अनुनाद

अनुनाद

अनुनाद के मुद्रित संस्करण से ……

अशोक पांडे की कविताएँ
अनुनाद के पन्ने पर टीप – अशोक पांडे अन्य भाषाओँ से हिंदी में होने वाले अनुवाद की दुनिया का एक सुपरिचित नाम है और अब यही एक तरह से उनकी मूल पहचान भी है। उनके कुछ यात्रा-वृत्तांत भी काफी सराहे गए। आज के हिंदी परिदृश्य में कम लोग जानते हैं कि अशोक एक विलक्षण कवि भी हैं और अनुवाद के काम को मिशन के तौर पर अंजाम देने के फलस्वरूप उन्होंने अपने कविरूप की अनदेखी की है। 92 में उनका एक कविता संकलन `देखता हूँ सपने´ नाम से छपा और पहचाना गया। युवा पीढ़ी में बिना किसी वैचारिक तैयारी के कवि हो जाने की आकांक्षा जब कई-कई तरह से सामने आ रही है, तब अशोक का यह निर्मोह एक तरह का साहित्यमूल्य बन जाता है।अनुनाद अशोक पांडे की इन कविताओं को छापकर ख़ुश है और यह कामना करता है कि उनकी 92 के बाद की कविताएँ भी कभी संकलन के रूप में आएँ। हो सका तो अनुनाद ख़ुद अपनी इस कामना को पूरा करेगा।

काना बिलौटा

भीड़ भरी स्मृति में
घात लगाए बैठा है गहरे कहीं
वह काना बिलौटा
गई गर्मियों की एक रात
जो घर के बग़ीचे में मर गया

कुरूप और अशक्त
दुत्कारें ही खाता घर भर की
चप्पलें पड़तीं पीठ पर
फिर भी दुबका रहता दुछत्ती के कबाड़ में अदृश्य प्रेत
शान से पूँछ उठाए घूमती बिल्लियों को देखा ही करता
कानी आँख से
फिर भी जीवन को ढोता

रसोई से उठती गंध बेचैन करती हो
भूख का कोई क्या करे, चोरी करता – मार खाता
पलटकर देखता सूनी कातरता से
बाँई आँख सदा रहती घायल
लड़ाइयों में हार जाता होगा छोटी बिल्लियों से भी
बचा ही लेता ईश्वर का दिया शरीर ज्यों-त्यों
फिर भी जीवन से लड़ता
मुहल्ले की सरहद पर कटहल का
वह घना पुराना पेड़ ही दोस्त उसका एकमात्र
पड़ा रहता उसी की छाँह में
बिल्लियाँ तो पसरी रहतीं घरों के भीतर
मखमली आराम में
-दुखी तो होता होगा
सुन्दर अपने भाई-बहनों को देख
रातों को रोता, देखा तो करता होगा
मजबूत पंजों
और वीरान रसोइयों के ख़्वाब
आँख वह बहती हुई लगातार
दुखती हुई लगातार

आदमी होता तो ज़हर खाकर मर ही जाता
इतनी गहरी टीस जैसा जीवन
कितना कुरूप
कितना अशक्त
पर लड़ता जीवन से अंतिम अत्याचार तक
नायक मेरी इस कविता का
वह भी एक सितारा
मेरी स्मृति के ठंडे सलेटी आसमान पर
चमकता !
****

रिटायर्ड लोगों की कॉलोनी से कविताएँ

रिक्शा रुका उस घर के सामने
सूटकेस उतारे गए
बच्चे उतरे अपने माँ-बाप के साथ
मैं उसी घर की तरफ़ आ रहा था
रोज़ ही आता-जाता हूँ
उस घर के सामने से
जिसके बाहर थोड़ी हरियाली है
वृद्ध एक कोई दम्पत्ति उसे आबाद किए हैं
चोर घुस गया था एक दफ़े बाथरूम में
पड़ोसियों ने मदद की थी
-रात थी क़रीब साढ़े आठ-नौ
कम वोल्टेज़ की पीली रोशनी में सुनाई दिए
दो अतिउल्लसित बूढ़े स्वर
मैं मई की गर्मी में भी सिगरेट सुलगाए था अनमना
-फिर सुनाई दी बच्चे की किलकारियाँ
एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज़
अचानक मिले प्रेम की अधिकता से उत्पन्न

