाने के लिए वे
झोंकते जाते हैं हमारे गीत और कविताएं.....
ऐसे में अपना जीवन सान पर चढ़ाकर
नष्ट न होने दो नाहक ही

अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय ...
आधीरात में दरवाज़े पर दस्तक देकर
अंदर घुसने वाले
सबसे पहले तोड़ते हैं तुम्हारा दीपक ही
बेहतर होगा कि हम छुपा दें अपनी रोशनी
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ...

सभी चौराहों पर तैनात हैं क़ातिल
खून से सनी तलवारें और लाठी-डंडे लेकर -
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय..

उनके निशाने पर हैं सब ओर
होंटो की मुस्कुराहटें
और गीतों की गुनगुनाहटें
बेहतर होगा कि हम छुपा दें अपनी खुशियां...
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ....

रंग-बिरंगे फूलों की आग जलाकर
उसकी आंच में भून रहे हैं वे सुकुमार परिन्दों को

अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय..
विजयोन्माद के नशे में धुत्त शैतान
पसरकर बैठ जाता है
हमारी अंत्येष्टि के भोज में
बेहतर होगा कि हम छुपा दें ईश्वर
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ....

*यह कविता इसी प्रकरण से प्रेरित है !
http://shamlu.com से साभार - एम0 सी0 हिलमैन के अँग्रेज़ी अनुवाद से रूपांतरित।

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails