Tuesday, June 30, 2009

इन्साफ़ की दुआ : शुभा


जिन्होंने दुख का स्वाद नहीं चखा
उन पर दुख टूट पड़ें



जो बिछुड़ने के दर्द को नहीं समझते
उनके घर बह जाएँ


जो मनुष्य की क़ीमत नहीं समझते
गुम जाएँ उनके जवान बेटे


जिन्होंने कभी ख़ुशी नहीं देखी
उन तक पहुंचे कोई ख़ुशी
**********


तीन दिन पहले अचानक यह कविता पढ़ने को मिली. इसने मुझे खासा बेचैन कर रखा है. आपकी राय
क्या है?
संजय व्यास की राय
कविता भीतर होने वाले तमाम अनुवादों के उपकरणों को सक्रिय होने का मौका दिए बगैर सीधी उतरती है। एक बार में तो इस इन्साफ की दुआ के समर्थन में दुआ उठती है और तुंरत बाद में बौद्धिक विवेक इसके न्यायसंगत होने पर सवाल खड़े करता है. हर बार पढने पर,सच कहा आपने, बहुत बेचैन करती है.जिनको कोई ख़ुशी नहीं मिली वे दुखों की धरती उठाए है. शायद उनके दुखों में से गठरी भर दुःख कम करने की ज़रुरत भी है.

पंकज चतुर्वेदी की राय
यह एक महान, अद्भुत और अविस्मरनीय कविता है। किसी दुर्लभ और जादुई क्षण में मुमकिन हुई होगी। इसमें तमाम काव्य-परम्परा की स्मृतियाँ और अन्तर्ध्वनियाँ भी सुनाई पड़ती हैं। 'महाभारत'में लिखा है कि छः किस्म के शोक होते हैं, जिनमें 'पुत्र-शोक' को 'महा-शोक' या सबसे बड़ा शोक कहागया है। इसी तरह शायद अमीर खुसरो ने लिखा है------"
जो मैं ऐसा जानती, पीत किये दुख होय!
नगर ढिंढोरा पीटती , पीत न कीजो कोय!"
तो कवयित्री शुभा जब असंवेदनशील और ममत्वहीन लोगों को शाप देती हैं, तो इन्हीं दुखों में उनके बर्बाद हो जाने का शाप उन्हें देती हैं। यह इस कविता की बहुत बड़ी ताक़त है। साथ ही, जिस सांस्कृतिक सन्दर्भ में यह कविता मौजूद है या जिसमें इसकी रचना हुई है, वह इसे और भी उदात बना देता है। मगर उस सन्दर्भ की पहचान के लिए भी आखिर शुभा ही सराहना कीअधिकारी हैं. धीरेश जी का बहुत-बहुत शुक्रिया !

Saturday, June 27, 2009

बेर्टोल्ट ब्रेख्त की एक प्रेम कविता - कमज़ोरियाँ

आज तक मैंने जितनी भी प्रेम-सम्बन्धी कविताएँ पढ़ी हैं-------और ज़ाहिर है कि मेरे पढने की बड़ी सीमा है, फिर भी-----उनमें जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रेख्त की यह कविता मुझे महानतम लगी है. इसलिए आप सभी के साथ अपने इस निहायत निजी एहसास या कहिये कि जुनून को साझा और सेलेब्रेट करना चाहता हूँ. सोचता हूँ , क्यों न मेरी पोस्ट का आगाज़ प्यार से हो . तो दोस्तो, प्रस्तुत है यह छोटी-सी, मगर महान कविता, मेरे लिए तो महानतम.

कमज़ोरियाँ तुम्हारी
कोई नहीं थीं
मेरी थी एक
मैं करता था प्यार

(अनुवाद: मोहन थपलियाल )

मूल कविता : प्रस्तुति - महेन मेहता

Schwaechen

hattest du keine

Ich hatte eine

Ich liebte.

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Wednesday, June 24, 2009

नरेश सक्सेना की कविता



धातुएं

सूर्य से अलग होकर पृथ्वी का घूमना शुरू हुआ
शुरू हुआ चुंबकत्व
धातुओं की भूमिका शुरू हुई

धातु युग से पहले भी था धातु युग
धातु युग से पहले भी है धातु युग
कौन कहता है कि धातुएं फलती-फूलती नहीं हैं
इन दिनों
फलों और फूलों में वे सबसे ज़्यादा मिलती हैं
पानी के बाद

मछलियों और पक्षियों में होती हुई
वे आकाश-पाताल एक कर रही हैं

दफ़्तर जाते हुए या बाज़ार
या घर लौटते हुए वे हमें घेर लेती हैं धुंए में
और ख़ून में घुलने लगती हैं

चिंतित हैं धातुविज्ञानी
कि असंतुलित हो रहे हैं धरती पर धातु के भंडार
कि वे उनके जिगर में, गुर्दों में, नाखूनों में,
त्वचा में, बालों की जड़ों में जमती जा रही हैं

अभी वे विचारों में फैल रही हैं लेकिन
एक दिन वे बैठी मिलेंगी
हमारी आत्मा में
फिर क्या होगा
गर्मी में गर्म और सर्दी में ठंडी
खींचो तो खिंचती चली जायेंगी
पीटो तो पिटती चली जायेंगी

ऐसा भी नहीं है
कि इससे पूरी तरह बेख़बर हैं लोग
मुझसे तो कई बार पूछ चुके हैं मेरे दोस्त
कि यार नरेश
तुम किस धातु के बने हो !
******

(16 जनवरी 1939 को ग्वालियर में जन्मे नरेश सक्सेना हिंदी कविता के उन चुनिन्दा ख़ामोश लेकिन समर्पित कार्यकर्ताओं की अग्रिम पंक्ति में हैं, जिनके बिना समकालीन हिंदी कविता का वृत्त पूरा नहीं होता। वे विलक्षण कवि हैं और कविताओं की गहन पड़ताल में विश्वास रखते हैं, इसका एक सबूत ये है कि 2001 में वे `समुद्र पर हो रही है बारिश´ के साथ पहली बार साहिबे-किताब बने और 70 की उम्र में अब तक उनके नाम पर बस वही एक किताब दर्ज़ है - इस पहलू से देखें तो वे आलोकधन्वा और मनमोहन की बिरादरी में खड़े नज़र आयेंगे। वे पेशे से इंजीनियर रहे और विज्ञान तथा तकनीक की ये पढ़ाई उनकी कविता में भी समाई दीखती है। वे अपनी कविता में लगातार राजनीतिक बयान देते हैं और अपने तौर पर लगातार एक साम्यवादी सत्य खोजने का प्रयास करते हैं। कविता के लिए उनकी बेहद ईमानदार चिन्ता और वैचारिक उधेड़बुन का ही परिणाम है कि कई पत्रिकाओं के सम्पादक पत्रिका के लिए सार्थक कविताओं की खोज का काम उन्हें सौंपते हैं। कविता के अलावा उनकी सक्रियता के अनेक क्षेत्र हैं। उन्होंने टेलीविज़न और रंगमंच के लिए लेखन किया है। उनका एक नाटक `आदमी का आ´ देश की कई भाषाओं में पांच हज़ार से ज़्यादा बार प्रदर्शित हुआ है। साहित्य के लिए उन्हें 2000 का पहल सम्मान मिला तथा निर्देशन के लिए 1992 में राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार)
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Sunday, June 21, 2009

कविता का प्रथम श्रोता - ज्ञानेंद्रपति

कविता का प्रथम श्रोता - ज्ञानेंद्रपति



कविता का पहला श्रोता किंवा पाठक ! कवि के लिए गुरू-स्थानीय - मेरी तरह के निगुरा कवि के लिए भी। कोई कविता पूरी होते ही - अर्थात उसका पहला मुकम्मल-सा प्रारूप बनते ही उसे ` उपयुक्त प्रथम श्रोता´ को सुनाने की ज़रूरत तड़प की तरह महसूस होती है। `उपयुक्त प्रथम श्रोता´ के यहां से उत्तीर्ण होने पर ही वह कविता मुकम्मल होती है। कविता की पूर्णता में इस प्रथम श्रोता का ज़रूरी योगदान होता है। उदाहरण के लिए `संझा-झंझा´ शीर्षक मेरी कविता को देखा जा सकता है जो तब विजयमोहन सिंह के सम्पादन में निकलने वाली `इंद्रप्रस्थ भारती´ में प्रकाशित हुई। कविता के उस रूप को `गंगातट´ में संकलित विकसित रूप से मिलाकर देखने पर दिखेगा, कितनी कमियां हैं `इं.प्र´ वाले प्राथमिक रूप में। क्योंकि तब तक मैं उस कविता को शिवनाथ बाबा को नहीं सुना सका था - शिवनाथ मांझी जो नब्बे पार के सम्भवत: सर्वाधिक बुज़ुर्ग व्यक्ति हैं बनारस के मल्लाहों के कुनबे में, जल से भरी सांवले मेघ की तरह धीरे धीरे चलते हुए गंगा के किनारे सुबह-शाम दिख जाने वाले। मल्लाहों की जीवनचर्या से जुड़ी उस कविता के `उपयुक्त प्रथम श्रोता´ शिवनाथ मांझी ही हो सकते थे। उनकी अनुभव-सम्पदा का सारांश ही - जितना मैं ग्रहण कर पाया - उस कविता को वह प्रस्फुटित रूप दे सका जो `गंगातट´ वाले रूप में दिखता है। गोया, कविता की अन्तर्वस्तु ही `उपयुक्त प्रथम श्रोता´ को संकेतित करती है, उसको सम्बोधित होती है, उसकी प्रतिक्रियाओं को जज़्ब करती है, समुन्नत होती है। जितना बड़ा आपका परिचय क्षेत्र होगा, उतनी ही बड़ी संख्या में गुरू-स्थानीय प्रथम श्रोता आपको सुलभ होंगे। मुझे लगता है, किसी युग-नियंत्रक आलोचक को अपना स्थायी गुरू नियुक्त करने से कविता संवरने वाली नहीं।
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पुस्तक का नाम - पढ़ते -गढ़ते, अभिधा प्रकाशन, रामदयालु नगर, मुजफ्फरपुर, बिहार- ८४२ ००२
मूल्य - ७५ रूपए
प्रथम संस्करण - २००५
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(मेरी बात - आज मैंने ज्ञानेंद्रपति का लिखा एक गद्यखंड यहां लगाया है। पिछले कुछ बरस से मुझे यह सवाल लगातार तंग करता है कि हम कवियों का लक्ष्य किन पाठकों के ह्रदय तक पहुंचना है। मेरे हिसाब से हिंदी में पाठक दो तरह के हैं - पहले, जो स्वयं कवि या रचनाकार भी हैं और दूसरे, जो केवल पाठक हैं - उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं, और वही मेरे लिए मेरे पाठक हैं! अग्रज और साथी कवियों को अनदेखा करने की गुस्ताख़ी मैं कतई नहीं कर रहा। ज्ञानेंद्रपति ने ख़ुद को `निगुरा´ कहा है! मैं भी `निगुरा´ ही हूं पर एक पूरी परम्परा का हाथ मेरी पीठ पर है, जिसे मेरी कविताओं में लक्षित किया जा सकता है। मैं उस परम्परा के साथ कितना न्याय कर पाया हूं या कर पा रहा हूं, यह तो सुदूर भविष्य में आंकने की बात होगी और मैं भूल नहीं रहा हूं कि तब भी इतिहास का कूड़ादान खुला होगा! परम्परा का बोध ही मुझे दरअसल पाठकों के बोध तक ले जाता है। हिंदी पट्टी ऐसे पाठकों से भरी पड़ी है और मेरे लिए रांची, मुंगेर, पटना, बोकारो, रायपुर, बांदा, भोपाल, गुना, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, गोपेश्वर, बादशाहीथौल टिहरी, देहरादून, बलिया, आदि अनेक जगहों से आते पत्र और फोन काल्स उन धुकधुकियों के गवाह हैं, जो प्रतिक्रियास्वरूप मेरे ह्रदय को ध्वनि और गति देती हैं......अंत में इतना और कि मेरे पहले पाठक नैनीताल के निकट स्थित ब्रिटिशकालीन क़स्बे रामनगर में रहने वाले रम´दा यानी रमेश पांडे हैं, जो अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। पिछले कई सालों से उनकी हरी झंडी के बाद ही मेरी कविताएं छपने जाती हैं और साथ ही यह भी बताना मौजूं होगा कि उनके पास मज़बूत और टिकाऊ कपड़े की बनी एक लाल झंडी भी है.......)

गिरिराज किराडू की प्रतिक्रिया

ऐसा तो नहीं कि कवितायेँ लाल, झंडी हरीकवितायेँ हरी, झंडी लाल? :) (शायद) नेरुदा ने कहा था हमारे पास कुछ पाठक तो हैं, 'जनता' नहीं। अब उस 'कुछ' का अर्थ 'कितना' रहा गया है यह उदास और मारक गिनती कोई नहीं करना चाहता।इस पर कवियों की खुली पंचायत होनी चाहिए कि जितना कभी नहीं थी उतनी जनोन्मुखी हो कर भी (कम से कम अधिसंख्य कविता का आत्म-बिम्ब तो यही है) हिंदी कविता क्यों 'कंडीशंड' पाठकों तक सीमित हो गयी है - कभी कभी यह भी लगता है हम कवियों से बहुत अधिक उम्मीद करते हैं, अगर यह दूसरी तरह का और जैसी कवियों की दुनिया में आम सहमति जान पड़ती है 'सबसे भयानक'। 'कठिन', 'मुश्किल.' क्रूर', बाजारू' आदि समय है तो हम कवियों से वही प्रत्याशायें क्यों कर रहे हैं जो किसी कम 'भयानक' कम 'कठिन', कम 'मुश्किल', कम 'क्रूर', कम 'बाजारू' समय के लिए जायज़ थीं? इस समय में कविता की ठीक वही भूमिका नहीं हो सकती यह बिलकुल मुमकिन है. यूं 'बड़े' कवि बनने, बनाये जाने, कहने, कहलाये जाने का उद्यम सदाबहार है चलता रहेगा. 'बड़े' कवि, 'महत्त्वपूर्ण' कवि, 'विशिष्ट' कवि, 'अपना मुहावरा', 'विशिष्ट निजी स्वर' जैसे प्रिय पदों का कोई प्राथमिक मनोवैज्ञानिक पठन भी बहुत दिलचस्प रहेगा - करके देखिये. हर २ महीने में अपना 'निजी विशिष्ट स्वर' रखने वाले एक नौजवान की आमद और हर पांच साल में एक अनुभवी कवि के 'बड़े' कवि में पदोन्न्नत होते रहने के बावजूद हम लोग यह मातम कर रहे हैं तो बेवकूफ कौन?

June 22, 2009 10:57 AM

Friday, June 19, 2009

अलविदा उस्ताद !


एक तारवाद्य कुछ बोलता है और कुछ बोलने से आवाज़ होती है

उस आवाज़ में तारामंडलों जैसी कुछ संरचनाएँ हैं
उनमें कुछ सुर दिखाई देते हैं

सुरों का तो काम ही है बोलना

वो बोलते हैं कि हमें एक चेहरे की तरह देखो
हमें एक नाम की तरह पुकारो

मैं पुकारता हूँ - माझ खम्माज !
मैं पुकारता हूँ - हेम विहाग !
मैं पुकारता हूँ - सिंधी भैरवी !

सुरों के सवेरे में एक साँवला आदमी
धीरे-धीरे कहीं जाता दीखता है

उसे पुकारो तो वह पलटकर देखता और धीरे से मुस्कुराता है
और अपने सधे हुए हाथ हिलाता है !

****

Wednesday, June 17, 2009

ईरानी कवि माजिद नफ़ीसी की कविताओं का सिलसिला/ तीसरी और समापन किस्त





ख़ाली टोकरियां

भोर होते होते
दिखाई पड़ती हैं कई ख़ाली टोकरियां
रसोई में जिन्हें छोड़ आयी थीं तुम...

एक में सहेज देता हूं मैं चीड़ के कोन
सुदूर घाटियों से चुन चुन कर जिन्हें ले आयी थीं तुम..

और दूसरे में काले रंग वाली ढेरों सीपियां
आती है जिनसे गहरे सागरों की गूंज...

फिर भी बची रह जाती है एक अदद टोकरी
टकटकी लगाकर बार बार देखती हुई मुझे
छुपे हुए हैं उसमें जाने कौन कौन से
अजाने भेद...



धुलाई

वाशिंग मशीन की ध्वनि ठहरी रहती है सिर्फ़ जहां की तहां
और हमारे कपड़ों से फिसलती जाती हैं रात की सुगंध भरी स्मृतियां एक एक करके...

जलती लकड़ी और हरी दूब की गंध
तुम्हारी अंगियां पर ठिठक गए शराब के दाग़
और मेरी कालर पर बैठ गए पके फलों के धब्बे...
तुम्हारे कंधों पर भोर की ओस के छींटे
और मेरी पीठ पर चिपके हुए धूसर मिट्टी के दाग़

डूबते सितारों के बीच हमारा ढुलमुल ढुलमुल लुढ़कते जाना
और लाल गोले-सा सूरज का सहसा उछलकर प्रकट हो जाना...

गोल गोल घूमने दो इस चक्के को
और उलट पलट करने दो कपड़े...

प्रेम तो होता है बिल्कुल बेदाग़ झक्क्क सफ़ेद
और इसकी साफ़ सुथरी कमीज़
चमकती हुई दिखाई देती है
दूर दूर से भी हमेशा...




प्रेम मिलना नहीं आसान

मुझे चाहिए तुम्हारी अनिमेष टकटकी
आंखें नहीं चाहिए तुम्हारी....

मुझे चाहिए तुम्हारा चुंबन
होंट नहीं चाहिए तुम्हारे ...

मुझे चाहिए तुम्हारा आलिंगन
बाहें नहीं चाहिए तुम्हारी...

मेरी लालसा है प्रेम की
क्योंकि
प्रेम मिलना नहीं आसान...

मुझे चाहिए तुम्हारा मधु
छत्ता नहीं चाहिए तुम्हारा...



घोंघे के लिए

ओ पिद्दी से
पूरा घरबार अपनी पीठ पर ही लाद कर चलने वाले...
क्या डर नहीं लगता तुम्हें कि मेरा भारी भरकम पांव
कहीं मिटा ही न डाले तुम्हारी हैसियत?

कल रात बारिश में
तुम घुस आए मेरे जूतों के अंदर हिफ़ाजत से
बचाने खुद को...

आज
जब लौट रहे हो तुम अपने हरे भरे आशियाने में वापिस
सिर उठाने लगी है मुझमें भी लालसा
घरवापसी की...


ऐडी* का सूना कोना

आज पोंछ रही है सड़क से
बारिश तुम्हारा लहू
अब बचेगी यहां सिर्फ़ तुम्हारी आलोकित मुस्कान...

तुम्हारा लम्बा बेसबाल बैट दीवार से टिककर खड़ा है
और किताबों से भरा बैग
कर रहा है प्रतीक्षा तुम्हारे कंधों की

धिक्कार है उन हाथों को जिन्होंने बनाई बंदूक
धिक्कार है उन हाथों को जिन्होंने लाकर रखा उन्हें दुकान में
धिक्कार है उन हाथों को जिन ने दबाया इसका घोड़ा

मैं पड़ता जा रहा हूं बर्फ़ जैसा ठंडा
और बुलेट के खोल जैसा खोखला

क्योंकि जानता हूं तुम्हारी मां अब कभी लांघ नहीं पाएगी
देहरी किसी स्कूल की
और न क़दम बढ़ा पाएगी बेसबाल के मैदान की ओर
न ही वो दुखियारी
गरम कर पाएगी अपनी भट्टी
पकाने को कभी तुम्हारी पसंद का कोई पकवान...



(28 फरवरी 2006 को शहर के एक स्कूल में अंधाधुंध गोलियां चलाकर कुछ निर्दोष बच्चों को मार डाला गया...अमरीकी समाज में ऐसी घटनाएं आम हैं। कवि ने ऐसी एक बच्ची ऐडी लोपेज़ को श्रदाजंलि देते हुए ये कविता लिखी।)



पुल पर

मैं काठ के इस पुल पर लेटा हुआ हूं
माथे के नीचे हाथ को तकिया बनाए
और फिसल रही हैं तुम्हारी उंगलियां
मेरे चेहरे पर...

तुम्हारी लुभवनी बतकही से भरकर बहने लगता है मेरे कान का प्याला
पानी प्रवेश कर जाता है मेरी शिराओं के अंदर
और मैं बहने लगता हूं अनियंत्रित
इस रहस्यमय नदी में
उतराती हुई किसी आकुल नौका की मानिन्द
सघन वन के अंदर से
जहां चहचहाते हुए परिंदे हैं
और है विकलता भी
दूब की चीन्ही हुई गंध के साथ साथ...

जाने हम लगेंगे जाकर किस ठौर?
तेज बहाव वाले पानी के बीच
मेरे पास तो नहीं है कोई कम्पास
तुम्हारी फिसलती उंगलियों के सिवा?


Monday, June 15, 2009

अनुनाद के मुद्रित संस्करण से .....


सादी यूसुफ़ की कविता
(अनुवाद : अशोक पाण्डे)



फ़कीर

एक

रात बीतने ही वाली थी
जब कवियों ने प्रस्थान किया एक-एक कर
उनके पास इतनी रसद भर थी कि किसी ग़रीब आदमी के लिए पर्याप्त होती
और वापसी का टिकट
मैं उन्हें बताता हूँ : ``इतने तेज़ क़दम मत बढ़ाओ
भाइयो, एक घंटा और कर लो प्रतीक्षा
रात बीतने ही वाली है´´
लेकिन वे चले जाते हैं
आसमान बिल्कुल काला नहीं है, बस गहराते बादल हैं...
वे काले नज़र आते हैं और सलेटी
भोर बेवफ़ा है मगर है तो भोर ही
आसमान के एक कोने पर लगातार ठहरे सफ़ेद बादल से
मैं कहता हूँ
मैं तुम्हारा हूँ, हँसिये जैसी मेरी चमक तुम्हारी है
मैंने रात भर तुम्हारा... तुम्हारा इंतज़ार किया
जबकि तुम यहीं थे - मेरे तकिए के नीचे
मेरे बालों को सहलाते-दुलारते
तुम रहोगे मेरे साथ यहीं
मैं जहाँ होऊँगा तुम भी वहीं
मैं आसमान से कहूँगा कि खुल जाए वह
मैं घोषणा करूँगा कि तुम हो दिन का उजाला
शुभ दिन, प्यारे लड़के !
***
दो

कवि चल देते हैं एक के बाद एक
कविता का अंत आते-आते ...
कैसे पहुंचे तुम यहाँ इस ज़ीरो प्वाइंट पर ?
कैसे पहुंचे यहाँ आख़िरकार
तुम कहाँ छोड़ आए हमारी लालटेनें, हमारे पर्वतशिखर ?
क्या तुमने कभी नहीं देखी बिल्ली की आँखें ?
क्या हमने एक पंक्ति का पीछा किया उसके अंत तक ?
तब भी तुम चल देते हो यहाँ से

इस पहाड़ पर कभी नहीं पड़ेंगी सिलवटें
हम जानते हैं इस पहाड़ को
इसके कोटरों से हम लेकर आएंगे शहद
और मेरी ढाल के लिए बाज के पंख
नाम ही नहीं हैं फूलों के पास

और चिंदी-चिंदी बसन्त, और गाँवों की गंध टोहते भेड़िए
वहाँ दर्रे हैं,
और बकरियों और तस्करों के वास्ते पगडंडियाँ
यहाँ मेहमान नहीं होते सिपाही
संतों की क़ब्रों पर हरे रिबन चढ़ाए गए हैं
हम नहीं जानते उन मकानों को - औरतें वहाँ से
डबलरोटियाँ और मोमबत्तियाँ लेकर आती हैं
शुभ दिन, प्यारे पर्वतो !
***
तीन

कवि चल देते हैं एक के बाद एक
टहनी का अंत आते-आते
नहीं :
तुम लोग कैसे छोड़ सकते हो मुझे ?
हम कैसे कह सकते हैं : पानी की लहरें हमारी हैं ?
हम कैसे कह सकते हैं : टहनियाँ हमारी हैं, और हमारा यह सुनहरा शहद
कैसे कि : यह शुरूआत है टहनी की
तब भी तुम चल देते हो यहाँ से
पेड़ो, तुम हो पवित्र ! तुम फलो-फूलो,
तुम पवित्र हो - अपने मोरपंखों और पुरातन पक्षियों की कलगियों समेत !
तुम हो पवित्र जहाँ अंडे देती हैं चींटियाँ, सितारे का पीछा करता सेही तुम्हारे गिर्द चक्कर काटता है
और टिड्डियों की आवाज़ें तुम्हारी टहनियों से आती है
चाँदी जैसी सफ़ेद रात में
स्वर्ग से आने वाली हवा तुम्हें पंखा झलती है और सुनहरी धूप में तुमसे टपकती है चाँदी
मैं कहूँगा : तुम मेरे पहले पेड़ हो
तुम हो मेरा झोपड़ा
मेरी समाधि और मेरा मुकुट
शुभ दिन, कविता !
***
चार

मैं तुम्हें कोई इल्ज़ाम नहीं दूँगा
शराब की बंजर धरती से मैं नहीं कहूँगा अलविदा तुम्हें !
जब तूफ़ान टूटेगा, मैं सुनूंगा नहीं
मैं दोहराता जाऊँगा तुम्हारे नाम ...
और तुम्हारे आसमानों को
मैं एक वफ़ादार पहरुवे की तरह
तुम्हारी छोड़ी चीज़ों का ख़्याल रखूँगा
मैं नहीं बन जाऊँगा धूल का राजकुमार
***
पाँच

रात को
रात ख़त्म होने पर
चिड़ियाँ आएंगी मेरे पास
और आएंगे चौड़े चरागाहों की ओस से भीगे भेड़िए
और हिरणियाँ आएंगी
रात के बीतने पर
सात कवि आएंगे
मेरी गुफ़ा में शरण लेने को ...
***

Saturday, June 13, 2009

हबीब तनवीर के नाटकों से कुछ गीत



ग़ैब से चलने लगी जब
एक ज़हरीली हवा।

दिल के फफोलों से भरी
किस-किसके नालों से भरी
ख़ामोश चीखों से भरी
यह कहाँ से उठ रही है ऐसी दर्दीली हवा
ग़ैब से चलने लगी जब
एक ज़हरीली हवा

एक मौजे लहू आ रही है
मौत की जैसे बू आ रही है
कू ब कू, सू ब सू आ रही है
अपनी बेरंगी में भी है एक ज़रा नीली हवा
ग़ैब से चलने लगी जब
एक ज़हरीली हवा
कैसा भभका, कैसी गंध
हो रही है सांस बंद
रोशनी आंखों की बंद
जिस्मों-जां में बस रही है कैसी मटमैली हवा
ग़ैब से चलने लगी जब
एक ज़हरीली हवा

कुछ ज़रा-सी गर्म भी है, कुछ ज़रा गीली हवा
ग़ैब से चलने लगी जब एक ज़हरीली हवा
एक ज़हरीली हवा।
(`ज़हरीली हवा` से)
****

