अनुनाद

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ईरानी कवि माजिद नफ़ीसी की कविताओं का सिलसिला/ पहली किस्त : प्रस्तुति : यादवेन्द्र

ईरानी समाज के बारे में कहा जाता है कि कविता वहाँ भद्र जनों के जीवन का ही हिस्सा नहीं है बल्कि आम आदमी अपने दैनिक क्रियाकलापों में किसी ना किसी कविता की कोई ना कोई पंक्ति ज़रूर इस्तेमाल करता है। इस समाज की विडंबना देखिए कि आज हज़ारों की संख्या में ईरानी कवि (जिनमें से कुछ तो दूसरी पीढ़ी तक पहुच गये) अन्य देशों में …..सबसे ज़्यादा अमरीका में….निर्वासन या राजनीतिक शरणार्थी का जीवन बिताने को मजबूर हैं। 1979 में शाह के तख्तापलट के पहले जो राजनीतिक चेतनासंपन्न कवि थे, उनके दिन शाह की नृशंस पुलिस से लोहा लेते बीते और इस घटना से उन्हें देशवापसी की उम्मीद बँधी. पर अपने धार्मिक उन्माद में दूसरी सत्ता पहली से भी ज़्यादा क्रूर साबित हुई…..लिहाजा देश लौटने की उम्मीद लगाए कवियों की आशा पर पानी फिर गया. माजिद नफ़ीसी इसी श्रेणी के एक ईरानी कवि हैं, जो अमरीका में अपने दिन गुज़ार रहे हैं…. और उन्होंने अपनी भाषा में कविता लिखना जारी रखा है !

1952 में ईरान के सांस्कृतिक नगर इशफहान में बेहद प्रबुद्ध परिवार में उनका जन्म हुआ, जिसकी शोहरत इस बात में थी कि सात पीढ़ियों से ये नामी-गिरामी डाक्टरों का परिवार है! उसकी लाइब्रेरी में 3000 से ज़्यादा साहित्य की पुस्तकें हैं. 13 साल की उम्र में पहली कविता लिखी और 1969 में उनका पहला संकलन आया. बचपन उनकी नज़र बेहद कमज़ोर थी और अब तो अमरीका में रहते हुए वे क़ानूनी तौर पर दृष्टिहीन माने जाते हैं. स्कूल की पढ़ाई ईरान से करने के बाद वे अमरीका चले गये जहाँ उनकी बाक़ी की शिक्षा हुई. अमरीका में पढ़ने के दौरान वे वियतनाम युद्ध का विरोध करने वाले दस्ते में शामिल हो गये. वापस आए शाहविरोधी आंदोलन में कूद पड़े और इसी दौरान उनकी मुलाक़ात अपनी पहली पत्नी (जो आंदोलन की अगुवाई करने वालों में से एक थी) से हुई. दोनों ने शादी तो कर ली पर आंदोलन का तक़ाज़ा ये था कि वे साथ ना रहें…. आज भी नफ़ीसी की टेबल पर पहली पत्नी की आधी फटी हुई फोटो इस बात की गवाह है कि दोनों की एक साथ खींची गयी फोटो पुलिस से बचने के लिए बीच से फाड़ दी गयी थी. 1982 में उनकी पत्नी को गिरफ़्तार कर लिया गया और तेहरान की बदनाम जेल में उनकी हत्या कर दी गयी ! विद्रोहियों को दफ़नाने के लिए ईरान में एक अलग क़ब्रिस्तान है , जिसे काफ़िरों का क़ब्रिस्तान कहा जाता है और कवि पत्नी को भी वहीँ दफनाया गया!

