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(मेरी बात - आज मैंने ज्ञानेंद्रपति का लिखा एक गद्यखंड यहां लगाया है। पिछले कुछ बरस से मुझे यह सवाल लगातार तंग करता है कि हम कवियों का लक्ष्य किन पाठकों के ह्रदय तक पहुंचना है। मेरे हिसाब से हिंदी में पाठक दो तरह के हैं - पहले, जो स्वयं कवि या रचनाकार भी हैं और दूसरे, जो केवल पाठक हैं - उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं, और वही मेरे लिए मेरे पाठक हैं! अग्रज और साथी कवियों को अनदेखा करने की गुस्ताख़ी मैं कतई नहीं कर रहा। ज्ञानेंद्रपति ने ख़ुद को `निगुरा´ कहा है! मैं भी `निगुरा´ ही हूं पर एक पूरी परम्परा का हाथ मेरी पीठ पर है, जिसे मेरी कविताओं में लक्षित किया जा सकता है। मैं उस परम्परा के साथ कितना न्याय कर पाया हूं या कर पा रहा हूं, यह तो सुदूर भविष्य में आंकने की बात होगी और मैं भूल नहीं रहा हूं कि तब भी इतिहास का कूड़ादान खुला होगा! परम्परा का बोध ही मुझे दरअसल पाठकों के बोध तक ले जाता है। हिंदी पट्टी ऐसे पाठकों से भरी पड़ी है और मेरे लिए रांची, मुंगेर, पटना, बोकारो, रायपुर, बांदा, भोपाल, गुना, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, गोपेश्वर, बादशाहीथौल टिहरी, देहरादून, बलिया, आदि अनेक जगहों से आते पत्र और फोन काल्स उन धुकधुकियों के गवाह हैं, जो प्रतिक्रियास्वरूप मेरे ह्रदय को ध्वनि और गति देती हैं......अंत में इतना और कि मेरे पहले पाठक नैनीताल के निकट स्थित ब्रिटिशकालीन क़स्बे रामनगर में रहने वाले रम´दा यानी रमेश पांडे हैं, जो अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। पिछले कई सालों से उनकी हरी झंडी के बाद ही मेरी कविताएं छपने जाती हैं और साथ ही यह भी बताना मौजूं होगा कि उनके पास मज़बूत और टिकाऊ कपड़े की बनी एक लाल झंडी भी है.......)
गिरिराज किराडू की प्रतिक्रिया
ऐसा तो नहीं कि कवितायेँ लाल, झंडी हरीकवितायेँ हरी, झंडी लाल? :) (शायद) नेरुदा ने कहा था हमारे पास कुछ पाठक तो हैं, 'जनता' नहीं। अब उस 'कुछ' का अर्थ 'कितना' रहा गया है यह उदास और मारक गिनती कोई नहीं करना चाहता।इस पर कवियों की खुली पंचायत होनी चाहिए कि जितना कभी नहीं थी उतनी जनोन्मुखी हो कर भी (कम से कम अधिसंख्य कविता का आत्म-बिम्ब तो यही है) हिंदी कविता क्यों 'कंडीशंड' पाठकों तक सीमित हो गयी है - कभी कभी यह भी लगता है हम कवियों से बहुत अधिक उम्मीद करते हैं, अगर यह दूसरी तरह का और जैसी कवियों की दुनिया में आम सहमति जान पड़ती है 'सबसे भयानक'। 'कठिन', 'मुश्किल.' क्रूर', बाजारू' आदि समय है तो हम कवियों से वही प्रत्याशायें क्यों कर रहे हैं जो किसी कम 'भयानक' कम 'कठिन', कम 'मुश्किल', कम 'क्रूर', कम 'बाजारू' समय के लिए जायज़ थीं? इस समय में कविता की ठीक वही भूमिका नहीं हो सकती यह बिलकुल मुमकिन है. यूं 'बड़े' कवि बनने, बनाये जाने, कहने, कहलाये जाने का उद्यम सदाबहार है चलता रहेगा. 'बड़े' कवि, 'महत्त्वपूर्ण' कवि, 'विशिष्ट' कवि, 'अपना मुहावरा', 'विशिष्ट निजी स्वर' जैसे प्रिय पदों का कोई प्राथमिक मनोवैज्ञानिक पठन भी बहुत दिलचस्प रहेगा - करके देखिये. हर २ महीने में अपना 'निजी विशिष्ट स्वर' रखने वाले एक नौजवान की आमद और हर पांच साल में एक अनुभवी कवि के 'बड़े' कवि में पदोन्न्नत होते रहने के बावजूद हम लोग यह मातम कर रहे हैं तो बेवकूफ कौन?