आसमान तक उठ रहा है ज़ुल्म का पहाड़ रे
जी नहीं सकेंगे अब तो लेके इसकी आड़
इस तरफ है ख़ार ज़ार गुलिस्तां उधर
दुख इधर है और सुख की वादियां उधर
घर भी उजाड़ अपना दिल भी है उजाड़
आसमान तक उठ रहा है ज़ुल्म का पहाड़।
दूसरी तरफ तो बह रही है जूए शीर
इस तरफ़ हवा भी चल रही है जैसे तीर
इस तरफ़ नज़र में कोई फूल है न झाड़
आसमान तक उठ रहा है ज़ुल्म का पहाड़।
इंकलाब ज़िंदाबाद का लगा के शोर
पंजाए सितम को आज़मा लगा के ज़ोर
हो सके तो बढ़के इस पहाड़ को उखाड़
आसमान तक उठ रहा है ज़ुल्म का पहाड़।
(`दुश्मन` से)
****

नेक दिल
नेक दिल अपने कमज़ोर दिल को तो देख
क्या ग़रीब आदमी में भलाई नहीं
क्या ख़तरनाक मौकों पे इंसान ने
बार-बार अपनी हिम्मत दिखाई नहीं
तंग नज़री की हद नामुरादी की हद
तंग नज़री की हद नामुरादी की हद
तंग नज़री की हद नामुराद
****

Thursday, June 11, 2009

ईरानी कवि माजिद नफ़ीसी की कविताओं का सिलसिला/ दूसरी किस्त

आपने पहली किस्त में माजिद नफ़ीसी के जीवन और उनकी दिवंगता पत्नी पर टिप्पणी पढ़ी और एक कविता भी। इन सारी चीज़ों को मेरे लिए शिरीष ने लगाया। अब पढ़िए माजिद की दूसरी कविता......

मुझे तुम्हारी दरक़ार नहीं है प्रेट्रोलियम !

मुझे तुम्हारी दरक़ार नहीं है प्रेट्रोलियम...
अब तक मैं सोचा करता था
कि तुम जलते हो मेरे लिए
पर अब अहसास हुआ
कि जलता रहा हूं उल्टा मैं ही
तुम्हारी ख़ातिर ...

ये हरगिज़ नहीं नहीं कहूंगा
कि हो रही हो जब बर्फ़बारी तो अच्छा नहीं लगता
केरोसिन की भट्टी के पास दुबककर बैठना....
या उजाड़ पड़े खेतों में
पंप से सिंचाई के वास्ते पानी पटाना...
फिर भी भरोसा नहीं आ रहा है तुमपर
ऐ, सात मुंह वाले दानव
तुम्हारे मुंह से अब भी निकल रही हैं धू-धू करती लपटें
और इसकी आंच पहुंच रही हैं
मेरी मातृभूमि की आत्मा तक

तुम्हारे स्कूल ने भी पढ़ाए पाठ हमें दासता के
जिसके सहारे क़ुनबे के सरदार
भेजने में सफल हो गया अपना बेटा लंदन तक...
बादशाही फौज करती है
न्याय की तमाम उम्मीदों पर कुठाराघात ...
सड़कों पर लहां वहां लावारिस बहता रहा मेरा ही रक्त
पर धीरे-धीरे जब यही तरल प्रवाहमान हुआ
कलम में रोशनाई बनकर
तो इसी ने लिख डाले नये दस्तावेज़ दासता के...
झूट का भरी भरकम द्वार खुलने लगा
तुम्हारी चाबियों से ही...

आज नए नए वायदे करता मसीहा-
वो ईश्वरविरोधी गधा-
देखो तो अब करता फिर रहा है
सवारी तुम्हारी पीठ पर ही बैठकर...

तुमने देश को पहुंचा तो दिया
स्वर्ग के सिंहासन तक
और रगड़ रगड़ कर चमका दिये
इसके जूते एकदम चकाचक...
और तुमने बुलंद कर दिए इसके सात मुंह वाले हथियार
और जब भी मैं बढ़ाता हूं हिम्मत जुटाकर
कि कुचल हूं इसके दंभ भरे फन...
इसकी भय से कंपित काया को शक्ति प्रदान करने को
हर बार लगा देते हो मुसटंडी छड़ें
तुम ही...
बिल्कुल नहीं... मुझे नहीं दरक़ार...


मुझे तुम्हारी दरक़ार नहीं है पेट्रोलियम...
ओ, रक्तिम जलधार!
अब तक सोचा करता था
तुम्हीं भरते हो मेरी शिराओं में रक्त...
पर अब समझ आ गया कि नहीं करते तुम कुछ ऐसा
बल्कि घाव करके बहा रहे हो
तुम मेरा ही रक्त
लगातार...
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Saturday, June 6, 2009

ईरानी कवि माजिद नफ़ीसी की कविताओं का सिलसिला/ पहली किस्त : प्रस्तुति : यादवेन्द्र

ईरानी समाज के बारे में कहा जाता है कि कविता वहाँ भद्र जनों के जीवन का ही हिस्सा नहीं है बल्कि आम आदमी अपने दैनिक क्रियाकलापों में किसी ना किसी कविता की कोई ना कोई पंक्ति ज़रूर इस्तेमाल करता है। इस समाज की विडंबना देखिए कि आज हज़ारों की संख्या में ईरानी कवि (जिनमें से कुछ तो दूसरी पीढ़ी तक पहुच गये) अन्य देशों में .....सबसे ज़्यादा अमरीका में....निर्वासन या राजनीतिक शरणार्थी का जीवन बिताने को मजबूर हैं। 1979 में शाह के तख्तापलट के पहले जो राजनीतिक चेतनासंपन्न कवि थे, उनके दिन शाह की नृशंस पुलिस से लोहा लेते बीते और इस घटना से उन्हें देशवापसी की उम्मीद बँधी. पर अपने धार्मिक उन्माद में दूसरी सत्ता पहली से भी ज़्यादा क्रूर साबित हुई.....लिहाजा देश लौटने की उम्मीद लगाए कवियों की आशा पर पानी फिर गया. माजिद नफ़ीसी इसी श्रेणी के एक ईरानी कवि हैं, जो अमरीका में अपने दिन गुज़ार रहे हैं.... और उन्होंने अपनी भाषा में कविता लिखना जारी रखा है !

1952 में ईरान के सांस्कृतिक नगर इशफहान में बेहद प्रबुद्ध परिवार में उनका जन्म हुआ, जिसकी शोहरत इस बात में थी कि सात पीढ़ियों से ये नामी-गिरामी डाक्टरों का परिवार है! उसकी लाइब्रेरी में 3000 से ज़्यादा साहित्य की पुस्तकें हैं. 13 साल की उम्र में पहली कविता लिखी और 1969 में उनका पहला संकलन आया. बचपन उनकी नज़र बेहद कमज़ोर थी और अब तो अमरीका में रहते हुए वे क़ानूनी तौर पर दृष्टिहीन माने जाते हैं. स्कूल की पढ़ाई ईरान से करने के बाद वे अमरीका चले गये जहाँ उनकी बाक़ी की शिक्षा हुई. अमरीका में पढ़ने के दौरान वे वियतनाम युद्ध का विरोध करने वाले दस्ते में शामिल हो गये. वापस आए शाहविरोधी आंदोलन में कूद पड़े और इसी दौरान उनकी मुलाक़ात अपनी पहली पत्नी (जो आंदोलन की अगुवाई करने वालों में से एक थी) से हुई. दोनों ने शादी तो कर ली पर आंदोलन का तक़ाज़ा ये था कि वे साथ ना रहें.... आज भी नफ़ीसी की टेबल पर पहली पत्नी की आधी फटी हुई फोटो इस बात की गवाह है कि दोनों की एक साथ खींची गयी फोटो पुलिस से बचने के लिए बीच से फाड़ दी गयी थी. 1982 में उनकी पत्नी को गिरफ़्तार कर लिया गया और तेहरान की बदनाम जेल में उनकी हत्या कर दी गयी ! विद्रोहियों को दफ़नाने के लिए ईरान में एक अलग क़ब्रिस्तान है , जिसे काफ़िरों का क़ब्रिस्तान कहा जाता है और कवि पत्नी को भी वहीँ दफनाया गया!

