Wednesday, April 29, 2009

मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस मे रहता हूँ



इस कविता का प्रथम प्रकाशन यहाँ हुआ है !





मैं उसे
एक बूढ़ी विधवा पड़ोसन भी कह सकता था
लेकिन मैं उसे सत्तर साल पुरानी देह में बसा एक पुरातन विचार कहूँगा
जो व्यक्त होता रहता है
गाहे-बगाहे
एक साफ़-सुथरी, कोमल और शीरीं ज़बान में
जिसे मैं लखनउआ अवधी कहता हूँ

इस तरह
मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस में रहता हूँ

मैं उसे देखता हूँ पूरे लखनऊ की तरह और वो बरसों पहले खप चुकी अपनी माँ को विलापती
रक़ाबगंज से दुगउआँ चली जाती है
और अपनी घोषित पीड़ा से भरी
मोतियाबिंदित
धुँधली आँखों में
एक गंदली झील का उजला अक्स बनाती है

अचानक
किंग्स इंग्लिश बोलने का फ़र्राटेदार अभ्यास करने लगता है
बग़ल के मकान में
शेरवुड से छुट्टी पर आया बारहवीं का एक होनहार छात्र
तो मुझे
फोर्ट विलियम कालेज
जार्ज ग्रियर्सन
और वर्नाक्यूलर जैसे शब्द याद आने लगते हैं

और भला हो भी क्या सकता है
विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ानेवाले एक अध्यापक के लगातार सूखते दिमाग़ में?

पहाड़ी चौमासे के दौरान
रसोई में खड़ी रोटी पकाती वह लगातार गाती है
विरहगीत
तो उसका बेहद साँवला दाग़दार चेहरा मुझे जायसी की तरह लगता है
और मैं खुद को बैठा पाता हूँ
लखनऊ से चली एक लद्धड़ ट्रेन की खुली हवादार खिड़की पर
इलाहाबाद पहुँचने की उम्मीद में
पीछे छूटता जाता है एक छोटा-सा स्टेशन
… अमेठी

झरते पत्तों वाले पेड़ के साये में मूर्च्छित-सी पड़ी दीखती है
एक उजड़ती मज़ार

उसके पड़ोस में होने से लगातार प्रभावित होता है मेरा देशकाल
हर मंगलवार
ज़माने भर को पुकारती और कुछ अदेखे शत्रुओं को धिक्कारती हुई
वह पढ़ती है सुन्दरकांड
और मैं बिठाता हूँ
बनारसी विद्वजनों के सताए तुलसी को अपने अनगढ़ घर की सबसे आरामदेह कुर्सी पर
पिलाता हूँ नींबू की चाय
जैसे पिलाता था पन्द्रह बरस पहले नागार्जुन को किसी और शहर में
जब तक ख़त्म हो पड़ोस में चलता उनका कर्मकाण्ड
मैं गपियाता हूँ तुलसी बाबा से
जिनकी आँखों में दुनिया-जहान से ठुकराये जाने का ग़म है
और आवाज़ में
एक अजब-सी कड़क विनम्रता
ठीक वही
त्रिलोचन वाली

चौंककर देखता हूँ मैं
कहीं ये दाढ़ी-मूँछ मुँडाए त्रिलोचन ही तो नहीं !

क्यों?
क्यों इस तरह एक आदमी बदल जाता है दूसरे ‘आदमी’ में ?
एक काल बदल जाता है दूसरे ‘काल’ में?
एक लोक बदल जाता है दूसरे ‘लोक’ में?

यहाँ तक कि नैनीताल की इस ढलवाँ पहाड़ी पर बहुत तेज़ी से अपने अंत की तरफ़ बढ़ती
वह औरत भी बदल जाती है
एक
समूचे
सुन्दर
अनोखे
और अड़ियल अवध में

उसके इस कायान्तरण को जब-तब अपनी ठेठ कुमाऊँनी में दर्ज़ करती रहती है
मेरी पत्नी
और मैं भी पहचान ही जाता हूँ जिसे
अपने मूल इलाक़े को जानने-समझने के
आधे-अधूरे
सद्यःविकसित
होशंगाबादी किंवा* बुन्देली जोश में !

इसी को हिंदी पट्टी कहते हैं शायद
जिसमें रहते हुए हम इतनी आसानी से
नैनीताल में रहकर भी
रह सकते हैं
दूर किसी लखनऊ के पड़ोस में !
____________________________
* किंवा का ऐसा प्रयोग हमारे अग्रज श्री वीरेन डंगवाल की बोलचाल से मुझ तक तक पहुंचा है, इसके लिए उनका आभार.

Tuesday, April 28, 2009

पंकज चतुर्वेदी की कुछ और कवितायें ...

यहाँ पंकज चतुर्वेदी की तीन कवितायें और प्रस्तुत हैं। हिंदी के कुछ समकालीन कवि( अग्रज भी और हमउम्र भी) उन्हें महज एक महत्वपूर्ण युवा आलोचक मानने में अपनी सुविधा समझते हैं, लेकिन इस सुविधा के थोपे हुए दायरे में भी देखें तब भी देखने वाली बात है कि बेहद सहज दिखाई देनेवाली उनकी अत्यन्त मूल्यवान कविता उनके आलोचन का कितना अद्भुत और महत्वपूर्ण विस्तार है !



सरकारी हिन्दी

डिल्लू बापू पंडित थे
बिना वैसी पढ़ाई के

जीवन में एक ही श्लोक
उन्होंने जाना
वह भी आधा
उसका भी वे
अशुद्ध उच्चारण करते थे

यानी `त्वमेव माता चपिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश चसखा त्वमेव´

इसके बाद वे कहते
कि आगे तो आप जानते ही हैं
गोया जो सब जानते हों
उसे जानने और जनाने में
कौन-सी अक़्लमंदी है ?

इसलिए इसी अल्प-पाठ के सहारे
उन्होंने सारे अनुष्ठान कराये

एक दिन किसी ने उनसे कहा :
बापू, संस्कृत में भूख को
क्षुधा कहते हैं

डिल्लू बापू पंडित थे
तो वैद्य भी उन्हें होना ही था

नाड़ी देखने के लिए वे
रोगी की पूरी कलाई को
अपने हाथ में कसकर थामते
आँखें बन्द कर
मुँह ऊपर को उठाये रहते

फिर थोड़ा रुककर
रोग के लक्षण जानने के सिलसिले में
जो पहला प्रश्न वे करते
वह भाषा में
संस्कृत के प्रयोग का
एक विरल उदाहरण है

यानी `पुत्तू ! क्षुधा की भूख
लगती है क्या ?´

बाद में यही
सरकारी हिन्दी हो गयी
---

आम

रसाल है रामचरित
और रसाल है
अवधी में उसका विन्यास

भक्ति का रस
और काव्य का रस
जानने में
शायद इससे भी मदद मिले
कि कौन-सा आम
खाते थे तुलसीदास
---

आते हैं
जाते हुए उसने कहा
कि आते हैं

तभी मुझे दिखा
सुबह के आसमान में
हँसिये के आकार का चन्द्रमा

जैसे वह जाते हुए कह रहा हो
कि आते हैं
---

Sunday, April 26, 2009

जाति के लिए - पंकज चतुर्वेदी

चुनाव की परम पावन (परम पतित) बेला में पंकज चतुर्वेदी की इस कविता का हाथ लगना सुखद है। हमारी आज की राजनीति मुख्य रूप से जिन तत्वों से संचालित होती है, उनमें प्रमुख है 'जाति'! आगे अनुनाद के पाठक बताएँगे कि इस कविता की बात उनके भीतर कहाँ तक पहुँची!
***


जाति के लिए 


ईश्वर सिंह के उपन्यास पर
राजधानी में गोष्ठी हुई
कहते हैं कि बोलनेवालों में
उपन्यास के समर्थक सब सिंह थे
और विरोधी ब्राह्मण

सुबह उठा तो
अख़बार के मुखपृष्ठ पर
विज्ञापन था :
`अमर सिंह को बचायें´
और यह अपील करनेवाले
सांसद और विधायक क्षत्रिय थे

मैं समझ नहीं पाया
अमर सिंह एक मनुष्य हैं
तो उन्हें क्षत्रिय ही क्यों बचायेंगे ?

दोपहर में
एक पत्रिका ख़रीद लाया
उसमें कायस्थ महासभा के
भव्य सम्मेलन की ख़बर थी
देश के विकास में
कायस्थों के योगदान का ब्योरा
और आरक्षण की माँग

मुझे लगा
योगदान करनेवालों की
जाति मालूम करो
और फिर लड़ो
उनके लिए नहीं
जाति के लिए

शाम को मैं मशहूर कथाकार
गिरिराज किशोर के घर गया
मैंने पूछा : देश का क्या होगा ?
उन्होंने कहा : देश का अब
कुछ नहीं हो सकता

फिर वे बोले : अभी
वैश्य महासभा वाले आये थे
कह रहे थे - आप हमारे
सम्मेलन में चलिए
***

Saturday, April 25, 2009

कोरियाई कवि कू सेंग की कविताओं का सिलसिला / आठवीं किस्त

अनुवादक के पूर्वकथन के लिए यहाँ क्लिक करें !
अनंत आज

आज फिर
एक दोस्त के मरने की ख़बर आयी
अंततः तो हम सभी को जाना है
मेरी बारी भी जल्द ही आएगी

वह क्या मृत्यु से पहले की पीड़ा है
जो उसे इतना डरावना बना देती है?
क्या यह तय है
कि कहीं कोई दया की मौत भी है?
लेकिन
मृत्यु बाद की चिंता भी तो एक समस्या है
उस दूसरे संसार की रौशनी और अंधेरा
जब मैं जीवन के बाद के इस रस्ते पर जागूँगा
तो यह जीवन बहुत याद आएगा

निश्चित रूप से
अगर मैं जीवन के बाद के जीवन पर यक़ीन करता हूँ
तो पहले ही उसे जीना शुरू कर चुका हूँ
या कहें की नित्य और अनंत को जीने लगा हूँ
इस आज में?


काव्यानुभूति
हर महीने इस श्रंखला के लिए
इसी तरह मैं कुछ निरर्थक बातें छांटता हूँ
और उस चीज़ में बदल देता हूँ
जिसे कविता कहते हैं

हो सकता है किसी नौजवान कवि को
यह पुरानी लगे और वो कहे कि " इस पूरे संसार में
कहीं कुछ नहीं है -ऐसा दिखाना तो कोई कविता नहीं?"
ठीक है!
"संसार में कहीं कुछ नहीं" - यह बताना निश्चित रूप से
कोई
कविता नहीं

मानवीय इतिहास की हर चीज़
हर क्रिया में
जो सच है-अच्छा है-सुंदर है,
वही सब कुछ कविता है
इसमें अच्छे लोग और विचार भी
शामिल हैं

और यह लिखा जा चुका है
कि जब पाप बढ़ते हैं तो ईश्वरीय कृपा ऐसी चीज़ों में
और भी
इज़ाफ़ा कर देती है

इस सबको खोजना
महसूस करना सुगंध की तरह
और इससे खुश होना ही
कवि होना है!


कविता

आम तौर पर
जब हम किसी से बात करते हैं
तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि बोलने वाला शब्दों को कितना सजा-संवार कर
पेश कर रहा है

अगर इनके पीछे गंभीरता नहीं होगी
तो ये कभी नहीं छू पा पाएंगे
सुनने वाले के दिल को

कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि कितने भव्य हैं किसी कविता में आने वाले प्रतीक
यदि उनमें वह वास्तविकता नहीं
जो लोगों को जगाती है

लोग कहते हैं
कि विचार और शब्द दो अलग चीज़े हैं
लेकिन हक़ीक़त यह है कि विचार और भाव
महसूस किए जाते हैं शब्दों में ही
जैसे कि कहा जाता है - "भाषा में सोचना"
जैसे कि
एक आदमी महसूस कर सकता है
सुगंध के ज़रिए उस गुलाब की भी खूबसूरती
उस पड़ोसी से भी ज़्यादा
जिसके बगीचे में वह खिला है

या जैसे
राह किनारे खर-पतवारों का कांपना
किसी और को भी प्रेरित कर सकता है
अफ़सोस के आंसू बहाने के लिए

कविता खुद पैदा होती है
जीवन में आती है
और सार्वभौमिक संवेदना और करुणा से लिखी जाती है
इसीलिए कभी भी
कविता को खोजने, पाने या लिखने की
कोशिश मत करो

संसार का एक आश्चर्य है यह भी
मत बांधों इसे
स्वामित्व या स्वार्थ की लगाम से!


Friday, April 24, 2009

ईश्वर को मोक्ष - नीलाभ

(नीलाभ की कविता `हर किस्म की मृत्यु से नफ़रत और हर किस्म के जीवन से प्यार की कविता´ है। अपनी पीढ़ी के कवियों के व्यापक वर्णक्रम में नीलाभ के कवित्व का अपना अलग रंग है। उनकी कविता मानव जीवन के वैविध्यपूर्ण लैंडस्केप, सीस्केप और माउंटेनस्केप के विस्तार में मानवीय सारतत्व और जिजीविषा के उत्सों का संधान करती हुई कभी वेणुगोपाल, कभी राजेश जोशी, कभी आलोकधन्वा, कभी अरुणकमल, कभी गोरख पांडे, कभी वीरेन डंगवाल या कभी विष्णु खरे की कविता के निकट से गुज़रती है, लेकिन चीज़ों को देखने समझने का कोण हरदम उनका अपना होता है और उनका शैली-वैशिष्ट्य हरदम बना रहता है। नीलाभ की कविता एक यायावर-ह्रदय कवि की यायावर कविता है, जिसे अपनी लगभग चार दशक लम्बी यात्रा के दौरान गुरुत्व और आवेग विरल द्वंद्वात्मक तनावपूर्ण संतुलन के साथ ही व्यापक वैविध्य भी अर्जित किया है -कात्यायनी)


पच्चीस बरस पहले मैंने नीलाभ के संग्रह `जंगल खामोश है´ की समीक्षा करते हुए लिखा था - जो चीज़ बढ़िया लगती है वह यह कि कवि फाइटर है। आज भी उनकी यही चीज़ सबसे पहले दिखती है जबकि लड़ाई और अब ज्यादा जटिल और तेज़ हो गई है....... टकसाली ढंग की अच्छी कविता लिखने वालों से अलग होकर वे ऐसी कविताएं लिखने की कोशिश करते हैं, जो `अशुद्ध कविता´(पाब्लो नेरूदा) के दायरे में आती - वेणुगोपाल


ईश्वर को मोक्ष

वह ईश्वर था जिसके बारे में कहा जाता था कि उसने दुनिया बनाई थी। मगर इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के आते-आते उसे इसका भी भरोसा नहीं रह गया था। अपनी कथित रूप से बनाई दुनिया में उसके पास रहने को जगह नहीं रह गई थी, गो हर गली-मुहल्ले या चौराहे पर या कहीं-कहीं तो सड़क के बीचोंबीच भी बने हुए थे उसके घर जिन्हें छेक रखा था अपान वायु छोड़ते पुजारियों ने जिसकी दुर्गन्ध से पथरा गए थे उसके प्रतिरूप। यों आम विश्वास यह भी था कि वह रहता है मिट्टी के हर ज़र्रे में, पानी के हर कण में, हवा के हर परमाणु में। मगर इक्कीसवीं सदी के पहली दहाई के आते-आते वह पूरी तरह बेघर हो गया था। जब वह हवा के परमाणु में खोजता था अपना ठौर, वह पाता था वहां कोयले, पेट्रोल और डीज़ल को कब्ज़ा जमाकर बैठे हुए। जल के कण से उसे धकेल कर बाहर कर देते थे बार-बार कारखानों के ज़हरीले स़्त्राव। मिट्टी के हर ज़र्रे में भरे हुए थे नाना प्रकार के उर्वरकों के रसायन। वह सुबह खांसता था तो काले बलग़म के लौंदे गिरते थे उसके मुंह से। अरसे से वह रक्तविकार का शिकार था। उनींदी रातों में धुंए और धुंध से करियाए आकाश में धुंआसी लालटेन की तरह टिमटिमाते ध्रुव या शुक्र तारे को निहारते हुए वह अपनी अनश्वरता पर खीझ कर कामना करता था अपने सृजे मनुष्य से जन्मने का ताकि मोक्ष पा सके वह किसी तरह अपनी जर्जर अमर काया से।
***

