
अखिलेश दुबे ने कविता लिखने से कहीं ज़्यादा उसे पढ़ा और स्नातक-परास्नातक कक्षाओं में पढ़ाया है। जी हां, वे एक महाविद्यालय में प्राध्यापक हैं और उनकी दो कविताएं यहां लगाते हुए मुझे याद आ रहा है कि उन्होंने अपनी पढ़ाई जेएनयू में पूरी की और संभवत: वे हमारे कवि-आलोचक मित्रद्वय अनिल त्रिपाठी और पंकज चतुर्वेदी के सहपाठी रहे या उनसे एकाध कक्षा आगे। कई बार प्राध्यापकी के इंटरव्यूज़ में उनसे मेरी भेंट हुई। उत्तराखंड उच्च शिक्षा में अखिलेश जी और मैं एक ही विज्ञप्ति के अधीन आयोग द्वारा चयनित हुए, उन्हें लोहाघाट तैनाती मिली और मुझे रानीखेत - तब से हम दोनों ही एक सुंदर-सुरम्य प्राकृतिक परिवेश के सहभागी रहे हैं और अच्छे मित्र भी। जहां तक मेरी जानकारी है अखिलेश जी ने लोहाघाट में रहते हुए ही कविताएं लिखना शुरू किया और बहुत संकोच से मुझ जैसे कुछ मित्रों को उनके बारे में बताया है। कुछ पत्र-पत्रिकाओं में वे छपे भी हैं। प्रस्तुत है ये कविताएं ``साधो सहज साधना भली´´ की उनकी अंतरंग भावना के साथ ............. फोटो में देखें तो वे पहाड़ के छुट्टी पर आये फौजी सरीखे लगते हैं.... कविता की और उनके हालिया व्यक्तित्व की एक मिलीजुली रोचक तस्वीर....
लछिमा
लछिमा
दूर, बहुत दूर
पहाड़ी के पीछे
दुबली-पतली सदानीरा नदी के किनारे
आबाद, बमुश्किल दस-बारह
घरों वाले गांव में रहती है
रात बाक़ी रहते ही उठती है
घर भर के लिए रोटी-पानी रखकर
वह जल्दी ही अपनी हड़ियल गायों
और उदास चूल्हे की यादों के साथ
ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्तों से लड़ते हुए
दिन डूबने के साथ
थकी उम्मीदें लिए हुए
गोठ में लौटती है अपने वज़न से दुगने बोझ के साथ
गांव के पास बहने वाली नदी से
उसका बहुत पुराना नाता है
जब से ब्याह कर आयी है
खिमुली बुआ के लिए
लछिमा
उनके बचपन के खिलौनों में शामिल
सुंदर बालों और गुलाबी होठों वाली -
गुड़िया थी
उदासी और पस्त हिम्मत के समय
अकसर वह नदी के पास जाती है
न जाने
वह नदी से क्या क्या बातें करती है
और देर तक चुप हो जाती है
नदी उसे अपनी-सी लगती है
ठीक गांव की सदानीरा की तरह ही
उसकी ज़िन्दगी में भी
अगले मोड़ की शक्ल तय नहीं है
वह भी बह रही है
अनगिन सालों से !
लछिमा
लछिमा
दूर, बहुत दूर
पहाड़ी के पीछे
दुबली-पतली सदानीरा नदी के किनारे
आबाद, बमुश्किल दस-बारह
घरों वाले गांव में रहती है
रात बाक़ी रहते ही उठती है
घर भर के लिए रोटी-पानी रखकर
वह जल्दी ही अपनी हड़ियल गायों
और उदास चूल्हे की यादों के साथ
ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्तों से लड़ते हुए
दिन डूबने के साथ
थकी उम्मीदें लिए हुए
गोठ में लौटती है अपने वज़न से दुगने बोझ के साथ
गांव के पास बहने वाली नदी से
उसका बहुत पुराना नाता है
जब से ब्याह कर आयी है
खिमुली बुआ के लिए
लछिमा
उनके बचपन के खिलौनों में शामिल
सुंदर बालों और गुलाबी होठों वाली -
गुड़िया थी
उदासी और पस्त हिम्मत के समय
अकसर वह नदी के पास जाती है
न जाने
वह नदी से क्या क्या बातें करती है
और देर तक चुप हो जाती है
नदी उसे अपनी-सी लगती है
ठीक गांव की सदानीरा की तरह ही
उसकी ज़िन्दगी में भी
अगले मोड़ की शक्ल तय नहीं है
वह भी बह रही है
अनगिन सालों से !
गौरैया
गौरैया
एकदम मासूम और निश्छल
बिलकुल नए उगे पौधे की तरह
अलसुब्ह आंगन में हाज़िरी लगा
अपने काम में लग जाती थी
नन्हीं चिड़िया
अब कभी-कभार
घरों के आसपास
दिखती हैं
गुनगुन-मुनमुन उदास हैं
अपनी प्यारी दोस्त के लिए
उन्हें याद आते हैं दृश्य
चिड़ियों का फुदकना
चोंच में पकड़े दानों के लिए लड़ना
आपस में प्यार करना
अपने बच्चों के मुंह में दाने डालना
उनके बिलकुल क़रीब आ जाना
आत्मीय भाव से
चितकबरी गौरैया
उन्हें बहुत याद आती है
बच्चों को भरोसा दिलाना कठिन है
आंगन के पंछी फिर आयेंगे?
गौरैया
एकदम मासूम और निश्छल
बिलकुल नए उगे पौधे की तरह
अलसुब्ह आंगन में हाज़िरी लगा
अपने काम में लग जाती थी
नन्हीं चिड़िया
अब कभी-कभार
घरों के आसपास
दिखती हैं
गुनगुन-मुनमुन उदास हैं
अपनी प्यारी दोस्त के लिए
उन्हें याद आते हैं दृश्य
चिड़ियों का फुदकना
चोंच में पकड़े दानों के लिए लड़ना
आपस में प्यार करना
अपने बच्चों के मुंह में दाने डालना
उनके बिलकुल क़रीब आ जाना
आत्मीय भाव से
चितकबरी गौरैया
उन्हें बहुत याद आती है
बच्चों को भरोसा दिलाना कठिन है
आंगन के पंछी फिर आयेंगे?
No comments:
Post a Comment
यहां तक आए हैं तो कृपया इस पृष्ठ पर अपनी राय से अवश्य अवगत करायें !
जो जी को लगती हो कहें, बस भाषा के न्यूनतम आदर्श का ख़याल रखें। अनुनाद की बेहतरी के लिए सुझाव भी दें और कुछ ग़लत लग रहा हो तो टिप्पणी के स्थान को शिकायत-पेटिका के रूप में इस्तेमाल करने से कभी न हिचकें। हमने टिप्पणी के लिए सभी विकल्प खुले रखे हैं, कोई एकाउंट न होने की स्थिति में अनाम में नीचे अपना नाम और स्थान अवश्य अंकित कर दें।
आपकी प्रतिक्रियाएं हमेशा ही अनुनाद को प्रेरित करती हैं, हम उनके लिए आभारी रहेगे।