June 22, 2009 10:57 AM
आपको पिता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ...
ReplyDelete---
चाँद, बादल और शाम | गुलाबी कोंपलें
ऐसा तो नहीं कि कवितायेँ लाल, झंडी हरी
ReplyDeleteकवितायेँ हरी, झंडी लाल? :)
(शायद) नेरुदा ने कहा था हमारे पास कुछ पाठक तो हैं, 'जनता' नहीं. अब उस 'कुछ' का अर्थ 'कितना' रहा गया है यह उदास और मारक गिनती कोई नहीं करना चाहता.इस पर कवियों की खुली पंचायत होनी चाहिए कि जितना कभी नहीं थी उतनी जनोन्मुखी हो कर भी (कम से कम अधिसंख्य कविता का आत्म-बिम्ब तो यही है) हिंदी कविता क्यों 'कंडीशंड' पाठकों तक सीमित हो गयी है - कभी कभी यह भी लगता है हम कवियों से बहुत अधिक उम्मीद करते हैं, अगर यह दूसरी तरह का और जैसी कवियों की दुनिया में आम सहमति जान पड़ती है 'सबसे भयानक'. 'कठिन', 'मुश्किल.' क्रूर', बाजारू' आदि समय है तो हम कवियों से वही प्रत्याशायें क्यों कर रहे हैं जो किसी कम 'भयानक' कम 'कठिन', कम 'मुश्किल', कम 'क्रूर', कम 'बाजारू' समय के लिए जायज़ थीं? इस समय में कविता की ठीक वही भूमिका नहीं हो सकती यह बिलकुल मुमकिन है.
यूं 'बड़े' कवि बनने, बनाये जाने, कहने, कहलाये जाने का उद्यम सदाबहार है चलता रहेगा. 'बड़े' कवि, 'महत्त्वपूर्ण' कवि, 'विशिष्ट' कवि, 'अपना मुहावरा', 'विशिष्ट निजी स्वर' जैसे प्रिय पदों का कोई प्राथमिक मनोवैज्ञानिक पठन भी बहुत दिलचस्प रहेगा - करके देखिये. हर २ महीने में अपना 'निजी विशिष्ट स्वर' रखने वाले एक नौजवान की आमद और हर पांच साल में एक अनुभवी कवि के 'बड़े' कवि में पदोन्न्नत होते रहने के बावजूद हम लोग यह मातम कर रहे हैं तो बेवकूफ कौन?
कवी और पाठक का रिश्ता कवक और शैवाल सा होता है एक को मजबूती का आधार चाहिए तो दूसरे को जीवन रस! बनता है लाइकेन !( कविता ?) आपने ब्लॉग पर बहुत से और बहुतों के लाइकेन दिए हैं धन्यवाद और बधाई!
ReplyDeleteअच्छी बहस चलाए हैं आप. लेखकगण पाठकों से ज़्यादा आलोचकों पर भरोसा करते हैं. यह भरोसा अक्सर धोका दे देता है. कुछ साल में ही पता नहीं चलता की कवि जी कहाँ से आए थे कहाँ गये !
ReplyDeleteअनुपम विवेक -ग़ाज़ियाबाद
चलो भाई शिरीष तुम्हें हम जैसे पाठकों की चिंता तो है! ज्ञानेंद्रपति जी ने बढ़िया बात कही है, उसे तुमने परफ़ेक्ट टच दिया ! गिरिराज जी ने लाल-हरी वाली बात भी ठीक कही है - बताओ क्या मामला है?
ReplyDeleteकिसी युग-नियंत्रक आलोचक को अपना स्थाई गुरु नियुक्त करने से कविता नहीं सँवरने वाली - सुन रहे हैं नये नये कविगण !