एक बार की चोर निगाह मैंने उस घर के भीतर
फिर झटपट फेंकी सिगरेट
उसे मुँह में लगाए मुमकिन न था मुस्कुरा पाना
-मैं भी शामिल हुआ
थोड़ी देर
सूने उस घर की ख़ुशी में !
***
पैतृक गाँव में पूजा है
जाहिर है पिता ही जायेंगे

परिचित दुर्गन्ध की तरह
पहचाना जा सकता है माँ की आवाज़ का असंतोष
गाँव की खटपट से हमें क्या मतलब –
वह अवश भुनभुनाती है

पिता जा चुके हैं हमारे जागने से पहले
मैं इस लम्बी यात्रा के बारे में सोचता हूँ
जिसे वे अकेले कर रहे होंगे
किसी गाड़ी की किसी सीट पर बैठे विचारमग्न
फिर सोचता हूँ उनकी उम्र के बारे में और डर जाता हूँ
पर मेरे पास और बहुत -सी चीज़ें हैं
व्यस्त हो जाने के लिए

एक शाम घर में घुसते ही वे दिखाई देते हैं
वैसे ही – बिस्तर पर अधलेटे
एक साथ अख़बार और टी.वी. पर गड़ाए
अपनी चश्मेदार आँखें – जैसे
कहीं गए ही न हों

तीन दिन तक जाने-अनजाने मैं उनकी प्रतीक्षा करता हूँ
कि पूछूँगा उनसे गाँव के बारे में – पर ऐसा होता नहीं
पिता ख़ुद कुछ नहीं कहते
वे खोए रहते हैं अपनी व्यक्तिगत स्मृतियों में
हम बच्चों का उनमें कोई दख़ल नहीं
वे बहती हैं उनकी शिराओं में
जैसे मेरे गाँव में बहती है गगास* !
***
चहारदीवारी तक़रीबन हर घर के बाहर है
लोहे का गेट भी – कुत्ता भी, बच्चों जैसा पला हुआ

भीतर एक कमरा पर्याप्त होता है दो बूढ़ों के वास्ते
बाक़ी कमरे तो तभी बजते हैं जब
नाती-पोते दौड़ लगाते हैं –

चारपाई पर बैठे
थाली से उठाते खाना धीरे-धीरे
टी.वी. देखते हुए
दो जोड़ी कान लगातार लगे रहते हैं टेलीफ़ोन से –
जो बजता ही नहीं

रात जब दूर स्टेशन से सुनाई देती है रेल की सीटी
तो धर फुसफुसा कर पूछता है बूढे कानों से –
“ बेटे ज़्यादा वफ़ादार होते हैं या पालते कुत्ते?´´
***
(बतर्ज़ वीरेन डंगवाल)

मैं मध्य वर्ग का अभाव हूँ
बाहर से भरे-पूरे दीखने वाले घर की आत्मा में खटकता हर पल
नितांत गोपन अभाव – मैं मध्य वर्ग का दुख हूँ
जो शादी जैसे मौकों पर भी
पोले पलस्तर कर तरह झरता रहा लगातार
मैं मध्य वर्ग का क्रोध हूँ जो भरी हुई
गाड़ी में बद्तमीज़ आवाजों का प्रतिरोध न कर सकते हुए
दफ़्तरों की देहरियों पर पसरा रहा
गिड़गिड़ाहट का रूप धरे मैं
मध्य वर्ग का लालच हूँ
महफ़िल में औरों से एक पैग ज़्यादा खींच लेने की
मक्कार इच्छा
और मुफ़्त की सिगरेट पी लेने के क्षणिक रोमांच
की उच्चतम सीमाओं को छूता मैं
मध्य वर्ग का अच्छापन हूँ
मित्र-हितैषियों को
अटक-बेअटक अपनी बचत उधार देता हुआ
चुटकुलों पर ठठाकर हँसने वाला अच्छापन
मैं मध्य वर्ग का हौसला हूँ
जो मौत से भी बुरे वक़्तों को पार कर आता है
बिना एक भी खरोंच के
ऐसा जानकार हौसला
जिसमें, सुना है युगों को पलट देने की ताब होती है !