(नीलाभ ने अपनी कवितायें प्रकाशित करने का अधिकार अनुनाद को दिया है। यह कविता और कात्यायनी तथा वेणुगोपाल के कथन परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित उनके संकलन "ईश्वर को मोक्ष" से साभार।)

Wednesday, April 22, 2009

परिचय के संपादक के नाम नीलाभ की खुली चिट्ठी

(दोस्तो यह पोस्ट एक गंभीर प्रकरण पर है। बीते दिनों हमने ब्लागजगत में भाषाई गंदगी का सामना किया है और इस पोस्ट में मैं अपने कुछ अटूट नैतिक-साहित्यिक मूल्यों के चलते आपको पत्रिकाजगत में ले चलने को बाध्य हूं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक श्री श्रीप्रकाश शुक्ल मेरे गुरुभाई भी हैं और बड़े भाई भी हैं। खुशी की बात है कि वे निरन्तर रचनारत रहते हुए `परिचय´ नाम की एक पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन भी करते है। उनका कविता संकलन `बोली बात´ भी इधर प्रकाशित हुआ है, जिसे हिंदी के बड़े आलोचकों ने बड़ा संकलन माना है। उनकी पत्रिका का नया अंक भी इसी बीच आया है, जिसका लम्बा सम्पादकीय एक `नकारात्मक और हिंसक´ कारण से चर्चा में है। पत्रिका मैं अभी प्राप्त नहीं कर पाया हूं पर सम्पादकीय मुझे ई-मेलिंग की सुविधा के चलते मिल गया है। मैं उसे पढ़कर अवाक और हतप्रभ हूं। मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि एक कवि इस तरह की भाषा लिख सकता है, जैसी इस सम्पादकीय में सर्वश्री विष्णु खरे, पंकज चतुर्वेदी और व्योमेश शुक्ल को इंगित करते हुए लिखी गई है। इसमें बतौर कवि विष्णु खरे और व्योमेश की तथा बतौर आलोचक पंकज चतुर्वेदी की खासी खबर ली गई है। रचनाकर्म में वाद-विवाद एक स्वाभाविक प्रक्रिया है पर उसे गाली-गलौज की हदों के भी पार ले जाना एक हिंसक कार्रवाई है। यहां मेरे पास नेट की सुस्त चाल और दूसरी अड़चनों के चलते इतने संसाधन नहीं हैं कि सम्पादकीय भी अनुनाद के पाठकों के अवलोकनार्थ लगा पाऊं पर उस सम्पादकीय पर वरिष्ठ कवि नीलाभ के पत्र को छाप पा रहा हूं, जिससे हिंदी पट्टी के पाठकों को उस नारकीय वातावरण का अनुमान हो जाएगा, जहां ऐसी बलात्कारी और हत्यारी भाषा साहित्य का मुखौटा लगाकर एक महत्वपूर्ण रचनात्मक पत्रिका का सम्पादकीय बन जाती है। श्रीप्रकाश शुक्ल जी से मेरा यह कहना है कि बड़े भाई माफ़ करना पर आपने जो लिखा-किया उससे मैं क्षुब्ध हूं। पता नहीं आपके जीवन में मेरी क्या अहमियत है, लेकिन मेरे लिए आपका लिखा-कहा मायने रखता है और हमारे गुरु प्रो0 सत्यप्रकाश मिश्र के सानिध्य की स्मृति भी। इस पोस्ट से हम एक प्रतिरोध की संस्कृति भी सामने लाना चाहते हैं, जिसकी आज के नैतिक रूप से विघटित होते साहित्य समाज को सबसे ज्यादा ज़रूरत है .....अंत में यह भी कि इस पत्र को ब्लाग पर सार्वजनिक करने का निर्णय स्वयं नीलाभ जी का है। )



प्रिय भाई,


जब इस बार के बनारस प्रवास के दौरान अस्सी पर `परिचय´ के सम्पादकीय की चर्चा सुनी थी तो सहज ही उसे पढ़ने की इच्छा हुई थी। इसीलिए मैंने अगले ही दिन आपको फोन करके आग्रहपूर्वक `परिचय´ का अंक आपसे मांगा था, क्योंकि शुरूआती अंकों को छोड़कर आपने बाद के अंक मुझको भेजने की जरूरत नहीं समझी। मेरे अनुरोध पर आपने सहृदयतापूर्वक `परिचय´ का अंक मुझे हिन्दी विभाग में ला कर दिया, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ।

मैं आपका सम्पादकीय पढ़ गया हूँ और मुझो यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि मुझो इसे पढ़कर बहुत खेद हुआ है। मैं खुद बहुत मुँहफट और बुरे अर्थों में निर्भीक प्रसिद्ध हूँ, लेकिन शायद मेरे दुश्मन भी मुझ पर यह आरोप नहीं लगा सकते कि मैंने कभी किसी पर दुर्भावनापूर्वक आघात किया है। आपके सम्पादकीय में पहली ही कुछ पंक्तियों से जो आक्रामक द्वेष झलकता है वह अन्त तक पहुंचते-पहुंचते लगभग गाली-गलौज तक पहुँच गया है और हमें यह सोचने पर विवश करता है कि `परिचय´ सचमुच `नई रचनाशीलता का अभिनव आयोजन´ है जैसा कि आपके पहले पृष्ठ पर ही घोषित किया गया है या फिर गत दशकों के `शनीचर´ जैसे कुख्यात पत्रों की ही अगली कड़ी है।

इसमें कोई शक नहीं है कि एक समय में अनेक पीढ़ियाँ रचनारत होती हैं। उनमें होड़ भी होती है और अच्छी रचनाओं के प्रति ईष्र्या भी होनी स्वाभाविक है, हालांकि ऐसी ईष्र्या अमूमन द्वेष में नहीं बदलती। दुर्भाग्य से पिछले डेढ़ दशक के दौरान हिन्दी का माहौल अनेक कारणों से बहुत दूषित हो गया है। क्रान्तियाँ पुरस्कृत हो रही हैं। जनता की पक्षधरता के बड़े-बड़े दावे करने वाले कवि हत्यारों के हाथों से पुरस्कार लेते दिखाई देते हैं, सत्ता के साथ बैठे दिखायी देते हैं। प्रतिष्ठा, परस्पर-पीठ-खुजाऊ मजलिसों और मण्डलियों का बोलबाला है - यह सब है, लेकिन इसके बावजूद ऐसे अनेकानेक रचनाकार हैं जो इस चूहा-दौड़ में शामिल नहीं है। चूहा-दौड़ में तो चूहे ही शामिल होंगे न! ऐसी स्थिति में हम गम्भीर और नयी रचनाशीलता का स्वागत करने वाली पत्रिका से ऐसे सम्पादकीय की आशा नहीं करते।

निराला ने अपनी एक महत्वपूर्ण कविता-`हिन्दी के भावी सुमनों के प्रति पत्र´ - में अपना पक्ष रखते हुए नये लिखने वालों को `सहज विराजे महाराज´ कहकर उनका स्वागत किया था। जरा उस कविता को पढ़ जाइए और उसके बाद अपने सम्पादकीय को पढ़कर देखिए। मुझे पूरा यकीन है कि अपने अन्तरंग कक्ष में बैठकर आपको यकीनन ग्लानि ही महसूस होगी, क्योंकि आपके सम्पादकीय के पहले पंक्ति से ही `नवांकुरों´ के प्रति जलता हुआ विद्वेष महसूस ही नहीं होता, बल्कि लगभग टपकता दिखायी देता है। आपने भोपाल से निकलने वाली पत्रिका `तथा´ में प्रकाशित पंकज चतुर्वेदी के लेख और हमाने नये साथी व्योमेश शक्ल की कविताओं पर सोदाहरण विचार किया होता तो शायद आपका लहजा इतना आपत्तिजनक न होता। मैं अभी इस बात पर बहस नहीं कर रहा हूँ कि पंकज ने क्या लिखा है, किस मानसिकता से लिखा है, मेरा एतराज आपके लेख के टोन और उसकी अतार्किक बौखलाहट से है। आपने सिर्फ पंकज या व्योमेश पर ही चोट नहीं की है, बल्कि आपने `उद्भावना´ द्वारा प्रकाशित पुस्तिका के भी संदर्भ से विष्णु खरे पर बहुत-से अनाप-शनाप आरोप लगाये गये हैं।

आपको यह बताने की मुझे जरूरत नहीं है कि कई बार बहुत-से कवि हमें पसन्द आते हैं, दूसरों को वे उतने अच्छे नहीं लगते या फिर दूसरों को जो कवि अच्छे लगते हैं वे हमें नहीं लगते हैं वे हमें नहीं लगते। अपनी पसन्द-नापसन्द को यदि हम उदाहरण के साथ और तर्क सहित सामने रखें तो बात बनती हैं, और उस हालत में सख्त आलोचना भी ग्राह्य होती है। मुझे याद आता है कि 1970 में मेरी एक लम्बी कविता पुस्तकाकार छपी थी। अपने आप से एक बहुत लम्बी, बहुत लम्बी बातचीत। इस पर नन्द किशोर नवल द्वारा सम्पादित पत्रिका `सिर्फ´ में वाचस्पति उपाध्याय ने लगभग दस पृष्ठों की एक टिप्पणी लिखी थी और उसकी सख्त आलोचना की थी। वह आलोचना इतनी सख्त थी कि शायद आज आप अपनी कविता पर वैसी टिप्पणी बर्दाश्त भी न कर पायें। लेकिन न सिर्फ मैंने उस टिप्पणी से बहुत कुछ सीखा, बल्कि मैं और वाचस्पति मित्र भी बन गये। इससे कुछ पहले मेरे पहले कविता संग्रह `संस्मरणारभ´ पर अशोक वाजपेयी ने एक समीक्षा की थी, जिसमें प्रशंसा थी। मेरी उमर उस वक्त सिर्फ बाईस बरस की थी। किसी ने भी अशोक पर यह आरोप नहीं लगाया कि उन्होंने किसी इतर मनतव्य से समीखा की है और फर्ज कीजिए कि इन चालीस वर्षों में इतना अन्तर आ गया है कि समीक्षाएँ और टिप्पणियाँ इतर मन्तव्य से भी होने लगी हैं तो भी आपका नजरिया ज्यादा वस्तुनिष्ठ और सार्थक रचनाशीलता को बढ़ाने वाला होना चाहिए। इस सम्पादकीय से तो यही लगता है कि आप भी उसी गटर के बाशिन्दे हैं या होना चाहते हैं। आपको तो नये लिखने वालों का स्वागत करना चाहिए, मार्ग दर्शन करना चाहिए, जैसा कि हमारी हिन्दी के अनेकानेक सम्पादकों ने किया है। उन सम्पादकों ने भी जो स्वयं रचनाकार भी रहे हैं।

अगर मन्तव्य की ही बात की जाय तो `उद्भावना´ वाली पत्रिका में जिन लोगों ने व्योमेश की तारीफ की है उनमें सिर्फ विष्णु खरे ही नहीं है, बल्कि मंगलेश डबराल और योगेन्दे आहूजा भी हैं। विष्णु को तो आपने अपशब्द सुनाये हैं, लेकिन मंगलेश को आपने क्यों छोड़ दिया? अगर किसी को मन्तव्य ढूंढ़ना हो तो वह इस बात में ढूँढ सकता है कि आप भी `देवीशंकर अवस्थी सम्मान´ के आकांक्षी हैं और मंगलेश उसके निर्णायक मण्डल का सदस्य। सिलेक्शन कमेटी के सदस्यों के दाँयें रहने के लाभ तो आप बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में नियुक्त होने के बाद भली-भांति जानते ही हैं, यही तर्क सम्मानों और पुरस्कारों में भी काम करता है। शायद इसीलिए अनुभव दास के छद्म नाम से (ऐसा मुझे बताया गया है कि अनुभव दास के नाम से आप ही लिखते हैं) आपने मंगलेश की पुस्तक `कवि का अकेलापन´ की वैसी ही टपकती हुई प्रशंसा की है जैसे टपकती हुई आक्रामक निन्दा अपने सम्पादकीय में आपने पंकज चतुर्वेदी, विष्णु खरे, व्योमेश शुक्ल और बिना नाम लिये अनेक नवांकुरों की है।

आपके सम्पादकीय में इंवर्टेड कॉमा की भरमार है। कौन-सा अंश उद्धरण है और कौन-से अंश पर इंवर्टेड कॉमा काकु के मिस लगा है, यह पता नहीं चलता। चूँकि आपका सारा सम्पादकीय सुविचारित गद्य का नमूना न होकर, घिरे हुए आदमी का बौखलाह-भरा एकालाप है इसलिए कई बार ऐसा लगता है कि आधा लेख आपका है और आधा अन्य लोगों का, और अन्य लोगों की तुलिकाओं के स्पर्श स्पष्ट ही नजर आने लगते हैं। मिसाल के लिए गालिब और दाग के उद्धरण या फिर हिन्दी विभाग `पत्रिकाओं का पालिका बाजार बना हुआ है´ जैसे जुमले जो जे.एन.यू. मार्का लगते हैं। आपकी अपनी भाषा में `ज्यादा´ को `ज्यादे´ लिखने की आदत है और दूसरी खटकने वाली बात याद आते हैं जैसे वाक्यांश को कसरत के साथ इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति। इसके साथ-साथ बिना कारण और दृष्टान्त दिये, फतवे देने का दुराग्रह। मिसाल के लिए ऐसा अतार्किक , बेमानी अंश जैसे-`मुझको पंकज द्वारा लिखी गयी गत वर्षों की सभी समीक्षायें करीब-करीब इसी आलोचना का मनोरंजक पक्ष लगती रही है। नशीली `श्रेणीबद्धताएं´ व `सूचीनिर्माण´ इसी के वीभत्स रूप हुआ करते हैं। मनोरंजन के अर्थ में इसका कुछ महत्व हो सकता है क्योंकि ऐसे लोगों की साहित्य में हमेशा ही जरूरत रही है। कम से कम आज के इस `रसरंजन´ के दौर में इनके भविष्य को लेकर कोई संकट भी नहीं है और आगे के दिनों में यह प्रवृत्ति और बढ़े तो कोई आश्चर्य नहीं।´

ऐसे पैराग्राफ का क्या मतलब है? इसका गम्भीर और `नयी रचनाशीलता के अभिनव आयोजन´ से क्या ताल्लुक है? और यह एकाध जगह नहीं है, आपके पूरे सम्पादकीय में ऐसे अतार्किक आक्रोश की भरमार है। आपने बड़े दम्भ से अपने बनारसी होने का उल्लेख किया है और बनारस के `नमक´ की हक-अदायगी का। लेकिन जैसी कह-अदायगी आपने इस समीक्षा में की है, उसे देखकर यही कह सकता हूँ कि जब आप इलाहाबाद के न हुए तो बनारस के क्या होंगे। आप की सारी शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद की है, जिसे इस बात का गौरव प्राप्त है कि बड़े-बड़े बनारसी नामवर सिद्धान्त निरूपण और आन्दोलन शुरू करने के लिए बनारस छोड़कर इलाहाबाद आते थे, क्योंकि बनारस में उस तरह की लण्ठई की परम्परा थी, जैसी आपके सम्पादकीय में दिखायी देती है। जबकि इलाहाबाद में एक गम्भीर और रचनात्मक माहौल था। आप इससे वाकिफ भी हैं। लेकिन जब कोई बड़ा उद्देश्य सामने न हो तो फिर एक हिंसात्मक द्वेष और कुित्सक मात्सर्य ही रह जाता है। बढ़िया शराब के नीचे रह जाने वाली गलीज तलछट की तरह। आप अगर इलाहाबाद के हाते तो शायद आपका सम्पादकीय अधिक तार्किक , अधिक संतुलित होता, फिर भले ही आप विष्णु खरे से लेकर व्योमेश शुक्ल तक, और पंकज चतुर्वेदी से लेकर और भी जिस-जिस के आप चाहते परखचे उड़ाते।