इस आंदोलन की ख़ातिर नफ़ीसी ने 8 साल तक कविता को स्थगित रखा और राजनीतिक कार्यकर्ता बन कर रहे पर पत्नी की हत्या ने उनमें कविता दुबारा जगा दी। 1983 में वे सरकारी दामन से बचने के लिए तुर्की के रास्ते बाहर निकल गये...फिर कुछ दिन फ्रांस में रहे..... डेढ़ साल बिताने के बाद वे दुबारा अमरीका पहुँचे और अपने बेटे के साथ रहने लगे। अपने इस बेटे के लिए भी उन्होने ढेर सारी मार्मिक कवितायें लिखी हैं।

उनके आठ काव्य संकलन मौजूद हैं , बच्चों के लिए एक खूब लोकप्रिय और पुरस्कृत किताब और 4 गद्य पुस्तकें भी उन्होंने लिखी हैं. अपनी कविताओं के बारे में उनका कहना है कि वे सोचते फ़ारसी में हैं और पहला ड्राफ्ट भी फ़ारसी में ही लिखते हैं, बाद उसका अँग्रेज़ी रूपांतरण कर देते हैं. कविता से इतर उनकी एक किताब है : "सर्च आफ जॉय - ए क्रीटिक ऑफ मेल डोमिनेटेड डेथ ओरिएंटेड कल्चर इन ईरान" - जिसमे उन्होने यह खोजने की कोशिश की है कि ईरान के पुरुषप्रधान समाज में ....चाहे शाह का समय हो या उसे हटा कर आए ख़ुमैनी और उनके अनुयायियों का शासन, हिंसा और विरोधियों का सफ़ाया कर देने की प्रवृत्ति दोनों में समान क्यों रही?


(काफ़िरों का क़ब्रिस्तान, जहाँ कवि की पत्नी दफ़न है!)


निशान लगा ख़ज़ाना

फाटक से आठ क़दम दूर
और दीवार से सोलह क़दम के फ़ासले पर...
है किसी पोथी का लिखा
ऐसे किसी ख़ज़ाने के बारे में?

ओ मिट्टी !
काश मेरी अंगुलियां छू पातीं तुम्हारी धड़कनें
या गढ़ पाती तुमसे बरतन...

अफ़सोस, मैं हकीम नहीं हूं
और न ही हूं कोई कुम्हार
मैं तो बस मामूली-सा एक वारिस हूं
लुटाए-गंवाए हुए अपना सब कुछ...
दर दर भटक रहा हूं तलाश में
कि शायद कहीं दिख जाए वो निशान लगा हुआ ख़ज़ाना

कान खोलकर सुन लो
मुझे दफ़नाने वाले हाथ
यही रहेगी पहचान मेरी क़ब्र की भी:
फाटक से आठ क़दम दूर
और दीवार से सोलह क़दम के फ़ासले पर
काफि़रों के क़ब्रिस्तान में ....
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(ये कविता कवि ने 7 जनवरी 1982को अपनी क्रांतिकारी साथी और पहली पत्नी इज़्ज़त ताबियां के सरकारी नुमाइंदों द्वारा क़त्ल किए जाने और काफि़रों के क़ब्रिस्तान में बिना किसी निशान की क़ब्र को तलाशते हुए लिखी थी...जिसे ऐसे ही क़दमों से नाप-नापकर पहचाना गया था।)
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इज़्ज़त ताबियां की वसीयत
नाम : इज़्ज़त ताबियां
पिता का नाम : सईद जावेद
जन्म प्रमाण पत्र संख्या : ३११७१
ये जीवन खूबसूरत और चाहने लायक है। औरों की तरह मैने भी जीवन से बे इन्तिहाँ प्यार किया. फिर एक वो भी आता है जब जीवन को अलविदा कहना पड़ता है। मेरे सामने भी खड़ा हुआ है वो समय और मैं उसका इस्तकबाल करती हूँ। मेरी कोई ख़ास ख्वाहिश नहीं है , बस ये कहना चाहती हूँ कि जीवन की खूबसूरती कभी विस्मृत नहीं की जा सकती। जिंदा रहते लोगों को अपने जीवन से ज़्यादा से ज़्यादा खूबसूरती प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए।
मेरे प्यारे अब्बा और अम्मी !
जब तक मैं जीवित रही, आप लोगों ने मुझे पालने में बहुत मुसीबतें उठायीं। अपने अन्तिम समय तक भी मैं अब्बा के गट्ठे और छाले पड़े हाथ और अम्मी के काम कर करके काले पड़ गए चेहरे को अपने जेहन से निकल नहीं पाई। मेरे मन में ये कूट कूट कर भरा हुआ है कि जितना आप लोगों ने मेरे लिए किया, उसकी मिसाल आसानी से देखने को नहीं मिलेगी। पर अंत में विदाई की बेला तो आनी ही थी.....इससे बचाव हरगिज़ सम्भव नहीं था। मैं अपने सम्पूर्ण वजूद के साथ आप लोगों से प्यार करती हूँ और अब अलग रस्ते पर जाते जाते भी आप लोगों को चूमना नही भूलूंगी ...हलाँकि आमने सामने देखना अब सम्भव नहीं हो पायेगा। भाइयों और बहनों को मेरा सलाम कहियेगा ...मेरी ओर से उनके गलों को चूम लीजियेगा। मैं उन सबसे बहुत बहुत प्यार करती हूँ। और अब जब मैं नहीं रहूंगी मेरी खातिर और तकलीफें मत उठाइएगा और अपने आप को यातना भी मत दीजियेगा। अपने जीवन आप लोग प्यार और कोमलता के साथ संगती बनाए रखियेगा ...उन सबको मेरी ओर से सलाम दीजियेगा जो आपसे मेरे बारे में पूँछें।
मेरे प्यारे साथी(पति) !
मेरा जीवन बहुत छोटा था और हमें साथ साथ रहने के लिए और भी कम समय मिल पाया। मेरी ख्वाहिश मन में ही रह गई कि आपके साथ ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताऊँ...अब तो ये मुमकिन भी नहीं है। आप से इतनी दूर खड़ी हूँ पर यहीं से आपका हाथ पकड़ कर हिला रही हूँ .....और आपकी लम्बी उमर के लिए दुआएं कर रहीं हूँ ...हालाँकि मुझे लग रहा है कि इस वसीयत की किस्मत में आप तक पहुंचना नहीं है
उन सबको सलाम जिनसे पिछले दिनों में प्यार किया और अब भी करती हूँ ....और सदा सदा के लिए करती रहूंगी। अलविदा ......
७ जनवरी १९८२
इज़्ज़त ताबियां
(इस वसीयत को माजिद नफ़ीसी ने १९९७ में प्रकाशित अपनी किताब " आई राइट टू ब्रिंग यू बैक" में उद्धृत किया है)