ReplyDeletehamare samay ke jaruri kavi gyanendra pati ke madhyam se apne behad prasangik sawal uthaya hai mitr...is bhayanak samay me jab tamam logo se ki gayi ummeedon ka matam mana rahe hote hain ek bechare se nirupay kavi se parivartankari muhim ki ummeed lagaye rehe hain....aur shikhar par baithe koi namvar master ki tarah no dene ko tatpar...
ReplyDeleteek majedar vakya bataun...9/11ke bad jab kaiyon aur kalakaron ne janta ko ashvasth kaarne ke liye jagah jagah pradarshan kiye to ek bade kavi pulitzer puraskar prapt STEPHEN DUNN ne un jamavdon me rajnaitik nahi baar baar prem kavitayen sunayi...so prem bhi ek rajniti hai bhai aur jhande wande ki bat karnewale sathi is bat par gaur farmayen..
koi tajjub nahi ki loktantra ki ladai lad rahi iran ki yuva janta jab bhi azadi ki bat karti hai to forough farrokhzad ki kavitayen gungunati hai jisne dashakon pahle(1935-1967)behad imandar prem kavitayen likhi
is bahas ko chhedne ke liye shukriya
yadvendra
मुझे नहीं लगता कि लाल झंडी की बात इतनी नागवार गुजरनी चाहिए जितनी कि गुजरती दिखाई दे रही है. रोना पहले भी था, इधर ज्यादा बढ़ गया है कि कविता को विचारधारा बल्कि विचार से मुक्त होना चाहिए. कई बार लगता ही कि क्या कविता को विचारहीन हो जाना चाहिए? एक महोदय भगवा झंडी से जो इन दिनों साहित्यकारों पर काफी हावी हो रही है, से कभी नहीं बिदकते par लाल झंडी ka जिक्र उन्हें एकदम परेशां कर देता hai.
ReplyDelete-प्रेम कविता जनवादी कविता नहीं होती, ऐसा to किसी ne नहिऊ kaha. बल्कि जनवादी कवियों ne hee achchee aur सच्ची prem कवितायेँ likhee hain. laal jhandee se bidakne wale ek `बड़े`अश्लील कवितायेँ प्रेम के naam par likh chuke hain, sab jaante hain.
- asal men sachhee kavita lal jhandee se nahi jeevan se nikaltee hai. kya kiya jaye ki zindagi ke raag laal jhandee walon ne hi zyada gaye hain.
जित देखो तित लाल वाले माहौल में आँखें खोली हैं हमने! वो तो सी पी एम ने ऐसी तैसी करा दी पिछ्ले कुछ दिनों में. वैसे सी पी एम का मतलब ही लाल नहीं.
ReplyDeleteहमारा लहू लाल!
अधूरे सपनों से हमारी आँखें लाल!
हमारे जीने का अंदाज़ लाल.
आपने सबके लिए टिप्पणी का बॉक्स खोल कर अच्छा किया. अब सबके पास गूगल आई डी तो होती नहीं !
ReplyDeleteज्ञानेंद्रपति हमारे प्रिय कवि हैं. और हमारे शहर बनारस में रहते हैं ! जिन पाठकों के बारे में आप लोगों की चिंता है- हम वही पाठक हैं.
नरेन्द्र जैन ने अर्नेस्तो कार्देनाल की एक कविता का अनुवाद किया था बहुत पहले !पेशे नजर -
ReplyDelete"मेरे प्यार तुमने खबरों में यह सूना की शान्ति के प्रहरी अपने काम में विलक्षण प्रतिभा वाले प्रजातंत्र के वीर योद्धा चर्च के रक्षक जनमानस के रखवाले हमारे संरक्षक ..अर्नेस्तो ..!वे जनभाषा को हथिया रहे हैं (बिलकुल जैसा की पैसे के साथ वे कर रहे हैं )इसीलिये हम कवी एक कविता पर इतना काम करते हैं और इसीलिये मेरे प्यार -कविताएँ बहुत जरूरी हैं !!"
कविता को विचारधारा बल्कि विचार से मुक्त होना चाहिए. कई बार लगता ही कि क्या कविता को विचारहीन हो जाना चाहिए?
ReplyDeletevicharheen kavita ho hi nahi sakti....manushya ki koi bhi kriti vichaarheen kaise ho sakti hai?
ye zaroor hai ki vichar aur vichar dhara ke bojh se Kavita ka bhari nuksaan hua hai. is liye mukti ka prashn Vaajib hai.