आपने पहली किस्त में माजिद नफ़ीसी के जीवन और उनकी दिवंगता पत्नी पर टिप्पणी पढ़ी और एक कविता भी। इन सारी चीज़ों को मेरे लिए शिरीष ने लगाया। अब पढ़िए माजिद की दूसरी कविता......

मुझे तुम्हारी दरक़ार नहीं है प्रेट्रोलियम !
मुझे तुम्हारी दरक़ार नहीं है प्रेट्रोलियम...
अब तक मैं सोचा करता था
कि तुम जलते हो मेरे लिए
पर अब अहसास हुआ
कि जलता रहा हूं उल्टा मैं ही
तुम्हारी ख़ातिर ...
ये हरगिज़ नहीं नहीं कहूंगा
कि हो रही हो जब बर्फ़बारी तो अच्छा नहीं लगता
केरोसिन की भट्टी के पास दुबककर बैठना....
या उजाड़ पड़े खेतों में
पंप से सिंचाई के वास्ते पानी पटाना...
फिर भी भरोसा नहीं आ रहा है तुमपर
ऐ, सात मुंह वाले दानव
तुम्हारे मुंह से अब भी निकल रही हैं धू-धू करती लपटें
और इसकी आंच पहुंच रही हैं
मेरी मातृभूमि की आत्मा तक
तुम्हारे स्कूल ने भी पढ़ाए पाठ हमें दासता के
जिसके सहारे क़ुनबे के सरदार
भेजने में सफल हो गया अपना बेटा लंदन तक...
बादशाही फौज करती है
न्याय की तमाम उम्मीदों पर कुठाराघात ...
सड़कों पर लहां वहां लावारिस बहता रहा मेरा ही रक्त
पर धीरे-धीरे जब यही तरल प्रवाहमान हुआ
कलम में रोशनाई बनकर
तो इसी ने लिख डाले नये दस्तावेज़ दासता के...
झूट का भरी भरकम द्वार खुलने लगा
तुम्हारी चाबियों से ही...
आज नए नए वायदे करता मसीहा-
वो ईश्वरविरोधी गधा-
देखो तो अब करता फिर रहा है
सवारी तुम्हारी पीठ पर ही बैठकर...
तुमने देश को पहुंचा तो दिया
स्वर्ग के सिंहासन तक
और रगड़ रगड़ कर चमका दिये
इसके जूते एकदम चकाचक...
और तुमने बुलंद कर दिए इसके सात मुंह वाले हथियार
और जब भी मैं बढ़ाता हूं हिम्मत जुटाकर
कि कुचल हूं इसके दंभ भरे फन...
इसकी भय से कंपित काया को शक्ति प्रदान करने को
हर बार लगा देते हो मुसटंडी छड़ें
तुम ही...
बिल्कुल नहीं... मुझे नहीं दरक़ार...
मुझे तुम्हारी दरक़ार नहीं है पेट्रोलियम...
ओ, रक्तिम जलधार!
अब तक सोचा करता था
तुम्हीं भरते हो मेरी शिराओं में रक्त...
पर अब समझ आ गया कि नहीं करते तुम कुछ ऐसा
बल्कि घाव करके बहा रहे हो
तुम मेरा ही रक्त
लगातार...
****
ओ, रक्तिम जलधार!
अब तक सोचा करता था
तुम्हीं भरते हो मेरी शिराओं में रक्त...
पर अब समझ आ गया कि नहीं करते तुम कुछ ऐसा
बल्कि घाव करके बहा रहे हो
तुम मेरा ही रक्त
लगातार...
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