Friday, June 5, 2009

विनोद दास की कविताओं का सिलसिला/ तीसरी कविता






युवा

घंटी बजाकर
आपके दरवाज़े के सामने
जो उदग्र युवा
कान से मोबाइल सटाए हुए मुस्करा रहा है
वह मूलत: इंजीनियर है

ऐश्वर्य के जगमगाते रास्तों में
उसकी इंजीनियरिंग की अस्थियां दबी हुई हैं
और अंधविश्वास की पौधशाला में पला
विज्ञान का यह प्रखर छात्र
फि़लहाल गले की अपनी ताबीज़ को पवित्र भाव से छू रहा है
बार-बार

अपने शहर से दर-ब-दर
यह अश्वमेधी अश्व
दौड़ता ही रहता है हर समय

सफ़र और मौत
दोनो ही करते रहते हैं इसका पीछा
सरीसृपों की तरह

घर का पता
अब इसके मोबाइल का सिर्फ़ एक नंबर है
मुलायम बंदिशों के इस क़ैदखाने में
वह जाना नहीं चाहता
मां रसोई से पुकारती रहती है
लेकिन खो जाती है उसकी आवाज़
पीजा-बर्गर के नए-नए स्वाद में

रिश्तों को व्यापार में
बदलने की कला में पारंगत यह नौजवान अकेला नहीं है
मोबाइल, लैपटाप की बटनों में छिपे हैं
इसके बेशुमार दोस्त

उसके लिए यह सब पचड़ा है
कि विदर्भ में कपास
खून से लिथड़ रही है

ग़रीबों के वोटों से बनी अमीरों की सरकार
किसानों की हड़प रही है ज़मीन
और उनकी पीठों पर चमक रहे हैं
अंग्रेज़ों की नहीं
हमारी पुलिस की लाठियों के निशान

उसे यह तक दिखाई नहीं देता
कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक
इन दिनों मज़दूर ऐसे चलता है
जैसे चल रहा हो
अंत्येष्टि यात्रा
धीरे-धीरे

लेकिन यह अपने देशकाल से
इतना भी निरपेक्ष नहीं

उसकी चिंता में
फि़ल्मी सितारों की रसीली कथाएं हैं
या सचिन का नब्बे के आसपास लटका शतक

सावधान!
अभी यह अपनी मीठी आवाज़ में
अपनी कंपनी की बीमा पालिसी बेचने के लिए
आपसे मनुहार करेगा

फिर सीटी बजाते हुए
कई लड़कियों को एक साथ करेगा
एस एम एस
कोई फूहड़ चुटकुला
अथवा घटिया शेर

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Wednesday, June 3, 2009

अनुनाद के मुद्रित संस्करण से ......


विशाल श्रीवास्तव की कविताएँ

विशाल महत्वपूर्ण युवा कवि हैं। उन्हें 2005 का `अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार´ मिला है। उनकी कविताएँ संवेदना के स्तर एक अजब-सी हरारत जगाती हैं। उनके पास अपना डिक्शन और ख़ुद से बाहर लाने वाली एक विशिष्ट अंतर्दृष्टि भी मौजूद है, जिससे ये तय हो जाता है कि वे एक लम्बी काव्य-यात्रा पर निकले हैं। उन्हें अनुनाद की शुभकामनायें।



थाने में औरत

थाने में मगन दीवान जी हैं
और ठीक सामने उकड़ूँ बैठाई गयी है वह औरत
कुछ इस तरह
जैसे बैठी हो शताब्दियों से
और बैठे रहना हो शताब्दियों तक

आख़िर किसलिए आई होगी यहाँ पर यह
भले घर की औरतें तो आतीं नहीं थाने
ज़रूर इसका मर्द या लड़का बन्द होगा भीतर
या फिर इसी का हुआ होगा चालान बदचलनी में
न हिलती है न डुलती है
न बोलती है कुछ
बस देखती है टुकुर-टुकुर सन्न सी
थाने के विरल आँगन को
जो स्वभावत: स्वस्थ और हरा-भरा है
आँगन में है आम का पेड़
जिस पर जैसे डर के मारे
निकल आये हैं नये नकोर बौर
इस अप्रैल में ही

औरत देखती है उनको
और थाने में मुसकाती है अचानक
यह जानते हुए भी कि थाने में मुसकाना
कितना भयानक हो सकता है
जैसे उसका बचपना जाग गया हो उसके भीतर
उकडू़ँ बैठे बैठे ही वह मार देती हैं छलाँग बचपन में
भूल जाती है कि
उसका मरद कि लड़का बन्द है भीतर
या उसी का हुआ है चालान
इस अप्रैल के जानलेवा घाम में
थाने के आँगन में उकड़ूँ बैठी औरत मुसकाती है
मैं प्रार्थना करता हूँ मन में
कि दीवान को शताब्दियों तक न मिले फुर्सत
उसकी ओर देखने की।
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चुप रहो

चुप रहो नहीं तो
किसी महान शास्त्रीय आलाप की रगड़
से रेत दिया जायेगा तुम्हारा गला
महान नहीं होने दी जायेगी तुम्हारी मृत्यु
गोली नहीं मारी जायेगी तुम्हारी आँखों के बीच
तुम्हारे ही शहर में
सड़क के पीछे की किसी सुनसान गली में
तुम्हारे सर पर झम्म से गिरेगा
किसी महान लेखक का आंतकित कर देने वाला शब्द
तो अगर नहीं देख सकते हो तुम दुनिया के तमाशे
चुप रहो और मुस्कुराओ
कि तुम अपने शहर में ज़िन्दा हो
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डॉल्टनगंज के मुसलमान

कोई बड़ा शहर नहीं है डाल्टनगंज
बिल्कुल आम क़स्बों जैसी जगह
जहाँ बूढ़े अलग-अलग किस्मों से खाँसकर
ज़िन्दगी का काफ़िया और तवाज़ुन सम्भालते हैं
और लड़के करते हैं ताज़ा भीगी मसों के जोश में
हर दुनियावी मसले को तोलने की कोशिश
छतों के बराबर सटे छज्जों में
यहाँ भी कच्चा और आदिम प्रेम पनपता है
यहाँ भी कबूतर हैं
सुस्ताये प्रेम को संवाद की ऊर्जा बख्शते
डॉल्टनगंज के जीवन में इस तरह कुछ भी नया नहीं है
यहाँ भी कभी - कभी
समय काटने के लिए लोग रस्मी तौर पर
अच्छे और पुराने इतिहास को याद कर लेते हैं।
इन सारी बासी और ठहरी चीज़ों के जमाव के बावजूद
डॉल्टनगंज के बारे में जानने लगे हैं लोग
अख़बार आने लगा है डॉल्टनगंज में
डॉल्टनगंज में आने लगी हैं ख़बरें
आखिरकार लोग जान गये हैं
पास के क़स्बों में मारे जा रहे हैं लोग
डॉल्टनगंज का मुसलमान
सहमकर उठता है अजान के लिए
अपनी घबराहट में
बन्दगी की तरतीब और अदायगी के सलीकों में
अकसर कर बैठता है ग़लतियाँ
डॉल्टनगंज के मुसलमान
सपने में देखते हैं कबीर
जो समय की खुरदरी स्लेट पर
कोई आसान शब्द लिखना चाहते हैं