इस आंदोलन की ख़ातिर नफ़ीसी ने 8 साल तक कविता को स्थगित रखा और राजनीतिक कार्यकर्ता बन कर रहे पर पत्नी की हत्या ने उनमें कविता दुबारा जगा दी। 1983 में वे सरकारी दामन से बचने के लिए तुर्की के रास्ते बाहर निकल गये…फिर कुछ दिन फ्रांस में रहे….. डेढ़ साल बिताने के बाद वे दुबारा अमरीका पहुँचे और अपने बेटे के साथ रहने लगे। अपने इस बेटे के लिए भी उन्होने ढेर सारी मार्मिक कवितायें लिखी हैं।

उनके आठ काव्य संकलन मौजूद हैं , बच्चों के लिए एक खूब लोकप्रिय और पुरस्कृत किताब और 4 गद्य पुस्तकें भी उन्होंने लिखी हैं. अपनी कविताओं के बारे में उनका कहना है कि वे सोचते फ़ारसी में हैं और पहला ड्राफ्ट भी फ़ारसी में ही लिखते हैं, बाद उसका अँग्रेज़ी रूपांतरण कर देते हैं. कविता से इतर उनकी एक किताब है : “सर्च आफ जॉय – ए क्रीटिक ऑफ मेल डोमिनेटेड डेथ ओरिएंटेड कल्चर इन ईरान” – जिसमे उन्होने यह खोजने की कोशिश की है कि ईरान के पुरुषप्रधान समाज में ….चाहे शाह का समय हो या उसे हटा कर आए ख़ुमैनी और उनके अनुयायियों का शासन, हिंसा और विरोधियों का सफ़ाया कर देने की प्रवृत्ति दोनों में समान क्यों रही?

(काफ़िरों का क़ब्रिस्तान, जहाँ कवि की पत्नी दफ़न है!)

निशान लगा ख़ज़ानाफाटक से आठ क़दम दूर
और दीवार से सोलह क़दम के फ़ासले पर…
है किसी पोथी का लिखा
ऐसे किसी ख़ज़ाने के बारे में?

ओ मिट्टी !
काश मेरी अंगुलियां छू पातीं तुम्हारी धड़कनें
या गढ़ पाती तुमसे बरतन…

अफ़सोस, मैं हकीम नहीं हूं
और न ही हूं कोई कुम्हार
मैं तो बस मामूली-सा एक वारिस हूं
लुटाए-गंवाए हुए अपना सब कुछ…
दर दर भटक रहा हूं तलाश में
कि शायद कहीं दिख जाए वो निशान लगा हुआ ख़ज़ाना

कान खोलकर सुन लो
मुझे दफ़नाने वाले हाथ
यही रहेगी पहचान मेरी क़ब्र की भी:
फाटक से आठ क़दम दूर
और दीवार से सोलह क़दम के फ़ासले पर
काफि़रों के क़ब्रिस्तान में ….
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(ये कविता कवि ने 7 जनवरी 1982को अपनी क्रांतिकारी साथी और पहली पत्नी इज़्ज़त ताबियां के सरकारी नुमाइंदों द्वारा क़त्ल किए जाने और काफि़रों के क़ब्रिस्तान में बिना किसी निशान की क़ब्र को तलाशते हुए लिखी थी…जिसे ऐसे ही क़दमों से नाप-नापकर पहचाना गया था।)