क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ, एक पुराने साथी होने के नाते, कि इतना मात्सर्य आपके अन्दर क्यों है? लालसाओं का ऐसा हाहाकार। मैं न तो व्योमेश शुक्ल का वकील हूँ, न विष्णु खरे का, न पंकज चतुर्वेदी का। लेकिन मैं नये अंकुरों का वकीज जरूर हूँ और यह हक मुझो पिछले पैतालिस वर्ष के रचनाशील जीवन ने दिया है और मैं सरस्वती के आँगन को चकलाघर बने देखना एक अपराध समझाता हूँ। आपने तो हद ही कर दी है मित्र। एक कहानी पुरानी याद आती है - एक बार कोई सुअर कीचड़ में लिपटा हुआ वहाँ चला आया जहाँ बहुत से शेर बैठे हुए थे, और ललकार-ललकार कर उन्हें लड़ने के लिए चुनौती देने लगा जाहिर है उस गँधाते, कीचड़ में सने सुअर से लड़ने की ताब उन शेरों में नहीं थी। तब क्या यह माना जाये कि उनमे शक्ति और ओज का अभाव था? फैसला आप ही करें।

और अन्त में एक किस्सा आपको सुनाना चाहता हूँ, जो काशी से ही सम्बन्धित हैं और मुझे आदरणीय त्रिलोचन जी ने सुनाया था। अरसा पहले नागरी प्रचारिणी सभा को लेकर रूद्र काशिकेय हजारी प्रसाद द्विवेदी से रूष्ट हो गये। रूद्र तो थे ही, `बहती गंगा´ जैसे अप्रतिम उपन्यास के रचनाकार और यों भी काशी की परम्परा में `गुरू´। उन दिनों वे `आज´ में `भूतनाथ की डायरी´ के नाम से एक स्तम्भ लिखते थे। उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी पर बहुत आक्रामक टिप्पणियाँ उस स्तम्भ में करनी शुरू कर दी। बात यहाँ तक पहुँची कि एक बार के स्तम्भ में उन्होंने हजारी प्रसाद जी की बेटियों पर कुछ छींटाकशी कर दी। त्रिलोचन तब `आज´ में काम करते थे और जब वहाँ चर्चा चली तो त्रिलोचन जी ने उस बार के स्तम्भ की कड़ी आलोचना की। बात रूद्र काशिकेय तक पहुचनी ही थी, सो पहुंची। अगले दिन दो मुस्टण्डे त्रिलोचन जी के पास आये, और बोले कि आपको गुरूजी ने बुलाया है। त्रिलोचन शाम को जब रूद्र काशिकेय के यहाँ पहुँचे तो वहाँ एक दरबार जैसा माहौल था, कुछ लोग भांग घोंट रहे थे, कुछ लोग वैसे ही बल्ले सहला रहे थे, कुछ गुरू की सेवा में लगे हुए थे। रूद्र काशिकेय ने कड़े शब्दों में त्रिलोचन से पूछा-क्यों भाई, सुना है तुमने इस बार के स्तम्भ की आलोचना की है? त्रिलोचन ने जवाब दिया - जी हाँ, रूद्र काशिकेय ने कहा - जानते हो न हम कौन हैं? त्रिलोचन ने कहा - बखूबी। रूद्र काशिकेय बोले- फिर कैसे हिम्मत पड़ी? त्रिलोचन ने कहा - जब तक आपने हजारी प्रसाद द्विवेदी को निशाना बनाया हुआ था, मैंने एक शब्द नहीं कहा। उनके हाथ में भी कलम है, वे भी चाहें तो आपकी खबर ले सकते हैं। लेकिन हमारी परम्परा बेटी-पतोहू पर छींटाकशी करने की नही है। यह आपको शोभा नहीं देता। वे तो जवाब भी नहीं दे सकतीं। रूद्र काशिकेय ने कहा- तुम ऐसा समझाते हो? त्रिलोचन बोले-एकदम। रूद्र काशिकेय ने कहा - जाओ, आज के बाद हम स्तम्भ नहीं लिखेंगे। और उन्होंनें स्तम्भ लिखना बन्द कर दिया।

मैं नहीं जानता यह किस्सा कितना सच है। लेकिन जब मैं `बहती गंगा´ में रूद्र काशिकेय के सृजित पात्रों-भंगड़ भिक्षुक और दाता राम नागर-को देखता हूँ, तो सहज रूप से विश्वास कर सकता हूँ कि रूद्र काशिकेय ने ऐसा ही किया होगा। लेकिन आपने अपने सम्पादकीय के अन्त में जिस तरह साहित्य का दामन छोड़कर व्यक्तिगत आपेक्ष किये हैं और उनका भी दायरा जहाँ तक पहुँचाया है - मेरा संकेत वारिस और वंश वाले प्रकरण का है - उससे मेरा सिर लज्जा से नीचा हो गया है कि मेरे समकालीन ने, जिसने मेरे ही शहर में शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की, कैसे इस प्रकार की अशोभनीय टिप्पणी की। हिन्दी में साहित्यिक लड़ाइयों की मिसालें कम नहीं है। निराला और पन्त की आपसी होड़ को देख लीजिए- कोई दाँव ऐसा नहीं जिसे आजमाने में हिचक रही हो, लेकिन मजाल कि चोट कठाँव लगे।

बस, मुझको इससे अधिक और कुछ नहीं कहना है। मेरा पत्र, प्रकट ही, बहुत कड़ा हो गया है, लेकिन आपका सम्पादकीय इतना आपत्तिजनक था कि यह प्रतिक्रिया लाज़िमी थी। मुझे विश्वास है, आप एक बार फिर अपने कृत्य पर विचार करेंगे और अगले अंकों में कर सकें तो इसका परिमार्जन भी करेंगे।


सप्रेम आपका
नीलाभ
श्री श्रीप्रकाश शुक्ल,
सम्पादक-परिचय,
68, रोहित नगर, नरिया,
वाराणसी - 221 005

कपिल देव द्वारा प्रत्यावेदन

(नीलाभ जी की चिट्ठी पर कपिल देव की अतिविलम्बित यह प्रतिक्रिया प्राप्त हुई है। कुछ लोकतांत्रिक मूल्यों के चलते इसे यहाँ लगाया जा रहा है. इसमे विष्णु जी की कविता पर कपिल जी के विचारों से मेरी घोर असहमति है. मेरी निगाह में ये विचार विष्णु जी द्वारा किए गये उनके कथित अपमान से जन्मे हैं. मेरा मानना है कि कवि के व्यक्तिगत बर्ताव से उसकी कविता का मूल्यांकन सरासर ग़लत है. मैने खुद नागार्जुन को चार आदमियों के बीच एक आदमी को गरियाते देखा है और फिर उसी आदमी को उनकी कविता का मुरीद बनते भी देखा.)


नीलाभ जी

‘परिचय’ का सम्पादकीय निश्‍चय ही लज्जास्पद और हिन्दी समाज को कलंकित करने वाला है। मगर हिन्दी-आलोचना का जैसा माहौल बना दिया गया है,उसमे ऐसी निर्लज्ज भाषा में प्रतिक्रियाओं का आना कतई अस्वाभाविक नहीं है। हां, इस अर्थ में अस्वाभाविक जरूर हे कि यह किसी ने नहीं सोचा था कि साहित्य के आतताइयों के पाप का घड़ा इतनी जल्दी भर जाएगा और वह भी इतने घिनौने ढंग से फूटेगा-ऐन उन्हीं के सिरों पर, जो ‘देव दनुज नर सब बस मोरे’ वाले रावणी गर्व में चूर हो कर निर्भय घूम रहे थे और यह मान कर चल रहे थे कि हमने इस समूची पृथ्वी को ‘वीर-विहीन’ कर डाला है। बार बार कहने की जरूरत नहीं है कि ‘परिचय’ के सम्पादकीय पर हर वह व्यक्ति दुख और लज्जा का अनुभव करेगा जो किसी भी रूप में साहित्य की संस्कृति को बचा कर रखना चाहता है। मगर इस प्रकरण पर सोचते हुए सबसे पहले यह समझ लेने की जरूरत है कि यह कोई देवासुर संग्राम नहीं है। यह तो सांप और नेवले की लड़ाई है। पंक से पंक-प्राक्षालन का विचित्र उदाहरण! कल तक जो स्वयं अपने नमक- हलाल स्वामिभक्तों को उकसा कर साहित्य के षांत तपस्वियों का यज्ञ-भंग कराते रहे, ईंट पत्थर फिंकवाते रहे, आज उनके अंगने में जब किसी मनो-भ्रष्ट आतताई नें सीधे बम से हमला बोल दिया तो उन्हें उसका मुकाबला करने में मुश्किल पेश आ रही है और साहित्य की संस्कृति की रक्षा का वास्ता दे कर समूचे साहित्य-समाज से अपने पक्ष में समर्थन की याचना का प्रायष्चित्त करना पड़ रहा है। मेरा मानना है कि आलोचना में यदि अनर्गल प्रशंसाओं की सीमा तय नहीं की जाएगी तो आप निन्दा की सीमा भी तय नहीं कर पाएंगे। दोनों एक ही सांस्कृतिक विकार की भिन्न अभिव्यक्तियां हैं। असहनीय रूप से अतार्किक और दरबारी- प्रशंसाओं  के बल पर फलने फूलने वाले लोग साहित्य के अपने छोटे-मोटे कुनबे में खुश भले ही हो लें, किन्तु भूलना नहीं चाहिए कि नकली  प्रशंसाओं  पर टिका यशाकांक्षा का स्वार्थी अहंकार अपने पीछे एक अनर्गल किस्म की असहिष्णु और उद्दण्ड-पाणि प्रतिक्रिया को उकसाता है। इस प्रतिक्रिया का ही दूसरा नाम श्रीप्रकाश शुक्ल है।

नीलाभ जी, यदि हमारी बात समझनें की उदारता बरतें तो मै कहना चाहूंगा कि प्रशंसा या निन्दा का जैसा ‘सुपरलेटिव’ हिन्दी में देखने को मिलता है, अन्यत्र शायद ही कहीं मिले। और यहां अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि समकालीन आलोचना में किसी दोस्त या दुश्‍मन की प्रशंसा या निन्दा के एक से एक नायाब नुस्खों का अप्रतिम आविष्कर्ता होने का पहला ‘गौरव’ विष्णु खरे नामक कवि-आलोचक को ही प्राप्त है। आप विष्णु खरे के मित्र हैं, इसलिए आप से अधिक यह कौन जानता होगा कि उनके जैसा असहिष्णु कवि-आलोचक इस पृथ्वी पर और कोई नहीं है(इस अतिशयोक्ति के लिए क्षमा करें)। मैं तो हिन्दी साहित्य की दुनिया में यदा कदा ही घूमने फिरने वाला एक अनाम व्यक्ति हूं,, इसलिए इस प्रसंग में, वर्षो पुराने अपने ही एक अनुभव को उदाहृत करते हुए संकोच का अनुभव हो रहा है। फिर भी मैं जिस संगोष्ठी का जिक्र करना चाहता हूं, वह यहां समीचीन इस लिए है कि आप स्वयं उसमें उपस्थित रहे हैं और उससे विष्णु खरे जैसे नामी कवि के भीतर बैठी हुई प्रशंसा-लोलुपता और अधिनायकवादी प्रवृत्ति का पता चलता है। लखनऊ में कात्यायनी के घर एक गोष्ठी में खरे जी एकल काव्य पाठ कर रहे थे। पाठोपरांत चर्चा का जो दौर शुरू हुआ, उसमें शायद पहले या दूसरे वक्ता के तौर पर मैंने आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया था कि मैं एक मामूली पाठक हूं । अपनी बारी में मैने जो कुछ कहा उसका सार यही था कि खरे के दूसरे-तीसरे संग्रहों की संवेदना का ग्राफ पहले वाले संग्रह जितना आकर्षित नहीं करता। यह सब कहते हुए मेरे मन में उनकी वे तमाम वर्णन-बोझिल कविताएं थीं जो पहले संग्रह की ‘बंगले’ और ‘लालटेन जलाना’ आदि के मुकाबले मुझे काफी शुष्क प्रतीत हुई थीं। मेरे बोल चुकने के बाद  प्रशंसाओं  का दौर जो शुरू हुआ, उससे मुझे अपनी ‘भूल-गलती’ का एहसास तो हो गया था मगर यह नहीं सोचा था कि इसे खरे जी नें अपनी शान में गुस्ताखी समझ लिया है। मेरे बाद,लोगों नें उनकी प्रशंसा में जो कसीदे पढ़े उससे मुझे क्या एतराज हो सकता था। मगर लज्जास्पद बात यह थी कि उतनी सारी  प्रशंसाओं  से उस सुकवि केा संतोष नहीं था। उस महाकवि को तो मुझ अकिंचन का उतना-सा एतराज भी गवारा न था। उनका गुस्सा इस पर था कि यह कौन दुःहसाहसी है जो मेरी ही खिदमत में सजाइ गई मण्डली में ऐसा बोल रहा है ? उनके गुस्से और उत्तेजना का हाल यह था कि उन्होंने तीन घंटे का अविराम भाषण दे मारा। हम चूंकि कात्ययनी के मेंहमान थे, इसलिए अपना समय नष्ट करके भी उन्हें सुनने के लिए अभिषप्त थे। उनका भाषण अबाध था। रामायण और महाभारत से ले कर नरसिंहाराव, विश्‍वनाथ प्रताप सिंह और राजीव गांधी आदि से होता हुआ (उस समय उनकी कविता की क्रांति अर्जुनसिंह तक नहीं पहुंची थी) बीच बीच में अपनी ही कविता की प्रशंसा पर आकर ही विश्राम लेता। ऐसे विश्राम के क्षणों में वह महामानव कई बार तो ‘नैनों’ और एक दो बार अपने ‘बैनों’ से यह कहने से बाज नहीं आ रहा था कि यह आदमी (मैं) केवल कहने भर के लिए अपने को पाठक बता रहा है। हकीकत में तेा यह बहुत धूर्त और घुटा हुआ है। (खुदा का शुक्र कि उन्होंनें एक बार भी मूर्ख नहीं कहा। यद्यपि उनके तेवर को देखते हुए मैंने यह सब सुनने के लिए अपने को तैयार कर लिया था)। मेजबान भी ऐसे आक्रमण से मेरी रक्षा को तैयार न थीं। वे तो स्वयं ही मंत्रमुग्ध भाव से उनकी अमरवाणी का पान कर रही थीं क्योंकि खरे जी बीच-बीच में उन्हें(कात्यायनी) कविता के पिछले पांच हजार वर्षो के इतिहास की सबसे जरखेज पीढ़ी की सबसे समर्थ कवि होने का प्रमाण-पत्र भी देते जा रहे थे। इस समय उनकी अहंकार-भरी कई बातें याद आने लगी हैं, मगर विस्तार-भय से उनका जिक्र नहीं करूंगा। लेकिन उनकी मुख मुद्रा और आग्नेय नजरों को कैसे भूल सकता हूं जिसका मुझे सामना करना पड़ रहा था। अपने अबाध प्रवचन के दौरान खरे जी बीच बीच में तरह तरह की मुद्राएं बना कर हमें जब तब घूरते रहते- मानों पूछना चाहते हों मैं किस ‘काल बस’, कहां से और क्यों कर यहां आ गया हूं। उन्हें षायद यह पता न था कि कात्यायनी नें हमें बाकायदा बुलाया था (पता होता तो क्या होता!)। खैर, तीन घंटे तक लगातार उनके भाषिक वध से अधमरा हो चुकने के बाद, इस महान गोष्ठी में गोरखपुर से लखनऊ बुलाने के लिए कात्यायनी को धन्यवाद ज्ञापित कर जिस किसी तरह मै भागा। आज उस ‘भूली हुई कथा’को याद कर के मन क्षोभ और प्रतिक्रिया से एक बार फिर भर उठा है। जीवन में ऐसा शायद पहली बार था कि मैं किसी व्यक्ति की हिंसक मुद्रा का इस तरह सामना करने पर विवश था। यह घटना पुरानी है। मगर जैसी कि सूचनाएं मिलती रहती हैं, इस बीच खरे जी का आत्माभिमान उत्तरोत्तर प्रबल हुआ है। जो हो, किन्तु यहां यह सब कहने का मेरा मतलब यह नहीं है कि खरे जी के व्यवहार से मुझे जो चोट पहुंची उस कारण, ‘परिचय’-प्रकरण का लाभ उठा कर मुझे इस मुद्दे को उल्टे सिरे से पकड़ने का अधिकार मिल जाता है या श्री प्रकाश शुक्ल जैसों का कृत्य न्यायसंगत हो जाता है। फिर भी ,चूंकि इस प्रकरण का तार विष्‍णु खरे से जुड़ा हुआ है, और हिन्दी का पूरा समाज अपने अनुभव से जानता है कि हिन्दी आलोचना में घराना-संस्कृति के संस्थापक और तानाशाह-विचारों के आदि स्रोत का नाम विष्णु खरे है,इसलिए हमारे हिन्दी समाज के लिए यह समझना भी कतई मुश्किल न होगा कि एक निहायत ही गंदी भाषा में लिखे गए सम्पादकीय की मनोवैज्ञानिक बुनियाद में कोई और नहीं, स्वयं विष्णुखरे और उनके पट्टशिष्‍यों की मिली भगत से स्थापित ‘अहो रूपं अहो घ्वनिः’ वाली कुनबाई आलोचना का हिंसावाद है। यह तो आप भी मानेंगे कि विधि-बस या जैसे भी आप अगर उनके कुनबे के शीर्ष सदस्य बने हैं तो जाहिरा तौर पर इस अनिवार्य योग्यता के कारण कि आप में भी किसी की ऐसी तैसी कर देने की मुंहफटता है, जैसा कि आप नें खुद भी स्वीकार किया है। नीलाभ जी, क्या आप बताएंगे कि मुंहफट होना साहित्यकार होने के लिए क्यों और किस सीमा तक उचित है ? फिर सीमा कौन तय करेगा ? आप ने अपनी सीमा किससे पूछ कर तय की है ? और आप ने कैसे मान लिया कि मुंहफटता की जो आप की सीमा है वही सबकी सीमा होनी चाहिए ? इसमें दो राय नहीं कि अपने विरोधियों के मानमर्दन के लिए कुख्यात विष्णुखरे की मण्डली नें साहित्य में जो भय का वातावरण बनाया है,उसकी तुलना श्रीप्रकाश की जघन्यता से नहीं की जा सकती। परिचय के सम्पादकीय में वे नैतिक गिरावट की जिस पराकाष्ठा तक पहुंच चुके हैं वहां तक पहुंचने में विष्णु खरे की मण्डली को अभी काफी समय लगेगा। खरे की मण्डली के सदस्य , तुलसी के शब्दों में, ‘पर अकाज लगि तन परिहरहीं’ वाली कोटि का कुकर्म करने से घबराते हैं क्योकि वे सब के सब स्वयं अपनी छवि के प्रति आत्मचेतस लोग हैं। मारना तो चाहते हैं, मगर मरना नहीं चाहते। जबकि श्रीप्रकाश शुक्ल किसी भी तरह की नैतिक-चेतना से मुक्त ऐसे व्यक्ति का नाम है जो यदि जरूरी हुआ तो आत्मघाती हमला करने से भी नहीं चूकता। ऐसा भी नहीं कि उन्होनें साहित्यिक निकृष्टता की यह पराकाष्ठा अचानक ही प्राप्त कर ली है। वे पहले भी कई अवसरों पर अपनी विनाशिनी प्रतिभा का जौहर दिखा चुके हैं। मगर जबतक वे विष्णुखरे के प्रशंसक रहे, तबतक उनकी शैतानियत को अनदेखा किया जाता रहा। बहरहाल, इस समूचे प्रसंग में मैं पूछना यह चाहता हूं कि हमारा साहित्यिक समाज जिस तरह आप का और विष्णु खरे का मुहफट व्यवहार सहन कर लेता है उसी तरह अगर श्री प्रकाश शुक्ल की हिंसकता को सहन कर लेता है तो इसमें दोष किसका है ? श्री प्रकाश को क्या इसी कारण देशनिकाला दे दिया जाना चाहिए कि इसबार उसके निशाने पर कोई तीसरा नहीं, बल्कि स्वयं विष्णुखरे ओैर उनके द्वारा पालित-पुरस्कृत कोई बच्चा है ? पिछले दिनों पहल समेत अन्य पत्र पत्रिकाओं में विष्णुखरे पर अतिशयवादी  प्रशंसाओं  से भरा जितना कुछ लिखा गया है, वह क्या सिद्ध करता है ? मेरी समझ में आज तक नहीं आया कि विष्णु खरे को इस पृथ्वी का सबसे महान कवि साबित करने की मुहिम में हमारे युवा आलोचकों को क्यों दूसरे तमाम कवियों को इस पृथ्वी से बेदखल कर डालने की मजबूरी सताने लगती है? विष्णु खरे क्या कविता के कोई कच्छप या बराह हैं ? हिन्दी कविता की पृथ्वी क्या उन्हीं की पीठ या बराह-दंत पर टिक कर बची रह पाएगी ? आखिर ऐसी कौन सी समस्या है कि केदार नाथ सिंह,अरूण कमल, मंगलेश या राजेश जोशी आदि को उनके समकालीनों की भरी-पूरी दुनिया में रख कर समझना ज्यादा सहज और सुखद प्रतीत होता है जबकि विष्णुखरे को स्थापित करने के लिए हिन्दी कविता के सारे कवियों को दृष्य से बाहर कर देना जरूरी हो जाता है ? विष्णु खरे और उनकी कविता को हिन्दी कविता के समूचे वातावरण और कोलाहल के बीच रख कर मूल्यांकित करने से परहेज करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि वे क्यो नहीं बताते कि केदार नाथ सिंह और विष्णुखरे में से कौन कविता की मूल प्रकृति का सम्मान करते हए उसकी सीमाओं को रचनात्मक विस्तार देता है और कौन अपने को प्रयोगशील साबित करने के अहंकार में कविता की मूल प्रकृति के साथ बलात्कार करने से तनिक हिचकता तक नहीं है। किसी समर्थ कवि से तुलना या स्पर्श मात्र से अपने प्रिय कवि के मर जाने के डर में जीने वाले इन युवा दरबारियों से पूछा जाना चाहिए कि वे क्यो विष्णु खरे के संदर्भ में सीधे ‘सुपरलेटिव’ वाचालता के शिकार हो जाते हैं। कारण साफ है। सुपरलेटिव में जीना इन्हें सिखाया ही इसलिए गया है कि उनका सारा हुनर अपने बॉस की शान बढ़ाने के काम आएगा। यह एक ऐसा बास है जो सुपरलेटिव से कमतर भाषा में अपनी प्रशंसा सुनने को तैयार नहीं हो सकता। कमतर आंकने वाले की वह खुद अपने हाथों हत्या भी कर सकता है। इसे कहते हैं-‘भय बिनु होहिं न प्रति’। भयजनित प्रीति से उपजी आलोचनाओं की प्रतिक्रिया में उपजी श्री प्रकाश शुक्ल के सम्पादकीय का अवदान यह है कि अपनी सारी निकृष्टता के बावजूद उसनें भय से उपजी इस प्रीति का खुलासा कर दिया है। यह दीगर बात है कि यह खुलासा नीचता के जिस स्तर पर जा कर किया गया है, उससे कम पर भी किया जा सकता था।