तुम मदरसे क्यों नहीं गये कबीर
तुमने लिखना क्यों नहीं सीखा कबीर
हर कोई बुदबुदाता है अपने सपनों में बार-बार
कस्बे के सुनसान कोनों में
डॉल्टनगंज के मुसलमान
सहमी और काँपती हुई आवाज़ में
खुशहाली की कोई परम्परागत दुआ पढ़ते हैं

डॉल्टनगंज के आसमान से
अचानक और चुपचाप
अलिफ़ गिरता है।
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Monday, June 1, 2009

विजयशंकर चतुर्वेदी की कविता और लीलाधर जगूड़ी का वक्तव्य

विजयशंकर चतुर्वेदी की कविता पुस्तक पृथ्वी के लिए तो रुको के प्रकाशन की सूचना मैं पहले ही अनुनाद पर लगा चुका हूं। सूचना लगाते हुए मेरे पास उनकी दो नई कविताएं और पुस्तक का आवरण-चित्र था। आज मुझे यह संकलन मिला है और इसे पाने के सुख को इस पोस्ट के जरिए व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूं, जिसमें आज के सबसे बड़े सामाजिक-राजनीतिक संकट साम्प्रदायिकता पर लिखी उनकी अत्यंत महत्वपूर्ण कविता भी शामिल है।


लीलाधर जगूड़ी का वक्तव्य
विजयशंकर चतुर्वेदी एक ऐसे नवोदित कवि हैं जो अपने को आज के सूर्योदय के साथ साथ उस सुबह से भी जोड़कर देखते हैं जो निर्माणाधीन सृष्टि की पहली सुबह रही होगी। इतने विराट समय में अपनी निरंतरता को देखना कवि की अद्भुत विशेषता है, जो ध्यान खींचे बिना नहीं रहती। प्राकृतिक विपत्तियों से लड़ते, सीखते मनुष्य की कूव्वत कैसे-कैसे अपने को अभिव्यक्ति के लायक तराशती रही है और कैसे उन सारे द्वन्द्वों से मनुष्य ने एक निर्द्वन्द्व सभ्यता के लिए अपने को संघर्षरत रखा है। इस तरह आज के तमाम संधि-समयों से गुज़रते हुए कैसे वह मनुष्य आज तक के समय में पहुंचा है - कवि अपनी उस युद्धगाथा को एकबार फिर से कहने की बेचैनी से भरा हुआ दिखता है।

इस सांस्कृतिक यात्रा और यातना में मनुष्य ने कितने असुंदर के बदले कितना सुंदर गंवाया है - उस भूलचूक भरे अंधकार को कवि ने अपनी अभिव्यक्ति के विस्फोटक उजालों से भर दिया है। कवि सामाजिक दिक और काल के बीच इस ब्रह्मांड के शंख को सुनने की शक्ति हमें कवि की बिम्बपूर्ण भाषा से मिलती है। कुछ लोगों ने इस पृथ्वी को एक परिवार की जगह सिर्फ़ बाज़ार और कार्यालय की मेज़ बनाकर रख दिया है। कवि इस पृथ्वी पर एक मनुष्योचित सूर्योदय की प्रतीक्षा में है। अपनी सुंदर, प्यारी और वैचारिक पृथ्वी को कवि रसातल में जाने से रोकना चाहता है। यही चिंता और संघर्ष इन कविताओं के केंद्र में है।

विजयशंकर की कविता में माइथोलॉजी और टेक्नालॉजी, दोनों का अंगीकार दिखता है... विजयशंकर को मैं उनके पहले कविता संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई देता हूं, क्योंकि उनकी इन कविताओं को देखकर उनके विकास और बदलाव की प्रबल सम्भावनाएं अपनी ओर खींचती हैं। विजयशंकर अपने भीतर के संदेहशील कवि को निरंतर खोजते और तराशते जा रहे हैं, इसलिए उनकी यात्रा निश्चय ही अर्थपूर्ण और लम्बी होगी - 

लीलाधर जगूड़ी

अयोध्या नहीं, हम जा रहे थे दफ़्तर

हमने नहीं ढहायी कोई मस्जिद
मंदिर भी नहीं तोड़ा हमने
हम तो कर रहे थे तैयार
बच्चों को स्कूल के लिए
स्त्रियां फींच रही थीं कपड़े
धो रही थीं चावल
कुछ भर रही थीं स्टोव में हवा
चिड़ियां निकल पड़ी थीं दाने चुगने
खेतों की ओर जा रहे थे किसान

हमें नहीं चला पता
किधर से उठा शोर
किस दीवार से टकरायी गोली
कहां से आ गिरा कबूतर
हमारी चौखट पर

हम बांध रहे थे जूतों के फीते
सुन रहे थे भाजी भेचने वालों की चिल्लाहट
हमारे हाथों में फावड़े नहीं
थैले थे लाने को सब्जि़यां

अयोध्या नहीं
हम जा रहे थे दफ़्तर
हम नहीं जानते थे खोदना किसी का घर
हमने नहीं ढहायी मस्जिद
नहीं तोड़ा कोई मंदिर

जो टूटे
वे थे हमारे ही मकान
सड़क थे
सन्नाटा भी थे हम
गलियों में दुबके चेहरे हमारे थे
हम हिंदू थे
हमीं थे मुसलमान
दंगाई नहीं थे हम
न ही थे नेता
कि हों गिरफ़्तार
रहते सुरक्षित

हमारा धर्म नहीं था अमरबेल
जिस पर खेला जाए खूनी खेल
उसकी जड़ें थीं खूब गहरे धरती में
हम नहीं थे असुरक्षित खुले में
हमारे बच्चे निकल आते थे गलियों में खेलने

हममे से लौटेंगे नहीं अब कुछ लोग
उनकी परछाइयां भी नहीं बनेंगी
सूरज-चांद के सामने
उनने नहीं ढहायी थी कोइ मस्जिद
नहीं तोड़ा था कोई मंदिर
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पुनश्च: रागिनी जी ने प्रकाशन ब्योरे की माँग की तो ध्यान आया कि यह ज़रूरी पक्ष तो रह ही गया था. यह जानकारी निम्नवत है -
राधाकृष्ण प्रकाशन
7/31, अंसारी रोड, दरियागंज,
नई दिल्ली
मूल्य - 150=00

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