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* गगास – रानीखेत की तलहटी में बहती एक पहाड़ी नदी, जिसके क़रीब कवि का गाँव है।
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  1. साहित्य की दुनिया में प्रवेश करने वाले अशोक को जानने वाले उसे मूलतः कवि के रूप में ही जानते रहे, वह ब्लागर हैं, अनुवादक हैं- ये पहचान तो बाद बाद की हैं। कवि अशोक की संवेदनशीलता को उनकी पोस्ट और अनुवादों में भी देखा जा सकता है। आभार मित्र जो अशोक पाण्डे की कविताओं को पढवाया।

  2. अशोक पांडे जी की सभी कवितायें अच्छी लगीं. मुझसे पहले विजय गौड़ जी टिप्पणी है जो सिर्फ़ अशोक जी के बारे में बोलती है और उनकी इन कविताओं के बारे में कोई राय नहीं देती. आज से पहले मैं तो अशोक जी को लस्ट फार लाइफ के अनुवाद और उनके ब्लॉग पर पढ़े उनके दूसरे अनुवादों से ही जानती थी.

    मेरी समझ से काना बिलोटा जानवर के बहाने मानवीय पीड़ाओं को कहने की कविता है, मैने ये गुण कम कवियों में देखा है जो मनुष्यता पर हावी संकटों को इस तरह व्यक्त कर पाते हों. रिटायर्ड लोगों की कालोनी से कवितायें तो एक समूची जीवन् कथा कहती हैं. इस बिंदु पर मैने उषा प्रियंवदा की पुरानी एक कहानी अभी कुछ दिन पहले ही पहली बार पढ़ी. उस कहानी के बाद इन कविताओं को पढ़ना भी एक अनुभव है. मुझे जैसलमेर में अकेले रहने वाले अपने दादा जी भी याद आए. मेरे लिए किसी कविता की सफलता यही है कि वह पाठकों के जीवन से सीधे जुड़ जाए. ये कवितायें जुड़ती हैं. उनके संकलन का इंतज़ार रहेगा और पहला संग्रह कहाँ से मिलेगा?

    शुक्रिया शिरीष जी. और हाँ इस पोस्ट से पहले राजेंद्र जी की कवितायें भी ताज़गी का एहसास देती हैं, उन्हें मेरी बधाई

  3. अशोक पांडे के पहले संग्रह के लिए इन दो पतों पर संपर्क किया जा सकता है –
    ***
    अशोक पांडे
    डी- 35 जज फार्म
    हल्द्वानी
    ज़िला- नैनीताल (उत्तराखंड)
    ***
    जन संस्कृति मंच
    ज़हूर आलम
    इंतखाब, मल्लीताल,
    नैनीताल – 263 001
    ***

  4. kaisi adbhut kavitayen hain, pahli padhkar hi der tak sann baitha raha. phir baki dono bhi isi tarh padhee.n.
    Shireesh Bhai ka kahna ki kavi hone ke dambh se door hain Ashok, sach hai. isiliye ve aisi kavita likh pate hain.
    Anuvadak achhe behad kam hain aur aise nirantar is kaam mein mubtila to aur bhi kam. to kya bura hai yadi Anuvadak unki pahchan hai.

  5. अशोक कभी संपर्क में रहा है और उसकी कविताओं को हमेशा ही मैने सराहा है. अब वो संपर्क में नहीं है पर उसकी कद काठी और पतला गोरा चेहरा याद है. फोटो में वैसा ही दिख रहा है बस दाढ़ी थोड़ी खिचड़ा गयी लग रही है ! ये कवितायें अलग अंदाज़ की अच्छी कवितायें. जल्द ही दूसरा संग्रह आए, यही कामना है.

  6. अशोक के संवाद से आए अनुवाद से पहले परिचय हुआ था .
    यहूदा आमीखाई के अनुवाद बेचैन करने वाले हैं. अशोक और शिरीष के अनुवादों से पहले मैने इतने महान कवि का नाम भी नहीं सुना था.
    फिर जब अनुनाद का प्रिंट एडीशन आया तब अशोक के कविकर्म से परिचय हुआ.
    अनुवाद की मुहिम में अशोक ने अपना कविकर्म स्थगित करके बड़ा त्याग किया है.
    अभी हिन्दी में बड़े अनुवादकों की पहचान करने और उनके प्रति कृतज्ञ होने का समय नहीं आया है.
    लोग अनुवाद के ज़रिए विश्‍व साहित्य पढ़ते हैं और गर्व से मूल लेखक का नाम लेकर
    उन पुस्तकों को मूल भाषा में पढ़े होने का भ्रम पैदा करने की कोशिश करते हैं.
    सभी अनुवादकों को अशोक के बहाने नमन.
    अशोक अपनी कविताओं के लिए भी समय निकालें यह निवेदन ही किया जा सकता है.

  7. Hello, as you may already noted I am new here.
    Hope to get any help from you if I will have any quesitons.
    Thanks in advance and good luck! 🙂

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