फिर कहूंगा कि विष्णु खरे और उनकी मण्डली जिस वातावरण की रचना कर रही है उसे यदि रोका नहीं गया तो कोई आश्‍चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में श्री प्रकाश शुक्ल की भाषा को ही प्रतिरोध की नैतिक भाषा का दर्जा हासिल हो जाएगा और आश्‍चर्य नहीं कि अपने समानधर्माओं को लेकर वह भी विष्णुखरे की तर्ज पर अपना स्कूल खोल लेगा। कुल मिला कर कहना यह है कि ‘परिचय’ के सम्पादकीय प्रसंग की निन्दा का खुला अभियान चलाया जाना चाहिए। मगर भूलना नहीं चाहिए कि किसी इस या उस कवि का एकाधिकार स्थापित करने की गरज से आलोचना को अनर्गल अतिशयवादी प्रशंसा की भेंट चढ़ा देना भी कम चिंताजनक नहीं है।



कपिलदेव

Tuesday, April 21, 2009

कोरियाई कवि कू सेंग की कविताओं का सिलसिला / सातवीं किस्त

कवि का परिचय

कू सेंग का जन्म सीओल में 1919 में हुआ और वहीं 11 मई 2004 में उनका देहान्त हुआ। उनके शैशवकाल में ही उनका परिवार देश के उत्तरपूर्वी शहर वॉनसेन में आकर बस गया, जहाँ वे बड़े हुए। उनका परिवार परम्परा से कैथोलिक आस्थाओं को मानने वाला था और उनका एक बड़ा भाई कैथोलिक पादरी भी बना। कू सेंग ने जापान में उच्चशिक्षा पायी, जहाँ `धर्म के दर्शनशास्त्र´ की पढाई करते हुए उनकी आस्था कुछ समय के लिए डगमगाई भी लेकिन बाद में वे धीरे-धीरे अपनी पारिवारिक आस्थाओं की ओर लौट आए। कू सेंग ने पढ़ाई के बाद कोरिया के उत्तरी हिस्से में अपनी वापसी के साथ ही पत्रकारिता और लेखन का पेशा अपना लिया। 1945 में आज़ादी के बाद अपनी कविताओं की पहली पुस्तक छपवाने के प्रयास में जब उनसे साम्यवादी मानदंडों के अधीन लिखने को कहा गया तो वे असहमति प्रकट करते हुए दक्षिण कोरिया चले गए। कू-सेंग ने कई वर्ष पत्रकारिता की और वे एक प्रतिष्ठित कोरियाई समाचार-पत्र के सम्पादक-मंडल में भी रहे। जापान में अपने छात्र-जीवन के दौरान ही उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी। इसके बाद वे कोरियाई साहित्य के शिखर तक पहुंचे। इंटरनेट पर प्राप्त ब्यौरों के अनुसार दुनिया के कुछ चुनिन्दा कवि ही अपनी भाषा और समाज में इतनी लोकप्रियता अर्जित कर सके हैं, जितनी कू सेंग ने अपने जीवन-काल में की। उनकी कविता पर कई साहित्यिक और दार्शनिक शोध भी हुए। इन सभी शोधकार्यों और अपार लोकप्रियता के बावजूद कोरियाई साहित्य-संसार इस बात को स्वीकारता है कि एक महान मानवतावादी कवि के रूप में कू-सेंग का सम्यक मूल्यांकन होना अभी बाक़ी है।
Wasteland of Fire, Christopher's River, Infant Splendor, Rivers and Field आदि उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं, जिनका अनुवाद अंग्रेज़ी, जर्मन, इतालवी और जापानी भाषाओं में हो चुका है।


जंगली फूलों के साथ

मेरे बरामदे में रखे एक गमले में
जिसका पौधा पहले ही मर चुका था
एक जंगली पौधा उग आया खुद-ब-खुद
और फिर उसमें सफेद धूल जैसे
कुछ फूल लगे

यह छोटा-सा अकेला पौधा -
नित्य में अपने लिए एक पल घेरता हुआ
बनाता हुआ जगह इस अनंत में

और चूंकि फूल भी आ चुके हैं इसमें
मैं इसके बारे में आगे तक सोच सकता हूँ
यह मुझे अनुमान से ज़्यादा रहस्यमय लगता है
और वो चीज़ भी जो मैं खुद हूँ
नित्य में एक पल और अनंत में एक जगह
घेरता हुआ

सच तो यही है
कि मैं फिलहाल इन जंगली फूलों के मुक़ाबिल हूँ
और मैं जितना ही सोचता जाता हूँ
इनके बारे में
यह सब मुझे अनुमान से ज्यादा
रहस्यमय लगता है
और अंत में
इन सब चीज़ों पर सोचते हुए
मैं भागने लगता हूँ
उस चीज़ से जो मैं खुद हूँ

और जुड़ने लगता हूँ जंगली फूलों से

जैसे कि
नित्य और अनंत की एक अभिव्यक्ति
जैसे कि
नित्य और अनंत का एक हिस्सा
जैसे कि
नित्य और अनंत का एक प्रेम
अभी मौजूद है यहाँ ......


चू-पंग दर्रा

चू-पंग दर्रे की तीखी ढलान पर
ढेर सारे फूल
मेरी निगाह में आते हैं
जिन्हें मैं कोई नाम नहीं दे सकता

मेरी बगल में
कोरियाई पोशाक में एक प्यारी स्त्री
गर्मजोशी से कहती है - ' इन फूलों को देखो
क्या ये प्यारे नहीं हैं? '

मेरी सलेटी दाढ़ी से टकराती हुई
उसकी गहरी साँसों में
जैसे लेडी सूरो की सांसें सुनाई पड़ती हैं और मैं तेरह सौ साल पहले के
उस बूढ़े की छवि का आह्वान करता हूँ

पूर्वी सागर के पहाड़ों के ढलानों की उसकी अपनी जगह से
तेरह सौ साल बाद
आज इस जगह पर
तेरह सौ साल पहले की तरह उसकी छवि के आह्वान ने
जगा दिया है खुद मेरी छवि को
आज
तेज़ी से भागती इस बस के भीतर

अकेले मैं दुखी होता हूँ
और अकेले ही मुस्कुराता हूँ
मीठी मुस्कान!


--------------------

अनुवादक की टीप :

१-लेडी सूरो सिला साम्राज्य के एक गर्वनर की पत्नी थी, जो अपनी सुन्दरता के लिए विख्यात थी।

२-`बूढ़े आदमी´ का सन्दर्भ यहाँ उसी काल के एक प्रसिद्ध लोक गीत से लिया गया है, जिसमें वह उस सुन्दरी को कुछ सुन्दर फूल देने की कोशिश करता है।


विजय गौड़ की लम्बी कविता - होम वर्क

विजय गौड़ लंबे समय से कविता लिखते आ रहे हैं। उनका संकलन भी अभी कुछ दिन पहले आया है। वे लिखो यहाँ वहाँ नाम से एक लोकप्रिय ब्लॉग भी कहलाते हैं। उनकी भूमिका साहित्य में हमेशा एक ऐसे समर्पित कार्यकर्त्ता की रही है, जिसे बदले में कुछ नही चाहिए। ये अलग बात है कि किसी हद तक हिंसक हो चुका हमारा साहित्य समाज किसी भी सुपात्र को आज तक क्या दे सका है ! यहाँ प्रस्तुत है विजय की एक लम्बी और संवादधर्मी कविता " होम वर्क" ।

होम वर्क


गणित के एक सवाल को हल करते हुए
न जाने कितने ही
सवालों को कर रहे होते हैं हल,
हाशिये में छुट जा रहे होते हैं
जोड़ घटाव गुणा और भागफल

भागफल का मतलब
भाग्यफल तो होता ही नहीं मेरी बेटी,
बेशक कर्मफल

कर्मफल गीता में भी पढ़ सकती हो,
पर गीता की तरह,
कर्म किये जा फल की चिन्ता न कर
नहीं पढ़ा सकता हूं मैं
और न ही पढ़ना है तुम्हें

तुम्हारी मां का, याकि मेरा
भाग्य नहीं, एक स्वर था
जिसके सहारे रचा हमने जीवन
तुम हो वो

पदार्थ मात्र के यांत्रिक एकीकरण से नहीं
प्रकृति के संश्लेषण से घटा है
रहस्य नहीं, न ही दैवीय चमत्कार
अंश-अंश जीवन, बस ऐसे ही जुटा है

तने की अनुप्रस्थ काट में
दिखती मांस-मज्जा है
कोशिकाओं का छत्ता है
वलयाकार
खाद पानी और उसमें घुली
नाईट्रोजन को सोखकर
हुआ जाता था
चौड़ा और चौड़ा
मोटा और मोटा
गोल-गोल तना
धूप सेंक कर
दुर्गंध खींचती पत्तियों ने भी तो रचा है

देखो कॉंच के पार
अंधेरा नहीं उजाला है

कोशिकाओं के भीतर बैठे
नाभिक के सिर पर
जो खिंचता हुआ धागा है
उन युग्मकों के निषेचन पर ही है
निर्भर जीवन
नर और मादा भी
उसके संतुलन के हैं प्रकार
एक हो विशिष्ट तो दूजे पर फिर क्यों अत्याचार

आधुनिक तकनीक की बाइनरी भाषा
अनंत काल तक सुरक्षित रख सकती हैं
अपने पास
घटती हुई घटनाओं को,
सांख्यिकी, तसवीर
और टंकित होता
चिट्ठा-चिट्ठा इतिहास

