
उन पर दुख टूट पड़ें
जो बिछुड़ने के दर्द को नहीं समझते
उनके घर बह जाएँ
जो मनुष्य की क़ीमत नहीं समझते
गुम जाएँ उनके जवान बेटे
जिन्होंने कभी ख़ुशी नहीं देखी
उन तक पहुंचे कोई ख़ुशी
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मूल कविता : प्रस्तुति - महेन मेहता
Schwaechen
hattest du keine
Ich hatte eine
Ich liebte.
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गिरिराज किराडू की प्रतिक्रिया
ऐसा तो नहीं कि कवितायेँ लाल, झंडी हरीकवितायेँ हरी, झंडी लाल? :) (शायद) नेरुदा ने कहा था हमारे पास कुछ पाठक तो हैं, 'जनता' नहीं। अब उस 'कुछ' का अर्थ 'कितना' रहा गया है यह उदास और मारक गिनती कोई नहीं करना चाहता।इस पर कवियों की खुली पंचायत होनी चाहिए कि जितना कभी नहीं थी उतनी जनोन्मुखी हो कर भी (कम से कम अधिसंख्य कविता का आत्म-बिम्ब तो यही है) हिंदी कविता क्यों 'कंडीशंड' पाठकों तक सीमित हो गयी है - कभी कभी यह भी लगता है हम कवियों से बहुत अधिक उम्मीद करते हैं, अगर यह दूसरी तरह का और जैसी कवियों की दुनिया में आम सहमति जान पड़ती है 'सबसे भयानक'। 'कठिन', 'मुश्किल.' क्रूर', बाजारू' आदि समय है तो हम कवियों से वही प्रत्याशायें क्यों कर रहे हैं जो किसी कम 'भयानक' कम 'कठिन', कम 'मुश्किल', कम 'क्रूर', कम 'बाजारू' समय के लिए जायज़ थीं? इस समय में कविता की ठीक वही भूमिका नहीं हो सकती यह बिलकुल मुमकिन है. यूं 'बड़े' कवि बनने, बनाये जाने, कहने, कहलाये जाने का उद्यम सदाबहार है चलता रहेगा. 'बड़े' कवि, 'महत्त्वपूर्ण' कवि, 'विशिष्ट' कवि, 'अपना मुहावरा', 'विशिष्ट निजी स्वर' जैसे प्रिय पदों का कोई प्राथमिक मनोवैज्ञानिक पठन भी बहुत दिलचस्प रहेगा - करके देखिये. हर २ महीने में अपना 'निजी विशिष्ट स्वर' रखने वाले एक नौजवान की आमद और हर पांच साल में एक अनुभवी कवि के 'बड़े' कवि में पदोन्न्नत होते रहने के बावजूद हम लोग यह मातम कर रहे हैं तो बेवकूफ कौन?
June 22, 2009 10:57 AM
ख़ाली टोकरियां
भोर होते होते
दिखाई पड़ती हैं कई ख़ाली टोकरियां
रसोई में जिन्हें छोड़ आयी थीं तुम...
एक में सहेज देता हूं मैं चीड़ के कोन
सुदूर घाटियों से चुन चुन कर जिन्हें ले आयी थीं तुम..
और दूसरे में काले रंग वाली ढेरों सीपियां
आती है जिनसे गहरे सागरों की गूंज...
फिर भी बची रह जाती है एक अदद टोकरी
टकटकी लगाकर बार बार देखती हुई मुझे
छुपे हुए हैं उसमें जाने कौन कौन से
अजाने भेद...
धुलाई
वाशिंग मशीन की ध्वनि ठहरी रहती है सिर्फ़ जहां की तहां
और हमारे कपड़ों से फिसलती जाती हैं रात की सुगंध भरी स्मृतियां एक एक करके...
जलती लकड़ी और हरी दूब की गंध
तुम्हारी अंगियां पर ठिठक गए शराब के दाग़
और मेरी कालर पर बैठ गए पके फलों के धब्बे...
तुम्हारे कंधों पर भोर की ओस के छींटे
और मेरी पीठ पर चिपके हुए धूसर मिट्टी के दाग़
डूबते सितारों के बीच हमारा ढुलमुल ढुलमुल लुढ़कते जाना
और लाल गोले-सा सूरज का सहसा उछलकर प्रकट हो जाना...
गोल गोल घूमने दो इस चक्के को
और उलट पलट करने दो कपड़े...
प्रेम तो होता है बिल्कुल बेदाग़ झक्क्क सफ़ेद
और इसकी साफ़ सुथरी कमीज़
चमकती हुई दिखाई देती है
दूर दूर से भी हमेशा...
प्रेम मिलना नहीं आसान
मुझे चाहिए तुम्हारी अनिमेष टकटकी
आंखें नहीं चाहिए तुम्हारी....
मुझे चाहिए तुम्हारा चुंबन
होंट नहीं चाहिए तुम्हारे ...
मुझे चाहिए तुम्हारा आलिंगन
बाहें नहीं चाहिए तुम्हारी...
मेरी लालसा है प्रेम की
क्योंकि
प्रेम मिलना नहीं आसान...
मुझे चाहिए तुम्हारा मधु
छत्ता नहीं चाहिए तुम्हारा...
घोंघे के लिए
ओ पिद्दी से
पूरा घरबार अपनी पीठ पर ही लाद कर चलने वाले...
क्या डर नहीं लगता तुम्हें कि मेरा भारी भरकम पांव
कहीं मिटा ही न डाले तुम्हारी हैसियत?
कल रात बारिश में
तुम घुस आए मेरे जूतों के अंदर हिफ़ाजत से
बचाने खुद को...
आज
जब लौट रहे हो तुम अपने हरे भरे आशियाने में वापिस
सिर उठाने लगी है मुझमें भी लालसा
घरवापसी की...
ऐडी* का सूना कोना
आज पोंछ रही है सड़क से
बारिश तुम्हारा लहू
अब बचेगी यहां सिर्फ़ तुम्हारी आलोकित मुस्कान...
तुम्हारा लम्बा बेसबाल बैट दीवार से टिककर खड़ा है
और किताबों से भरा बैग
कर रहा है प्रतीक्षा तुम्हारे कंधों की
धिक्कार है उन हाथों को जिन्होंने बनाई बंदूक
धिक्कार है उन हाथों को जिन्होंने लाकर रखा उन्हें दुकान में
धिक्कार है उन हाथों को जिन ने दबाया इसका घोड़ा
मैं पड़ता जा रहा हूं बर्फ़ जैसा ठंडा
और बुलेट के खोल जैसा खोखला
क्योंकि जानता हूं तुम्हारी मां अब कभी लांघ नहीं पाएगी
देहरी किसी स्कूल की
और न क़दम बढ़ा पाएगी बेसबाल के मैदान की ओर
न ही वो दुखियारी
गरम कर पाएगी अपनी भट्टी
पकाने को कभी तुम्हारी पसंद का कोई पकवान...
(28 फरवरी 2006 को शहर के एक स्कूल में अंधाधुंध गोलियां चलाकर कुछ निर्दोष बच्चों को मार डाला गया...अमरीकी समाज में ऐसी घटनाएं आम हैं। कवि ने ऐसी एक बच्ची ऐडी लोपेज़ को श्रदाजंलि देते हुए ये कविता लिखी।)
पुल पर
मैं काठ के इस पुल पर लेटा हुआ हूं
माथे के नीचे हाथ को तकिया बनाए
और फिसल रही हैं तुम्हारी उंगलियां
मेरे चेहरे पर...
तुम्हारी लुभवनी बतकही से भरकर बहने लगता है मेरे कान का प्याला
पानी प्रवेश कर जाता है मेरी शिराओं के अंदर
और मैं बहने लगता हूं अनियंत्रित
इस रहस्यमय नदी में
उतराती हुई किसी आकुल नौका की मानिन्द
सघन वन के अंदर से
जहां चहचहाते हुए परिंदे हैं
और है विकलता भी
दूब की चीन्ही हुई गंध के साथ साथ...
जाने हम लगेंगे जाकर किस ठौर?
तेज बहाव वाले पानी के बीच
मेरे पास तो नहीं है कोई कम्पास
तुम्हारी फिसलती उंगलियों के सिवा?
