हरीशचंद्र पाण्डे की कविताएँ
अनुनाद के पन्ने पर टीप - हरीशचंद्र पाण्डे हिंदी कविता के एक सीधे-सादे और सच्चे नागरिक हैं, इतने कि उनकी सरलता भी एक किंवदंती बन चली है, जिसे लोग दूसरे लोगों के बरअक्स गुज़रे ज़माने की तरह याद करते हैं. बक़ौल मंगलेश डबराल 'हरीशचंद्र पाण्डे की कविताओं के पीछे यह मानवीय और मासूम-सा विश्वास हमें सक्रिय दिखता है कि हर रचना संसार कि बुराई, गंदगी, अश्लीलता, क्रूरता और विनाश के विरुद्ध के सतत कार्रवाई है.' अब तक उनके तीन कविता संकलन छपे हैं, जिनमें एक शुरूआती लेकिन महत्त्वपूर्ण कविता पुस्तिका भी शामिल है।
उत्तराखंड में जन्मे हरीशचंद्र पाण्डे आजीविका की तलाश में इलाहाबाद पहुँचे और फिर वहीं बस गए. उन्होंने हमारे अनुरोध का मान रखते हुए कविताएँ उपलब्ध करायीं, इसके लिए आभार
एक सिरफिरे बूढ़े का बयान
उसने कहा-
जाऊँगा
इस उम्र में भी जाऊँगा सिनेमा
सीटी बजाऊँगा गानों पर उछालूँगा पैसा
'बिग बाज़ार' जाऊँगा माउन्ट आबू जाऊँगा
नैनीताल जाऊँगा
जब तक सामर्थ्य है
देखूँगा दुनिया की सारी चहल-पहल
इस उम्र में जब ज़्यादा ही भजने लगता हैं लोग ईश्वर को
बार-बार जाते हैं मन्दिर मस्जिद गिरजा
जाऊँगा...मैं जाऊँगा...ज़रूर जाऊँगा
पूजा अर्चना के लिए नहीं
जाऊँगा इसलिए कि देखूँगा
कैसे बनाए गए हैं ये गर्भगृह
कैसे ढले हैं कंगूरे, मीनारें और कलश
और ये मकबरें
परलोक जाने के पहले ज़रूर देखूँगा एक बार
उनकी भय बनावटें
वहाँ कहाँ दिखेंगे
मनुष्य के श्रम से बने
ऐसे स्थापत्य...
***
वत्सलता
आज पिन्हाई नहीं गाय
बहुतेरी कोशिश करता रहा ग्वाला
बछड़ा जो रोज़ आता था अपनी माँ के पीछे-पीछे
उससे लग-लग अलग होकर
नहीं रहा आज
देर तक कोशिश जारी रही ग्वाले की
कि थनों में उतर आये दूध
पर नहीं...
किसी की भी हों
आँखें
अदृश्यता को बखूबी जानती हैं
देने से नहीं
दूध न देने से पता चला
वत्सलता और छाती का रिश्ता!
***

सीधी सादी कवितायें ! कुछ कवितायें और लगायें तो कवि के व्यक्तित्व के बारे में अनुमान साफ़ हो सकेगा !
ReplyDeleteरागिनी,
ReplyDeleteहरीशचंद्र की ही नहीं हिन्दी में उपलब्ध हज़ारों कविताएँ आप kavitakosh.org पर पढ़ सकती हैं.
सुंदर कविताएँ.
ReplyDeleteहरीशचंद्र का पहला संग्रह ''एक बुरुन्श कहीं खिलता है'' भी एक शानदार संग्रह है. उसमें से एक कविता हिजड़े .
ये अभी अभी एक घर से बाहर निकले हैं
टूट गए रंगीन गुच्छे की तरह
काजल लिपस्टिक और सस्ती खुशबुओं का एक सोता फूट पड़ा है
एक औरत होने के लिए कपडे की छातियां उभारे
ये औरतों की तरह चलने लगे हैं
और औरत नहीं हो पा रहे हैं
ये मर्द होने के लिए गालियाँ दे रहे हैं
औरतों से चुहल कर रहे हैं अपने सारे पुन्सत्व के साथ
और मर्द नहीं हो पा रहे हैं
मर्द और औरतें इन पर हंस रहे हैं
सारी नदियों का रुख मोड़ दिया जाए इनकी ओर
तब भी ये फसल न हो सकेंगें
ऋतू बसंत का ताज पहना दिया जाए इन्हें
तब भी एक अन्कुवा नहीं फूटेगा इनके
इनके लिए तो होनी थी ये दुनिया एक महासिफर
लेकिन
लेकिन ये हैं की
अपने व्यक्तित्व के सारे बेसुरेपन के साथ गा रहे हैं
जीवन में अन्कुवाने के गीत
ये अपने एकांत के लिए किलकारियों की अनुगूंजें इकठ्ठा कर रहे हैं
विद्रूप हारमोनों और उदास वल्दियत के साथ
ये दुनिया के हर मेले में शामिल हो रहे हैं समूहों में
नहीं सुनने में आ रही आत्महत्याएं हिजडों की
दंगों में शामिल होने के समाचार नहीं आ रहे
मर्द और औरतों से अटी पड़ी इस दुनिया में
इनका पखेरुओं की तरह चुपचाप विदा हो जाना
कोई नहीं जानता !