सोवियत संघ के विघटन के कारणों को
जाने ठीक-ठीक
क्यों लगाये कयास

आतंक के देवता से पूछें
क्या सुरक्षित है उसकी सी डी में,
दिखाये हमें

बहस करने की कोई जरुरत नहीं
अब बची ही नहीं है बहस
महान बहसें
भविष्य में चीन के विघटन के कारण की भी
कर सकती हैं पड़ताल

महान रचनाएं भी
जन्म लेतीं हैं बहसों के बाद ही

गिरोहगर्दी के दौर में
संभव ही नहीं एक स्वस्थ बहस
आड़े आ सकती है शास्त्रीयता,
तोड़ने की छूट है तो सिर्फ रचना को
आलोचना को नहीं,

आलोचना का मतलब
सिर्फ रचना के सौन्दर्य की व्याख्या है,
सर्जक के भीतर से उद्वेग बनकर बही है जिसकी सरिता

ये जो तीन पंक्तियां हैं
शुद्धतावदी गायेगें
मैंने तो व्यंग्य में कही है

व्यंग्य पर भी करना है तुम्हें
अपना पाठ तैयार
व्यंग्य का ही स्थायी भाव है हास्य
याकी हास्य का है व्यंग्य
ठीक-ठीक जानने के लिए मुझे भी
सौन्दर्य शास्त्र तो पलटना ही होगा,
तुम खुद ही देख लेना
कितने होते हैं संचारी भाव,
वो भी जान जाओगी

बहस में हिस्सेदार लागों के नाम कैसे कह दूं,
उनकी तलाश में जुटा अमला
पहचान सकता है तो पहचान ले-

वे हर वक्त मुस्कराते रहते हैं
कई रातों की जाग से
थके होते हैं उनके शरीर
पर जब मिल रहे होते हैं तो तरोताजा
जिंदादिल

वर्षों से बिछुड़े अपने किसी प्रेमी से मिलने के लिए
उन्हें चाहिए ही होती है
एक सुरक्षित और संदेहों से परे आड़

जन के बीच ही
गच्चा खाता है उनके दुश्मनों का विजन, वरना
जंगल, पहाड़, नदी, नालों, खालों की
सुरक्षित कही जा सकने वाली
किसी भी जगह पर
बाईनरी भाषा में घूमता ग्लोब चौकीदार है,
धरती से नभ तक
उसकी निगाहों से बच नहीं सकता है कोई

घने जंगल के बीच बहती
नदी को पार करने के लिए डोंगी में बैठकर भी
गहराई का खौफ डरा नहीं सकता उन्हें,
रोमांचक कार्यवाहियों का तमगा लूटने में नहीं
दुश्मन से बच निकलने में ही
डूबे है कई, डोंगी के डोल जाने पर

जनता का इतिहास
दुश्मन से बचने
और बच-बच कर वार करने से ही बनता है

राज्यों के विस्तार की सनक से लड़ने वाले
राजाओं का इतिहास पाठ्य पुस्तकों में जगह पाता
जन श्रुतियों को देखो तो
जान जाओगी सच्चा-झूठा इतिहास

साहित्य को भी कह सकती हो इतिहास
रचनाओं में देखें
हाशिये के लागों का जीवन
आंकड़े भर नहीं, उनका अक्स भी दिख जायेगा

हाशिये पर लिखे को पाओ तो छोड़ देना

रचना प्रक्रिया के दौरान भी
कितनी ही रचनायें और चली आ रही होती हैं,
हाशिये पर इधर-उधर
लिख देने पर जिनको
हाशिये की रचना,
और प्रवृत्ति के चलते
हाशिये का रचनाकार
सिर्फ एक जुमला ही होगा
महाकाय लेखको की
दिल फरेब दुनिया *
महानता के ऐसे ही न जाने कितने
तराने रचती हैं,
रख देना उनको एक तरफ

हाशिये के लोगों पर लिखने के लिए
जरुरी नहीं हाशिये पर भी लिखा ही जाये

समय को जानने के लिए
रिश्तों को जानना बेहद जरुरी है
जिन्हें गढ़ता है अर्थतंत्र

पृथ्वी की सतह पर्पटी
है बेहद पतली
खोद-खोदकर बोते हैं बीज
भूमिजीवी
काले-काले गम बूट
लोहे के टोप वाले मजदूर
उतर जाते हैं गहरी खाईयों में
निकालते हैं लोहा, तॉंबा
सोना अपार
खोद-खोदकर सुरंग
पहुंच ही जाओगी तुम उस पार,

पृथ्वी से नभ तक
जितने हैं प्राकृतिक स्रोत,
चौधराहट अपनी दिखा रहा है
अनाधिकृत
फैला रहा है बाजार
फिर देता है रुपया उधार
हॉं, हॉं वही अमेरिका है उस पार

उसके झूठे फेर से बचना मुश्किल है
पर बचके चलना बेहद जरुरी है

कुमंत्रणाओं का लयबद्ध संगीत
निरंकुश राजसत्तओं का
एक मात्र लक्ष्य बनकर
गूंज रहा है चारों ओर
बाहों में बांहे डाले
अठखेलियां करते राजनयिक
नये से नये समझोते कर रहे हैं

कितना तो बचेगा देश
और कितनी बची होगी शेष
उनके भीतर राष्ट्रीय भावना,
पूंजी की चकाचौंध ने उकसाया है जिन्हें उड़ जाने को

कब तो लौटेंगे
कब तक करें इंतजार

सिर्फ फैल रहा है व्यापार

देश भी है एक बाजार
अप्रवासी मन के भीतर

आकाश की ऊंचाईयों के पार
दूसरी दुनिया को खोजने की कोशिश
प्रकृति के रहस्य से पर्दा उठाना होगा
पर उसे संभव बनाने के लिए
शिखा, रेहाना और माधुरी को छोड़कर
उड़ जाओ
यह कतई जरुरी नहीं,

खराब महत्वाकांक्षा होगी

धुंऐ और गर्द का गुबार उड़ाती उड़ान भरकर
बेशक चौंका दोगी अपने मित्रों को
पर बचा नहीं पाओगी स्मृतियों भरा
निकटता का कोई निजी कोना

छुपन-छुपाई, स्टापुल, गिट्टी
उनके संग ही तो सीखा तुमने
गुंथना मिट्टी

मित्रों के साथ, मित्रों के लिए
रचना एक खेल, दुनिया के लिए

जानो ठीक ठीक,
सूचना क्रांति का तनता वितान
कैसे रच रहा है खबरों के बंध
इतिहास से उसका क्या है संबंध

भूगोल, विज्ञान और नागरिक शास्त्र
जो तुम्हारी पढ़ाई के विषय हैं बेटी
उनमें तुम खुद ही ढूंढ सकती हो
अपना पाठ
अध्यापिका ने जो कहा
वो गलत नहीं, पर सम्पूर्ण नहीं

सम्पूर्ण को खोजने के लिए
तुम्हें खुद ही करनी है मेहनत
मूर्त को अमूर्त
और अमूर्त को मूर्त में बदलने की
अपनी क्षमताओं को
तुम्हें खुद ही करना है समृद्ध
मैं या तुम्हारी अध्यापिका
तो होते जा रहे हैं वृद्ध

बस समझ लो सिर्फ इतना और हमे्शा ध्यान रखो,
कितना टकराते हैं खुद से
लिखते हैं जब एक पुराना राग
मुंह में कितना होती है आग

----------------------------------------------------
* कथाकार योगेन्द्र आहुजा की कहानी मर्सिया से उधार
----------------------------------------------------
सी-24/9 आर्डनेंस फैक्ट्री एस्टेट, रायपुर, देहरादून-248008।
फोन: 09411580467
0135-2789426

Saturday, April 18, 2009

रक्तचाप - पंकज चतुर्वेदी


कू सेंग की कविताओं के सिलसिले को एक बार और तोड़ा जा रहा है। कारण है हमारे समय के बहुत ज़रूरी कवि पंकज चतुर्वेदी की उतनी ही ज़रूरी कविता। हमारी दिनों-दिन क्रूर होती स्थानीय तथा वैश्विक जीवन-स्थितियों की पड़ताल करती और उनके बीच घुटते-जीते समकालीन मनुष्य के भीतर को बाहर से जोड़ती ऐसी कविता हिंदी में पहली बार आई-सी लगती है। अनुनाद इस कविता के लिए पंकज जी का आभारी है।



रक्तचाप जीवित रहने का दबाव है
या जीवन के विश्रंखलित होने का ?

वह खून जो बहता है
दिमाग़ की नसों में
एक प्रगाढ़ द्रव की तरह
किसी मुश्किल घड़ी में उतरता है
सीने और बाँहों को
भारी करता हुआ

यह एक अदृश्य हमला है
तुम्हारे स्नायु-तंत्र पर

जैसे कोई दिल को भींचता है
और तुम अचरज से देखते हो
अपनी क़मीज़ को सही-सलामत

रक्तचाप बंद संरचना वाली जगहों में--
चाहे वे वातानुकूलित ही क्यों न हों--
साँस लेने की छटपटाहट है

वह इस बात की ताकीद है
कि आदमी को जब कहीं राहत न मिल रही हो
तब उसे बहुत सारी ऑक्सीजन चाहिए

अब तुम चाहो तो
डॉक्टर की बतायी गोली से
फ़ौरी तसल्ली पा सकते हो
नहीं तो चलती गाड़ी से कूद सकते हो
पागल हो सकते हो
या दिल के दौरे के शिकार
या कुछ नहीं तो यह तो सोचोगे ही
कि अभी-अभी जो दोस्त तुम्हें विदा करके गया है
उससे पता नहीं फिर मुलाक़ात होगी या नहीं

रक्तचाप के नतीजे में
तुम्हारे साथ क्या होगा
यह इस पर निर्भर है
कि तुम्हारे वजूद का कौन-सा हिस्सा
सबसे कमज़ोर है

तुम कितना सह सकते हो
इससे तय होती है
तुम्हारे जीवन की मियाद

सोनभद्र के एक सज्जन ने बताया--
(जो वहाँ की नगरपालिका के पहले चेयरमैन थे
और हर साल निराला का काव्यपाठ कराते रहे
जब तक निराला जीवित रहे)--
रक्तचाप अपने में कोई रोग नहीं है
बल्कि वह है
कई बीमारियों का प्लेटफ़ॉर्म
और मैंने सोचा
कि इस प्लेटफ़ॉर्म के
कितने ही प्लेटफ़ॉर्म हैं
मसलन् संजय दत्त के
बढ़े हुए रक्तचाप की वजह
वह बेचैनी और तनाव थे
जिनकी उन्होंने जेल में शिकायत की
तेरानबे के मुम्बई बम कांड के
कितने सज़ायाफ़्ता क़ैदियों ने
की वह शिकायत ?

अपराध-बोध, पछतावा या ग्लानि
कितनी कम रह गयी है
हमारे समाज में

इसकी तस्दीक़ होती है
एक दिवंगत प्रधानमन्त्री के
इस बयान से
कि भ्रष्टाचार हमारी ज़िन्दगी में
इस क़दर शामिल है
कि अब उस पर
कोई भी बहस बेमानी है

इसलिए वे रक्त कैंसर से मरे
रक्तचाप से नहीं

हिन्दी के एक आलोचक ने
उनकी जेल डायरी की तुलना
काफ़्का की डायरी से की थी
हालाँकि काफ़्का ने कहा था
कि उम्मीद है
उम्मीद क्यों नहीं है
बहुत ज़्यादा उम्मीद है
मगर वह हम जैसों के लिए नहीं है

जैसे भारत के किसानों को नहीं है
न कामगारों-बेरोज़गारों को
न पी. साईंनाथ को
और न ही वरवर राव को है उम्मीद
लेकिन प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री
और योजना आयोग के उपाध्यक्ष को
बाबा रामदेव को
और मुकेश अम्बानी को उम्मीद है
जो कहते हैं
कि देश की बढ़ती हुई आबादी
कोई समस्या नहीं
बल्कि उनके लिए वरदान है

मेरे एक मित्र ने कहा :
रक्तचाप का गिरना बुरी बात है
लेकिन उसके बढ़ जाने में कोई हरज नहीं
क्योंकि सारे बड़े फ़ैसले
उच्च रक्तचाप के
दौरान ही लिये जाते हैं

इसलिए यह खोज का विषय है
कि अठारह सौ सत्तावन की
डेढ़ सौवीं सालगिरह मना रहे
देश के प्रधानमन्त्री का
विगत ब्रिटिश हुकूमत के लिए
इंग्लैण्ड के प्रति आभार-प्रदर्शन
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए
वित्त मन्त्री का निमंत्रण--
कि आइये हमारे मुल्क में
और इस बार
ईस्ट इण्डिया कम्पनी से
कहीं ज़्यादा मुनाफ़ा कमाइये
और नन्दीग्राम और सिंगूर के
हत्याकांडों के बाद भी
उन पाँच सौ विशेष आर्थिक क्षेत्रों को
कुछ संशोधनों के साथ
क़ायम करने की योजना--
जिनमें भारतीय संविधान
सामान्यत: लागू नहीं होगा--
क्या इन सभी फ़ैसलों
या कामों के दरमियान
हमारे हुक्मरान
उच्च रक्तचाप से पीड़ित थे ?

या वे असंख्य भारतीय
जो अठारह सौ सत्तावन की लड़ाई में
अकल्पनीय बर्बरता से मारे गये
क़र्ज़ में डूबे वे अनगिनत किसान
जिन्होंने पिछले बीस बरसों में
आत्महत्याएँ कीं
और वे जो नन्दीग्राम में
पुलिस की गोली खाकर मरे--
अपना रक्तचाप
सामान्य नहीं रख पाये ?
यों तुम भी जब मरोगे
तो कौन कहेगा
कि तुम उत्तर आधुनिक सभ्यता के
औज़ारों की चकाचौंध में मरे
लगातार अपमान
और विश्वासघात से

कौन कहता है
कि इराक़ में जिसने
लोगों को मौत की सज़ा दी
वह किसी इराक़ी न्यायाधीश की नहीं
अमेरिकी निज़ाम की अदालत है

सब उस बीमारी का नाम लेते हैं
जिससे तुम मरते हो
उस विडम्बना का नहीं
जिससे वह बीमारी पैदा हुई थी
-------------------
फ़ोन-(0512)-2580975
मोबाइल-09335156082
-------------------
युवा कवि-आलोचक व्योमेश शुक्ल की लम्बी प्रतिक्रिया
पंकज पर लिखने के लिए कोई और ही कलम चाहिए थी जो नहीं मिली. उन पर, यानी उनकी कविता और उनकी आलोचना पर कितने धैर्य कितनी तबीयत कितनी पाकीज़गी से लिखा जाना था. लेकिन जीवन ' रक्तचाप ' जैसा था जहाँ जीवित रहने का दबाव और जीवन के विश्रंखलित होने का दबाव एक ही वस्तुएँ थीं. पंकज का जीवनशिल्प हमारे चारों ओर मौजूद जल्दबाजी, आपाधापी, बेईमानी, लालच, हिंसा और कायरता से जितना आहत है, उसके खिलाफ उससे कहीं ज्यादा बौद्धिक और नैतिक ऊर्जा के साथ एक असंभव अभियान में लगा हुआ है. इसलिए वह इतने अधिक मोर्चों पर युद्ध करते हैं. उतने ही अधिक संस्तरों पर, और हर जोखिम की उससे भी बड़ी कीमत चुकाते हैं. और ज़्यादा पारदर्शी और ईमानदार और लथपथ होकर सामने आते हैं हर बार. दोस्तो ! यह बात याद रखनी चाहिए, भले ही इसे बार-बार कहना अच्छा न हो कि पंकज जैसे कलाकार अपने होने में खुद को इतना समाहित कर देते हैं कि वह हमेशा एक जैसा परफार्म नहीं कर सकते, हमेशा सफल और सार्थक नहीं हो सकते. सफलता उनका अभीष्ट भी नहीं होती हालाँकि. उन जैसे लोग खर्च और ख़त्म हो जाते हैं, उन्हें मार डाला जाता है या अकेला कर देने के षड्यंत्र किये जाते हैं उनके साथ. यह साहित्यसंसार का जायजा है. यहाँ मरण से मूल्यांकन होता है. सत्ताएँ खून पीना चाहती हैं और विरोध पर टूट पड़ती हैं. पंकज के साथ बीते दिनों हुई बदतमीज़ियों का लेखाजोखा अगर तैयार किया जाए तो हिंदी की दुनिया में सक्रिय वर्चस्वशाली पशुबल का सही अन्दाज़ा किसी को भी लग जायेगा. यह हिंदी में कायम दास-संस्कृति का एक ख़ास गुण है. यह संस्कृति अवदान को निरस्त कर देना चाहती है भले ही अवदानों को ऐसे निरस्त न किया जा सकता हो. ऐसी बातें बहुतों को कविता से भिन्न लगती हैं और लगेंगी. ऐसे लोगों के सामने हम कुछ कर नहीं सकते. हम लाचार हैं. हम उनसे प्यार करते हैं और करते रहेंगे लेकिन काव्यमय बातें पंकज के प्रसंग में शोभा नहीं देंगी. उन पर बात करना अपनी पॉलिटिक्स तै कर लेना है पार्टनर. उन पर संघर्ष,यथार्थ और मृत्यु के शिल्प में ही बात संभव है. आखिर उनके जैसा मृत्युबोध किस समकालीन कवि में है ?
April 18, 2009 11:52 PM

Friday, April 17, 2009

कोरियाई कवि कू सेंग की कविताओं का सिलसिला / छठवीं किस्त



अप्रैल
नवजात कलियाँ और नवजात टहनियाँ
नवजात पत्तियाँ और नवजात फूल

पहाड़ और मैदान
बगीचे और पगडंडियाँ
सबके सब एक साथ घिर जाते हैं
हरियाली लपटों में

हर चीज़ होती है गर्म
और सुखद

कौन हैं
जो कहते हैं यह सबसे क्रूर महीना है?