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इज़्ज़त ताबियां की वसीयत
नाम : इज़्ज़त ताबियां
पिता का नाम : सईद जावेद
जन्म प्रमाण पत्र संख्या : ३११७१
ये जीवन खूबसूरत और चाहने लायक है। औरों की तरह मैने भी जीवन से बे इन्तिहाँ प्यार किया. फिर एक वो भी आता है जब जीवन को अलविदा कहना पड़ता है। मेरे सामने भी खड़ा हुआ है वो समय और मैं उसका इस्तकबाल करती हूँ। मेरी कोई ख़ास ख्वाहिश नहीं है , बस ये कहना चाहती हूँ कि जीवन की खूबसूरती कभी विस्मृत नहीं की जा सकती। जिंदा रहते लोगों को अपने जीवन से ज़्यादा से ज़्यादा खूबसूरती प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए।
मेरे प्यारे अब्बा और अम्मी !
जब तक मैं जीवित रही, आप लोगों ने मुझे पालने में बहुत मुसीबतें उठायीं। अपने अन्तिम समय तक भी मैं अब्बा के गट्ठे और छाले पड़े हाथ और अम्मी के काम कर करके काले पड़ गए चेहरे को अपने जेहन से निकल नहीं पाई। मेरे मन में ये कूट कूट कर भरा हुआ है कि जितना आप लोगों ने मेरे लिए किया, उसकी मिसाल आसानी से देखने को नहीं मिलेगी। पर अंत में विदाई की बेला तो आनी ही थी…..इससे बचाव हरगिज़ सम्भव नहीं था। मैं अपने सम्पूर्ण वजूद के साथ आप लोगों से प्यार करती हूँ और अब अलग रस्ते पर जाते जाते भी आप लोगों को चूमना नही भूलूंगी …हलाँकि आमने सामने देखना अब सम्भव नहीं हो पायेगा। भाइयों और बहनों को मेरा सलाम कहियेगा …मेरी ओर से उनके गलों को चूम लीजियेगा। मैं उन सबसे बहुत बहुत प्यार करती हूँ। और अब जब मैं नहीं रहूंगी मेरी खातिर और तकलीफें मत उठाइएगा और अपने आप को यातना भी मत दीजियेगा। अपने जीवन आप लोग प्यार और कोमलता के साथ संगती बनाए रखियेगा …उन सबको मेरी ओर से सलाम दीजियेगा जो आपसे मेरे बारे में पूँछें।
मेरे प्यारे साथी(पति) !
मेरा जीवन बहुत छोटा था और हमें साथ साथ रहने के लिए और भी कम समय मिल पाया। मेरी ख्वाहिश मन में ही रह गई कि आपके साथ ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताऊँ…अब तो ये मुमकिन भी नहीं है। आप से इतनी दूर खड़ी हूँ पर यहीं से आपका हाथ पकड़ कर हिला रही हूँ …..और आपकी लम्बी उमर के लिए दुआएं कर रहीं हूँ …हालाँकि मुझे लग रहा है कि इस वसीयत की किस्मत में आप तक पहुंचना नहीं है
उन सबको सलाम जिनसे पिछले दिनों में प्यार किया और अब भी करती हूँ ….और सदा सदा के लिए करती रहूंगी। अलविदा ……
७ जनवरी १९८२
इज़्ज़त ताबियां
(इस वसीयत को माजिद नफ़ीसी ने १९९७ में प्रकाशित अपनी किताब ” आई राइट टू ब्रिंग यू बैक” में उद्धृत किया है)

0 thoughts on “ईरानी कवि माजिद नफ़ीसी की कविताओं का सिलसिला/ पहली किस्त : प्रस्तुति : यादवेन्द्र”

  1. अति सुंदर शिरीष जी. सचमुच, कविता के अर्थ और भाव तब और गहरे हो जाते हैं जब कविता के पीछे झांककर उसका देशकाल, समाज और स्थितियां भी जानी, समझी जा सकें. यादवेंद्र जी टिप्पणियों ने और तस्वीर ने कविता के स्पंदन को महसूस कर पाने की क्षमता उपलब्ध करवायी है. आपका ब्लॉग सचमुच कमाल है. बहुत बधाई!

  2. शिषिर जी ,

    यादवेन्द्र जी का जहां कहीं भी अनुवाद पढ़ा तारीफ किये बिना न रह सकी …और फिर उनकी अनुवाद के लिए चुनी कवितायें भी बेहतरीन होती हैं …..किसी ने बताया आपने उनकी अनुदित रचनाएँ अपने ब्लॉग में डालीं हैं तो तुंरत चली आई …..कविता अच्छी है पर इससे भी अच्छी कवितायेँ उनके पास हैं मैं चाहूंगी कि आप उन्हें भी प्रकाशित करें …..!!

  3. शानदार काम ! कवि की पत्नी का न रहना भावात्मक और वैचारिक, दोनों स्तरों पर परेशां करता है. आजकल कुछ दिनों के अंतर पर ब्लॉग पर आना होता, आपका काम जारी देख अच्छा लगता है. ये भी सच्चाई और अच्छाई के लिए एक तरह का समर्पण ही है. आदरणीय यादवेन्द्र जी को बधाई !

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