ईरानी समाज के बारे में कहा जाता है कि कविता वहाँ भद्र जनों के जीवन का ही हिस्सा नहीं है बल्कि आम आदमी अपने दैनिक क्रियाकलापों में किसी ना किसी कविता की कोई ना कोई पंक्ति ज़रूर इस्तेमाल करता है। इस समाज की विडंबना देखिए कि आज हज़ारों की संख्या में ईरानी कवि (जिनमें से कुछ तो दूसरी पीढ़ी तक पहुच गये) अन्य देशों में .....सबसे ज़्यादा अमरीका में....निर्वासन या राजनीतिक शरणार्थी का जीवन बिताने को मजबूर हैं। 1979 में शाह के तख्तापलट के पहले जो राजनीतिक चेतनासंपन्न कवि थे, उनके दिन शाह की नृशंस पुलिस से लोहा लेते बीते और इस घटना से उन्हें देशवापसी की उम्मीद बँधी. पर अपने धार्मिक उन्माद में दूसरी सत्ता पहली से भी ज़्यादा क्रूर साबित हुई.....लिहाजा देश लौटने की उम्मीद लगाए कवियों की आशा पर पानी फिर गया. माजिद नफ़ीसी इसी श्रेणी के एक ईरानी कवि हैं, जो अमरीका में अपने दिन गुज़ार रहे हैं.... और उन्होंने अपनी भाषा में कविता लिखना जारी रखा है !
1952 में ईरान के सांस्कृतिक नगर इशफहान में बेहद प्रबुद्ध परिवार में उनका जन्म हुआ, जिसकी शोहरत इस बात में थी कि सात पीढ़ियों से ये नामी-गिरामी डाक्टरों का परिवार है! उसकी लाइब्रेरी में 3000 से ज़्यादा साहित्य की पुस्तकें हैं. 13 साल की उम्र में पहली कविता लिखी और 1969 में उनका पहला संकलन आया. बचपन उनकी नज़र बेहद कमज़ोर थी और अब तो अमरीका में रहते हुए वे क़ानूनी तौर पर दृष्टिहीन माने जाते हैं. स्कूल की पढ़ाई ईरान से करने के बाद वे अमरीका चले गये जहाँ उनकी बाक़ी की शिक्षा हुई. अमरीका में पढ़ने के दौरान वे वियतनाम युद्ध का विरोध करने वाले दस्ते में शामिल हो गये. वापस आए शाहविरोधी आंदोलन में कूद पड़े और इसी दौरान उनकी मुलाक़ात अपनी पहली पत्नी (जो आंदोलन की अगुवाई करने वालों में से एक थी) से हुई. दोनों ने शादी तो कर ली पर आंदोलन का तक़ाज़ा ये था कि वे साथ ना रहें.... आज भी नफ़ीसी की टेबल पर पहली पत्नी की आधी फटी हुई फोटो इस बात की गवाह है कि दोनों की एक साथ खींची गयी फोटो पुलिस से बचने के लिए बीच से फाड़ दी गयी थी. 1982 में उनकी पत्नी को गिरफ़्तार कर लिया गया और तेहरान की बदनाम जेल में उनकी हत्या कर दी गयी ! विद्रोहियों को दफ़नाने के लिए ईरान में एक अलग क़ब्रिस्तान है , जिसे काफ़िरों का क़ब्रिस्तान कहा जाता है और कवि पत्नी को भी वहीँ दफनाया गया!
इस आंदोलन की ख़ातिर नफ़ीसी ने 8 साल तक कविता को स्थगित रखा और राजनीतिक कार्यकर्ता बन कर रहे पर पत्नी की हत्या ने उनमें कविता दुबारा जगा दी। 1983 में वे सरकारी दामन से बचने के लिए तुर्की के रास्ते बाहर निकल गये...फिर कुछ दिन फ्रांस में रहे..... डेढ़ साल बिताने के बाद वे दुबारा अमरीका पहुँचे और अपने बेटे के साथ रहने लगे। अपने इस बेटे के लिए भी उन्होने ढेर सारी मार्मिक कवितायें लिखी हैं।
उनके आठ काव्य संकलन मौजूद हैं , बच्चों के लिए एक खूब लोकप्रिय और पुरस्कृत किताब और 4 गद्य पुस्तकें भी उन्होंने लिखी हैं. अपनी कविताओं के बारे में उनका कहना है कि वे सोचते फ़ारसी में हैं और पहला ड्राफ्ट भी फ़ारसी में ही लिखते हैं, बाद उसका अँग्रेज़ी रूपांतरण कर देते हैं. कविता से इतर उनकी एक किताब है : "सर्च आफ जॉय - ए क्रीटिक ऑफ मेल डोमिनेटेड डेथ ओरिएंटेड कल्चर इन ईरान" - जिसमे उन्होने यह खोजने की कोशिश की है कि ईरान के पुरुषप्रधान समाज में ....चाहे शाह का समय हो या उसे हटा कर आए ख़ुमैनी और उनके अनुयायियों का शासन, हिंसा और विरोधियों का सफ़ाया कर देने की प्रवृत्ति दोनों में समान क्यों रही?