कृपया
अपने दिल के उजाड़ को
मौसमों पर मत लादिए!
मत कहिए आँखें बंद करके
कि यहाँ अंधेरा है

अप्रैल तो अन्नपूर्णा है
एक नई हरीतिमा
और बच्चों की एक भरी-पूरी दुनिया।
------------------------------------
अनुवादक की टीप : यह कविता टी.एस. इलियट की प्रसिद्ध कविता `वेस्टलैण्ड´ से जुड़ती है जिसमें वो लिखते हैं - "April is the cruellest month, breeding lilacs out of the dead land, mixing memory and desire..........."

शर्म
मुझे हैरत होगी
अगर आप इतना भी याद नहीं कर पाए
कि शर्म क्या चीज़ है?

कुछ ऐसा
जिसे आपने पहली बार तब महसूस किया था
जब आपने चीज़ों को
जानना शुरू किया था
तब
जब आपने तोड़ दिया था
वही गुलदान
जिसे छूने को माँ ने सख़्ती से मना किया था

उस दिन की तरह
जब आदम और हव्वा ने स्वर्ग के बगीचे में
निषिद्ध फल को तोडने और खाने के बाद
ढंका था अपनी नग्नता को
अंजीर की पत्तियों से

ग़लती करने पर वह क्या है
जिसे मनुष्य सबसे पहले महसूस करते हैं
मानवीय चेतना का एक संकेत
एक सगुन
उसकी मुक्ति का

लेकिन
आजकल मेरे बच्चों
आप ग़लती करने पर भी
कोई शर्म महसूस नहीं करते !
यह संकेत है
कि लकवा मार गया है आपकी
चेतना को

एक असगुन
जो बताता है कि आप जा रहे हैं
दरअसल
तबाही की तरफ़!

पंकज चतुर्वेदी की लम्बी और रोचक प्रतिक्रिया
प्रिय शिरीष जी,

आपने कू सेंग की बहुत अच्छी कविताओं का तोहफा हिन्दी दुनिया को दिया है ! मैं निजी तौर पर बहुत एहसानमंद हूँ। दरअसल ये कवितायें कई नई अंतरदृष्टियों से हमें समृद्द और प्रकाशित करती है . मसलन "शर्म" कविता आज लगता है की विश्व स्तर पर बहुत प्रासंगिक है. ग़लत आचरण में लोगों का रुझान और सन्लिप्ति बेतहाशा बढ़ी है और उसी अनुपात में उनकी संवेदनशीलता, अपराध बोध या कवि के शब्दों में उनकी "शर्म "छीजती गयी है. शायद इसलिए मॅंगलेश डबराल की ये कविता पंक्तियाँ मुझे बहुत प्रिय हैं और आज के सन्दर्भ में बेहद प्रासंगिक भी - " मैं चाहता हूँ कि ......... कवियों में बची रहे थोड़ी लज्जा !"

दूसरे अप्रैल को क्रूलैस्ट महीना कहना- मानना एक कवि का अधिकार है, पर कू सेंग का यह बड़ा रचनात्मक योगदान है कि वह इस बोध को सार्वजनीन या सार्वभौम बनाए जाने के वर्चस्ववादी सांस्कृतिक विमर्श को बहुत सार्थक और संवेदनशील अंदाज़ में तोड़ते हैं। महज इत्तेफ़ाक़ है कि मैं एक ग्राम देश का बाशिंदा हूँ और मेरे सबसे प्रिय महीने फ़रवरी, मार्च और अप्रैल हैं. यहाँ तक कि मई और जून भी मुझे दिसंबर- जनवरी से ज़्यादा पसंद हैं. फलों का राजा आम भला आपको गर्मियों के अलावा किस मौसम में खाने को मिल सकता है? यही नहीं तुलसीदास ने अपने अमर महाकाव्य "रामचरित मानस" में बार- बार भक्ति रस और काव्य रस के समकक्ष आम्र -रस को बताया है, बल्कि आसन्न अतीत में अक़बर इलाहाबादी ने भी लिखा है -

नामा न कोई यार का पैगाम भेजिए !
इस फसल में जो भेजिए, बस आम भेजिए !
ऐसा न हो कि आप यह लिखें जवाब में
तामील होगी, पहले मगर दाम भेजिए !

Thursday, April 16, 2009

कोरियाई कवि कू सेंग की कविताओं का सिलसिला / पांचवी किस्त

कवि के परिचय तथा अनुवादक के पूर्वकथन के लिए यहाँ क्लिक करें !
पंख

जीवन में पहली बार
जब मैंने लड़खड़ाते हुए चलना शुरू किया
तो पाया
कि मेरे हाथ-पैर मेरे क़ाबू में नहीं हैं
वे ऐसा कुछ नहीं कर पा रहे हैं
जैसा मैं
उनसे करवाना चाहता हूँ

और अब मैं
सत्तर के आसपास हूँ
और एक बार फिर
मेरे हाथ-पैर मेरे काबू में नहीं हैं
वे ऐसा कुछ नहीं कर पाएंगे
जैसा मैं
उनसे करवाना चाहता हूँ

कभी मैं लपकता था
लड़खड़ाता हुए भी
अपनी माँ के बढ़े हुए हाथों की तरफ़
और अब मैं जीता हूँ
साँस -दर-साँस
झुका हुआ सहारे के लिए
किन्हीं
अदृश्य हाथों की तरफ़

अब मुझे जो चीज़ चाहिए
वह कोई जेट हवाई जहाज या अंतरिक्ष यान नहीं
बस पंख उगा सकने के सुख की इच्छा है

छोटी-सी
उस इल्ली की तरह
जो आखिरकार बदल जाती है
एक तितली में
और चल देती है फरिश्तों के साथ
उड़ने और उड़ने
और बस उड़ते ही रहने को

मेरे इस बगीचे की-सी पूरी
आकाशगंगा में!


फूलों का बिस्तर
मैं खुश हूँ और कृतज्ञ भी

जो जहाँ भी है
वही उसके होने की सबसे अच्छी जगह है
हो सकता है कि आपको लगे आप काँटों के बिस्तर पर हैं
लेकिन देखिए
दरअसल यह तो फूलों का बिस्तर है -
आपके होने की सबसे अच्छी जगह!

मैं खुश हूँ और कृतज्ञ भी।
---- -------------------
अनुवादक की टीप : यह कविता उन शब्दों के बारे में है, जिनसे एक अन्य प्रसिद्द कोरियाई कवि कांग-चो ( ओ सैंग-सुन ) अपने मेहमानों का स्वागत करना पसंद करते थे। फूलों वाली जिस चटाई पर मेहमान को बिठाया जाता है, उस पर लिखा होता है सबसे अच्छी जगह।

नया साल

अब तक किसने देखा है एक नया साल
एक नयी सुबह
सिर्फ़ अपने दम पर ?

क्यों प्रदूषित कर रहे हैं आप
रहस्य के इस स्त्रोत को
बस एक कोयले-से काले कचरे में बदलते हुए ?

क्या किसी ने देखा है
एक चीथड़ा हो चुका दिन?
वक्त का एक तबाह हो चुका
लम्हा?

यदि आपने कुछ नया नहीं बनाया है
तो फिर आप स्वागत नहीं कर सकते एक नयी सुबह का
नए की तरह
आप स्वागत नहीं कर सकते एक नए दिन का
नए की तरह

यदि आपका दिल
जीवन में कभी एक बार भी खिल पाने में क़ामयाब रहा है
तो आप जी सकते हैं नए साल को
नए की तरह!

Wednesday, April 15, 2009

कोरियाई कवि कू सेंग की कविताओं का सिलसिला / चौथी किस्त

कवि के परिचय तथा अनुवादक के पूर्वकथन के लिए यहाँ क्लिक करें !


ऐसे या वैसे

किसी अपार्टमेंट में रहना
कंक्रीट के जंगल के बीचों-बीच बने मुर्गी के दड़बे में रहने जैसा होता है
लेकिन फिर भी वहाँ काफी धूप आती है
और निश्चित रूप से
इसकी तुलना दिओजेनेस के उस बड़े पीपे से नहीं की जा सकती
जिसमें वह जीवन भर रहा

पेड़ खड़े रहते हैं यहाँ-वहाँ
और चूंकि वे बदलते रहते हैं मौसम के साथ
इसलिए
क़ुदरत के करिश्मों का अहसास भी कराते हैं
गुलदाउदी और गुलाब के फूलों में बिंध जाती है मेरी आत्मा!

नदी किनारे
जहाँ जंगली पौधे उगते हैं
टहलते रहना और ताकते रहना नदी को
मेरा रोज का शगल है


और ऐसा करते-करते अब मैं खुद भी
तब्दील हो चुका हूँ
बहते हुए पानी की एक अकेली बूँद में


और इस तरह
मैं खुद को कुछ नहीं कह सकता
सिर्फ मुझसे मिलने वाले लोग
देख सकते हैं
बाहर छोड़ी हुई मेरी धीमी साँसों को
स्टेडियम में
किसी एथलीट की दौड़ की तरह
लेकिन
एक दिन यह भी बदल जाएगा

(दिक्कत तो यह है
कि जब मैं छोटा था मेरे घर के लोग बहुत
सीधे-सादे थे)

ऐसे या वैसे
मेरा जीवन अब अपनी समाप्ति के कगार पर है

यहाँ तक कि मौत भी
जिसकी कल्पना भर से मैं भयाकुल रहा करता था
अब सुखद दिखाई देने लगी है
बिल्कुल माँ के आगोश की तरह!
------
(अनुवादक की टीप : दिओजेनेस सिकन्दर के समय का एक यूनानी दार्शनिक था जो जीवन भर एथेंस से बाहर एक बड़े-अंधेरे गोलाकार पीपे में रहा। कहते हैं कि वह कभी दिन के उजाले या धूप में अपने पीपे से बाहर नहीं आता था और रात भर शहर के छोर पर लालटेन लिए अपने वक़्त के सबसे ईमानदार आदमी की खोज किया करता था। )


एक संस्मरण

टी0वी0 पर
एशियाई खेलों में तीन स्वर्णपदकों की विजेता
रिम चुआन-एंग का दमकता चेहरा देखते हुए
मुझे लगा कि उसके भाव
कुछ जाने-पहचाने हैं
अपनी यादों को देर तक उलटने-पलटने
खोजने-टटोलने के बाद
मुझे याद आयी
मुदग्लियानी की वह पेंटिंग "पोर्ट्रेट ऑफ़ ए वूमेन"
जो मेरे कमरे की दीवार पर
टंगी होती थी
जब मैं बीस साल का था और पढ़ता था
टोकियो में

मुझे वह पेंटिंग बहुत पसंद थी
और उस चिंताकुल थके हुए चेहरे को मैं प्यार करता था
यहाँ तक कि मैं अपने दोस्तों से कहता था -
मैं एक ऐसी औरत से शादी करूंगा जो इस पेंटिंग जैसी हो
आख़िर मैं नहीं पा सका ऐसी कोई भी औरत
और मैंने शादी कर ली
अपनी पत्नी से
जो कहीं अधिक सुखद थी मेरे लिए!

और अब जबकि बयालीस साल बीत चुके हैं
आख़िरकार
एक ऐसी ही लड़की प्रकट हुई है !

लोग कहते हैं
कि गोएथे सत्तर की उम्र में
एक षोडसी के प्रेम में पागल थे
और हेनरी मिलर भी जो अभी पिछले बरस ही गुज़रे
सत्तर की उम्र में ही
प्यार के पैग़ाम भेजने के लिए बदनाम थे!

लेकिन मैं?

मेरा तो अलग मामला है
हरेक दिन
जब आईना मुझे घूरता है
मेरे सलेटी दाढ़ी और बाल
हमेशा से अधिक सफ़ेद दिखाई देने लगते हैं!
-------
(गोएथे- विख्यात जर्मन लेखक/ हेनरी मिलर - विख्यात अमरीकी उपन्यासकार और चित्रकार)


Sunday, April 12, 2009

कोरियाई कवि कू सेंग की कविताओं का सिलसिला / तीसरी किस्त

कवि के परिचय और अनुवादक के पूर्वकथन के लिए यहाँ क्लिक करें !



एक कल्पना
मैं यहाँ हूँ
बैठा हुआ अमिताभ हर्मिटेज़ के लकड़ी के इस बरामदे में
तीन सौ साल पुरानी है यह इमारत
इसके खंभे और दीवारें
मानो बैठे हुए हैं पहाड़ की सबसे बाहरी कगारों के ढलान पर
बीचों-बीच

यहाँ कोई नहीं है - सिर्फ़ हवा की आवाज़
सिर्फ बहते हुए पानी की आवाज़
सिर्फ चिड़ियों की आवाज़
कहीं कोई भी नहीं है पास

कभी-कभार
एक गिलहरी आ जाती है यहाँ बागीचे से निकलकर
और चट्टानों की अजनबी आकृतियों को
या सुदूर पूर्वी सागर को
या फिर आसमान में तैरते बादलों को
घूरती हुई
बैठी रहती है आधा-आधा दिन मेरे साथ
और फिर
अचानक नीचे बागीचे में उतर जाती है

क्या यहाँ कोई प्रेत तो नहीं?

सुदूर उत्तर में
जब मैंने अपना घर छोड़ा
मेरी माँ उम्र के चालीसवें साल में थी
अब वह ज़रूर मर चुकी होगी
उसे
किस तरह विदा किया गया होगा
कहाँ और कैसा बनाया गया उसका मक़बरा
मैं कुछ भी नहीं जानता

मुझे लगा
कि मेरी माँ वहाँ है - शिखरों को ढाँप रहे हरे-भरे पेड़ों के ऊपर
आसमान में कहीं
बिल्कुल वर्जिन मेरी की तरह
लिपटी हुई
अपने ही प्रभामंडल में

और यह रूप बहुत जीवंत था

आंसू पोंछते हुए
मैंने अपनी आंखों को मला और कुछ कदम आगे बढ़ा
लेकिन ओह !
ग़ायब हो चुकी थी वहाँ से भी वह
मेरी माँ !


अब बच्चा

अब
बच्चा कुछ देख रहा है
कुछ सुन रहा है
कुछ सोच रहा है

क्या वह देख रहा है उस तरह की चीज़ों को
जैसी देखी थीं
मोहम्मद ने एक पहाड़ी गुफ़ा में
ख़ुदा के इलहाम के बाद?

क्या वह सुन रहा है
उन आवाज़ों को जिन्हें नाज़रेथ के जीसस ने
अपने सिर के ऊपर बजते सुना था
जब उसका बपतिस्मा हुआ था
जार्डन के किनारे?

क्या वह खोया है विचारों में
जैसे शाक्यमुनि खोये थे बोधिवृक्ष के नीचे?

नहीं!
बच्चा इसमें से कुछ भी नहीं
देख
सुन
और सोच रहा है

यह तो
देख
सुन
और सोच रहा है
ऐसा कुछ
जिसे कोई दूसरा देख
सुन और सोच नहीं सकता

कुछ ऐसा
कि मानो एक शांत ओर अनोखा आदमी होने के नाते
ये अकेला ही
ले आएगा बहार इस दुनिया में
सिर्फ अपने ही दम पर

तभी तो यह मुस्करा रहा है
एक प्यारी-सी मुस्कान !


Saturday, April 11, 2009

कोरियाई कवि कू सेंग की कविताओं का सिलसिला / दूसरी किस्त

बूढ़े बच्चे
(कविता से कुछ हटकर)

अपनी पिछली कविता में
मैंने सपने में कोरिया का सी0आई0ए0 प्रमुख बन बैठने का जो बखान किया था
उसे मेरे एक मित्र ने
बूढ़े बच्चों के हमारे समूह की एक बैठक में
मुद्दा बना दिया

इस बारे में सबके पास कुछ न कुछ था
कहने को

- "क्या तुमने बेकसूर जेल जाने के लिए बिना कुछ सोचे-समझे ही
यह सब लिखा है?"

- "प्यारे क्या तुम इतना चुक गए हो कि ऐसी बकवास पर उतर आए?"

- "एक कवि और सी0आई0ए0 प्रमुख?
अच्छा विचार है !"

- "अगर यह सिर्फ सपना है तब भी निहायत ही बेहूदा है!"

- "इसे इस तरह कविता में लिखना - शर्म आनी चाहिए तुम्हें!"

- "तथाकथित कवि !
दरअसल यही अंत है तुम्हारा !
तुम भी अब इतना उलझ गए हो? "

- "इसका यह मतलब तो नहीं
कि ऐसा संसार असंतोषजनक है? "

इतनी अलग-अलग प्रतिक्रियाओं से गुज़रते हुए भी
मैं सिर्फ हंस ही सकता था
उस बच्चे की तरह
जिसे बहुत मज़ा आ रहा है
क्योंकि
एक तरकीब थी जो काम कर गयी
और लोग फंस गए थे उसमें!


( बूढे बच्चे - कवि के हमउम्र लेखकों का एक सामाजिक समूह।)


तस्वीर और याद

एक दिन
सोलहवीं सदी के यूरोपियन चित्रों का एक संग्रह पलटते हुए
मैंने एक चित्र देखा
- एक आदमी
जिसकी एक बांह बंधी हुई थी एक बड़ी चट्टान से
और दूसरी
उठी हुई
एक डैने की शक्ल में

मुझे यह सब बहुत जाना-पहचाना सा लगा
और संजीदगी से सोचने-विचारने पर
जो कुछ प्रकट हुआ
वह तब की बात है
जब मैं पाँच या छह बरस का था -

" गाँव में
ठीक पड़ोस वाले घर का बिना बाड़ का अहाता
पुआल की चटाइयों पर सुखाने के लिए फैलाए गए अनाज से ढंका था
और उस घर के लोग शायद बाहर गए थे कहीं
लेकिन बाहरी कमरे का दरवाज़ा खुला था
और इसके ठीक सामने के सन्नाटे में
बेबस फड़फड़ा रही थी
एक मुर्गी
जिसकी पतली-चपल टांग
सुतली के ज़रिए
एक भारी पत्थर से बँधी थी

कुछ देर इधर-उधर ताकने-झाँकने और यह इत्मीनान कर लेने के बाद
कि कोई देख नहीं पाएगा मुझे
मैंने वह रस्सी काट दी और तेज़ी से भाग आया वापस
अपने घर में
बाक़ी का दिन मैंने अपने कमरे में
छुप कर ही बिताया


शाम होने पर निकला बाहर और उस अहाते में झाँकने पर पाया
कि मुर्गी दोबारा फड़फड़ा रही है वहीं
उसी तरह
बंधी हुई एक भारी पत्थर से "

इस एक अटपटी याद से गुज़रते हुए
मुझे महसूस होना शुरू हो रहा है कि दरअसल मेरा पूरा वज़ूद भी तो
दरअसल
लगभग इस तस्वीर के जैसा है

बिलकुल
पत्थर से बँधी उस मुर्गी के जैसा!



कवि के परिचय और अनुवादक के पूर्वकथन के लिए यहाँ क्लिक करें !



Thursday, April 9, 2009

कोरियाई कवि कू सेंग की कविताओं का सिलसिला / पहली किस्त

अनुवादक की बात

कू सेंग की कविताएँ पहली बार मेरे दोस्त अशोक पांडे को इंटरनेट पर उसकी लगातार यात्राओं के दौरान मिलीं। उसे वो पसन्द आयीं। उसने 'इंफेंट इस्‍प्‍लेंडर' नाम का एक संकलन डाउनलोड किया लेकिन फिर उसका मन फर्नान्दो पेसोआ, मीवोष, शिंबोर्स्का , साइफर्त, नेरूदा, अख़्मातोवा, हुआर्रोज़ जैसे अधिक चमत्कारी और प्रतिष्ठित नामों में रम गया। मैं खुद उन दिनों हिब्रू कवि येहूदा आमीखाई की कविताओं की ऊबड़खाबड़ धरती पर भटक रहा था और उस बेहद अर्थपूर्ण भटकाव के जादू में लगभग डूबा हुआ था। अशोक ने और मैंने आमीखाई की कविताओं के अनुवाद किए, जिनका संयुक्त रूप से प्रकाशन संवाद´ ने किया। इस दौरान कू सेंग कहीं काग़ज़ों के ढेर में गुमनाम रहा। बीच में एक बार मेरा ध्यान उस ओर गया तो उनकी चार कविताओं के अनुवाद एक संक्षिप्त टिप्पणी के साथ वरिष्ठ कवि विजेन्द्र की पत्रिका `कृतिओर´ में छपे भी, लेकिन एक निरन्तर काम नहीं हो पाया। अब किसी हद तक यह हुआ है।

2004 में 85 से अधिक के अत्यन्त सर्जनात्मक जीवन के बाद स्वाभाविक मुत्यु प्राप्त करने वाला यह कवि एक ही साथ काफी सहज और काफी विचित्र भी है। उलटबाँसी की शैली में कहें तो इसकी विचित्रता ही इसकी सहजता है और यही सहजता ही मानो विचित्रता भी है। अपनी कहन में यह बहुत सपाट और अभिधात्मक है। इस कवि की मूल काव्यभाषा से मेरा कोई परिचय नहीं है और इसका अंग्रेज़ी अनुवाद पूरी तरह गद्यानुवाद ही हैं, लेकिन उसमें भी अपनी ज़मीन, अपने अस्तित्व और अपने समय से जुडे़ सवालों विपर्ययों और विडम्बनाओं को समर्पित एक खिलन्दड़ी और अद्भुत काव्यात्मा हर कहीं साफ़ झलकती है और कभी-कभी तो बिजली के जैसी कड़कती भी है। मैंने कोशिश की है कि मैं इन कविताओं को समकालीन हिन्दी कविता की भाषा और शिल्प में ढालने की कोशिश करूँ, जिससे पाठकों को इन गद्य-कविताओं से अपनापा महसूस करने में कोई कठिनाई न लगे। इसी क्रम में कुछ सन्दर्भ भी कविताओं के नीचे दर्ज है।


मैं रूपान्तरकार या अनुवादक के तौर पर एक और बात साफ़ करना चाहूँगा कि मेरा ख़ुद का वैचारिक धरातल काफी सजग रूप से जीवन के सभी भीड़ और भटकाव भरे रास्तों पर से हमेशा ही बाँयें चलने का रहा है और रहेगा। इस बात का उल्लेख इसलिए ज़रूरी लगा क्योंकि यह कवि अपनी मूल प्रवृत्तियों में काफी धार्मिक और आध्यात्मिक भी है, जिसका एक सतही सबूत इस बात से भी मिलता है कि उसकी कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवादक ब्रदर एंटोनी नाम का एक फ्राँसीसी पादरी है। मुझे इन कविताओं से गुज़रते हुए ऐसा लगा कि धार्मिक और आध्यात्मिक होते हुए भी कू सेंग अपने इन्हीं जीवन-मूल्यों के पार भी जाता है। वह इनसे जुड़े कई विद्रूप उजागर करता है। वह `अपने ही साथ खेलता´ है और `गीले सपने´ भी देखता है। वह एक नौजवान एथलीट लड़की के प्रति अपने आकर्षण को खुलेआम कविता में लिखकर उजागर करता है। उसकी एक कविता में यह घोषणा भी दर्ज है कि उसे अपने जीवन में `टेन कमांडमेंट्स´ में से किसी का भी पालन नहीं किया। अपने हमउम्र साथी को एक नौजवान लड़की के साथ बैठा देख वह उस पर शक करता हुआ उससे ईर्ष्या भी करता है और अखीर में यह पता चलने पर कि लड़की दरअसल उस दोस्त की घर से भागी हुई पोती है , वह उसके साथ मिलकर एक विद्रूप भरी हँसी हँसकर शराबघर का रस्ता पकड़ता है। चित्रकार मित्र की बनाई एक तस्वीर में शराबनोशी का नज़ारा कर चिकित्सकीय निषेध के कारण खुद न पी सकने के अवसाद में डूब जाता है। इस तरह के काव्यप्रसंगों में नैतिकता के धरातल पर खुद के साथ इतनी क्रूरता से पेश आने वाला यह कवि इस रूप में हमारे समक्ष खुद को ठीक से जानने-पहचानने की एक अजीब-सी चुनौती भी रखता है। यह जानना भी रोचक होगा कि वह अपने देश में नर्सरी कक्षाओं से लेकर परास्नातक उपाधियों तक पढ़ाया जाता है। कई शोधार्थी उस पर शोध भी करते हैं। यह उसकी कविता की रेंज है। अपने देश और भाषा में कू सेंग की लोकप्रियता कल्पना से परे है। भारतीय सन्दर्भ में कहूं तो बिना हिचक कह सकता हूँ कि एक विशिष्ट सामाजिक अर्थ में उसकी कविताएँ कहीं-कहीं निराला और नागार्जुन जैसा बोध भी कराती हैं। मेरा काम फिलहाल इन कविताओं की समीक्षा करना नहीं है। मैं सिर्फ एक पर्दा उठा रहा हूँ और फिर देखते हैं कि समकालीन हिन्दी कविता के पाठकों को इस अटपटे विदेशी कवि में क्या कुछ नज़र आता है?


हिन्दी में कू सेंग की कविताओं के अनुवाद का ये निश्चित रूप से पहला प्रयास है। इसे अधूरा ही समझा जाए। अंग्रेज़ी में इंटरनेट पर उपलब्ध उनकी तीन पुस्तकों से चुनकर एक बड़ा कविता-संग्रह बनाने का प्रयास मैं ज़रूर करूँगा लेकिन उससे पहले इन कुछ कविताओं पर पाठकीय प्रतिक्रियाओं की मुझे ज़रूरत होगी।

अग्रज कवि श्री चन्द्रकान्त देवताले और श्री मंगलेश डबराल ने इन कविताओं के शुरूआती अनुवाद पर कुछ अनमोल प्रतिक्रियाएँ और सुझाव दिए - इसके लिए उनका भी आभार। अशोक अपना बड़ा भाई और यार है इसलिए उसका आभार व्यक्त करना निहायत बेवकूफी का काम होगा ......... तब भी अगर वो स्वीकारे.........तो......!



(पहली किस्त में इतनी कैफि़यत ज़रूरी थी, आगे ये सिलसिला निर्बाध जारी रहेगा। यह अनुवाद `पुनश्च´ से पुस्तिकाकार प्रकाशित हो चुके हैं, जो अब अनुपलब्ध है। जल्द ही इनका पुनर्प्रकाशन `शाइनिंग स्टार´ नामक एक नए प्रकाशन से होगा।)

- शिरीष कुमार मौर्य

अपने ही साथ खेलना

प्राइमरी स्कूल में कदम रखने से थोड़ा पहले
एक दिन
मेरी नातिन ने पूछा मुझसे - " नाना लोग कहते हैं आप बहुत मशहूर हैं !"तो फौरन ही पलटकर मैंने पूछा उससे - " मशहूर होना क्या होता है
तुम जानती हो? "
उसने कहा - "नहीं "मैंने उसे बताया - " यह कोई अच्छी चीज़ नहीं है बेटी ! "
इस साल
वह मिडिल स्कूल की दूसरी कक्षा में है
और मेरी एक कविता भी है उसकी किताब में
मुझे पता लगा
वह सबसे मुझे जानने का दावा करती है

"तो तुमने अब क्या बताया लोगों को मेरे बारे में?" - इस बाबत मैंने पूछा उससे
" यही कि आप एक साधारण बूढ़े आदमी हैं
लेकिन उस लड़के की तरह
जो अकेले
बस अपने ही साथ खेलता रहता है ! "
-- उसने जवाब दिया
मैं बहुत खुश हुआ उसके जवाब से
" बहुत अच्छे बेटी धन्यवाद ! " - मैंने उससे कहा
और फिर मेरा बाक़ी का दिन
काफ़ी मौज से कटा!



सपने

पिछली रात
मुझे एक गीला सपना आया -
मेरी हमबिस्तर थी एक फूल-सी नाजुक नौजवान औरत
जो मेरी पत्नी हरगिज़ नहीं थी
तो इस तरह यह सब बेवफ़ाई जैसा कुछ था
और जागने पर
मुझे अपराध-बोध हुआ

कुछ ही दिन पहले ही
मैंने सपने में देखा कि मैं कोरिया का सी0आई0ए0 प्रमुख़ बन गया हूं!
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में
यों भी मुझसे अकसर कहते ही रहते हैं मेरे मिलने वाले -
" तुम्हें समाज में एक ऊंची हैसियत पाने की कोशिश करनी चाहिए"और कभी-कभी
मज़ाक में
मैं भी जवाब दे देता उन्हें-
"हो सकता है कि मैं सी0आई0ए0 प्रमुख बन जाऊं "लेकिन
यह एक बेहूदी बात है

अब मैं सत्तर का होने को हूँ
और इस बात पर यक़ीन करता हूँ कि हमारी इन मछली-सी गंधाती
देहों से अलग होने के बाद भी
(जैसे समुद्र तटों पर मिलते हैं सीपियाँ और शंख)
लहरों से दूर
जारी रहेगा हमारा जीवन
लेकिन
कुल मिलाकर यह सब सपने जैसा ही है -
निरा बचपना !

या फिर
इस बात का संकेत
कि कितनी गहराई तक जड़ें जमा चुके हैं मेरे गुनाह
मेरे भीतर
मुझे हैरानी होगी अगर मैं कभी मुक्त हो पाया
इन फंतासियों से
जागते या सपना देखते हुए !


Wednesday, April 8, 2009

शुबेर्तियाना - टॉमस ट्रांसट्रोमर

टॉमस ट्रांसट्रोमर का जन्म १९३१ में स्वीडन के स्टाकहोम में हुआ। उन्होंने अपना बचपन तलाकशुदा माँ के साथ श्रमिक बस्तियों में गुज़ारा और कालेज में मनोविज्ञान और कविता की पढ़ाई की। आज उनकी गिनती दुनिया के नामचीन कवियों में होती है। अपनी जीवनस्थितियों से उन्होंने सीखा कि कैसे अपने भीतर के तलघर में घुटते हुए भी आप उसके एक-एक पल को जी और रच सकते हैं। यहाँ प्रस्तुत कविता संगीत से प्रेरित है, जिसका संक्षिप्त विवरण अंत में दिया गया है।

शुबेर्तियाना



न्यूयार्क से बाहर एक ऊँची जगह पर
जहाँ से एक ही निगाह में आप पहुँच जाते हैं
उन घरों के भीतर
जहाँ रहते हैं अस्सी लाख लोग

विशाल शहर के पार तक
वहाँ एक लम्बा चमकीला बहाव है -
दिखाई देती है
एक छल्लेदार आकाशगंगा
जिसके भीतर
मेज़ों पर खिसकाए जा रहे हैं काफी के मग
दुकानों की खिड़कियों की गुहार
और बेनिशान जूतों का गुज़र
ऊपर को चढ़ती लपकती भागती आग
स्वचालित सीढ़ियों के ख़ामोश द्वार
तीन तालों वाले दरवाज़ों के पीछे उमड़ता
आवाज़ों का हुजूम

एक दूसरे से जुड़ी कब्रों-से भूमिगत रेल के डिब्बों में
एक दूसरे पर लदे
ऊँघते बदन

मैं जानता हूँ इस जगह की यह सांख्यिकी भी
कि इस एक पल
वहाँ कहीं किसी कमरे में
बजाया जा रहा है शुबेर्त संगीत
और वह जो बजा रहा है इसे
उसके लिए तो बाक़ी की हरेक चीज़ के बरअक्स
कहीं अधिक वास्तविक हैं
उसके सुर

2
दूर तक फैले वृक्षविहीन मैदानों-से मानवमस्तिष्क
इतनी बार मोड़े और तहाए जा चुके हैं
कि समा जाएँ एक मुट्ठी में भी

अप्रैल में एक अबाबील लौटती है
अपने पिछले बरस के घोंसले की तरफ
ठीक उसी छत के तले
ठीक उसी दाने-पानी तक
ठीक उसी कस्बे में

सुदूर दक्षिण अफ्रीका से वह उड़ती है
दो महाद्वीपों को पार करती
छह हफ्तों में
पहुँचने को
भूदृश्य में खोते हुए ठीक इसी बिन्दु तक

और आदमी जो इकट्ठा करता है
जीवन भर से आए संकेतों को पञ्चतारवाद्य साजिन्दों के
मामूली तारों में

वह जिसे मिल गई है एक नदी सुई की आँख में से गुज़ार पाने को
औरों से घिरा बैठा एक नौजवान आदमी है
उसके दोस्त पुकारते थे उसे `मशरूम` कहकर
जो चश्मा पहने ही सो जाता था
और हर सुबह नियम से खड़ा दिखाई देता था
अपनी लिखने की ऊँची मेज़ पर
जब उसने यह किया
कि अद्भुत अष्टपाद रेंगने लगे पन्ने पर

3
पाँच साज़ बजते हैं
गर्म लकड़ियों के बीच से मैं घर लौटता हूँ
जहाँ मेरे पाँवों के नीचे पृथ्वी किसी स्प्रिंग -सी महसूस होती है
गुड़ीमुड़ी किसी अजन्मे बच्चे-सी
नींद में
निर्भार लुढ़कती भविष्य की ओर
अचानक मैं जान जाता हूँ
कि पेड़-पौधे भी कुछ सोचते हैं

4
जिए हुए हर पल में हम कितना विश्वास रखें!
कि गिरे नहीं धरती से

चट्टानों से उल्टी लटकती बर्फ पर विश्वास रखें
विश्वास रखें अनकहे वादों पर
और समझौते की मुस्कानों पर
विश्वास रखें कि टेलीग्राम जो आया है उसका हमसे कोई सम्बन्ध नहीं
और यह भी कि हमारे अन्दर
कुल्हाड़ी के प्रहार-सा औंचक
कोई आघात नहीं लगा
गाड़ी के उस घूमनेवाले लोहे पर विश्वास रखें
जिस पर सवार हो
हम सफर करते हैं लोहे की तीन सौ गुना बड़ी मधुमिक्खयों के
झुंड के बीच
लेकिन यह सब उतना कीमती नहीं
जितना कि वह विश्वास जो हमारे पास है

पाँच तारों वाले साज कहते हैं
हम किसी और चीज़ को विश्वास में ले सकते हैं
और वे हमारे साथ सड़क पर घूमते हैं
और जब बिजली का बल्ब सीढ़ियों पर जाता है
और हाथ उसका अनुसरण करते हैं उस पर विश्वास करते हुए
रेल की पटरियों पर दौड़ती हाथगाड़ी की तरह
जो अंधेरे में अपनी राह तलाश लेती है

5
हम सब पियानो के स्टूल के गिर्द इकट्ठे हैं और बजा रहे है उसे
चार हाथों से आइने में देखकर
एक ही गाड़ी को चलाते दो ड्राइवरों की तरह
यह थोड़ा बेहूदा दीखता है
यह ऐसा दीखता है जैसे हमारे हाथ आवाज़ से बने भार को
एक दूसरे के बीच अदल-बदल रहे हों
इस तरह जैसे असली वजन को साधा जाता है
किसी बड़े तराजू का सन्तुलन बनाने को
हर्ष और विषाद का भार बिल्कुल एक-सा है
एनी ने कहा -`` यह संगीत एक शानदार गाथा है`
वह सही कहती है

लेकिन वे जो इसे बजाते हुए आदमी को देखते हैं
ईर्ष्या के साथ
और खुद की प्रशंसा करते हैं हत्यारा न बनने के लिए,
नहीं खोज पाते खुद को इस संगीत में
वे जो खरादोफरोख़्त करते हैं दूसरों की
और मानते हैं कि हर किसी को ख़रीदा जा सकता है धरती पर
ख़ुद को यहाँ नहीं पाते

यह उनका संगीत नहीं
वह लम्बी सुरीली धुन जो बच जाती है इसके सभी रूपाकारों के बीच
कभी चमकती तो कभी सौम्य
कभी रूखी और ताकतवर
घोंघे के चलने पर पीछे छूटी लकीर और लोहे के तार-सी

यह बेकाबू सी गुनगुनाहट सुनाई देती है
यह क्षण
जो हमारे साथ है
ऊपर को उठता किसी गहराई में।
_____________________________________________________________
शुबेर्तियाना - फ्रैंज़ शुबेर्त (1797-1828) द्वारा अविष्कृत संगीत। शुबेर्त एक आस्ट्रियन संगीतकार थे। सिर्फ 31 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया, लेकिन उनके 600 के लगभग गीतों ने उन्हें अपने वक़्त के महान संगीतकारों में शुमार करा दिया। उपर्युक्त कविता उन्हीं की संगीतरचनाओं पर एक रहस्यात्मक लेकिन ऐंद्रिक काव्यात्मक प्रतिक्रिया है।

Monday, April 6, 2009

सपनों भरी नींद अब भी एक सपना है - राग तेलंग

1
सपना

जिनका कोई सपना नहीं था
वे उम्र भर
दूसरों का सपना पूरा करने में लगे रहे

जिन्हें स्वप्न दिखाए गए
उनके पास
बित्ता भर ज़मीन भी नहीं थी
उन सपनों को टिकाने के वास्ते

स्वप्निल योजनाएं
जिनके नाम पर बनतीं
हकीकत में वे
उन्हें बरगलाने के काम आतीं

जिन आंखों को
दरकार थी पहले रोशनी की
उनसे ही
पूछा जाता
उनके हिस्से की धूप का पता

सपना इसलिए नहीं था
क्योंकि उन आंखों में
सदियों से नींद ही न थी

सपनों भरी नींद अब भी एक सपना है ।

2
टूटना-बनना

बनने के लिए टूटना
एक कारण है

टूटने के बाद बनना
एक सिद्धि

कुछ लोग जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं
कुछ लोग टूट जाते हैं
कुछ लोग बनते हैं फिर टूट जाते हैं
कुछ लोग टूटने के बाद बनते हैं

टूटने की प्रक्रिया को अपने लिए अपनाना होता है
यह अपनाना ही अपने को बनाने के लिए होता है

बनते रहने की ज़िद
हमेशा के लिए टूट जाने से बचाती है ।

3
धूप का दर्शन

मृत्यु का भय उस धूप को नहीं था
जो जीवन भर
हम सबकी अनंत इच्छाओं के गीले कपड़े सुखाती रही

न ही बताया
उतने पानी का भार
हिम्मत के उस तार ने
जिस पर सूखते थे वे कपड़े
जो होते पहले भारी
फिर उतारते वक़्त मिलते हल्के

इस तरह
हमारी गीली इच्छाओं का पानी
उड़कर पहुंचा उम्मीदों के बादल तक

हम सबने कुछ नहीं देखा
हमने सिर्फ इतना जाना
मृत्यु को एक दिन
शरीर में से होकर गुज़रने देना होगा

इसमें हर्ज ही क्या
अगर तब तक हम
अपने हिस्से की धूप का मज़ा ले लें ।

Sunday, April 5, 2009

टीकाराम पोखरियाल की वसन्तकथा

एक दिन पहले प्रिय कवि व्योमेश शुक्ल से हो रही एक निजी बातचीत में उसने कहा कि भइया आप वापस लौट जाइये उसी टीकाराम वाले छंद में ..... तब मुझे अपनी इस कविता का ख्याल आया। यह कविता नया ज्ञानोदय के बहुचर्चित युवा पीढी विशेषांक में छप चुकी है और मेरे संकलन "पृथ्वी पर एक जगह" में संकलित भी है। इस कविता को यहाँ लगाते हुए मेरा व्योमेश से यह कहना है कि भैये यहाँ लौटना मुझे अच्छा लगा - बीते दिन याद दिलाने का शुक्रिया !


टीकाराम पोखरियाल की वसन्तकथा

उस दूरस्थ पहाड़ी इलाके में कँपकँपाती सर्दियों के बाद
आते वसन्त में खुलते थे स्कूल
जब धरती पर साफ सुनाई दे जाती थी
क़ुदरत के क़दमों की आवाज़
गाँव-गाँव से उमड़ते आते
संगी
साथी
यार
सुदीर्घ शीतावकाश से उकताए
अपनी उसी छोटी-सी व्यस्त दुनिया को तलाशते

9 किलोमीटर दूर से आता था टीकाराम पोखरियाल

आया जब इस बार तो हर बार से अलग उसकी आँखों में
जैसे पहली बार जागने का प्रकाश था

सत्रह की उमर में
अपनी असम्भव-सी तीस वर्षीया प्रेयसी के वैभव में डूबा-डूबा
वह किसी और ही लोक की कहानियाँ लेकर आया था
हमारे खेलकूद
और स्थानीय स्तर पर दादागिरी स्थापित करने के उन थोड़े से
अनमोल दिनों में

यह हमारे संसार में सपनों की आमद थी
हमारी दुबली-पतली देहों में उफनती दूसरी किसी ज़्यादा मजबूत और पकी हुई देह के
हमलावर सपनों की आमद
घेरकर सुनते उसे हम जैसे आपे में नहीं थे

उन्हीं दिनों हममें से ज़्यादातर ने पहली बार घुटवाई थी
अपनी वह पहली-पहली सुकोमल
भूरी रोयेंदार दाढ़ी

बारहवीं में पढ़ता
हमारा पूरा गिरोह अचानक ही कतराने लगा था
बड़े-बुज़ुर्गों के राह में मिल जाने से
जब एक बेलगाम छिछोरेपन
और ढेर सारी खिलखिलाहट के बीच
जबरदस्ती ओढ़नी पड़ जाती थी विद्यार्थीनुमा गम्भीरता

सबसे ज़्यादा उपेक्षित थीं तो हमारी कक्षा की वे दो अनमोल लड़कियाँ
जिनके हाथों से अचानक ही निकल गया था
हमारी लालसाओं का वह ककड़ी-सा कच्चा आलम्बन
जिसके सहारे वे आतीं थीं हर रोज़
अपनी नई-नई खूबसूरत दुनिया पर सान चढ़ातीं

अब हमें उनमें कोई दिलचस्पी नहीं थी
टीका हमें दूसरी ही राह दिखाता था जो ज़्यादा प्रशस्त
और रोमांच से भरी थी
हम आकुल थे जानने को उस स्त्री के बारे में जो दिव्य थी
दुनियावी तिलिस्म से भरी
बहुत खुली हुई लगभग नग्न भाषा में भी रह जाता था
जिसके बारे में कुछ न कुछ अनबूझा - अनजाना

टीका के जीवन में पहली बार आया था वसन्त इतने सारे फूलों के साथ
और हम सब भी सुन सकते थे उसके इस आगमन की
उन्मादित पदचाप

लेकिन
अपने पूरे उभार तक आकर भी आने वाले मौसमों के लिए
धरती की भीतरी परतों में कुछ न कुछ सहेजकर
एक दिन उतर ही जाता है वसन्त

उस बरस भी वह उतरा
हमारे आगे एक नया आकाश खोलते हुए
जिसमें तैरते रुई जैसे सम्मोहक बादलों के पार
हमारे जीवन का सूर्य अपनी पूरी आग के साथ तमतमाता था
अब हमें उन्हीं धूप भरी राहों पर जाना था

टीका भी गया एक दिन ऐसे ही
उस उतरते वसन्त में
लैंसडाउन छावनी की भरती में अपनी क़िस्मत आजमाने
कड़क पहाड़ी हाथ-पाँव वाला वह नौजवान
लौटा एक अजीब-सी अपरिचित प्रौढ़ मुस्कान के साथ
हम सबमें सबसे पहले उसी ने विदा ली

उसकी वह वसन्तकथा मँडरायी कुछ समय तक
बाद के मौसमों पर भी
किसी रहस्यमय साए -सी फिर धूमिल होती गई
हम सोचने लगे
फिर से उन्हीं दो लड़कियों के बारे में
और सच कहें तो अब हमारे पास उतना भी वक़्त नहीं था
हम दाख़िल हो रहे थे एक के बाद एक
अपने जीवन की निजता में
छूट रहे थे हमारे गाँव
आगे की पढ़ाई-लिखाई के वास्ते हमें दूर-दूर तक जाना था
और कई तो टीका की ही तरह
फ़ौज में जाने को आतुर थे
यों हम दूर होते गए
आपस में खोज-ख़बर लेना भी धीरे-धीरे कम होता गया
अपने जीवन में पन्द्रह साल और जुड़ जाने के बाद
आज सोचता हूँ मैं
कि उस वसन्तकथा में हमने जो जाना वह तो हमारा पक्ष था
दरअसल वही तो हम जानना चाहते थे
उस समय और उस उमर में

हमने कभी नहीं जाना उस औरत का पक्ष जो हमारे लिए
एक नया संसार बनकर आयी थी

क्या टीकाराम पोखरियाल की वसन्तकथा का
कोई समानान्तर पक्ष भी था ?

उस औरत के वसन्त को किसने देखा ?
क्या वह कभी आया भी
उस परित्यक्ता के जीवन में
जो कुलटा कहलाती लौट आयी थी
अपने पुंसत्वहीन पति के घर से
देह की खोज में लगे बटमारों और घाघ कोतवालों से
किसी तरह बचते हुए उसने
खुद को
एक अनुभवहीन साफदिल किशोर के आगे
समर्पित किया

क्या टीका सचमुच उसके जीवन में पहला वसन्त था
जो टिक सका बस कुछ ही देर
पहाड़ी ढलानों पर लगातार फिसलते पाँवों-सा ?

पन्द्रह बरस बाद अभी गाँव जाने पर
जाना मैंने कि टीका ने बसाया हम सबकी ही तरह
अपना घरबार
बच्चे हुए चार
दो मर गए प्रसूति के दौरान
बचे हुए दो दस और बारह के हैं
कुछ ही समय में वह लौट आयेगा
पेंशन पर
फ़ौज में अपनी तयशुदा न्यूनतम सेवा के बाद
कहलायेगा
रिटायर्ड सूबेदार

वह स्त्री भी बाद तक रही टीका के गाँव में
कुछ साल उसने भी उसका बसता घरबार देखा
फिर चली गई दिल्ली
गाँव की किसी नवविवाहिता नौकरीपेशा वधू के साथ
चौका-बरतन-कपड़े निबटाने
उसका बसता घरबार निभाने

यह क्या कर रहा हूँ मैं ?
अपराध है भंग करना उस परम गोपनीयता को
जिसकी कसम टीका ने हम सबसे उस कथा को कहने से पहले ली थी
उससे भी ली थी उसकी प्रेयसी ने पर वह निभा नहीं पाया
और न मैं

इस नई सहस्त्राब्दी और नए समय के पतझड़ में करता हूँ याद
पन्द्रह बरस पुराना जीवन की पहली हरी कोंपलों वाला
वह छोटा-सा वसन्तकाल
जिसमें उतना ही छोटा वह सहजीवन टीका और उसकी दुस्साहसी प्रेयसी का
आपस में बाँटता कुछ दुर्लभ और आदिम पल
उसी प्रेम के
जिसके बारे में अभी पढ़ा अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवाल का
यह कथन कि "वह तुझे खुश और तबाह करेगा! "

स्मृतियों के कोलाहल में घिरा लगभग बुदबुदाते हुए
मैं बस इतना ही कहूँगा
बड़े भाई !
जीवन अगर फला तो इसी तबाही के बीच ही कहीं फलेगा !
2006


LinkWithin

Related Posts with Thumbnails